किसी की मुस्कुराहटों पे हो निसार, किसी का दर्द मिल सके तो ले उधार, किसी के वास्ते हो तेरे दिल में प्यार, जीना इसी का नाम है..! - शैलेंद्र (1959)
शुक्रवार, 23 सितंबर 2011
सलाम ए सितमगर..
लो आ गया वो फिर से उसी शहर उन्हीं गलियों में,
नसीब उसका, रिवायत वही राह ए गुजर बनने की।
ना कर वादे, वादों पे नहीं अब और ऐतबार उसे,
मर चुकी ख्वाहिश भी हमराह ए सफर बनने की।
अपने शागिर्द की उस्तादी का भरम वो तोड़ चला,
हो के रुसवा बढ़ी चाहत यूं रूह ए इतर बनने की।
उसका एहतराम वो संगदिल भी थोड़ा सनकी भी,
हो के बेगैरत पड़ी आदत ज़िक्र ए फिक़र बनने की।
उसने परखा परखने में कोई अपना नहीं निकला,
मुए की आदत थी मुई लख़्त ए जिगर बनने की।
© पंकज शुक्ल। 2011।
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बहुत सुन्दर प्रस्तुति।
जवाब देंहटाएंबहुत बहुत शुक्रिया वंदना जी..
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