सितमगर को मालूम, है खा़क़ ए मंज़िल मकां,
ये मेला कब्र का, यूं साज ओ सामां क्यूं है।
अज़ल का ख़ौफ़, है पैबस्त ए पेशानी शिक़न,
सफर ये सब्र का, यूं ज़ुल्म ओ दामां क्यूं है।
ज़फ़ा की जुस्तजू, शिद्दत से पुर ओ इमां से,
यही तरीक़ अजल से, यूं ग़म ए गिरेबां क्यूं है।
नहीं मैं दूर, ना तुझसे ना इस ज़माने से,
ये वक्त ए इद्दत है, यूं शाम ए परेशां क्यूं है।
ये तेरा दामन, रंगेगा और अभी छीटों से,
तू है शैदाई, यूं सहर ए तमाशा क्यूं है।
अज़ल-मौत। पैबस्त-समाया। पेशानी-माथा। अजल- क़यामत का पहला दिन। इद्दत- तलाक़ के बाद पुनर्विवाह से पहले की न्यूनतम मियाद। सहर- सुबह।
© पंकज शुक्ल। 2011।
चित्र सौजन्य- फिल्म 'प्यासा'
kya khub kh daala hai jnaab ne ..akhtar khan akela kota rajsthan
जवाब देंहटाएंशुक्रिया..अख़्तर भाई।
जवाब देंहटाएंये तेरा दामन, रंगेगा और अभी छीटों से,
जवाब देंहटाएंतू है शैदाई, यूं सहर ए तमाशा क्यूं है।
क्या बात ....!!
शुक्रिया हीर जी..।
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