रविवार, 2 अक्तूबर 2011

हौसले, हिम्मत और मोहब्बत की निशानी


किला जाधवगढ़

इतिहास सिर्फ वही नहीं जो हम किताबों में पढ़ते हैं। इतिहास वो भी है जिसकी जानकारी हमें दुर्गम इलाकों में मौजूद अतीत की निशानियों तक पहुंचकर मिलती है। बाजीराव मस्तानी की प्रेम गाथा भी महाराष्ट्र के एक ऐसे किले के करीब आज भी गुनगुनाई जाती है, जिसके बारे में तमाम घुमंतुओं को भी कम ही मालूम है।


जिन लोगों को ऐतिहासिक पृष्ठभूमि पर बने सिनेमा में खास रुचि रहती है, उनको भी और जिन्हें लोकप्रिय सितारों के साथ बनने वाली फिल्मों में दिलचस्पी रहती है, उनको भी याद होगा फिल्म निर्देशक संजय लीला भंसाली का वो ऐलान, जो उन्होंने अपनी सुपर हिट फिल्म हम दिल दे चुके सनम के ठीक बाद किया था। संजय तब बाजीराव पेशवा और मस्तानी नाम की एक राजकुमारी की प्रेमकथा पर फिल्म बनाना चाहते थे, इसके लिए सलमान खान के साथ पहले ऐश्वर्या राय और फिर करीना कपूर को लेने की बात भी चली थी पर किन्हीं वजहों से ये फिल्म शुरू नहीं हो सकी। फिल्मों में मेरी रुचि तो शुरू से रही है, पर देशाटन के दौरान कम ज्ञात जगहों को लेकर भी मेरा विशेष आग्रह रहता है। लिहाजा इस बार मुंबई की चिल्लपों से दूर प्रकृति के वीराने में दिवे घाटी की गोद में इतिहास के एक अहम पन्नो की दास्तां खुद में समेटे जाधवगढ़ किले को घूमने का मौका मिला तो ना जाने कैसे बाजीराव-मस्तानी की प्रेम कहानी अपने आप याद आ गई। जी हां, पुणे से कोई 25 किमी दूरी पर स्थित जाध्ावगढ़ के किले के पास ही है वो मस्तानी झील, जहां मोहब्बत के कुछ हसीन लम्हे इन दोनों ने बिताए। जमाने के दस्तूरों को झकझोरा और पूरे किए अपने वो अरमान जिन पर उन दिनों तमाम तरह के पहरे रहा करते थे।
खुद महाराष्ट्र में बरसों से रहने वालों को भी जाध्ावगढ़ किले के बारे में ज्यादा जानकारी नहीं है। मुंबई से सड़क रास्ते से पांच घंटे और पुणे से करीब 40 मिनट की दूरी पर है इतिहास की ये अनोखी विरासत। पिलाजी जाधवराव द्वारा 1710 में बनवाया गया ये किला महाराष्ट्र ही नहीं बल्कि देश के उन किलों में सबसे आगे गिना जाता है, जिन्हें हेरिटेज होटल में तब्दील करने की महात्वाकांक्षी योजना पर काम चल रहा है। पुराने पुणे-सतारा मार्ग पर पुणे से 22 किमी आगे समुद्र तल से करीब ढाई हजार फिट की ऊंचाई पर छोटी छोटी पहाड़ियों के बीच कोई 25 एकड़ समतल जमीन पर बना है ये खूबसूरत किला। महाराष्ट्र की मशहूर मराठा वास्तुशिल्प के इस अद्बभुत नमूने में वो सब कुछ है जो आपका मन मोह लेता है। छत्रपति शाहू जी की सेना के मराठा जनरल पिलाजी जाधवराव के नाम पर ही इस इलाके का नाम पड़ा है जाध्ाववाड़ी। पहाड़ से निकाले गए पत्थरों को तराश कर बनाए गए इस किले की मजबूती और इसकी अभेद्य सुरक्षा व्यवस्था यहां पहुंचकर की समझी जा सकती है।
इतिहास के झरोखे से
शाहजहां द्वारा बंदी बनाए गए छत्रपति शिवाजी के पोते शाहू जी 1707 में इक्कीस साल बाद जेल से रिहा हुए। मराठवाड़ा के लिए वो वक्त मुसीबतों का था। इलाके पर तब भी मुगलों का कब्जा था लेकिन औरगंजेब की मौत के साथ ही इनके पैर भी इस इलाके से उखड़ने लगे थे। मराठों के बीच शिवाजी के दूसरे बेटे राजाराम की विध्ावा रानी ताराबाई की सत्ताशीन होने को लेकर मतभेद लगातार कायम थे। शाहू जी ने सारे हालात को देख समझ कर एक समग्र योजना बनाई, जिसका अंतिम उद्देश्य था इस इलाके में मराठों की संप्रभुता फिर से कायम करना। आम इंसानों के बीच से हुनरमंदों को पहचानने की जबर्दस्त काबिलियत रखने वाले शाहू जी ने अपने विश्वासपात्र लोगों का एक खास जत्था तैयार किया। इन लोगों को शाहू जी ने पूरे इलाके में फैल जाने का निर्देश दिया और सबको अपने जैसे ही तमाम लोगों को अपने साथ जोड़कर एक ऐसी फौज तैयार के काम में जुट जाने को कहा, जो किसी भी हमले का मुकाबला करने में सक्षम हो। शाहू जी के इसी खास दस्ते में सबसे अहम शख्स थे पिलाजी जाध्ावराव। जाध्ाववाड़ी और सासवड इलाके के चुनिंदा जांबाजों को इकट्ठा कर पिलाजी ने लड़ाकू दस्ते तैयार किए। पिलाजी की तलवारबाजी के किस्से अब भी इलाके की लोककथाओं और लोक गीतों में सुने जा सकते हैं। पिलाजी और उनके जैसे कुछ अन्य जांबाजों की मदद से ही आखिरकार शाहू जी फिर से राजगद्दी पर बैठे और अपने वफादार पेशवाओं की मदद से इलाके पर राज किया।
जाधवगढ़ किले की खासियत
पिलाजी जाधवराव ने पेशवाओं की तीन पीढ़ियों और मराठों की लंबे समय तक सेवा करने के बाद 1784 में आखिरी सांस ली थी। जाध्ावगढ़ किला अब भी उनकी दूरदृष्टि और युद्धकौशल रणनीति की कहानियां सुनाता है। दूर दूर तक खुले मैदान के बीच बने इस किले के मुख्यद्वार तक पहुंचने का रास्ता घुमावदार है। किले के मुख्यद्वार तक पहुंचने के लिए बनी सीढ़ियां भी यू टर्न लेकर ऊपर तक पहुंचती है, मतलब कि दुश्मन की किसी भी टुकड़ी को किले के दरवाजे पर पहुंचने से पहले हर मोड़ पर मुकाबले के लिए तैयार मराठा सैनिकों से लोहा लेना होता था। ये किला दुश्मन के हमले से बचने के लिए तो बेजोड़ था ही, आरामतलबी के भी इसमें पूरे इंतजाम हैं। अनाज रखने के लिए बनी बड़ी सी बखारी और विपत्ति के समय बच निकलने के लिए गर्भतल में बनी लंबी सुरंग अब भी मौजूद है। किले की चौड़ी बाहरी दीवारों और परकोटे के बीच महिलाओं के रहने के लिए अलग से इंतजाम किया गया है।
इसी भीतरी इलाके में बरसात का पानी इकट्ठा करने के लिए एक बावड़ी भी बनी थी, जिसे अब स्वीमिंग पूल में तब्दील कर दिया गया है। 300 साल पहले बने किले में वाटर हार्वेस्टिंग की इतनी पुरानी व्यवस्था अचरज में डाल देती है। किले की भीतरी बनावट भी कम हैरान कर देने वाली नहीं है। राजपूताना महलों के विपरीत इस किले में कहीं भी किसी तरह की शौकीनमिजाजी के प्रमाण नहीं मिलते। ना दीवारों पर कहीं कोई नक्काशी, ना घुमावदार मेहराब और ना ही कहीं तड़क भड़क वाली चीजें। हां, मुख्य प्रवेश द्वार पर लगी नुकीले भाले और दरवाजे से भीतर घुसते ही दाहिनी तरफ हाथियों को भोजन खिलाने के लिए रखी शिला जरूर किले को अलग आभा प्रदान करती है। किला होटल में भले तब्दील हो गया हो, पर इसके मुख्य कर्ताधर्ता को अब भी कहा किलेदार ही जाता है। किले के परिसर में एक तीन सौ साल पुराना गणेश मंदिर भी है, जिसमें पूजा अर्जना का क्रम लगातार चलता रहता है। पिलाजी के वंशजों की शादियां आज भी इसी मंदिर में ही होती हैं।
बाजीराव-मस्तानी की अमर कहानी
जाधवगढ़ किले के पास ही है मशहूर दिवे घाट, जहां देश विदेश के उन सैलानियों का जमावड़ा लगता रहा है जिन्हें पर्वतारोहण में खास रुचि है। और इसी देवे घाट में स्थित है मस्तानी झील। घाटी की गहराइयों को नापती इस झील के बारे में कहा जाता है कि यही वो जगह है जहां बाजीराव पेशवा अपनी प्रेमिका मस्तानी से मिला करते थे। बाजीराव का पूरा नाम बाजीराव बालाजी भट्ट था। ब्राह्णण होने के बावजूद उन्होंने मराठा साम्राज्य के चौथे छत्रपति शाहू जी की सेनाओं का नेतृत्व किया। बाजीराव को उत्तर में मराठा साम्राज्य के विस्तार का श्रेय दिया जाता है। उनकी शादी काशी बाई से हुई। काशी बाई से उनके दो बेटे हुए जिनमें से एक नाना साहब को शाहू जी ने 1740 में अपना पेशवा नियुक्त किया। बाजीराव की दूसीर शादी मस्तानी से हुई और उनसे हुए बेटे कृष्णराव को उस समय के ब्राह्णण समुदाय ने अपनाने से अस्वीकार कर दिया। बाद में इसकी परवरिश शमशेर बहादुर के तौर पर हुई। 1761 की पानीपत की लड़ाई में शमशेर बहादुर 27 साल की उम्र में मराठों की तरफ से लड़ते हुए शहीद हो गया। मस्तानी दरअसल पन्नाा के महाराजा छत्रसाल की मुस्लिम पत्नी से हुई बेटी थी। बाजीराव और मस्तानी के पोते अली बहादुर ने बाद में अरसे तक बुंदेलखंड में बाजीराव की मिल्कियत की देखरेख की और उसी ने उत्तर प्रदेश की बांदा रियासत की नींव रखी।

© पंकज शुक्ल। 2011

6 टिप्‍पणियां:

  1. सर बहोत खूब... एक इतिहास की बात इतिहास के शिल्प में बुन के बहोत बहरीन तरीके से प्रस्तुत किया है आपने..... मज़ा आ गया... कमाल की बात इस पूरे वृत्तान्त में भाषा और शिल्प इतिहास के उस घटनाक्रम से सफलता पूर्वक मजबूती से बांधे रखती है ...... ये भाषा और शिल्प किसी भी सधे इतिहासकार को भी उतना ही लुभाएगी जितना एक आम आदमी को..... एक बार फिर से आपको बधाई....

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  2. सर बहोत खूब... एक इतिहास की बात इतिहास के शिल्प में बुन के बहोत बहरीन तरीके से प्रस्तुत किया है आपने..... मज़ा आ गया... कमाल की बात इस पूरे वृत्तान्त में भाषा और शिल्प इतिहास के उस घटनाक्रम से सफलता पूर्वक मजबूती से बांधे रखती है ...... ये भाषा और शिल्प किसी भी सधे इतिहासकार को भी उतना ही लुभाएगी जितना एक आम आदमी को..... एक बार फिर से आपको बधाई....

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  3. पंकज जी काफी रोचक व एतिहासिक जानकारी है वैसे मुंबई जाने का कई बार मोका मिला है मगर इस किले तक कभी जाना नहीं हुआ..

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  4. हरिपाल जी..बहुत बहुत धन्यवाद।

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  5. भइया शमशेर बहादुर पानीपत में शहीद हुए थे। उनके बारे में कुछ और जानकारी मिल सकती है क्या और कहां से

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