तुम चपल हो चंचला
हो,
मैं अधिक मधुमास सा,
चोंच भर सा प्रेम का
रस
दंभ क्यूं ब्रज रास
सा !
बिंब तुम प्रतिबिंब
तुम हो
मैं तनिक नटराज सा
रक्त की रजधार का सत
आरंभ यूं निज ताप का !
सत की डुबकी शांत
तुम हो
फैलना नवरास सा
दाग आंचल पर अमिट कर
सानंद सती संताप का!
देवता की देह तुम हो
या रज अधर सहवास का?
प्रेरणा के प्रेम
बनकर
किन्नर कुंवरि अभिसार
का!
सृष्टि का आश्चर्य
तुम हो
उतंग जल पाताल का
कृष्ण से जन्मांत
प्रेमी
स्वप्न के स्वर राज
का!
नववधू सा रूप तुम हो
निज नहीं कुछ पास का
चांद चंचल से चपल चर
श्वेतसम कौमार्य का!
तुम चपल हो चंचला
हो,
मैं अधिक मधुमास सा,
चोंच भर सा प्रेम का
रस
दंभ क्यूं ब्रज रास
सा !
पंशु 10102015
(Inspired from “The Virgin in White” by Ramya Vasishta)
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