सपने होते ही हैं सच कर दिखाने के लिए, लेकिन तब जब आप इन्हें खुली आंखों से देखें। हिमाचल प्रदेश के एक छोटे से कस्बे में आंखें खोलनी वाली कंगना रनौत ने हिंदी सिनेमा में आने के महज पांच साल के भीतर अपने सपने सच कर दिखाए हैं। लेकिन, जैसा कि आमतौर पर हर कामयाबी के साथ होता है, उनके अरमान भी अब आसमान छूने को बेताब हैं। सलमान खान से अपनी कथित नजदीकियों, हताश-निराश किरदारों से बाहर निकलने की अपनी कोशिशों और आने वाले कल को लेकर देखे गए नए सपनों को कंगना ने साझा किया दुनिया के सबसे बड़े होटलों में से एक दुबई के मेदान होटल में हुई मुलाक़ात के दौरान।
© पंकज शुक्ल। 2012
मंडी (हिमाचल प्रदेश) से दिल्ली और दिल्ली से बरास्ते सिनेमा लाखों लोगों के दिलों तक। मंजिलें तो खैर अभी और भी हैं, पर खुद कंगना की नजर में कंगना अब कहां है?
-मैं अब फिल्म जगत में खुद को काफी तनाव रहित माहौल में पाती हूं। मैंने मुंबई में काफी संघर्ष किया है और यहां तक कि तमाम फिल्में मिल जाने के बाद भी दो तीन साल पहले तक ये तय नहीं था मेरा यहां क्या होगा? लेकिन मेरे प्रशंसकों ने मुझे पसंद किया और फिल्म जगत के लोग भी अब मुझे जानते हैं। ये लोग ये भी जानते हैं कि मुझे हिंदी सिनेमा की आम हीरोइन की परंपरागत छवि वाले किरदार पसंद नहीं है। यही कंगना की नई इमेज है। तमाम निर्माता निर्देशक अब मेरे पास उन्हीं किरदारों के प्रस्ताव लेकर आते हैं, जो न सिर्फ चुनौतीपूर्ण होते हैं, बल्कि जिनमें अभिनय की असीम संभावनाएं भी होती हैं।
कम ही होता ऐसा कि किसी कलाकार को पहली ही फिल्म में फिल्मफेयर पुरस्कार मिल जाए और करियर के दो साल के भीतर अभिनय का राष्ट्रीय पुरस्कार भी मिल जाए। पर, जिन फिल्मों के लिए आपको ये पुरस्कार मिले, उन्होंने ही आपके करियर में अड़ंगा भी लगाया, आप ऐसा मानती हैं कि नहीं?
-आप सही कह रहे हैं। गैगस्टर, वो लम्हें और फैशन जैसे किरदार मेरे पास अनगिनत आते थे। लेकिन, फैशन के आते आते मुझे लग गया था कि इस खांचे में बांधते ही मेरा सफर रुक जाएगा। उन दिनों मेरे पास सारे प्रस्ताव एक दुखी लड़की या जीवन से हताश-निराश लड़की के ही आते थे। तो मैंने जानबूझकर तनु वेड्स मनु, डबल धमाल और रास्कल्स जैसी फिल्में कीं। इनमें से कुछ फिल्में नहीं भी चलीं लेकिन मैं मानती हूं कि मैं किसी खांचे में बंधने से बच गई। रास्कल्स की नाकामी के बारे में आप पूछें तो मेरा मानना है कि जो हो जाता है वो हो जाता है। ऐसी फिल्मों की कहानी भी नहीं होती है। ऐसी फिल्में बस बन जाती हैं। जैसे गोविंदा जी की फिल्में बना करती थीं। तो ऐसी फिल्में कभी चल जाती हैं। कभी नहीं भी चलतीं। अब आगे भी जो मैं फिल्में कर रही हूं, उनमें भी मेरे किरदार ऐसे हैं, जिनमें जान है। मैं अपनी अदाकारी को अभी और आगे ले जाना चाहती हूं और इस मामले में अपने को किसी दायरे में बांधकर कतई नहीं रखना चाहती। मुझे उम्मीद है कि क्रिश 2, तनु वेड्स मनु 2 और डेढ़ इश्किया में मेरी मेहनत को लोग सराहेंगे।
अपने किरदारों को लेकर आप अक्सर समालोचकों के निशाने पर रही हैं, किस तरह से लेती हैं आप अपनी आलोचना को?
-सच पूछें तो मैं अपनी आलोचकों की बहुत बहुत शुक्रगुजार हूं। मैं ये भी नहीं कहूंगी कि जितना श्रेय मुझे मेरी सफलता का मिलना चाहिए था वो नहीं मिला। मेरे बारे में जो भी अच्छा या बुरा लिखा जाता है, वो मैं सब पढ़ने की कोशिश करती हूं। मेरा मानना है कि मेरे करियर को संवारने और उसे नई दिशा देने में आलोचनाओं का सबसे बड़ा हाथ रहा है। मेरे हताश निराश किरदारों के बारे में बार बार लिखा गया तो शायद उसी ने मुझे तनु वेड्स मनु करने के लिए प्रेरित किया। मेरा मानना है कि अगर हम आलोचना को भी सकारात्मक तरीके से लें, तो हमें खुद को बदलने में काफी मदद मिल सकती है।
लोग अक्सर मुझे सलमान कैंप से जोड़ते हैं और मुझे उनका करीबी मानते हैं। लेकिन कोई भी हीरोइन किसी कैंप की तब होती है जब वो उस हीरो के साथ फिल्म करे। लेकिन, मेरी तो कोई फिल्म फिलहाल सलमान खान के साथ नहीं बन रही। महेश मांजरेकर की एक फिल्म को लेकर हम लोगों ने काफी मेहनत भी की, लेकिन अभी तक उसकी स्क्रिप्ट ऐसी नहीं लिखी जा सकी जो सलमान खान को प्रभावित कर सके।
लेकिन हिंदी सिनेमा में वूमन ओरिएंटेड फिल्मों का चलन लौटाने को लेकर जो हंगामा द डर्टी पिक्चर के वक्त हुआ, वो आपकी फिल्म तनु वेड्स मनु के वक्त तो नहीं हुआ? जबकि इसकी शुरूआत तो इसी फिल्म से मानी जानी चाहिए।
-हो सकता है आपकी बात में दम हो। पर मैं ये नहीं कहूंगी कि मुझे जितनी श्रेय मिलना चाहिए था वो नहीं मिला। यहां नायकों के कंधे पर रखकर बंदूक चलाने की लोगों को आदत है। ये कहा जाता रहा है कि यहां कोई हीरो चाहेगा तो ही कोई लड़की काम करेगी। पर विद्या बालन की हिम्मत की तारीफ फिर भी करना चाहूंगी। बहुत लोगों को शायद पता न हो पर द डर्टी पिक्चर का प्रस्ताव पहले मेरे पास ही आया था। लेकिन तब शायद मैं किरदारों के चयन को लेकर इतना बहादुर नहीं थी। मेरा मानना है कि किसी भी कलाकार के करियर में एक वक्त आता है जब वो इतिहास बनाने की कूवत हासिल कर लेता है। विद्या की फिल्म ने 125 करोड़ रुपये का कारोबार किया है और वाकई उन्होंने हिंदी सिनेमा में एक इतिहास बना डाला है।
ज्यादा बड़ी बात ये है कि विद्या ने ये इतिहास बिना शाहरुख खान, आमिर खान या सलमान खान की मदद के हासिल किया है। आपको क्या मानना रहा है कि कोई हीरोइन यहां क्या बिना शाहरुख खान, आमिर खान और सलमान खान के साथ काम किए भी नंबर वन हीरोइन बन सकती है?
-क्यों नहीं? बिल्कुल बन सकती है। बल्कि मैं खुद अगले दो साल में ये करके दिखा दूंगी। लोग अक्सर मुझे सलमान कैंप से जोड़ते हैं और मुझे उनका करीबी मानते हैं। लेकिन कोई भी हीरोइन किसी कैंप की तब होती है जब वो उस हीरो के साथ फिल्म करे। लेकिन, मेरी तो कोई फिल्म फिलहाल सलमान खान के साथ नहीं बन रही। महेश मांजरेकर की एक फिल्म को लेकर हम लोगों ने काफी मेहनत भी की, लेकिन अभी तक उसकी स्क्रिप्ट ऐसी नहीं लिखी जा सकी जो सलमान खान को प्रभावित कर सके। मुंबई हीरोज की मैं ब्रांड अंबेसडर हूं तो इसके हर मैच के दौरान खिलाड़ियों का उत्साह बढ़ाने के लिए मैं मौजूद रहती हूं, बस। रही बात मेरी अपनी तरक्की को तो मैं मानती हूं कि मैं अभी ज्यादा मैच्योर रोल नहीं करना चाहती। मैं अभी सिर्फ 25 साल की हूं और अभी नाच गाने वाले, प्यार मोहब्बत वाले और थोड़ा बहुत लोगों को गुदगुदाने वाले माधुरी दीक्षित जी और श्रीदेवी जी वाले रोल कर सकती हूं। पांच साल बाद शायद मैं थोड़ा गंभीर किस्म के रोल भी फिर से करना चाहूं।
चलते चलते, एक सवाल आपकी अगली फिल्म क्रिश की सीक्वेल को लेकर। क्या आप फिल्म में वही रोल कर रही हैं जो पहले चित्रांगदा सिंह को दिया गया था? कुछ बताएंगी इस रोल के बारे में?
-मेरी जो बात फिल्म के निर्देशक राकेश रोशन जी से हुई, उसके मुताबिक ये रोल मेरी कद काठी के हिसाब से ही लिखा गया। स्क्रिप्ट में भी कई जगहों पर कंगना ही लिखा हुआ है। पहले जब मेरे पास इस फिल्म का प्रस्ताव आया था तो मैं दूसरी फिल्मों की शूटिंग में व्यस्त थी। इसीलिए राकेश जी ने कुछ और लोगों को भी इस किरदार के लिए सोचा। पर, बाद में फिल्म की शूटिंग आगे खिसकी तो तब तक मेरे पास भी वक्त निकल आया। बस, इसके बाद ही मैं फिल्म का हिस्सा बन गई। फिल्म में मेरा किरदार एक सुपरवूमन का किरदार है और ये विवेक ओबेरॉय के अपोजिट बिल्कुल नहीं है। फिल्म में मेरी एक अलग तरह की प्रेम कहानी है, पर इस साइंस फिक्शन में मेरे किरदार का ज्यादा जोर एक्शन दृश्यों पर है। फिल्म के लिए चीन से आए हुनरमंद मुझे ये सिखा रहे हैं। हो सकता है, इस फिल्म के बाद मुझे हिंदी सिनेमा की एक्शन हीरोइन का तमगा मिल जाए।
विशेष- कंगना का कहना है कि उनका सरनेम हिंदी अखबारों में अक्सर गलत लिखा जाता है। कंगना का सही सरनेम रनौत है और वह चाहती हैं कि इसे ऐसे ही लिखा जाए। सुधी पाठकों की सूचनार्थ :)
pankajshuklaa@gmail.com
(संडे नई दुनिया के 22 जनवरी 2012 के अंक में प्रकाशित)
gud main bhi yahi koshish kar raha hun ke bagair kisi ke support ke aagey badhun
जवाब देंहटाएंThat's very good spirit, Shuaib.
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