किसी की मुस्कुराहटों पे हो निसार, किसी का दर्द मिल सके तो ले उधार, किसी के वास्ते हो तेरे दिल में प्यार, जीना इसी का नाम है..! - शैलेंद्र (1959)
शनिवार, 27 मार्च 2010
शनिवार, 20 मार्च 2010
किसने लिखा - "सरफरोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है.." ?
गुरुवार, 18 मार्च 2010
वो वजह पारसा उसकी..
(कौन हसरत मोहानी? - दूसरी कड़ी)
गुस्सा इस बात पर नहीं कि हसरत मोहानी जैसे शख्स को देश के इतिहासकारों और नेताओं ने भुला दिया, बल्कि अफसोस इस बात पर ज्यादा होता है कि कम्युनिस्ट पार्टी के देश में हुए पहले अधिवेशन का अध्यक्ष रहे इस शख्स पर पाकिस्तान ने डाक टिकट निकाला, लेकिन अपने ही देश में वो अब तक गुमनाम है। कांग्रेस में हसरत मोहानी की गांधी से नहीं निभी। मुस्लिम लीग में उनको जिन्ना की मज़हब के नाम पर मुल्क का बंटवारा करने की कोशिशें रास नहीं आईं। और कम्युनिस्ट पार्टी में उनको शायद गरीब बेसहारा लोगों के नाम पर की जा रही सियासत के खोखलेपन ने झकझोर दिया। तो क्या ऐसी ही हालत आज के सियासी माहौल की नहीं है? बड़ा हल्ला मचता है आजकल कि आज के युवा राजनीति में नहीं आ रहे। क्यों आएं वो राजनीति में? क्या हसरत मोहानी की तरह बस क़ागज़ के किसी पन्ने में बस एक नाम भर रह जाने के लिए। पच्चीस साल के भी नहीं हुए थे हसरत मोहानी जब वो पहली बार जेल गए। और इसी उम्र के लोगों को सियासत में अपना बगलगीर बनाने के लिए कांग्रेस के युवराज राहुल गांधी पूरा देश मथ रहे हैं। लेकिन, क्या उन्हें ख्याल है उन लोगों को जिन्होंने अपनी पूरी जवानी कांग्रेस पार्टी के नाम कर दी और कभी भी पार्टी के चंद नेताओं की चरणवंदना से आगे कभी नहीं बढ़ पाए।
ना हसरत के गांव मोहान में उनकी कोई निशानी है। ना अलीगढ़ के रसलगंज में, जबकि अलीगढ़ में ही हसरत मोहानी ने अपने दम खम रिसाला निकालकर अंग्रेजों से मुचैटा संभाला था। वो खुद ही लिखते और खुद ही पुरानी सी मशीन पर अखबार छापते। उस ज़माने में डेढ़ सौ रुपये महीना इनायत को हसरत मोहानी ने ठोकर मार दी थी। कॉलेज से भी निकाले गए लेकिन लोगों के दिलो दिमाग में वो घर बसाए रहे। और तो और उत्तर प्रदेश की जिस राजधानी में लगे पुतले गरीबों को मज़ाक उड़ाते नज़र आते हैं, उस शहर में भी हसरत मोहानी की कब्र तलाशने में पूरा एक दिन निकल गया। पुराने लखनऊ के बाग ए अनवार में उनकी कब्र के पास ही एक मज़ार पर भूतों और जिन्नात को भगाने का सिलसिला पूरे साल चलता है। पूरे मुल्क से लोग यहां आते हैं, लेकिन इनमें से भी किसी को नहीं मालूम कि इसी अहाते में एक ऐसा शख्स सोया है, जिसने अपने लेखों से अंग्रेजों की नींद हराम कर दी थी।
सादगी को सिरमौर बनाने वाले हसरत मोहानी हो सकता है कि आज के सियासी माहौल में भी फिट नहीं बैठते। क्योंकि वह पहले शख्स थे जो आज़ाद हिंदुस्तान में सांसदों को मिलने वाली खास सहूलियतों के खिलाफ़ सबसे पहले उठ खड़े हुए। तब तो खैर सांसदों को पचहत्तर रुपये ही भत्ता मिलता था। हमेशा रेलवे के तीसरे दर्जे में सफर करने वाले हसरत ने कभी सरकारी आवास तक का इस्तेमाल नहीं किया। अगर देश की नौजवान पीढ़ी को सियासत से जोड़ना है तो आज की सियासी पार्टियों को हसरत मोहानी जैसे लोगों को और करीब से जानने और समझने की ज़रूरत है। हसरत मोहानी जैसे नेताओं के बारे में नए सिरे से शोध की ज़रूरत है और तब शायद दूसरे नेताओं की बनिस्बत कम मशहूर आज़ादी के ऐसे अनोखे सिपाहियों के बारे में आज की पीढ़ी को भी कुछ जानने को मिलेगा और सियासत को मिलेंगे कुछ नए नायक। और तभी शायद पूरी हो सकेगी वो इबारत जो हसरत मोहानी ने बरसों पहले लिख दी थी - हज़ार खौफ़ हों पर ज़ुबां हो दिल की रफ़ीक़, यही रहा है अजल से कलंदरों का तरीक़।
फोटो परिचय: पुराने लखनऊ के बाग ए अनवार में मौलाना हसरत मोहानी की कब्र। पत्थर पर लिखे शेर का मजमून ये है -
जहान ए शौक में मातम बपा है मर्ग हसरत का।
वो वजह पारसा उसकी, वो इश्क़ पाक़बाज़ उसका।
मंगलवार, 16 मार्च 2010
कौन हसरत मोहानी?
कैसा लगेगा आपको अगर आप आज़ादी की लड़ाई में अपना सब कुछ स्वाहा कर देने वाले किसी गुमनाम से स्वतंत्रता सेनानी पर कोई फिल्म बनाने निकलें और उसके गांव पहुंच कर पहला सवाल ही आपका माथा खराब कर दे। जी हां, ये वाकया मेरे साथ अबकी हुआ उत्तर प्रदेश की राजधानी से कुछ ही दूर बसे गांव मोहान में। मैंने गांव की पुलिस चौकी के पास लगे मजमे में मौजूद लोगों से पूछा कि जनाब हसरत मोहानी का कोई पुश्तैनी मकान या फिर उनकी कोई यादगार यहां है क्या? जवाब में सवाल आया – कौन हसरत मोहानी? ये सवाल नहीं, इससे ज्यादा कुछ और है। जो नस्ल अपने ही पुरखों को भूल जाए और उनका नाम तक ना याद रख पाए, उसकी मौजूदा पुश्त से आगे क्या उम्मीद की जा सकती है। यही नहीं, मशहूर इतिहासकार एस पी सिंह से जब मैं इस मसले पर बात करने पहुंचा तो उन्होंने देश में इतिहास लेखन के मौजूदा हालात पर बड़ी नाउम्मीदी जताते हुए अफसोस किया कि उनके तीस साल के करियर में ये पहला मौका था जब कोई उनसे हसरत मोहानी पर बात करने आया। तो क्या भारत में इतिहास लेखन भी पूर्वाग्रहों और खास खेमों के इर्द गिर्द ही सिमटा रह गया? लगता तो यही है। जिस किसी भी शख्स ने आज़ादी की लड़ाई में कांग्रेस या कहें कि महात्मा गांधी की विचारधारा की मुख़ालिफ़त की, उसे ही दूध की मक्खी की तरह ना सिर्फ कांग्रेस से बल्कि इतिहास से भी बेदखल कर दिया गया। और, ऐसा आज भी हो रहा है।
समाज के बने बनाए आदर्श पुरुषों की तरफ दूसरे नजरिए से देखने की कोशिश कम ही होती है। आमतौर पर समाज पहले से बने बनाए मापदंडों को मानकर ही आने वाले कल की तैयारी में जुट जाता है, लेकिन देखा जाए तो दुनिया के बदलते राजनीतिक हालात और ख़ासकर अपने देश भारत में बदलती सामाजिक आर्थिक हालत के मद्देनज़र कुछ बातों पर फिर से गौर करना ज़रूरी है। पहला तो ये कि क्यों आखिर मुसलमान शब्द सुनते ही लोगों के जेहन में आतंकवाद ही कौंध जाता है। क्या ये तुरंत हुआ है, या फिर समाज में विद्वेष के बीज बोने की ये बरसों से चल आ रही सोची समझी रणनीति की कामयाबी है। क्या इस देश को आज़ाद कराने में मुसलमानों ने कोई योगदान नहीं किया? क्या इतिहास में सिर्फ जिन्ना ही हुए हैं, हसरत मोहानी नहीं। बहुत कम लोग जानते हैं कि मशहूर ग़ज़ल – चुपके चुपके रात दिन आंसू बहाना याद है – लिखने वाले हसरत मोहानी ही दरअसल देश में पूर्ण स्वराज्य की मांग करने वाले पहले सियासी नेता थे। तब तो मोहनदास करमचंद गांधी भी इसके पक्ष में नहीं थे। हसरत मोहानी ने ही पहले पहल स्वदेशी आंदोलन की नींव डाली और एक बार तो भयंकर जाड़े में भी अपने किसी रिश्तेदार के यहां पूरी रात ठिठुरते ठिठुरते इसलिए काट दी, कि उनको ओढ़ने के लिए रखे गए कंबल पर मेड इन इंग्लैंड लिखा था।
लाखों में एक होते हैं वो जो अपने वतन के लिए कुर्बान होने का जज़्बा रखते हैं, गिनती के थे वो जिन्होंने फ़ाकाकशी में भी अपने वतन की साख पर आंच नही आने दी। और बस हसरत ही हैं वो जो तिलक के शागिर्द बनकर बापू के लिए नज़ीर बन गए। मज़हब के नाम पर मुल्क के बंटवारे की आख़िरी दम तक मुख़ालिफ़त करने वाले हसरत मोहानी गरम दल के कांग्रेसी थे। मौलाना फज़लुर हसन ‘हसरत’ यानी हसरत मोहानी की शख्सीयत की तरफ गौर करना आज के माहौल में इसलिए भी ज़रूरी है कि अब कुछ ऐसी मिसालें लोगों के सामने लाना ज़रूरी हैं, जो इस देश की गंगा जमुनी तहज़ीब में दिखती दरारों को पाटने में मदद कर सकें। हज करने के लिए हिंदुस्तान से मक्का तक पैदल जाने वाले हसरत मोहानी को कान्हा में भी दिलचस्पी थी। लोगों ने भले उन पर कुफ़्र का इल्जाम लगाया हो, लेकिन भगवान कृष्ण की तस्वीर कभी उनसे अलग नहीं हुई। इनकी किताब जिहाद ए हसरत एक बार फिर बाज़ार में है, कौम के लोगों को ये बताने के लिए कि जिहाद का मतलब क्या है? और कैसे जिहाद के ज़िरए दो कौमों को एक करने के लिए हसरत मोहानी ने अपना सब कुछ नीलाम हो जाने दिया।
लेकिन, क्या वजह है कि हसरत मोहानी की यादों के निशान अब उनके अपने गांव में भी ज्यादा नहीं बचे हैं। इसके लिए कौन गुनहगार है। पार्कों और पत्थर के हाथी लगवाने पर करोड़ों रुपये स्वाहा करने वाली सरकार क्या इस शख्स के नाम पर एक स्मारक या एक सरकारी पुस्तकालय तक नहीं बनवा सकती, जहां उनका लिखा साहित्य शोध करने वालों को एक जगह मुहैया हो सके। और सूबे की सरकार ही क्यों दिल्ली की सरकारों ने भी तो आज तक इस पिछड़े ज़िले के सबसे चमकदार नेता की याद बचाए रखने के लिए कुछ नहीं किया। पिछले चुनाव से ठीक पहले हसरत मोहानी के नाम पर मुसलमानों की खेमेबंदी करने की एक कोशिश ज़रूर इस ज़िले में हुई, लेकिन चुनाव के बाद ऐसा कुछ नहीं किया गया कि लोग इस कोशिश की ईमानदारी पर शक़ न करते।
(जारी..)
शनिवार, 6 मार्च 2010
ताकि सनद रहे...
संकट में इतिहास ही सच्चा गाइड है...
हम जो हैं, हम जिस तरह के हैं और हम क्यों हैं, यही इतिहास है...
इतिहास के पन्नों से ही एक और पहेली। क्या आप जानते हैं कि वो कौन सा कांग्रेसी नेता है जिसने अमृतसर रेलवे स्टेशन पर अलग अलग घड़ों से हिंदुओं और मुसलमानों को पानी पिलाते देख अपना सफर वहीं रोक दिया और खुद खड़े होकर वे घड़े तुड़वाए? नहीं, ये महात्मा गांधी नहीं थे।
एक छोटा सा सवाल और। वो कौन सी शख्सीयत थी जिसने पहले पंडित मोती लाल नेहरू और फिर पंडित जवाहर लाल नेहरू के निजी सचिव के तौर पर काम किया?
आपका स्कोर क्या रहा? तीन में से दो या फिर तीन में से एक, या फिर.... J
अगर आप को इनमें से एक का भी जवाब पता है तो फिर आप बधाई के हक़दार हैं क्योंकि हिंदुस्तान की आज की नौजवान आबादी को तो इनमें से एक का भी जवाब ना तो पता है और ना ही किसी ने इन्हें ये बताने की कोशिश ही की। ये सब देश के महान स्वतंत्रता सेनानी थे और ये सब मुसलमान थे।
लेकिन...
लेकिन, क्या इनके बलिदानों और समर्पण को आधुनिक भारत में कोई पहचान मिली? क्या हमने ऐसा कुछ किया जो ना सिर्फ इनके लिए सच्ची श्रद्धांजलि हो, बल्कि देश की गंगा जमुनी तहज़ीब की सही तस्वीर पेश कर सके।
ग्लोबल न्यूज़ नेटवर्क की प्रस्तुति ताकि सनद रहे..., इन्हीं सवालों का जवाब है।
ताकि सनद रहे, अलग अलग डॉक्यूमेंट्रीज़ की एक ऐसी सीरीज़ है जिसमें देश की आज़ादी में हिस्सा लेने वाली चंद मशहूर और कुछ अनजान सी रह गईं मुस्लिम शख्सीयतों को आज की पीढ़ी के सामने दिलचस्प और रोचक अंदाज़ में पेश किया जाएगा।
इनमें से किसी ने मशहूर ग़ज़ल “चुपके चुपके रात दिन आंसू बहाना याद है..” लिखी तो कोई आगे चलकर बना युवक कांग्रेस का संस्थापक। ये वो लोग हैं जिन्होंने अपने पेशे और अपनी अच्छी खासी गृहस्थी को आग लगा दी सिर्फ इसलिए कि देश में आज़ादी का दीया जल सके। ये वो लोग हैं जिनसे हर हिंदुस्तानी और ख़ासकर अल्पसंख्यकों ने तिरंगे की आन बान और शान बढ़ाने की प्रेरणा ली और आज भी ले रहे हैं।
ताकि सनद रहे, एक उम्मीद है उन हज़ारों लाखों लोगों की, जिनको लगता है कि अल्पसंख्यक नेताओं की तरफ भारतीय मीडिया ने कभी ख़ास तवज्जो नहीं दी।
ताकि सनद रहे, ये बताने के लिए है कि “जो इतिहास को भूल जाते हैं, भविष्य उनको भूल जाता है।”