किसी की मुस्कुराहटों पे हो निसार, किसी का दर्द मिल सके तो ले उधार, किसी के वास्ते हो तेरे दिल में प्यार, जीना इसी का नाम है..! - शैलेंद्र (1959)
गुरुवार, 8 अक्तूबर 2009
अज़ीज़न मस्तानी : Revenge Of A Gorgeous Freedom Fighter
पिछली कहानी बहुरूपिया को मिली प्रशंसा से उत्साहित होकर आज मैं एक और शॉर्ट फिल्म के बारे में लिखने जा रहा हूं। इस कहानी में थोड़ा सच है और थोड़ी कहावतें। 1857 में जब कानपुर में फिरंगियों पर नाना साहब, तात्या टोपे और अज़ीमुल्ला ख़ान ने क़हर बरपाया तो इस गदर के बीच कुछ तवायफें भी थीं जिनमें से किसी के हीरो नाना साहब थे तो किसी के तात्या टोपे। मीरा ने जैसे कृष्ण को चाहा था, वैसे ही एक तवायफ़ तात्या टोपे की बहादुरी की कायल हो चुकी थी। नाम था अज़ीज़न बाई। तो पेश ए ख़िदमत है कहानी अज़ीज़न बाई की।
अज़ीज़न मस्तानी
पुराने पत्थरों वाली दीवारों के साथ की सड़क के किनारे किनारे चुस्त चूड़ीदार के साथ पाजेब पहने एक लड़की सड़क पर चली जा रही है। ये कानपुर का लाठी मोहाल इलाका है। पूरब का मैनचेस्टर कहे जाने वाले कानपुर के लाठी मोहाल इलाके की इन गलियों में ना जाने कितने अंग्रेज शोख चंचल हसीनाओं का रूप रस पीने के लिए आते रहे और खुदा गवाह है कि इनमें से तमाम फिर लौट कर अपनी अपनी छावनियों तक जा नहीं पाए। खूबसूरती के खंजर ने इन सिपाहियों का कलेजा इस कदर चाक किया कि ना तो फिर उनकी कोई निशानियां मिलीं और ना ही महीनों तक ब्रितानिया सरकार ये पता लगा पाई कि आखिर लाठी मोहाल की तरफ रुख करने वाले अंग्रेज सिपाही लापता कहां हो जाते हैं?
अज़ीज़न आज परेशान है। वो परेशान है अपने प्यार की हिफ़ाजत को लेकर। अज़ीज़न मुसलमान नहीं है। लेकिन वो मस्जिद के सामने से गुजरते हुए खुद को रोक नहीं पाती और मस्जिद की चौखट लांघकर अंदर चली आई है। उसके दिल में है तो बस एक ही फरियाद, ‘या अल्लाह मुझे माफ करना। मेरी आज की पहचान कहती है कि मेरा सिर तेरे सजदे में झुकना चाहिए। और मेरा खून कहता है कि मेरा सिर किसी मंदिर की चौखट पर टिकना चाहिए। लेकिन, मेरा मजहब अब कुछ है तो बस वतनपरस्ती। जब तक मैं कानपुर की धरती पर बसे एक एक अंग्रेज का सिर कलम ना कर दूं, मेरा ईमान मुझे चैन से नहीं बैठने देगा। मेरी तुझसे फरियाद है तो बस इतनी कि मुझे इतनी ताक़त दे कि मैं ऐसा कर सकूं।‘
अजीजन बाई की पैदाइश कोठों पर नहीं हुई। और तवायफों की तरह वो भी हालात की मारी थी। कभी वो राजगढ़ के जागीरदार शेर सिंह की हवेली में हिरणी की तरह इधर उधर कुलांचे भरती थी। उसका नाम था अंजशा। उस दिन मेले में अंग्रेज सिपाहियों की टुकड़ी मटरगश्ती करने निकली थी। उनका अफसर हेनरी अपने दल-बल के साथ मेले में आया था। अंजशा को देखते ही वो उसके रूप यौवन पर मोह गया। हेनरी ने अंजशा को देखा तो बस देखते ही रह गया। अफसर की नज़रों के आगे पानी भरने वाले अंग्रेज सिपाहियों ने देखते ही देखते अंजशा को उठा लिया। वो रात अंजशा ने हेनरी की रावटी में गुजारी। अंजशा खूब रोई। देवी देवताओं की दुहाई दी। लेकिन, अंग्रेज अफसर हेनरी के आतंक के आगे किसी के कानों में उसकी गुहार न पड़ी। हवशी हेनरी ने अंजशा को उस रात भर रौंदा और अपनी हवस मिटाने के बाद जूठन फेंक दी कुत्तों की तरह अपने पीछे दुम हिलाने वाले सिपाहियों के आगे।
अंशजा का मन हुआ कि वो आत्महत्या कर ले। लेकिन, एक क्षत्रिय की बेटी ने अपमान का हलाहल गले से नीचे नहीं उतरने दिया। उसने अपने तन का त्याग कर दिया और आत्मा को तैयार किया एक नए तांडव के लिए। वो तांडव जिसकी बानगी अभी अंग्रेजों को देखनी थी। अंग्रेज सिपाहियों ने उसे कानपुर में लाठी मोहाल के कोठे पर ला बेचा।
और, लाठी मोहाल में परवरिश पाती अंजशा बन गई अजीजन। कभी खुली हवा में हर रोज़ एक नई परवाज के लिए अपने पंख तौलने वाली अंजशा पर कटाकर अजीजन बन गई तो लेकिन पिंजड़े की मैना बनना उसे तब भी गवारा ना हुआ। उसने अपने आस पास के हालात को तौला। कोठे पर रहने वाली दूसरी तवायफों को टटोला और फिर उसका मन यही बोला कि अभी उसे कुछ करना है और इसके बाद ही मरना है। और, उसने अपने कोठे को तब्दील कर दिया फिरंगियों की क़त्लगाह में।
कानपुर में अंग्रेज सिपाहियों के गायब होने की बात को शुरू शुरू में अंग्रेज अफसरों ने ज्यादा तवज्जो नहीं दी। पहले तो बीट के सिपाही लापता हुए फिर कैंट इलाके तक ये बीमारी पहुंच गई। कभी कोई दरबान तो कभी कोई संतरी सूरज ढलने के बाद चहलकदमी करने निकलता, लेकिन उगता सूरज फिर उसके नसीब में नहीं होता। मुखबिरों को काम पर लगाया गया, जासूस छोड़े गए। हेनरी खुद इस काम पर लग गया।
उस दिन हेनरी ने सूरज उगते ही गंगा किनारे बैठकर खूब शराब पी और चल दिया लाठी मोहाल के कोठे की तरफ। अजीजन तो मानो हेनरी के इंतज़ार में ही थी। तात्या टोपे के पीछे लगी अंग्रेजी फौज का मकसद जो उसे मालूम करना था। अजीजन ने उस दोपहर हेनरी को अपने रूप रस से खूब भिगोया। नशे में धुत हेनरी जब तात्या के बारे में सब कुछ बोल गया तो अजीजन ने पहले हेनरी पर अपनी नज़रों का वार किया और जब वो घायल हो गया तो उस पर हुआ अजीजन के ज़हर का वार। दो पल पहले हुस्न और शराब के नशे में झूम रहा हेनरी अब लाल रंग के कपड़ों से बंधी पोटलियों का अलग अलग हिस्सा बन चुका था। अगले दिन तात्या टोपे खुद अज़ीज़न से मिलने शहर के पास एक बगिया में पहुंचे।
तात्या टोपे से इस मुलाकात ने अजीजन के दिल में एक नया जोश भर दिया। वो दूनी ताकत से फिरंगियों के खिलाफ़ तैयारियां करने लगी। और यहां तक कि उसने तवायफों की एक टोली तक बना डाली। चार सौ से ऊपर तवायफों की टोली। इस टोली का नाम पड़ा – मस्तानी टोली। अजीजन इस टोली के ज़रिए स्वतंत्रता सेनानियों के लिए पैसा, रसद और गोला बारूद इकट्ठा करने लगी। और, तात्या टोपे की सेना की मदद करने लगी।
(समाप्त)
कुशाग्र क्रिएशंस। निर्माता– शरद मिश्र। पटकथा-निर्देशक- पंकज शुक्ल
FWA No. 164499 । IMPPA. 299/2009
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सर्, आपका ब्लाग पढ़ने के बाद जानकारियां तो हासिल होती ही हैं, साथ ही शब्दकोश में भी इज़ाफा होता है......अज़ीज़न मस्तानी की कहानी अच्छी लगी.............
जवाब देंहटाएंशुक्रिया मनोज...
जवाब देंहटाएंआपकी यह पोस्ट जनसत्ता में संपादकीय पेज पर समांतर स्तंभ में अजीजन मस्तानी शीर्षक से 20 अक्टूबर 2009 को प्रकाशित हुई है। बधाई और लिंक देखें http://blogonprint.blogspot.com/2009/10/blog-post_9087.html
जवाब देंहटाएंआपका ब्लाग पढा, मैँ लाठी मोहाल मेँ उमराव जान की जगह तलाश रहा था खैर अजीजन की जानकारी अच्छी लगी।
जवाब देंहटाएंRAHUL TRIPATHI
9305029350
Rahultripathi959@gmail.com
आपका ब्लाग पढा, मैँ लाठी मोहाल मेँ उमराव जान की जगह तलाश रहा था खैर अजीजन की जानकारी अच्छी लगी।
जवाब देंहटाएंRAHUL TRIPATHI
9305029350
Rahultripathi959@gmail.com