किसी की मुस्कुराहटों पे हो निसार, किसी का दर्द मिल सके तो ले उधार, किसी के वास्ते हो तेरे दिल में प्यार, जीना इसी का नाम है..! - शैलेंद्र (1959)
सोमवार, 31 जनवरी 2011
रात इक ख्वाब सा खटका..
रात इक ख्वाब सा खटका इन आंखों में,
सहर के साथ ही क्यूं तू घर से निकली।
सुबह की धूप सी गरमी है तेरी सांसों में,
फिर कहीं दूर तू मुझसे बचके निकली।
गुजर न जाए ये लम्हा इसी उलझन में,
मेरे बालिस्त में क्यूं तेरी दुनिया निकली।
मेरे उसूल मेरी नीयत ही मेरा धोखा है,
तू कहीं दूर औ चाहत तेरी मुझसे निकली।
क्यूं रंगरेज हुआ मैं तेरी रंगत पाकर
मेरी हर जुंबिश में तेरी धड़कन निकली।
तेरे हुस्न की हसरत यूं पा ली मैंने
तेरे इनकार में भी अब हां ही निकली।
मेरी मदहोशी का ये असर है तुझ पर
सरे राह तू अब से तनकर निकली। (पं.शु.)
पेटिंग सौजन्य- संगीता रोशनी बाबानी
लेबल:
ख्वाहिश,
पंकज शुक्ल,
पेंटिंग,
संगीता रोशनी बाबानी,
हिंदी ग़ज़ल
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Wow, this is totally amazing. I bet everyone who's been in love once, will relate to it. :)
जवाब देंहटाएं- Zenith
Thanks, Zenith. If it touches even a single chord of yours, the effort has found its worth. Thanks a ton.
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