हिंदी को लेकर छोटे शहरों में अब भी चेतना है। मेट्रो शहरों में भले अब हिंदी पर ज्यादा काम न हो रहा हो, पर शहरी कोलाहल से जो भी दूर है वह हिंदी से जुड़ा हुआ है। हिंदी को लेकर मेरी चिंता पूछी जाए तो वह इसकी लिपि को लेकर है। देवनागरी बहुत ही सरल और आत्मीय लिपि है, पर लोग इसे भूलते जा रहे हैं। इसे बाजार का दबाव कह कर भुला देना ठीक नहीं होगा क्योंकि किसी भी भाषा की पहचान उसकी लिपि से ही होती है। हिंदी को रोमन में लिखे जाने की प्रवृत्ति न सिर्फ गलत है बल्कि इसके विकास और प्रचार प्रसार में बाधक भी बनती जा रही है। इसके लिए जिम्मेदारी किसकी बनती है, इस पर बात करने की बजाय बहस इस बात पर हो सकती है कि इससे निजात कैसे पाई जाए।
"मैं बाबूजी की लिखी सारी रचनाओं को एक जगह एकत्र करने और उनसे जुड़ी स्मृतियों को उनके प्रशंसकों को समर्पित करने के लिए एक योजना पर काम कर रहा हूं। मेरी मनोकामना है कि मैं इलाहाबाद में बाबू जी के नाम पर एक स्मृति भवन बनवाऊं पर ये काम कब पूरा होगा मैं कह नहीं सकता।"
जाहिर है कि पहल उन लोगों को ही करनी चाहिए जिनके लिए हिंदी रोमन में लिखी जाती है। कंप्यूटर के आने के बाद हम लोग वैसे ही लिखना भूलते जा रहे हैं। अब तो हस्ताक्षर करते वक्त तक दिक्कत महसूस होती है। ऐसे में किसी भाषा की लिपि के संवर्धन में तकनीक का भी प्रयोग हो सकता है। मैं खुद भी अपने ब्लॉग या टि्वटर पर यदा कदा हिंदी को देवनागरी में ही लिखने की कोशिश करता हूं। मेरा मानना है कि अभ्यास करने से ये काम भी मुश्किल नहीं है।
भारत में पैदा हुए या भारत से संबंध रखने वाले विदेश में बसे लोगों में हिंदी को लेकर अब भी अकुलाहट देखी जाती है। वह हिंदी को अपने देश से जोड़े रखने का सेतु मानते हैं। अपने बाबूजी (डॉ. हरिवंश राय बच्चन) की कविताओं का पाठ करने जब मैं पिछले साल विदेश दौरे पर गया था, तो मेरे मन में यही आशंका थी कि हिंदी के प्रति लोगों का रुझान होगा भी कि नहीं। लेकिन श्रोताओं में भारतीयों के अलावा बड़ी संख्या वे विदेशी भी आए जिन्हें भारतीय परंपराओं और संस्कृति के बारे में जानने की ललक रहती है। हिंदी जोड़ने वाली भाषा है और इसको समृद्ध बनाने की जिम्मेदारी हम सबकी है। मैं अपनी तरफ से बस इतना प्रयास करता हूं कि हिंदी में जो कुछ मेरे सामने आए वो देवनागरी में ही लिखा हो। रोमन में लिखी गई हिंदी मुझे कतई पसंद नहीं है, जिस भाषा की जो लिपि है, उसे उसी में पढ़ना रुचिकर होता है। बाजार भी धीरे धीरे ही सही पर इसे समझ रहा है।
"पहल उन लोगों को ही करनी चाहिए जिनके लिए हिंदी रोमन में लिखी जाती है। कंप्यूटर के आने के बाद हम लोग वैसे ही लिखना भूलते जा रहे हैं। अब तो हस्ताक्षर करते वक्त तक दिक्कत महसूस होती है। ऐसे में किसी भाषा की लिपि के संवर्धन में तकनीक का भी प्रयोग हो सकता है। मैं खुद भी अपने ब्लॉग या टि्वटर पर यदा कदा हिंदी को देवनागरी में ही लिखने की कोशिश करता हूं।"
हिंदी के विकास इसमें लिखे गए साहित्य को सर्वसुलभ बनाने से ही होगा। मैं बाबूजी की लिखी सारी रचनाओं को एक जगह एकत्र करने और उनसे जुड़ी स्मृतियों को उनके प्रशंसकों को समर्पित करने के लिए एक योजना पर काम कर रहा हूं। मेरी मनोकामना है कि मैं इलाहाबाद में बाबू जी के नाम पर एक स्मृति भवन बनवाऊं पर ये काम कब पूरा होगा मैं कह नहीं सकता। इसके लिए हमें स्थानीय प्रशासन का सहयोग चाहिए होगा और इसके लिए प्रशासन में भी ऐसे प्रयासों के प्रति समर्पण की प्रथम आवश्यकता होती है।
प्रस्तुति-पंकज शुक्ल
अभिताभ बच्चन से हिन्दी के भविष्य को लेकर आपकी बातचीत काफी सार्थक है और हम सबको विश्वास है कि एक दिन हिन्दी को उसका वह सम्मान मिलेगा जिसकी वह हकदार है। हिन्दी कहें तो वह मां है जिसे उसके पुत्रों ने ही उस सम्मान से वंचित कर रखा है जिसे पाने का वह अधिकार रखती है। हिन्दी दिवस के अवसर पर आपको हमारा शत-शत बार नमन। हिन्दी पत्रकारिता को आप जैसे लोगों की ही जरूरत है जो बेझिझक हिन्दी में अपनी बात को देश के सामने रखे जिस पर देश का हर आम व्यक्ति अपनी राय दे सके। जय हो हिन्दी और हिन्दी दिवस। वरना हिन्दी दिवस, हिन्दू धर्म की आस्थाओं के मुताबिक पूर्वजों की याद में, पितृपक्ष में (उल्लेखनीय है कि बिहार के दक्षिणी भाग में, गया जिले में करोड़ों की संख्या में हिन्दू धर्म के अनुयायी प्रत्येक वर्ष अपने पितरों को पिंडदान करते हैं। ऐसी मान्यता है कि रामायण काल में श्री रामचंद्र जी मां सीता, लक्ष्मण के साथ श्री लंका से रावण वध के बाद वापसी पर अपने पितरों को गया में ही पिंडदान दिया था तभी से यह प्रथा चली आ रही है)प्रत्येक वर्ष आयोजित किए जाने वाले धार्मिक कर्मकांड की तरह ही बन कर रह गया है। प्रत्येक वर्ष 14 सितंबर को हिन्दी दिवस पर हमारे देश के स्वनामधन्य नेता टाइप लोग हिन्दी पखवाड़ा का आयोजन करते हैं और अपने बच्चों का दाखिला अंग्रेजी माध्यम के पब्लिक स्कूलों में कराते हैं। सरकार द्वारा जारी भेदभाव का खुलासा डीएवीपी की रिपोर्ट में भी होती है। इस रिपोर्ट के अनुसार, सरकारी विज्ञान अंग्रेजी समाचारपत्रों/पत्रिकाओं/ प्रकाशनों को एक वर्ग सेंटीमीटर के लिए लाखों रुपये का भुगतान करती है वहीं भाषायी प्रकाशनों को सैकड़ों/हजारों रुपये का भुगतान करती हैं। अंग्रेजी भाषाओं के प्रकाशनों को जिस तरह से सरकारी विज्ञापन जारी किए जाते हैं अगर उसी दर पर भारतीय भाषाओं को विज्ञापन मिले तो कोई कारण नहीं कि भारतीय भाषाओं के प्रकाशक इनसे प्रतिस्पर्धा नहीं कर सके और आगे ना निकले। लेकिन यह हमारे देश का दुर्भाग्य है कि हिन्दी को पल-पल छला जाता है। फिर भी हिन्दी दिवस के अवसर पर एक बार सभी देशवासियों को हमारा शत-शत बार नमन।
जवाब देंहटाएंगैरतलब है कि संविधान सभा द्वारा 14 सितंबर, 1949 को सर्वसम्मति से हिंदी को संघ की राजभाषा घोषित किया गया था। तब से केंद्र सरकार के देश-विदेश स्थित सभी कार्यालयों में हर साल 14 सितंबर हिंदी दिवस के रूप में मनाया जाता है......
हिंदी दिवस पर हिन्दी के भविष्य को लेकर आपकी चिंता और प्रस्तुति सराहनीय है. जहाँ तक मुझे लगता है कि जिस तरह कंप्यूटर का बाज़ार भारत में बढ़ रहा है वह दिन दूर नहीं कि जब कंप्यूटर और लैपटॉप में हिंदी लिपि का की बोर्ड भी आने लगेगा. पुन्ह हिंदी दिवस पर बधाइयाँ.
जवाब देंहटाएंधन्यवाद। रचना जी। आपको हिंदी दिवस की शुभकामनाएं।
जवाब देंहटाएंधन्यवाद। रचना जी। आपको हिंदी दिवस की शुभकामनाएं।
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