सोमवार, 30 अप्रैल 2012

लाइट, कैमरा, रन..

फूहड़ता के सबसे निचले स्तर तक पहुंचने के बाद हिंदी सिनेमा में सफाई और साफगोई के अंकुर फिर से निकल रहे हैं। दर्शकों की मनोरंजन में भी सच्चाई की ललक बढ़ रही है और इसका सबसे सही जवाब फिल्मकारों ने तलाशा है उन नायकों को रुपहले परदे पर फिर से नई जान देने का, जिनके किस्से कहानियां बस किताबों या अखबारों की कतरनों में ही सिमट कर रह जाते रहे हैं। जिद और जीवट की चंद सार्थक कहानियों को क्रिकेट की पूजा करने वाले देश में क्रिकेट से इतर खेलों के नायकों के बहाने भी रुपहले परदे पर पेश करने की कोशिशें वाकई सुखद संकेत देने वाली हैं।

© पंकज शुक्ल

इरफान की फिल्म पान सिंह तोमर की कामयाबी ने हिंदी सिनेमा में एक तरह की नई क्रांति का बीज रोपा है। पर ध्यान देने वाली बात ये है कि ये क्रांति सिर्फ सामाजिक जिम्मेदारी वाले सिनेमा के फिर से रुपहले परदे पर लौटने भर की बात नहीं है, ना ही इस पर हो रही बहस महज जमीन से जुड़े और वास्तविकता के करीब रहने वाले सिनेमा के मुख्यधारा में फिर से जगह पाने की वापसी तक ही सीमित है। दरअसल ये दिनों दिन समझदार होते और मनोरंजन से आगे जाकर भी कुछ पाने को तैयार हो रही हिंदी सिनेमा के दर्शकों की नई पीढ़ी को फूहड़ सिनेमा के काले बादलों के पार दिखी वो चमकीली लकीर है, जिसकी बुनियाद पर हिंदी सिनेमा में खेल पर आधारित फिल्मों का एक नया चलन शुरू हो सकता है। ऐसी फिल्में जिनमें कथानक किसी खास खेल के आसपास बुना जाता है और इसे खेलने वाले किरदार को फिल्म के नायक के तौर पर पेश किया जाता है। यही नहीं, इसने राकेश ओमप्रकाश मेहरा जैस निर्देशक को मिल्खा सिंह के जीवन पर फिल्म बनाने का हौसला भी दिया है। इसने फरहान अख्तर जैसे गैरपारंपरिक अभिनेता को अपने बाल बढ़ाकर एक सरदार के गेटअप में घुसने का जज्बा भी दिया है। और, इस बदलाव की बयार का ही असर है कि हॉकी के एक असल कोच की जिंदगी की आधारित फिल्म चक दे इंडिया कर चुके शाहरूख खान अब हॉकी के जादूगर मेजर ध्यानचंद की जीवनी पर फिल्म करना चाहते हैं। ऐसी ही कुछ कुछ मंशा इन दिनों इरफान खान भी जता रहे हैं।

जैसाकि हम सब जानते हैं भारत देश में क्रिकेट और सिनेमा के सितारों के बीच लोकप्रियता का ट्वेंटी ट्वेंटी हमेशा चलता रहता है और दोनों का कॉकटेल सेलेब्रिटी क्रिकेट लीग (सीसीएल) भी इसी सोच से जन्मा है, लेकिन सच ये भी है सम सामयिक क्रिकेट को लेकर हिंदी में बनी इकबाल को छोड़कर दूसरी एक भी फिल्म बॉक्स ऑफिस पर कामयाब नहीं हो सकी है। निर्देशक आशुतोष गोवारिकर की जिस क्रिकेट आधारित फिल्म लगान ने देश विदेश में कामयाबी का झंडा गाड़ा, उसमें क्रिकेट का वह दौर दिखाया गया जब आम भारतीय गेंद और बल्ले के इस खेल का अक्षर ज्ञान भी नहीं कर पाया था। लेकिन, इस बार बात हम क्रिकेट की फिल्मों की करेंगे ही नहीं। भले लगान को टाइम पत्रिका ने दुनिया की 25 सर्वश्रेष्ठ खेल आधारित फिल्मों की कालजयी सूची में शामिल किया हो, लेकिन फिल्म की कहानी को करीब से समझा जाए तो दिखाई देता है कि लगान की कामयाबी क्रिकेट की कामयाबी कम बल्कि चंद गंवार लोगों की इस खेल को सीखने की जिद और इस खेल में महारात हासिल कर चुके चंद गोरों को हराने के जीवट की कहानी ज्यादा है।

ये जिद और ये जीवट ही पान सिंह तोमर की भी कहानी कहते हैं। इसी जिद और जीवट ने चक दे इंडिया में कबीर के सपनों को राह दिखाई और बरसों पहले ऐसी ही जिद और जीवट रखने वाले चंद बच्चों को लेकर संदीप नाम का एक कोच भिड़ गया था फुटबॉल के उन सूरमाओं से जिन्हें हराने की बात करना भी उस शहर में शायद गुनाह समझा जाता था। लोगों ने तब पूरे उत्साह से आवाज लगाई थी, हिप हिप हुर्रे। इन दिनों सियासत, सत्ता और सामाजिक अपराधों के ताने बाने में खो चुके निर्देशक प्रकाश झा की ये पहली फीचर फिल्म थी और मेरे लिहाज से भारतीय सिनेमा में गैर क्रिकेट खेलों पर बनी स्पोर्ट्स फिल्मों के किसी भी पैमाने पर तीन बेहतरीन फिल्मों में शुमार होती है। हिप हिप हुर्रे शायद समय से पहले की फिल्म थी, कुछ कुछ वैसे ही जैसे राजकपूर की मेरा नाम जोकर, राज कपूर की तीसरी कसम और अमिताभ बच्चन की मैं आजाद हूं को समय से पहले की फिल्में माना जाता है। लेकिन, बलिहारी है यूटीवी मोशन पिक्चर्स की जिसने कोई दो साल तक पान सिंह तोमर को डिब्बाबंद रखा और ऐसा ही समय से पहले की फिल्म का ठप्पा उस पर नहीं लगने दिया। ये फिल्म अगर दो साल पहले रिलीज हुई होती तो शायद चुलबुल पांडे के दौर में कहीं गुम हो गई होती, भला हो इस देरी का कि दर्शकों को फूहड़ फिल्मों की ओवरडोज झेलनी पड़ी और इसके हैंगओवर से निकलने के लिए पान सिंह तोमर हिंदी सिने दर्शकों का नया नींबू पानी बन गई।

जैसा कि हर कारोबार में होता है हिंदी सिनेमा में भी ज्यादातर फैसले मुनाफे को ध्यान में ही रखकर किए जाते हैं। पर, स्पोर्ट्स फिल्मों के मामले में कम से कम क्रिकेट आधारित फिल्में बनानकर हिंदी सिनेमा ने कई बार गच्चे खाए हैं। और, ये गच्चा खाने वालों में फिल्म अव्वल नंबर में सदाबहार अभिनेता और निर्देशक देव आनंद से लेकर फिल्म पटियाला हाउस में निर्देशक निखिल आडवाणी तक शामिल हैं। तो फिर क्रिकेट से इतर हिंदी स्पोर्ट्स फिल्मों पर हमारा ध्यान ही नहीं जाता है या फिर क्रिकेट की चकाचौंध ने हमको इतना विस्मित कर दिया है कि हम उसके दाएं बाएं देख ही नहीं पाते। अस्सी के दशक में जब नक्सलबाड़ी आंदोलन के चंगुल से छूट भागा एक काला कलूटा सा लड़का हिंदी सिनेमा में अपने कूल्हे मटकाकर अमिताभ बच्चन के सुपरस्टारडम की गिनती पूरे होने का नृत्य कर रहा था, तो निर्देशक राज एन सिप्पी ने इस लड़के की सेहत देखी। इसकी आंखों में कुछ कर गुजरने का जज्बा देखा और देखी वही जिद और जीवट जो दुनिया बदल देने का माद्दा रखती है। राज एन सिप्पी ने इस लड़के को लेकर बनाई फिल्म बॉक्सर। गुरबत में दिन बिताने वाले एक लड़के के रिंग का चैंपियन बनने की ये कहानी 1984 में फरवरी की गुलाबी सर्दियों के उस दौर में परदे पर उतरी, जब साल भर पहले ही एक इतवार को भारतीय क्रिकेट टीम ने इतिहास का सबसे बड़ा उलटफेर करते हुए विश्वविजेता का खिताब जीत लिया था और साल की शुरूआत के पहले ही दिन यानी 1 जनवरी 1984 को रिलीज हुई हिप हिप हुर्रे ने स्कूली क्रिकेट की दीवाने हो चुके देश में भी अपने लिए सिनेमा हॉल मे तालियां बजाने वाले चंद हाथ ढूंढ लिए थे।


बॉक्सर की मिली जुली कामयाबी के बाद मिथुन चक्रवर्ती ने एक स्पोर्ट्स फिल्म और की- कराटे। ये फिल्म हालांकि भारत के पारंपरिक खेलों से इतर खेल पर बनी फिल्म थी, लेकिन ब्रूस ली के दौर में मिथुन चक्रवर्ती ने तमाम भारतीय युवाओं के हाथ में पकड़ा दिया एक ऐसा खिलौना, जिसका सही वार हो तो सामने वाले पल भर में ही धूल चाटने लगता था। ये खिलौना था- नान चाकू और फिल्म की लोकप्रियता का आलम ये था कि देश में गली गली कराटे क्लब खुल गए। लोगों को येलो बेल्ट, ग्रीन बेल्ट, रेड बेल्ट और ब्लैक बेल्ट के मायने समझ आने लगे और दारा सिंह के देश के लोगों को ये भी पता चला कि दांव सिर्फ हाथों से ही नहीं बल्कि अब पैरों से भी चले जाते हैं और वार भी मुक्के का कम बल्कि फ्लाइंग किक का ज्यादा जोर का होता है। किसी भी चलन या किसी भी सितारे की कामयाबी इसी में है कि वह परदे से निकलकर निजी जिंदगी में शामिल हो जाए। तो अगर पान सिंह तोमर देखकर निकलने वाले बुंदेलखंडी में बात करने कोशिश करते नजर आते हैं तो बरसों पहले लोगों ने अगर मिथुन को देख नान चाकू घरों में टांग लिए थे, तो बात ही क्या? क्रिकेट से इतर स्पोर्ट्स फिल्मों में मिथुन से पहले दारा सिंह भी बॉक्सर नाम की एक फिल्म कर चुके थे और उनकी पहलवानी के करिश्मे लोग कुछ दूसरी फिल्मों में भी देख चुके थे, लेकिन देश में फिटनेस को लेकर युवाओं के सजग होने का पहला दौर मिथुन चक्रवर्ती की फिल्म बॉक्सर से ही माना जा सकता है। सलमान की साइकिलिंग वाली फिल्म मैंने प्यार किया और ऋतिक रोशन की कहो ना प्यार है की फिटनेस तो बहुत बाद की बातें हैं।

लेकिन, सवाल इस बार सिर्फ फिटनेस या किसी सितारे की शोहरत का नहीं है। सवाल इस बार एक ऐसे चलन का है, जिसने अगर कामयाबी के दो चार पाठ और पढ़ लिए तो खिलाड़ियों की जीवनियों पर बनने वाली फिल्मों की एक परंपरा हिंदी सिनेमा में भी नई ताकत पा सकती है। हिंदी सिनेमा में स्पोर्ट्स पर बनने वाली अन्य फिल्मों का जिक्र करने से पहले ये समझना जरूरी है कि आखिर हिंदी सिनेमा क्रिकेट के अलावा दूसरे खेलों को लेकर इतना सीरियस क्यूं नहीं होता? इसकी गहराई में जाने से पहले समझना ये भी जरूरी है कि विदेश में जो स्पोर्ट्स फिल्में बनती हैं, उनका आधार क्या होता है? ये सही है कि विदेश में स्पोर्ट्स फिल्मों की एक अलग श्रेणी सिनेमा में पूरी तौर पर विकसित हो चुकी है पर सच ये भी है कि ये फिल्में मुख्यतया किसी न किसी खिलाड़ी की निजी जिंदगी की किसी बड़ी जीत से प्रेरणा पाती हैं। इस तरह की फिल्में बनाने के लिए वहां पहले से लिखा साहित्य बहुतायत में उपलब्ध है। अगर बॉक्सर जेक ला मोटा के जीवन पर मशहूर निर्देशक मार्टिन स्कॉरसेसे ने रेजिंग बुल बनाने में कामयाबी पाई तो इसकी एक बड़ी वजह ये थी कि मार्टिन के पास इस खिलाड़ी के बारे में जानने के तमाम साधन थे। विदेशी सिनेमा में खिलाड़ियों की जीवनियों पर बनने वाली फिल्मों की लंबी लिस्ट है और हिंदी सिनेमा में पान सिंह तोमर महज एक अदना सा अगला कदम है। मीर रंजन नेगी जैसे हॉकी खिलाड़ी के जीवन पर बनी चक दे इंडिया को भले इसके लेखक जयदीप साहनी ने तब असल जिंदगी पर बनी फिल्म मानने से इंकार कर दिया हो, लेकिन तब शायद ये बाजार की मजबूरी रही हो। जयदीप साहनी ने वाकई एक काल्पनिक कहानी लिखी या फिर 2002 के कॉमनवेल्थ खेलों में भारतीय महिला हॉकी टीम की जीत की सच्ची पटकथा परदे पर उतारी, इसे लेकर बहस हो सकती है, पर सच यही है कि जयदीप को ये फिल्म लिखने में अखबारों में छपे उन तमाम लेखों, आलेखों ने भरपूर मदद की, जिन्होंने इस जीत की नायिकाओं के बारे में विस्तार से खोजबीन की। यानी कि एक सच्ची जिद और मजबूत जीवट की कहानी को परदे पर उतारने की पहली शर्त है इस बारे में शोध के लिए तमाम सामग्री का मौजूद होना। पर, जीवट अगर तिगमांशु धूलिया जैसा हो तो यह अनिवार्यता भी धरी की धरी ही रह जाती है।

हालांकि, मेहरा को भाग मिल्खा भाग के लिए तिगमांशु की तरह अपनी कहानी के लिए सालों बीहड़ में नहीं भटकना पड़ा है। भाग मिल्खा भाग की शूटिंग इन दिनों पूरी रफ्तार में हैं। मेहरा कहते हैं, मिल्खा सिंह के बुलंदियों पर पहुंचने से पहले का रास्ता बहुत ही मार्मिक और संघर्षों से भरा हुआ है। एक अनाथ के तौर पर पले बढ़े मिल्खा में हौसला शुरू से था। बिना मां-बाप के बच्चों को जैसी मेहनत बचपन में करनी होती है, मिल्खा ने उससे ज्यादा परिश्रम किया। मिल्खा के मां-बाप बंटवारे के दौरान की हिंसा में मारे गए थे। उस दौर में अपने लिए खेल में इतना ऊंचा मुकाम बनाना किसी जीवट वाले इंसान के ही बस में हो सकता है। मिल्खा के बारे में जितना मैंने जाना उस हिसाब से मैं कह सकता हूं कि हम सब कुछ करने के लिए अपने आस पास प्रेरणाएं तलाशते रहते हैं, लेकिन मिल्खा अपनी प्रेरणा खुद थे। और, उनके जीवन का बस यही पहलू मैं परदे पर उतारना चाहता हूं। पान सिंह तोमर के बाद मिल्खा सिंह यानी एक और एथलीट। लेकिन, ऐसे नायक हमारे समाज में हर तरफ फैले हुए हैं। एथलेटिक्स में पी टी ऊषा, टेनिस में विजय अमृतराज व सानिया मिर्जा, बैंडमिंटन में प्रकाश पादुकोण, पी गोपीचंद और सायना नेहवाल, फुटबॉल में वाइचुंग भूटिया जैसे तमाम नायक नायिकाएं हैं, जिन पर अगर संवेदनशील तरीकें से फिल्में बनें तो लोग पसंद कर सकते हैं। इनके अलावा भी तमाम ऐसे नायक हैं, जिनके बारे में लोग ज्यादा नहीं जानते।

फिल्म कारोबार विशेषज्ञ व ट्रेड मैगजीन सुपर सिनेमा के संपादक विकास मोहन कहते हैं, हिंदी के निर्माता व निर्देशक आमतौर पर आलसी किस्म के होते हैं। उनका ज्यादातर काम सहायकों के भरोसे चलता है। लेकिन, अगर आप किसी की जीवनी पर फिल्म बना रहे हैं तो जाहिर है इस बारे में आपको शोध खुद करनी होगी। आपके सहायक की एक छोटी सी गलती आपका पूरा करियर दांव पर लगा सकती है। इसीलिए, हिंदी सिनेमा के फिल्मकार अक्सर अंडरवर्ल्ड पर पहले से बनी फिल्मों को बतौर रिसर्च इस्तेमाल करते हैं और उनका कैमरा उसी पर घूमता फिरता रहता है। पान सिंह तोमर या भाग मिल्खा भाग जैसी फिल्में जिद और जीवट दोनों मांगती हैं, और इसकी कमी हमारे यहां हमेशा से रही है।

संपर्क - pankajshuklaa@gmail.com

(नेशनल दुनिया समाचार पत्र की 29 अप्रैल 2012 की संडे मैगजीन की यह कवर स्टोरी है)

2 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत ही बेहतरीन प्रस्तुति। इसे पढ़ने में भले ही हमें दो मिनट लगे हों लेकिन लिखने से पहले आपने गहन शोध किया है। बहुतों को तो इन फिल्मों के बारे में ज्यादा कुछ पता ही नहीं होगा। आपकी लेखनी फिल्मी पत्रकारिता की एक जीवंत मिशाल है। आशा है आगे भी हमें इसी तरह के लेख पढ़ने को मिलता रहेगा।

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