सोमवार, 31 जनवरी 2011

रात इक ख्वाब सा खटका..


रात इक ख्वाब सा खटका इन आंखों में,
सहर के साथ ही क्यूं तू घर से निकली।

सुबह की धूप सी गरमी है तेरी सांसों में,
फिर कहीं दूर तू मुझसे बचके निकली।

गुजर न जाए ये लम्हा इसी उलझन में,
मेरे बालिस्त में क्यूं तेरी दुनिया निकली।

मेरे उसूल मेरी नीयत ही मेरा धोखा है,
तू कहीं दूर औ चाहत तेरी मुझसे निकली।

क्यूं रंगरेज हुआ मैं तेरी रंगत पाकर
मेरी हर जुंबिश में तेरी धड़कन निकली।

तेरे हुस्न की हसरत यूं पा ली मैंने
तेरे इनकार में भी अब हां ही निकली।

मेरी मदहोशी का ये असर है तुझ पर
सरे राह तू अब से तनकर निकली। (पं.शु.)


पेटिंग सौजन्य- संगीता रोशनी बाबानी

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