सियासत लेबलों वाले संदेश दिखाए जा रहे हैं. सभी संदेश दिखाएं
सियासत लेबलों वाले संदेश दिखाए जा रहे हैं. सभी संदेश दिखाएं

रविवार, 5 फ़रवरी 2012

मुझे यश लेना नहीं आता : धर्मेंद्र

धर्मेंद्र से मिलना हिंदी सिनेमा के उस दौर में पहुंच जाने जैसा होता है, जब सुपरस्टार वाकई सुपरस्टार हुआ करते थे। लेकिन, धर्मेंद्र शोहरत की बजाय इंसानियत को जीते हैं। खुद को पुरस्कारों के मामले में बदनसीब मानते रहे धर्मेंद्र को भारत सरकार ने अब जाकर पद्मभूषण से सम्मानित किया है। उनसे एक खास बातचीत।

© पंकज शुक्ल। 2012

76 साल की उम्र में 52 साल सिनेमा के नाम कर दिए आपने। क्या फर्क महसूस करते हैं, तब के और आज के सिनेमा में?
-सिनेमा एक काल्पनिक जिंदगी है। जमीनी हकीकत से चीजें यहां अक्सर बिल्कुल जुदा होती हैं। मेरी मां हमेशा कहती रहती थी कि ये अच्छी जगह नहीं है। मैं मशहूर हुआ तो मेरी मां यहां आई थी। मेरी रोज रोज की भागदौड़ और यहां के माहौल को देखने के बाद उसने कहा कि मेरी तो दुआ है कि किसी का बेटा ऐक्टर न बने। मैंने पूछा भी कि मां तू ऐसा क्यों कहती है। तो वो बोली, आप हर फिल्म के साथ जीते हो, हर फिल्म के साथ मरते हो। मैं अपने बेटे को मरते नहीं देखना नहीं चाहती। मेरे पिता भी मेरे फिल्मों में आने के खिलाफ थे। लेकिन, अब जमाना और है। अब माता पिता खुद अपने बच्चों को हीरो बनाने में लगे रहते हैं।

लेकिन, कम से कम अपने बेटों को तो आपने भी हीरो बनाने की कोशिश की। यही मेहनत आपने अपनी बेटी एशा के लिए नहीं की, भला क्यों?
-मेरे फैसले अक्सर मेरी तहजीब और मेरे संस्कारों से निकलते हैं। मेरा अब भी मानना है कि फिल्म इंडस्ट्री लड़कियों के लिए बहुत मुश्किल जगह है। दूसरे एक बेटी के लिए एक बाप कितना ख्याल करता है ये तो एक बेटी का बाप ही जान सकता है। अभिनय तो दूर की बात है, मैंने तो एशा को खेलने के लिए भी नहीं बाहर जाने दिया। एशा एक अच्छी फुटबॉल खिलाड़ी रही है। उन दिनों राष्ट्रीय स्तर पर खेल रही थी और अपनी टीम के साथ देश के अलग अलग हिस्सों में जाना चाहती थी पर मैंने जाने नहीं दिया। अब पछताता भी हूं अपने इन फैसलों को लेकर कि क्यूं उसे तब नहीं जाने दिया। जाने दिया होता तो शायद आज देश की फुटबॉल कैप्टन होती। सच ये भी है कि अब जमाना बदल गया है। लड़कियां लड़कों से कंधे से कंधा मिलाकर चल रही है। पायलट बन गई हैं, कितने हजार फुट से नीचे उतर रही है। पर इस सबके बावजूद मेरा अब भी ये मानना है कि ये फिल्म लाइन बहुत ही काल्पनिक है।

अभिनय का जज्बा आपमें अब भी कायम है। इतना हौसला कहां से लाते हैं?
-अभिनय मेरे लिए एक तपस्या रही है। मेरी इबादत है ये। इस फिल्म जगत में मेरा हर करम एक सजदा है। शुरू शुरू में मेरी एक ही धुन रहती थी कि मुझे ऐक्टर बनना है। और, ये धुन बनी रहे इसके लिए कभी हौसला नहीं खोया। कई बार ऐसा हुआ है कि मैं मुंबई में मीलों पैदल चला हूं काम के सिलसिले में, लेकिन चेहरे पर एक शिकन तक नहीं आने दी। इसके साथ एक बात और रही जिसने मेरा हौसला बनाए रखा वो था अपनी जिम्मेदारियों का एहसास। मैं भले मुंबई आ गया लेकिन मैंने अपनी पारिवारिक जिम्मेदारियों से मुंह नहीं मोड़ा। जब शुरू शुरू में पहली बार पैसा आया तो मैंने पहली कार एक फिएट खरीदी। उस वक्त मेरे भाई अजित ने मुझसे कहा कि तुम स्टार बन गए हो। एक हैरल्ड ले लो। हैरल्ड उस जमाने की बड़ी फैशनेबल कार होती थी। ऊपर से खुल जाती थी। तो मैंने कहा कि नहीं फिएट ही लेनी है। इसलिए कि गर ऐक्टर के तौर पर नहीं चल पाया तो इसे टैक्सी बनाकर चला लेंगे। कम से कम अपनी जिम्मेदारियां तो निभा सकेंगे और लौटकर सानेवाल नहीं जाना पड़ेगा। मुझे तो लगता है कि भगवान हमारी सुनता जरूर है। मैं तो ऊपरवाले का बहुत बहुत शुक्रगुजार हूं, जो मुझे अंगुली पकड़कर यहां तक ले आया और देश दुनिया में करोड़ों चाहने वाले दिए।

मेरा निजी तौर पर ये मानना है कि आप किसी भी पेशे में हों, कितने भी कामयाब हों, आपका इंसान बने रहना बहुत जरूरी है। मेरा ये भी मानना है कि कोई अगर आपके दरवाजे पर आपसे मिलने पहुंच जाता है तो उससे मिलना जरूर चाहिए।
उत्तर भारत खासकर पंजाब, हरियाणा से आने वाले पर्यटक अक्सर ये कहते सुने जाते हैं कि मुंबई में दो ही चीजें देखने लायक हैं। एक समंदर दूसरा धर्मेंदर। इस चाहत को आप किस तरह लेते हैं?
-(ठहाका लगाकर हंसते हैं) एक चीज मैं आपको बताऊं कि लोग मुझे सुपरस्टार समझकर नहीं बल्कि एक इंसान की तरह प्यार करते हैं। डार्लिंग डी का नाम आप लोगों ने अब तो मेरे नाम के साथ जोड़ दिया है। पर मुझे जो मोहब्बत मिली, वो शायद मेरी मेहनत का नतीजा है। इसके बावजूद मेरा निजी तौर पर ये मानना है कि आप किसी भी पेशे में हों, कितने भी कामयाब हों, आपका इंसान बने रहना बहुत जरूरी है। मेरा ये भी मानना है कि कोई अगर आपके दरवाजे पर आपसे मिलने पहुंच जाता है तो उससे मिलना जरूर चाहिए। हम आखिर अभिनेता बनते क्यों हैं? चाहत पाने के लिए ही ना? तो जो हमारे चहीते हैं, उनको चाहत देनी चाहिए। मेरा उसूल है कि-
कोई मुस्कुरा देता हूं मैं हाथ बढ़ा देता हूं,
कोई हाथ बढ़ा देता है मैं सीने से लगा लेता हूं,
कोई सीने से लगा लेता है मैं दिल में बसा लेता हूं..

लेकिन ये शहर तो दूसरे ही किस्म का है। यहां लोग आपके प्यार को आपकी कमजोरी समझने लगते हैं। आपको भी इसका एहसास हुआ कभी?
-(कुछ देर सोचने के बाद) क्या कहूं? हम जाट हैं हमें कारोबार करना नहीं आता। फिल्म प्रोडक्शन में उतर कर हमने भी अपने हाथ जलाए हैं। लोग अपने बनकर आते रहे और हमारी ही जेब काटकर जाते रहे। आप यकीन नहीं करेंगे, हमने इतनी सुपरहिट फिल्में बनाईं पर कभी किसी फिल्म का ओवर फ्लो हमारे पास नहीं नहीं आया। घायल ने कितना बिजनेस किया, लेकिन इसके मुनाफे का हिस्सा हमारे पास तक नहीं आया। बेताब का नहीं आया। अब मेरा तो मानना है कि लोग ऐसे ही होते हैं। पर हमें इस सबमें अपना माथा नहीं खराब करना चाहिए, ऐक्टिंग करते रहना चाहिए।

और, सियासत का अनुभव कैसा रहा?
-मैं सियासत से पूरी तरह दूर हो गया हूं। मेरे हिसाब से किसी जज्बाती इंसान के बस का रोग नहीं है सियासत। हम अच्छा काम करना चाहते हैं, लेकिन लोग उसे भी नहीं करने देते। मेरी एक बात मानिए, कभी आपको मौका लगे तो मेरे निर्वाचन क्षेत्र जाकर पूछिएगा कि धर्मेंद्र ने कितना काम किया? जो काम वहां पचास साल में नहीं हो पाया वो मैंने किया। सच्ची सच्ची कहूं तो मुझे यश लेना नहीं आता। मुझे अपनी तारीफ में किसी के मुंह से कुछ कहलवाना नहीं आता। किसी किसी को ही आता है। ऐसे लोग कुछ ना करके भी अपनी तारीफें करवाते रहते हैं।

शायद इसीलिए पचास साल से ज्यादा वक्त फिल्म जगत में बिताने और एक से एक सुपरहिट फिल्में देने के बावजूद आपको बस गिनती के पुरस्कारों से ही संतोष करना पड़ा। कभी सोचते हैं इस बारे में?
-पहले बुरा लगता था फिर आदत हो गई। पहले सूट बूट पहनकर फिल्म पुरस्कारों में जाता था और पुरस्कार किसी और को मिल जाता था तो बुरा लगता था। फिर इसकी आदत हो गई। और, पुरस्कार देने भी शुरू किए तो दिया लाइफ टाइम अचीवमेंट पुरस्कार। इस पुरस्कार को रिटायरमेंट पुरस्कार माना जाता है, लेकिन मेरा हौसला इसके बाद दोगुना हो गया। मैं नए उत्साह के साथ काम करने में जुट गया। सरकार का शुक्रगुजार हूं कि उसे मैं इतने साल भी याद रहा। लेकिन, मेरे दिल की बात पूछिए तो किसी भी कलाकार के लिए सबसे बड़ा पुरस्कार होता है दर्शकों की तालियां, उनका प्यार, उनके दिल में अपने लिए छोटी सी जगह हमेशा हमेशा के लिए कायम रखना। दर्शकों की चाहत से बड़ा पुरस्कार कोई दूसरा नहीं होता।


pankajshuklaa@gmail.com

(संडे नई दुनिया पत्रिका के 5 फरवरी 2012 के अंक में प्रकाशित)

सोमवार, 3 अगस्त 2009

सहकारिता को सियासत का श्राप - 2


महाराष्ट्र में गन्ना खेती पूरे सूबे में होती हो, ऐसा भी नहीं है। बामुश्किल पांच फीसदी कृषि योग्य भूमि पर होने वाली गन्ने की खेती पूरे राज्य की खेती के लिए मिलने वाली आपूर्ति का 60 फीसदी अकेले डकार जाती है। ये गन्ने की खेती का ही असर है कि इन इलाकों में भूजल का स्तर 15 मीटर से गिरकर 65 मीटर या उससे भी नीचे चला गया है। और, ये सब होता है उस गन्ना लॉबी को फायदा पहुंचाने के लिए जिसकी मुख़ालिफत करने वाला फिलहाल तो महाराष्ट्र में कोई नहीं दिखता। सहकारिता के बूते कैसे नेताओं ने अपनी किस्मत चमकाई, इसके लिए बस एक उदाहरण काफी है।

महाराष्ट्र में सहकारिता आंदोलन की अगुआई करने वालों में से प्रमुख रहे हैं विट्ठल राव विखे पाटिल। देश की पहली सहकारी चीनी मिल विट्ठल राव विखे पाटिल ने अहमदनगर जिले में लगाई थी सन 1950 में। इसे एशिया की भी पहली सहकारी चीनी मिल माना जाता है। इस चीनी मिल से अहमदनगर जिले के किसानों को फायदा हुआ ना हुआ हो, विखे पाटिल परिवार अरबपति ज़रूर हो गया। पहले इस चीनी मिले से निकलने वाली खोई के इस्तेमाल के लिए पेपर मिल लगी। फिर चीनी बनाते समय निकलने वाले शीरे से शराब बनाने के लिए डिस्टलरी लगी। बायोगैस प्लांट और केमिकल प्लांट भी खुल गए। 14 साल बाद ही विखे पाटिल परिवार ने चीनी का पैसा पढ़ाई का धंधा जमाने में लगाना शुरू कर दिया और देखते ही देखते डिग्री कॉलेज से लेकर इंजीनियरिंग कॉलेज और मेडिकल कॉलेज तक खोल डाले। जल्दी ही इस परिवार ने एक भारी भरकम अस्पताल और एक सहकारी बैंक भी खोल लिया। हवा का रुख समझना विखे पाटिल परिवार को खूब आता है। विखे पाटिल परिवार के वारिस बाला साहेब को कांग्रेस हारती दिखी तो वह शिवसेना में चले गए और एनडीए की सरकार में 1999 में राज्य मंत्री और फिर 2002 में कैबिनेट मंत्री हो गए। 2004 में बाला साहेब विखे पाटिल फिर कांग्रेस में लौट आए। एक अंग्रेजी अख़बार ने जब ‘सहकारिता’ के ज़रिए अरबपति बने विखे पाटिल परिवार की संपत्ति की खोजबीन की तो महाराष्ट्र की सियासत में हंगामा मच गया। लेकिन लोगों ने ये भी खोज निकाला कि ये परिवार तो बिजली बेचने का भी काम करता है।

अहमदनगर के करीब दो सौ गांवों को बिजली पहुंचाने का काम भी सहकारिता के नाम पर किया गया। पहले एक सोसाइटी बनाई गई, फिर महाराष्ट्र राज्य बिजली बोर्ड से बिजली खरीदी गई। ये सरकारी बिजली बिकी तो खूब लेकिन सरकार को फूटी कौड़ी भी नहीं मिली। सोसाइटी पर बकाया कोई चार सौ करोड़ का हो चुका है लेकिन, मामले को अब अदालती दांव पेंचों में उलझा दिया गया है।

महाराष्ट्र में सहकारिता के नाम पर करोड़ों बनाने का खेल सूबे की सरकार से नूरा कुश्ती करके खेला जाता है। नेताओं ने नियम ऐसे बनवाए कि अफसर चाहे तो भी कुछ नही कर सकता। कोई भी शख्स दस आदमियों को जोड़कर सहकारी समिति बना सकता है। सहकारी समिति को ऋण मिल सके इसके लिए गारंटी देने की ज़िम्मेदारी राज्य सरकार की है। और, ये गारंटी भी आधी आधी नहीं बल्कि 90 और दस फीसदी के अनुपात में होती है, यानी कर्ज़ ना चुकता हुआ तो इसका 90 फीसदी चुकाने की ज़िम्मेदारी राज्य सरकार की है। बस सारा खेल इसी पेंच के ज़रिए चलता आ रहा है और आगे भी इसे कोई रोक पाएगा, कहा नहीं जा सकता। रिजर्व बैंक और नाबार्ड के नियमों के मुताबिक बिना राज्य सरकार की गारंटी के सहकारी समितियों को कैश क्रेडिट नहीं मिल सकता। बीच में महाराष्ट्र सरकार ने इसके लिए सख्ती भी दिखाई, लेकिन आसन्न विधानसभा चुनावों को देखते हुए कांग्रेस और राकांपा दोनों ने सरकारी खज़ाने को खुला छोड़ देने में ही भलाई समझी।

कर्ज़ में डूबी महाराष्ट्र की सहकारी चीनी मिलों की हालत ये है कि 130 में से शायद ही दो दर्जन भी अपने बूते गन्ना किसानों को न्यूनतम समर्थन मूल्य देने की सूरत में न हों। विश्व बैंक ने महाराष्ट्र सरकार के कामकाज पर अक्सर आंखें तरेरी हैं, लेकिन जब दोषी और जज एक ही पाले में हों तो भला सुनने वाला कौन है? महाराष्ट्र सरकार ने बीच में ये नीति बनाई थी कि वो सहकारी चीनी मिलों को आत्मनिर्भर होने के लिए ज़ोर लगाएगी, ताकि वो सरकारी कर्ज चुकता कर सकें, लेकिन अफसोस ऐसा हो न सका। और, विश्व बैंक को भी ये मानना पड़ा कि महाराष्ट्र में सहकारिता आंदोलन अपने उद्देश्य पूरे नहीं कर सका और वहां जनता की कीमत पर चंद लोग फायदा लूट रहे हैं।

लेकिन, ये सूरते हाल शायद अब बदल सकें क्योंकि केंद्र में सरकार भले अपनी हो, लेकिन घर का खर्च चलाने की जिम्मेदारी तो महाराष्ट्र सरकार को ही उठानी होगी। उत्तर प्रदेश में इसकी शुरुआत हो चुकी है और अगर महाराष्ट्र की सहकारी चीनी मिलों के निजी क्षेत्रों में जाने की बात उठी तो ज़ाहिर है मुंबई से लेकर दिल्ली तक कई कुर्सियां एक साथ हिलने लगेंगी। उधर, धीरे धीरे ही सही लेकिन निजी कंपनियों ने भी खेती की महत्ता समझ ली है। खेती किसानी के लिए हर साल बजट में जो प्रोत्साहन राशियां दी जा रही हैं, उनका फायदा लेने के लिए तमाम कॉरपोरेट कंपनियों ने अपने घोड़े दौड़ाने शुरू कर दिए हैं। ये कंपनियां किसानों की ज़मीन पर अनुबंध खेती करवा रही हैं। किसान एक तयशुदा मानकों के हिसाब से फसल उगाता है और कंपनी उसकी सरकारी दाम से ज़्यादा कीमत देकर खरीद कर लेती है।

गोदरेज, टाटा, रिलायंस और भारती जैसी कंपनियों ने कृषि उत्पादों की खरीद फरोख्त का देशव्यापी काम शुरू कर दिया है। पेप्सिको पंजाब में टमाटर, मिर्च, मूंगफली खरीद रही है, आईटीसी ने सब्जी और फल खरीदने शुरू कर दिए। टाटा ने पंजाब और कर्नाटक समेट महाराष्ट्र में भी फूल और सब्जी की अनुबंध खेती शुरू कर ही दी है, पैंटालून भी महाराष्ट्र में किसानों की सहकारी समितियां बनाकर आम का धंधा शुरू कर चुकी है। सहकारी समितियों में चलने वाली गन्ने की सियासत से उकताए छोटे किसानों ने भी अगर गन्ने की खेती छोड़ इन बड़ी कंपनियों का दामन थाम लिया तो चीनी वाकई कड़वी हो सकती है। ऐसा ना होने देने के लिए महाराष्ट्र की चीनी मिलों को पूरा करना होगा अपना घाटा, जिसका इलाज़ भी निजीकरण की कड़वी दवाई में ही नज़र आता है।

(समाप्त)