शनिवार, 22 अक्तूबर 2016

अफसोस, तुम मेरे मित्र बन सके..।


सच्ची सच्ची तो तुमने 
सारी झूठी बातें कहीं,
कभी कसमों तो कभी 
वादों से रूठी बातें कहीं,



बेमेल सी सुलगती बुझती 
वो जगरातें कहीं,
कभी दिल से न निकलीं 
वो मुलाकातें कहीं,


ऐसा कैसे किया तुमने?
तुम तो राम के पड़ोसी थे,
कैवल्य की धरती के करीबी,
गो रक्ष पीठ के वासी थे,


लखन की धरती के लाल,
ये गोरखधंधा कहां पाया?
समंदर के पानी से भी खारा,
मंथरा सा संबल कहां पाया?




प्रण प्राण प्रतिष्ठा के ग्राहक,
वणिक को लजाते जगयाचक !

तुम ब्रह्ण न पा सके, 
चांद में भी न झलक सके,
सुदामा को तुमने लजाया,
चाणक्य भी न बन सके।

पर
अफसोस, तुम मेरे मित्र बन सके..।

- पंशु

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