रविवार, 16 जनवरी 2011

फिर भूलूं, क्यूं याद करूं..


पं.शु.

मैं तारे भी तोड़ लाता आसमां में जाकर,
तुम ही छिटक के दूसरे का चांद हो गईं।

घनघोर घटाटोप* से मुझको कहां था डर,
तुम ही चमक के दूर की बरसात हो गईं।

रक्खा बचा के ग़म को तेरे नसीब से,
इतनी मिली खुशी के इफ़रात* हो गईं।

गाफिल* गिरेह भी होकर था तो मेरा यकीन,
तुम क़ातिल के हाथ जाकर वजूहात* हो गईं।

उन ख्वाबों, ख्वाहिशों का सिला क्या होगा,
भूला था तुमको, तुम ही मुलाकात हो गईं।


कलाकृति सौजन्य - संगीता रोशनी बाबानी
(समसामयिक भावों पर चित्र बनाने वाली संगीता भारतीय मूल की देश-विदेश में ख्याति प्राप्त चित्रकार हैं। उनकी एकल प्रदर्शनियां मुंबई समेत कई शहरों में लग चुकी हैं।)
*
घटाटोप - काले बादल
इफ़रात- उम्मीद से ज्यादा
गाफिल - बेख़बर
वजूहात - वजह का बहुवचन

20 टिप्‍पणियां:

  1. आपकी गज़ल ने मन मोह लिया………………दिल मे गहराई तक उतर गयी। एक कसक सी है आपकी गज़ल मे जो दिल पर वार करती है।

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  2. वंदना जी की जै हो! बहुत बहुत शुक्रिया।

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  3. चर्चा मंच के साप्ताहिक काव्य मंच पर आपकी रचना आज मंगलवार 18 -01 -2011
    को ली गयी है ..नीचे दिए लिंक पर कृपया अपनी प्रतिक्रिया दे कर अपने सुझावों से अवगत कराएँ ...शुक्रिया ..

    http://charchamanch.uchcharan.com/2011/01/402.html

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  4. बहुत खूबसूरत गज़ल ...

    .घनघोर घटाटोप* से मुझको कहां था डर,
    तुम ही चमक के दूर की बरसात हो गईं।

    बहुत पसंद आया यह शेर

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  5. खूबसूरत। चित्र भी और शब्द भी। संगीता जी और पंकज जी दोनों को बधाई।

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  6. सीपी श्रीवास्तव - भैये कुछ टिप्पणी भी करनी थी। केवल जै जै से काम नहीं चलेगा।

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  7. संगीता स्वरूप जी - ये तो वही हो गया उम्मीद से दोगुना। बहुत बहुत आभार इसे चर्चा मंच पर स्थान देने के लिए। और, ग़ज़ल के दूसरे शेर को खासतौर पर पसंद करने के लिए भी हार्दिक धन्यवाद।

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  8. दीपिका जी - बहुत बहुत धन्यवाद। आपकी टिप्पणी में शब्दों के बीच जो कुछ अनकहा है, उसके लिए आभार शब्द छोटा है।

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  9. निलेश जी - शुक्रिया। आपकी प्रतिक्रिया से हौसला और बढ़ गया।

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  10. दिल को छू रही है आपकी सुन्दर ग़ज़ल ...
    हर शेर खूबसूरत !

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  11. पंकज जी कैसी है आपकी नायिका कभी तो चांद कभी बरसात और कभी कतिल् के बाहों मे जा गिरी पर नायक है की मुलाकात के लिये बहाने ढूढ रहा है शायद इसे ही प्यार कहते हों भाई मैं इस मामले मे बिल्कुल अनाडी हूं अब ये है कि आपकी गज़ल् मुज्हे कुछः सबक सिखा सके इन सब् बातों के ऊपर आपकी गज़ल् बहोत बेह्तरीन है

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  12. घनघोर घटाटोप* से मुझको कहां था डर,
    तुम ही चमक के दूर की बरसात हो गईं

    इस लाजवाब शायरी के लिए दिली दाद कबूल फरमाएं पंकज जी...वाह...

    नीरज

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  13. क्या गज़ब किया है!!!!!!बेमिसाल ग़ज़ल है

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  14. श्रीश भाई,

    इठलाना, इतराना, रुठना और फिर मान जाना। यही नायिका का ममत्व है और यही उसका त्रिया चरित्र। पुरुष के भाग्य की तरह उसे भी कहां कौन जान पाया है? ;)

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  15. नीरज जी,

    बहुत बहुत धन्यवाद। आप के स्नेह से ही हम जैसे नौसिखियों का हौसला बढ़ता है।

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  16. रचना जी,

    बहुत बहुत धन्यवाद। सुखनवरों की जमात में चुपके से आ बैठने की कोशिश है बस...पीछे वाले फट्टे पर।

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