सोमवार, 26 सितंबर 2011

तेरी लाडो मुन्नी मेरी...


दर ओ दीवार कभी बनते हैं घरों से सजते हैं,
रहा करे सुपुर्द ए खाक़ मेरी बसुली, कन्नी मेरी।

दरिया ए दौलत में उसे सूकूं के पानी की तलाश,
तर बतर करती बूंद ए ओस सी चवन्नी मेरी।

तू सही है गलत मैं भी नहीं ना कोई झगड़ा है,
वो आसमां उक़ूबत का ये घर की धन्नी मेरी।

मेरी गुलाटियों औ मसखरी को मजबूरी न समझ,
उछाल रुपये सा न मार ग़म की अठन्नी मेरी।

रगों में इसकी खून मेरा तो हो दूध तेरा भी,
सर ए दुनिया रहे चमके तेरी लाडो मुन्नी मेरी।

© पंकज शुक्ल। 2011।

15 टिप्‍पणियां:

  1. :) वैसे तो तारीफ हर किसी की मुस्कुराहट देती है, पर तारीफ जौहरी करे तो थोड़ा इतराने हीरा भी लगता है। धन्यवाद डॉक्टर साहिबा।

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  2. पंकज सर,

    बहुत खूब लिखा है आपने.

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  3. बहुत बहुत शुक्रिया ब्रजमोहन भाई..

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  4. आभार वंदना जी आपकी हौसला अफजाई का। तेताला का ख़ासतौर से धन्यवाद।

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  5. दरिया ए दौलत में उसे सूकूं के पानी की तलाश,
    तर बतर करती बूंद ए ओस सी चवन्नी मेरी।
    bahut khoobsoorat panktiyan hai sir.adbhud.

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  6. सदा जी..बहुत बहुत शुक्रिया।

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  7. हेमंत मिश्रा - धन्यवाद मिश्रा जी। आपके संदेश मिलते रहते हैं। जल्दी ही आपसे बात करता हूं। ईश्वर आपको स्वस्थ, सानंद व सदमार्ग पर रखे।

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  8. संगीत जी- शुक्रिया, अरसे बाद आपकी दाद मिली। बहुत अच्छा लगा। :)

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  9. नीरज गोस्वामी- आपकी कसौटी पर खरा निकला तो चमकना सुफल रहा नीरज जी। काफिया, रदीफ़ और बहर का ज्यादा ज्ञान तो नहीं है लेकिन कोशिश जारी है।

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  10. मेरी गुलाटियों औ मसखरी को मजबूरी न समझ,
    उछाल रुपये सा न मार ग़म की अठन्नी मेरी।

    बहुत जबरदस्त प्रस्तुति. बधाई.

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  11. धन्यवाद रचना जी। आपकी तारीफ मेरा हौसला बढ़ाती है।

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  12. दरिया ए दौलत में उसे सूकूं के पानी की तलाश,
    तर बतर करती बूंद ए ओस सी चवन्नी मेरी।
    bahut khub shukla ji wakai dilko chhugai apki ye pankati

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