बचपन में तो हमने उसे अक्सर देखा लेकिन अब वो कहीं नज़र नहीं आता। गांवों में भी अब वो कभी कभार ही दिखता है। लोगों ने उसे नाम दिया बहुरुपिया। पुराने मित्र और सहपाठी शरद मिश्र ने एक दिन यूं ही बातों बातों में बहुरुपिया का ज़िक्र छेड़ दिया। बात आगे बढ़ी तो उन्होंने बहुरुपिया पर एक छोटी सी कहानी भी सोच ली। ये कहानी कई दिनों की मेहनत के बाद अब परदे पर उतर चुकी है। इटली, रोम के फ्लोरेंस फिल्म फेस्टिवल तक ये फिल्म पहुंच चुकी है। इस शॉर्ट फिल्म के अलावा तीन और फिल्में भी मैंने और शरद मिश्र ने मिलकर बनाई हैं। इनमें से एक फिल्म सुश्री रंजना सिंह के ब्लॉग पर पोस्ट की गई एक कहानी पर भी है। ब्लॉग की दुनिया में ऐसा पहली बार हुआ है कि किसी ब्लॉगर की कहानी पर किसी ब्लॉगर ने ही फिल्म बनाई हो, उसकी चर्चा बाद में। आज पढ़िए कहानी - बहुरुपिया। कहानी की परिकल्पना शरद मिश्र की है और पटकथा मैंने लिखी है। ये कहानी मुंबई के फिल्म राइटर्स एसोसिएशन और इम्पा में पंजीकृत हो चुकी है। इस पर बनी शॉर्ट फिल्म में मुख्य भूमिकाएं की हैं संजीव सिंह, चंद्रानी बैद्य, डी सी वर्मा और अजय आज़ाद ने। शॉर्ट फिल्म में सिर्फ कहानी के मूल सार को लिया गया है, आगे इसे फीचर फिल्म के तौर पर बनाने की योजना भी है। कहानी-
वो कौन है, कहां से आता है, स्त्री है या पुरुष? क्या वाकई में वो कलाकार है, इसी इलाके का निवासी या फिर कहीं और से आकर अपना हुनर दिखाता है? पहले तो कई महीनों तक कोई जान ही नहीं पाया। रुस्तमपुर गांव के लोगों के लिए वो बस एक बहुरूपिया था। जो कभी बंदर का स्वांग बनाकर आता, कभी गोपी का तो कभी वो बन जाता अंग्रेजों के ज़माने का जेलर। गांव के सारे बच्चों का प्यारा और बड़ों का दुलारा। किसी ने कभी भी उसे किसी पर गुस्सा होता नहीं देखा। बस वो स्वांग दिखाता, गांव वाले हंसी खुशी उसे जो भी दे देते वो सिर झुकाकर ले लेता। कोई उसे खाने को गुड़ देता तो कोई रोटी। थोड़ा खाना वो वहीं खाकर पानी मांगकर पीता और फिर थोड़ा खाना अपने कमर में बंधी एक छोटी सी पोटली में खिसका देता। अपनी रानी बिटिया के लिए।
उसका ठौर ठिकाना जानने की रुस्तमपुर गांव के लोगों ने कभी कोई कोशिश नहीं की या कहें कि उन्हें कभी कोई ज़रूरत ही महसूस नहीं हुई। बस उसकी किसी से नहीं बनती तो वो था गांव का चौकीदार छंगा। छंगा को वैसे भी हर किसी पर किसी ना किसी बात को लेकर शक़ करने की आदती थी लिहाजा रुस्तमपुर गांव के किसी भी शख्स ने कभी छंगा को मुंह नहीं लगाया। छंगा अक्सर इंतज़ार करता कि वो कब बहुरूपिया दोपहर में खाना समेट कर गांव के बाहर का रास्ता पकड़ेगा और कब वो उसके पीछे लगकर उसके ठिकाने का पता लगा लेगा। लेकिन, ऐसा मौका आज तक छंगा के हाथ आया नहीं। बहुरूपिया की गांव के वैद्य जी से खूब बनती थी। वो बिना वैद्य जी से मिले कभी अपना स्वांग शुरू नहीं करता, सब जानते थे कि वैद्य जी के घर के सामने ही वो सबसे पहले सुबह सुबह प्रकट होता है। गांव के सारे बच्चे स्कूल जाने से पहले वैद्य जी के दरवाजे पर जुटते और बाह टोहते बहुरूपिये के एक नए स्वांग के साथ वहां पहुंचने की। लेकिन, कोई नहीं जानता था कि आखिर बहुरूपिया की रुस्तमपुर गांव के वैद्य जी पर इतनी श्रद्धा क्यों है?
दिन चढ़ते ही बहुरूपिया रुस्तमपुर गांव चला आता और दोपहर होते होते वो पूरे गांव का चक्कर लगा लेता। रुस्तमपुर के लोगों के लिए बहुरूपिया रोज़मर्रा की ज़िंदगी का हिस्सा बन चुका था। गांव में कोई रिश्तेदार आता तो बहुरूपिया के स्वांग को उनके सामने ऐसे बढ़चढ़कर बताया जाता मानो पूरी दुनिया में रुस्तमपुर का बहुरूपिया निराला हो। वो रुस्तमपुर गांव के लोगों को मिली ऐसी नेमत थी, जिसकी कीमत कोई नहीं जानता था। गांव में ब्याह कर आई नई बहू हो या किसी ख़ास चीज़ की ज़िद के लिए रोता बच्चा। सबके दिल को बहलाने की जिम्मेदारी बहुरूपिया पर ही थी। गांव में चौधरी के बेटे की बारात लौटी तो द्वारचार के वक्त तक बहुरिया रोती रही। किसी की समझ में ना आए कि आखिर बहू कैसे चुप होगी? बहुएं तो मायके से बिदाई के बाद गांव की सीमा खत्म होती ही रोना बंद कर देती हैं, लेकिन चौधरी की बहू को शायद अपने मायके से कुछ ज्यादा ही प्रेम रहा होगा, तभी तो बेचारी अब तक टसुए बहा रही थी। तब चौधरी ने ही छंगा को भेजकर बहुरूपिया को बुलवा भेजा था। चौधरी का नाम सुनते ही बहुरूपिया कहीं भी किसी भी हाल में हो, दौड़ा चला आता था। यही तो पूरे रुस्तमपुर गांव का ऐसा घर था, जहां से उसे हर साल नियमित तौर से जाड़े में एक कंबल ज़रूर मिलता था।
बहुरूपिया उस दिन काली माता के रूप में था। आते ही उसने बहू की पालकी का परदा उठाया और अपनी लपलपाती जीभ के साथ अपना चेहरा अंदर डाल दिया। बहू के गले से पहले तो बहुत ज़ोर की चीख निकली और जब माज़रा उसे समझ आया तो वो देर तक हंसती रही। बहुरूपिया ने बहू के पैरों पर माथा टिकाया तो उसने सौ रुपये की एक करारी नोट और एक रुपये का चमकता हुआ सिक्का बहुरूपिया को निछावर में दिया। बहुरूपिया देर तक चौधरी की बहू की बलाएं लेता रहा और चौधरी ने भी खुश होकर उसे अपने गले में पड़ा गमछा उतार कर दे दिया। कुल मिलाकर लब्बोलुआब ये कि बिना बहुरूपिया के रुस्तमपुर के गांव के लोगों को चैन नहीं मिलता था।
किसी दिन वो नहीं आता तो गांव वाले खासकर बच्चे परेशान हो जाते। लोग एक दूसरे से पूछते किसी ने बहुरूपिया को देखा क्या? फिर अगले दिन वो आता तो पूरा गांव हुजूम लगाकर चौपाल में उसके स्वांग देखने लगते। बहुरूपिया बताता कि वो कल बीमार हो गया था तो रुस्तमपुर गांव के वैद्य जी भागकर घर के अंदर जाते और सीतोपलादि चूर्ण की तीन चार पुड़िया बांधकर ले आते। एक पुड़िया तो वो उसे वहीं अपने हाथ से खिलाते। वैद्य जी का दुलारा था बहुरूपिया। अक्सर उसे वैद्य जी के पास बैठकर घंटो बतियाते देखा जाता। कोई कोई तो कहता कि वैद्य जी जो भी नया नुस्खा बनाते थे, बहुरूपिया खुशी खुशी उसका प्रयोग वो नुस्खा खाकर करता था। लेकिन इस बारे में ना तो कभी किसी की वैद्य जी से पूछने की हिम्मत पड़ी और ना ही बहुरूपिया ने किसी को इस बारे में कुछ बताया। कभी किसी घर की कोई ऐसी बात अगर बहुरूपिया के कान में पड़ भी जाए, जिसे जगजाहिर होने से घर की बदनामी हो, तो बहुरूपिया अपनी तौर से ऐसा कुछ ज़रूर कर देता था कि बेचारे घरवाले की इज्जत बन जाए। तो ऐसा था ये बहुरूपिया।
लेकिन, ताज्जुब की बात ये कि इस बहुरूपिए को रुस्तमपुर के लोग बहुरूपिया कहकर ही बरसों से बुलाते रहे। इसका नाम रुस्तमपुर में किसी ने ना जाना, और ना ही किसी को उसने अपनी असली पहचान ही बताई। उसे तो बहुरूपिया का स्वांग धरने के बाद जिस नाम से लोग पुकारते थे, वो उसी को अपना इनाम समझ लेता। एक बार तो जब उसने गोपी का रूप धरा और बच्चों ने उसे बहुरूपिया बहुरूपिया कहकर बुलाना शुरू किया तो उसकी आंखों से आंसू निकल आए। वैद्यजी ने पूछा भी क्या हुआ, लेकिन वो कुछ ना बोला। बस चुपचाप आंसू बहाता रहा। फिर अगले दिन वो फिर से गोपी बनकर आया। लेकिन, इस बार गांव को कोई भी बच्चा उसे पहचान ही नहीं पाया। वो वैद्य जी के घर के सामने से ‘दही ले लो’ की आवाज़ निकालता गुजरा तो वैद्य जी भी दही खरीदने चले आए। बहुरूपिया ने उस दिन पूरे गांव में दही बेचा। और, चौधरी। वो तो ऐसे कि जैसे गोपी पर लट्टू ही हो गए। देर तक अपनी दालान में उसे बिठाए रहे। कभी गुड़ खिलाएं तो कभी छंगा से कहकर उसके लिए ओढ़नी मंगाएं। और, दोपहर बाद जब खुद बहुरूपिया ने बताया कि वो तो बहुरूपिया है तो चौधरी देर तक हंसते रहे। पूरी बात सुनकर चौधराइन में जीवन में पहली बार चौधरी के सामने ठट्ठा मारकर हंसी।
रुस्तमपुर में सब जानते थे कि ये है दुनिया में सबसे निराला बहुरूपिया। लेकिन गांव का कोई भी शख्स नहीं जानता था तो बस ये बात कि वो तो था जाजामऊ का कलुआ। कलुआ जो दोपहर चढ़ते ही जाजामऊ गांव के ठाकुरों के यहां बर्तन धोने पहुंच जाता था। झक सफेद धोती पहने और नंगे बदन, कलुआ के हाथ बर्तनों पर चलते तो पीतल भी सोने की तरह चमक उठता। ठाकुर इसी बात पर इतराते कि जब भी कोई मेहमान उनके यहां कांसे के गिलास में पानी पीता तो ये ज़रूर पूछता कि ठाकुर कांसे का ये गिलास कहां से बनवाया। तब ठाकुर बताते कि अरे ये तो पुश्तैनी मेहमाननवाज़ी के गिलास है और इन पर हाथ चलाकर उनका खासमखास कहार उन्हें बना देता है बिल्कुल नए जैसा। कलुआ के हुनर के जितने कद्रदान रुस्तमपुर थे, उतने जाजामऊ में तो ना थे। लेकिन ठाकुर के घर में उसकी कदर खूब होती थी। ठकुराइन को रसोई के हर पकवान के ठाकुर की थाली में पहुंचने की चिंता हो ना हो, कलुआ को हर पकवान का थोड़ा सा ही सही पर हिस्सा ज़रूर वो उसकी थाली में अपने सामने डलवा देतीं।
जाजामऊ गांव में किसी ने भी कभी ये जानने की कोशिश नहीं कि आखिर कलुआ सबेरा होने के बाद से लेकर दोपहर तक कहां रहता है और क्या करता है। और, कलुआ भी बस ठाकुरों के तीन घरों में सुबह तड़के और दोपहर बाद बर्तन साफ करके अपनी दुनिया में खो जाता। जाजामऊ गांव में उसे कभी किसी से ना तो दुलार मिला और
ना ही उसने इसकी गुजारिश की। लोग उसे ठाकुरों का खास कहार समझ कर कभी कुछ कहते तो नहीं थे, लेकिन ऊंची जाति के मोहल्ले से निकलते समय बेचारी की नज़रे हमेशा झुकी ही रहती थीं। रुस्तमपुर का दुलारा, जाजामऊ का बेचारा था। और बेचारगी इस बात की कि बेचारी की बीवी पहले ही गुजर गई। अकेले ही जवान होती बिटिया की देखरेख करता औऱ उसकी पढ़ाई के लिए पैसे जुटाता रहता।
गांव के बाहर ही तो थी कलुका की छोटी सी झोपड़ी। और, इसी झोपड़ी में उसने पूरे जतन से पाला अपनी बिन मां की बिटिया रानी को। वो सुबह सवेरे रानी को नहालाता धुलाता। साफ कपड़े पहनाता। खुद बैठकर उसकी चोटी पिरोता और काजल भी लगाता। फिर जब रानी तैयार हो जाती तो उसकी बलाएं लेकर उसे स्कूल भेज देता और खुद चल देता अपने रोज़ के सफ़र पर।
रानी गांव के ही जूनियर हाईस्कूल में पांचवी में पढ़ती थी। कलुआ की पहली और आखिरी उम्मीद। तय समय पर स्कूल की फीस देना और रानी को पढ़ाई में किसी तरह की दिक्कत ना आए, इसका पूरा ख्याल रखना, कलुआ की आदत में शुमार हो चुका था। कई कई बार तो वो राशन की दुकान पर लोगों से एक एक कुप्पी मिट्टी का तेल मांग लाता, ताकि रात में रानी बिटिया अपना स्कूल का काम लालटेन की रोशनी में पूरा कर सके। ये लालटेन वो रुस्तमपुर गांव के चौधरी से मांग कर लाया था। और रानी ने भी अपने बापू का नाम रोशन करने में कोई कसर ना छोड़ी। सालाना नतीजे जब बताए जाते तो मैदान के किसी कोने में दूर पेड़ के नीचे बैठे कलुआ को इंतज़ार रहता कि कब रानी का नाम बुलाया जाएगा। गांव के हर ऊंचे घर के बच्चों से पढ़ने में तेज़ थी रानी। रानी हर साल अपनी क्लास में अव्वल रहती। उसका नाम स्कूल के बड़े पंडित जी पूरे जोश के साथ पुकारते। रानी स्टेज पर जाती अपना रिजल्ट लेने और नीचे बच्चों में शुरू हो जाती खुसुर पुसुर। कलुआ को लगता कि जैसे ऊपर स्वर्ग से उसकी बीवी उसे दुआएं दे रही है। मरते मरते बस यही एक चीज़ तो मांगी थी रानी की मां ने कलुआ से, ‘कुछ भी करना पर रानी को दूसरों के घर में बर्तन ना मांजने पड़ें’। कलुआ ने रानी की मां से वादा किया था कि वो ऐसा नहीं होने देगा। लेकिन, रानी को कभी गांव के बच्चों ने अपने साथ खेलने नहीं दिया। पूरे गांव में पंडितो और ठाकुरों के घर थे। पता नहीं कैसे कलुआ का इकलौता घर यहां आ गया। ज़रूर उसके पुरखे किसी ठाकुर की बारात के साथ दहेज में आए होंगे बहूरानी के बर्तन मांजने। और तब से पीढ़ी दर पीढ़ी चलता हुआ ये सिलसिला कलुआ तक आ पहुंचा था।
रुस्तपुर गांव के लिए बहुरूपिया और जाजमऊ गांव का कलुआ। एक ही शख्स के दो अलग अलग चेहरे। और दोनों गांवों के लोग उसकी दूसरी पहचान से बिल्कुल अनजान। रुस्तपुरगांव में ही एक दिन मजनू का स्वांग रचे जब वो चौधरी के अहाते में बैठा था तो उनके लड़कों को नवोदय विद्यालय के बारे में बातें करते सुना। घर लौटकर उसने ठाकुर साहब के बेटे से अपनी बिटिया के लिए नवोदय स्कूल का फॉर्म मंगा देने की गुजारिश की और अब रानी बिटिया आठवीं में है। महीने के हर दूसरे इतवार कलुआ की जाजामऊ में और बहुरूपिया की रुस्तमपुर में छुट्टी सी रहती है। इस दिन वो अपनी बिटिया से मिलने जाता है। नहा धोकर साफ सुथरे कपड़े पहन जब वो नवोदय विद्यालय के गेट पर अपनी बिटिया के इंतज़ार में खड़ा रहता तो किसी को इस बात की भनक भी नहीं लगने पाती कि आखिर इसका पेशा क्या है?
कलुआ और बहुरूपिया दोनों की ज़िंदगी दो अलग अलग गांवों में यूं ही चलती रही। और फिर एक दिन उसे हुआ तेज़ बुखार। इस बार रुस्तमपुर गांव के वैद्य जी की दवा भी बेअसर हो गई। दूसरे इतवार में दो दिन बाकी थे। दो दिन तक बुखार में तपते रहने के बाद वो अपनी बिटिया से मिलने गया। रानी अब बड़ी हो चुकी थी। इंटर के इम्तिहान बस शुरू ही होने वाले थे और कलुआ ने इस बार बिटिया के लिए तमाम तरह की चीज़ें खरीद कर रखी थीं। बिटिया से मिलने के बाद कलुआ सीधे शहर के डॉक्टर के पास गया। ठाकुर साहब की चिट्ठी पढ़कर डॉक्टर साहब ने उसे तुरंत देखा बिना नंबर के। चेकअप के बाद डॉक्टर का गंभीर चेहरा देखकर कलुआ भीतर ही भीतर कहीं सहम सा गया। और, जब डॉक्टर ने उसे उसका मर्ज़ बताना शुरू किया तो कलुआ का तो जैसे सारा खून ही सूख गया। उसके सामने रानी का चेहरा देर तक घूमता रहा। फिर उसे याद आई रानी की मां, जो मरते वक्त रानी को उसकी गोद में डाल गई थी ये कहते हुए कि रानी के बापू आज से तुम ही इसके बाप भी हो और मां भी। तब से कलुआ ने रानी को कभी मां की कमी महसूस नही होने दी। लेकिन, अब क्या होगा?
कलुआ देर रात अपनी झोपड़ी में लौटा। उस दिन पहली बार चौकीदार को कलुआ के घर के आगे जलता दीया नहीं दिखाई दिया। उसने सोचा कि शायद कलुआ कहीं बाहर गया होगा। लेकिन कलुआ झोपड़ी के पीछे खुले में लेटा था, तारों के बीच कहीं अपनी रामदुलारी का चेहरा तलाश करते हुए। उसे लगने लगा कि जल्दी ही वो भी रामदुलारी के साथ कहीं आसमान में तारा बन जाएगा। डॉक्टर ने उसे कैंसर बताया था और कहा था कि अगर इलाज चला तो चार पांच साल और नहीं तो बामुश्किल ढाई तीन साल ही उसकी ज़िंदगी के बचे हैं। लेकिन कलुआ को स्वांग भरने की आदत थी और उसने इसी स्वांग के बूते कभी रानी पर ये ज़ाहिर नहीं होने दिया कि जल्दी ही वो अनाथ होने वाली है। बल्कि अब तो वो हर दूसरे इतवार को और भी ज़्यादा सज धज कर रानी से मिलने जाता, आखिर अब वो कॉलेज में जो थी। रानी को अब वजीफ़ा तो मिलने लगा था लेकिन फिर भी कलुआ अपनी सारी कमाई रानी को दे आता। शहर की पढ़ाई, फिर कोचिंग और ऊपर से दस खर्चे। उसे मालूम था कि अगर वो अपना इलाज कराने लगा तो रानी कभी अफसर नहीं बन पाएगी। कलुआ ने अपनी ज़िंदगी के बाकी बचे साल अपनी बिटिया के नाम कर दिए।
और, फिर एक दिन जाजामऊ और रुस्तमपुर के बीच बने मंसा देवी के मंदिर में सुबह सुबह भीड़ लगनी शुरू हो गई। वहां एक संन्यासी देवी की मूरत के सामने साष्टांग दंडवत किए लेटा मिला। गांव की कितनी ही औरतें देवी पर जल चढ़ाकर लौट गईं लेकिन संन्यासी ना बाईं करवट हुआ और ना दाईं। एक दो ने उसके ऊपर पानी की छीटें भी गिराईं ये देखने के लिए वो ज़िंदा है या मर गया। लेकिन हाथ में कागज़ की एक पर्ची पकड़े ये संन्यासी ना तो हिला और ना ही कुछ बोला। दोनों गांवों में बात धीरे धीरे फैलने लगी और दोपहर होते होते दोनों गांवों के लोग वहां जुटने लगे। रुस्तमपुर के वैद्यजी ने सबसे पहले उसका चेहरा टटोला। वो बोले अरे ये तो अपना बहुरूपिया है और तभी जाजामऊ के ठाकुर साहब के बेटे ने कलुआ को पहचाना। दोनों गांवों के लोगों के लिए उसकी अलग पहचान थी। लेकिन वो जो भी था, अब इस दुनिया में नहीं था। चौधरी साहब ने उसके हाथ से पर्ची निकाली और पढ़ने लगे। पर्ची का मजमून खत्म होते होते मंदिर में मौजूद हर इंसान की आंखें नम थी। और, तभी दूर गाड़ियो का एक काफिला आता दिखाई दिया। नीली बत्ती की कार सबसे पहले मंदिर के पास आकर रुकी। उसमें से उतरी रानी। वो अब अफसर बन चुकी थी और सबसे पहले मंसा देवी के मंदिर आई थी अपने बाबा का कहा पूरा करने। और, तब गांव वालों को कलुआ या कहें कि बहुरूपिया के हाथ में मिली पर्ची का एक एक शब्द समझ में आने लगा। ये गांव के हर दबे कुचले आम आदमी की आवाज़ जो थी। झोपड़ी में पढ़ने वाली ने इलाके का नाम रौशन कर दिया था। और, उसका बाबा चाहता था कि कोई उसे ना बर्तन मांजने वाली की बिटिया कहे और ना ही बहुरूपिया की बेटी। उसे सब जानें तो बस उसकी आज की पहचान से।
कुशाग्र क्रिएशंस प्रस्तुति। निर्माता-लेखक – शरद मिश्र। पटकथा-निर्देशक- पंकज शुक्ल ।
© & ® FWA – 164498 । IMPPA- 152/2009