राजधानी दिल्ली में चल रहे पुस्तक मेले में जाने वालों को इस बार एक खास बात नज़र आई और वो है यहां बंट रहे हरे सफेद पर्चे। आमतौर पर पुस्तक मेले में अलग अलग प्रकाशकों के कारिंदे नुक्कड़ों और प्रवेश द्वारों पर पुस्तक सूचियां या फिर अपने स्टाल का पता बताने वाली सामग्री बांटते नज़र आते हैं, लेकिन इन हरे सफेद पर्चों की तरफ ध्यान इनके मजमून को लेकर जाता है। आम तौर पर मेलों में आने वाले पाठक या तो इन पर्चों को लेते ही नहीं है या फिर लेने के बाद अगले कदम पर पड़ने वाली डस्ट बिन के हवाले इन्हें कर देते हैं। लेकिन, इन पर्चों को ध्यान से पढ़ने की ज़रूरत है, कम से कम उन लोगों को जिनके निशाने पर इस्लाम है या फिर जो इस्लाम के नाम पर दूसरों को निशाने पर रखते हैं। मेले में सबसे ज़्यादा पर्चे बांटे जा रहे हैं वर्क यानी वर्ल्ड ऑर्गनाइजेशन ऑफ रिलीजन्स एण्ड नॉलिज चैरिटेबल ट्रस्ट नाम की संस्था की तरफ से। एक हरे पर्चे की आखिरी लाइन है, “हिंदू शब्द के मूल से चलने पर हम देखते हैं कि यह स्थान वाचक शब्द है और यदि संविधान में संशोधन कर प्रत्येक भारत निवासी को हिंदू कहा जाए तो कोई विरोधाभास नहीं होगा और भारतीय मुसलमान भी सनातन धर्मियों की आवाज़ में आवाज़ मिलाकर कह सकेंगे, गर्व से कहो हम हिंदू हैं।“
यह पर्चा मेले में “हिंदू कौन है?” शीर्षक के साथ बांटा जा रहा है। पर्चे में पहले तो हिंदू शब्द की उत्पत्ति और इसके एक धर्म होने के आधार पर सवाल उठाए गए हैं, लेकिन फिर बात पहुंच जाती है वहां, जहां से वंदे मारतम् का विरोध करने वालों के दावों की हवा निकलती दिखाई देती है। इसके मुताबिक इस्लाम के पहले ईशदूत का भारतीय होना इस्लाम का भारतीय मूल का धर्म सिद्ध करता है। इसके अलावा अंतिम ईशदूत हज़रत मुहम्मद को भारत की ओर से जन्नत की सुगंध आना, निश्चित रूप से भारत को विश्व के सभी मुसमलमानों की पुण्य भूमि करार देता है। हिंदुस्तान की तारीफ में आगे लिखा गया है कि हजरत मुहम्मद के जन्म के पूर्व से ही अरब निवासी हमारी सुंदर भूमि को हिंद कहते थे। अरब देशों में सुंदर स्त्रियों का नाम हिंदा रखा जाता था। बहुत हदीसों में हिंद शब्द भारत के लिए प्रयुक्त हुआ है। यह भी कहा गया है कि हिंद नाम अरबी मूल का है।
ऐसा ही एक और हरा पर्चा मेले में “मानवता का दूत” शीर्षक के साथ बांटा जा रहा है। लेकिन उसकी चर्चा से पहले मेले में बिक रही एक किताब “फ्रीडम ऑफ रिलीज़न एंड टॉलरेंस इन इस्लाम” का ज़िक्र ज़रूरी हो जाता है। ये किताब इस्लामिक आतंकवाद की जड़ पर चोट करती है। कुरान शरीफ की आयतों का ज़िक्र करते हुए ये किताब उन लोगों को संदेश देने की कोशिश करती है जो आतंक की राह पर चल चुके हैं। अमेरिका पर अपहृत विमानों के ज़रिए किए गए 9/11 के हमले की मुख़ालिफत करते हुए ये किताब कुरान शरीफ का हवाला देते हुए कहती है कि एक मुसलमान को अच्छा हमसफर और उतना ही अच्छा हमराही होना चाहिए। किसी भी मुसलमान को अपने सहयात्री को नुकसान पहुंचाना ग़लत है, बारूद से विमान को उड़ाना या फिर हवाई जहाज को ले जाकर टकरा देने जैसी बात तो किसी मुसलमान को सोचनी भी नहीं चाहिए। किताब के एक सफे पर यह भी लिखा है कि इस्लाम एक मुसलमान को गैर मुसलमानों के साथ भी शांति, सद्भाव और मित्रवत रहने की सीख देता है। इसमें अनजान पड़ोसी के साथ भी अच्छे व्यहार की बात कहते हुए इस अनजान पड़ोसी के साथ किसी भी तरह से यानी जाति, धर्म या देश के आधार पर भेदभाव को गलत ठहराया गया है।
बात यहीं तक रुकती नहीं है, ये किताब कुरान की उन आयतों का चुन चुन कर ज़िक्र करती है, जिन्हें आज के वक्त में इस्लाम को मानने वाले हर शख्स को पढ़ना और इन पर अलम करना ये किताब ज़रूरी मानती है। जिहाद पर इस किताब में खास तौर से अलग से चर्चा की गई है। कुरान शरीफ की आयतों का हवाला देते हुए इसमें कहा गया है कि जिहाद का पहला मतलब जंग नहीं है। फिर हदीस का उदाहरण देते हुए कहा गया है कि जिहाद का बेहतरीन उदाहरण है कायदे से किया गया हज़ और जिहाद का मतब है अपने आप से जंग खुद को एक नैतिक और आध्यात्मिक तौर पर एक बेहतर इंसान बनाने के लिए। यही नहीं मुसलमान के मायने को साफ करते हुए ये किताब कहती है –कि मुसलमान वो है जो गुस्से पर काबू करे और लोगों को माफ करे।
पिछले कई दिनों से इस किताब के खास हिस्सों को अलग से पन्नों पर छाप कर भी मेले में बांटा जा रहा है और दिलचस्प बात ये भी है कि इस बार मेले में इस्लामिक साहित्य के छोटे ही सही पर जगह जगह लगे स्टालों पर दूसरे धर्मों के लोगों की खासी भीड़ भी दिख रही है। कुरान शरीफ़ के देवनागरी में तर्जुमे और अंग्रेजी अनुवाद की अच्छी खासी बिक्री हो रही है। मायने साफ है कि लोग इस्लाम को नज़दीक से जानने की उत्सुकता लिए आते हैं और इसी बहाने कुछ लोग ही सही पर इस्लाम के दामन पर चंद फिरकापरस्तों की तरफ से लगाए जा रहे दाग को धोने की कोशिश कर रहे हैं। ये सफेद हरे पर्चे बताते हैं कि इस्लाम पर बार बार उठती उंगली से एक तबका खासा परेशान है, और ये तबका चाहता है कि आतंक के हर हमले के बाद उंगली आतंकवादियों पर ही उठे, इस्लाम पर नहीं।
इस्लाम की शुरुआती वक्त की तारीफ करते हुए एक दूसरा हरा पर्चा भी मेले में मिला। मक्का शहर में जन्मे एक अनाथ बच्चे की कहानी कहता हुआ ये पर्चा धीरे धीरे हजरत मुहम्मद की शोहरत तक आता है। पर्चा कहता है कि इस्लाम को मानने वालों की तादाद ज्यों ज्यों बढ़ती गई, जुल्म व सितम का खात्मा हो गया। आतंकवाद का नाम व निशान न रहा। लोग दुख व दर्द में एक दूसरे के काम आने लगे। अनाथों और बेवाओं का संरक्षण करना लोग अपना कर्तव्य समझने लगे। गरीबों के लिए अमीरों की आमदनी में से ढाई फीसदी का अनिवार्य दान निर्धारित हुए। ईश्वर के बाद सबसे ज्यादा मान सम्मान की हक़दार मां को बनाया गया। शराब और जुए की लानत जड़ से समाप्त हो गई। लड़की के जन्म को शुभ माना जाने लगा। स्त्रियों के लिए विरासत में हिस्सा नियुक्त हुआ। इंसानों ही नहीं पशुओं के भी अधिकार मुकर्रर हुए, बदला लेने के बजाए माफी की शिक्षा दी गई। इन लाइनों को ध्यान से पढ़ें तो ये सारी बातें वहीं हैं जो एक विकसित समाज के लिए ज़रूरी होती हैं और जिनके लिए भारत समेत कई दूसरे देशों में बाद की सरकारों ने कानून तक बनाए। मतलब ये कि इस्लाम को दकियानूसी और रूढ़वादी मानने वालों तक ये बात पहुंचाने की कोशिश की जा रही है कि इस्लाम भी उतना ही प्रोग्रेसिव है जितना कि दुनिया के दूसरे धर्म। इस्लाम को इस पर्चे में इतिहास का सबसे अद्भुत और शांतिपूर्ण इंकलाब भी बताया गया है। ध्यान देने की बात ये भी है कि ये सारे पर्चे या तो हिंदी या फिर अंग्रेजी में हैं। उर्दू लिपि में कहीं कोई पर्चा बंटना नज़र नहीं आता यानी कि ये बात भी करीब करीब साफ़ है कि ये पर्चे बांटे किनके लिए जा रहे हैं।
इस्लाम को लेकर दूसरे धर्मों के लोगों के बीच हमेशा से भ्रांतियां रही हैं। अंग्रेजी में एक नए शब्द इस्लामोफोबिया का चलन भी शुरु हुआ और गैर मुस्लिम पढ़े लिखे लोगों के बीच इस शब्द का इस्तेमाल आजकल धड़ल्ले से होता है। न्यूयॉर्क और लंदन से निकला ये शब्द हाल ही में हुए प्रवासी भारतीय दिवस में भी खूब सुनाई दिया। मुंबई फिल्म इंडस्ट्री में तो निर्देशक और लेखक सीना ठोंक कर कहते हैं कि उनकी फिल्म इस्लामोफोबिया पर बनी है। लेकिन, सोचने वाली बात ये है कि लोग इस्लाम से डरते हैं या फिर पाकिस्तान और अफगानिस्तान में छुपे बैठे उन दहशतगर्दों से जो अपने नापाक इरादों को जायज़ ठहराने के लिए इस्लाम का सहारा लेने लगते हैं। ये पर्चे अगर कुछ इशारा करते हैं तो यही कि अब इस्लाम को मानने वालों ने ही अपने बीच के इन चंद फिरकापरस्तों को अलग थलग करने की छोटी सी ही सही पर स्वागत योग्य पहल की है। कुरान शरीफ की आयतों के ज़रिए अगर इस्लाम के असली मकसद को सबके सामने लाया जाता है तो इसका खुले दिल से ख़ैरमकदम किया जा चाहिए। जैसा कि कुरान शरीफ़ भी कहती है – धर्म में ज़बर्दस्ती के लिए कोई जगह नहीं है। आमीन।Please read this article also in Nai Dunia newspaper by copying and pasting following Link in your browser:
http://www.naidunia.com/epapermain.aspx?queryed=9&eddate=2%2f6%2f2010
किस दुनिया में हैं जनाब, यह हिन्दुओं को मूर्ख बनाने की साजिश है और कुछ नहीं.
जवाब देंहटाएंek acchi pahel hai, lekin post lambi hai.
जवाब देंहटाएंभाई साहब आपने बहुत अच्छा लिखा, मेरे एक साथी ने खुश होकर आपके इस लेख की मुझे मोबाईल पर सूचना दी, आपका कहना ठीक है कि इन लोगों ने फिरकापरस्तों को अलग थलग करने की छोटी सी ही सही पर स्वागत योग्य पहल की है।
जवाब देंहटाएंमेरे दोस्त नये ब्लागर हैं और पूरी कोशिश कर रहे हैं कि अभी कमेंटस करना सीखकर तुरन्त ही आपको बधाई दें, मैंने अभी सरसरी देखा है, तो लगा सबसे पहले मैं ही बधाई दूं, धन्यवाद
बढिया जानकारी भरी पोस्ट है..धन्यवाद।
जवाब देंहटाएंपंकज जी प्रयास तो सराहनीय है लेकिन चेहरे की जगह आइने को धोने का प्रयास ज्यादा लगता है. मैं इनके प्रयास की निंदा या उसके महत्व को कमतर नहीं आंक रहा लेकिन यदि यही तबका जो पर्चे बाँट रहा है अपने भीतर बैठे उन लोगो का बहिष्कार करे जो इस्लाम के चेहरे को विकृत करते हैं, उन्हें सही राह पर लाये या कानून के हवाले करे तो शायद इन पर्चों की आवश्यकता ही नहीं रह जाएगी...........
जवाब देंहटाएंपहले तो आप सबसे माफी इस बात की कि मैं आपकी टिप्पणियों का आभार नहीं जता पाया। पिछले चार दिनों से यात्रा में था और डाटा कार्ड ने बीच रास्ते में दगा दे दिया।
जवाब देंहटाएंतारकेश्वर जी - दरअसल यह पोस्ट नई दुनिया के संपादकीय पेज के लिए लिखा गया आलेख है, शायद ब्लॉग पर इसे दो भागों में डालना चाहिए था। आपका सुझाव ठीक है।
परमजीत जी - आपकी टिप्पणी का दिल से शुक्रिया।
निशाचर जी और जो भी सज्जन खुद को भारतीय नागरिक कह रहे हैं- उनके विचारों का भी स्वागत है। विचारों का जब मंथन होता है तो अमृत और विष दोनों निकलता है - अब ये बंटवारे पर है कि किसको क्या मिलता है?
मोहम्मद उमर कैरानवी जी - भाई आपने पोस्ट के मर्म को समझा, इसके लिए आपका शुक्रिया। आगे भी आते रहिएगा।