रविवार, 11 दिसंबर 2011

मैं ग़ालिब नहीं, आनंद बक्षी बनना चाहता हूं...

क्या आप जिंदगी को जीने में यकीन करते हैं? तो जाहिर है गाना भी गाते होंगे। सबके सामने न सही, अकेले में ही सही। जरा सोचिए तो कौन सा गाना है जो आपके जेहन में बार बार उभरता रहता है। जाहिर है इस गीत में कोई न कोई कविता जरूर छुपी होगी। पर क्या आपको लगता नहीं कि हिंदी सिनेमा के गीतो से कविता धीरे धीरे गायब हो रही है? तीन अलग अलग धाराओं के गीतकारों जावेद अख्तर, इरशाद कामिल और जलीस शेरवानी से बातचीत में जानने की कोशिश की गई कि क्या है इसकी वजह?

पंकज शुक्ल

जावेद अख्तर जब कहते हैं कि हिंदुस्तान मूल रूप से गाने वालों का देश रहा है और हिंदी सिनेमा के मौजूदा संगीत में गाने की तरफ तवज्जो कम और बाजे की तरफ ज्यादा हो चली है, तो बात को सिरे से पकड़ने की कोशिशें करना हर उस शख्स के लिए लाजिमी हो जाता है जो कभी बाथरूम में, कभी रात के अंधेरे में, कभी स्टीयरिंग हाथ में लिए या कभी बस यूं ही तनहाई में गुनगुनाते रहने का आदी रहा है। लेकिन, हम जो गाने गुनगुनाते हैं, वो कौन से गाने हैं? क्या हम शीला, मुन्नी, जलेबी गाते हैं? या फिर हम अब भी फाया कुन फाया कुन, पी लूं तेरे भीगे भीगे, तेरे मस्त मस्त दो नैन के साथ साथ एक लड़की को देखा तो ऐसा लगा, ही गुनगुनाते हैं। हिंदी सिनेमा के गीतों से कविता गायब होती जा रही है। पर साहिर लुधियानवी, मजरूह सुल्तानपुरी, गोपाल दास नीरज, योगेश, संतोष आनंद का लिखा लोग अब भी गुनगुनाते हैं, गाते हैं और इन गानों के शब्दों के मायने तलाशते हैं, फिर हिंदी सिनेमा के गीतों से कविता गायब क्यूं हो रही है?

जवाब मशहूर गीतकार जलीस शेरवानी देते हैं, आज हम अनपढ़, अनभिज्ञ और अज्ञान लोगों के बीच अपनी रोटी कमाने को मजबूर हैं। जो लोग हमसे काम ले रहे हैं वो कविता को नहीं समझते। वो सिर्फ पैसे को समझते हैं। कुछ ढंग का लिखकर इनके पास ले जाओ तो कहते हैं ये बहुत ओल्ड स्कूल थॉट है, हमें कुछ नया चाहिए। कोई हुकर लाइन लेकर आओ।
हिंदी सिनेमा के गीतों से कविता के लुप्त होने का दर्द जावेद अख्तर ज्यादा शिद्दत से महसूस करते हैं। वह कहते हैं, लेकिन हम कुछ कर नहीं सकते। मेरे पास तो लोग इसीलिए गाने लिखवाने नहीं आते। वे कहते हैं, अरे इसके पास मत जाओ। ये तो पोएट्री लिख देता है। अब बताइए पोएट्री नहीं लिखी जाएगी गीतों में तो फिर क्या लिखा जाएगा। मुझे जो चीज समझ आ रही है वो ये कि हमारे समाज में जो हाल के बरसों मंे तेजी आई है, वो हर जगह अपना असर छोड़ रही है। हम लोगों का चैन जा रहा है। समाज का ठहराव जा रहा है और चीजों को गहराई में जाकर समझने का हमारे पास वक्त नहीं है। ऐसा लोग कहते हैं। तो गीतों में भी ये ठहराव और ये चैन अब नहीं दिखता। कसूर जितना सिनेमा बनाने वालों का है उतना ही देखने और सुनने वालों का। हो सकता है कल को हमारे भीतर कहीं न कहीं ठहराव आना शुरू हो जाए और फिर से हमें गीतों में चैन और सुकून मिलने लगे।

गीतकार इरशाद कामिल इससे भी आगे जाकर दो बातें कहते हैं। वह कहते हैं, सिनेमा और साहित्य का जुड़ाव भले ज्यादा न हो पाया हो लेकिन जब तक अदब की दुनिया में शोहरत पाए लोगों ने सिनेमा की संगत कायम रखी, सिनेमा ज्यादा बिगड़ा नहीं। मैं तो कहता हूं कि हिंदी सिनेमा में लिखे गए गीतों में कविता कायम रखी जा सकती है और ये हिंदी साहित्य का हिस्सा भी हो सकती है। क्यों आखिर अदब और सिनेमा का अलम साथ साथ नहीं चल सकता। इरशाद कामिल ने हाल के तीन चार बरसों की तमाम हिट फिल्मों मसलन जब वी मेट, मेरे ब्रदर की दुल्हन, रॉक स्टार, वन्स अपॉन ए टाइम इन मुंबई के गीत लिखे हैं। वह कहते हैं, मैं धुनकी धुनकी लागे भी लिखता हूं तो लिखता हूं कि तू हवा पानी आग है, तू दगा दानी दाग है, क्या ये कविता नहीं है? हिंदी सिनेमा के गीतों को सिर्फ बाजारू चीज समझने की आदत सिनेमा देखने वालों की है।

जलीस शेरवानी को इरशाद कामिल की इस बात से नाइत्तिफाकी है। वो कहते हैं, अदब की दुनिया खुद ही अपने आप में सिमटी रहती है। वो हिंदी सिनेमा को सही नजरिए से नहीं देखती, ये और बात है कि साहित्य के बड़े बड़े नाम सिनेमा से जुड़ने के लिए पहले भी हाथ पांव मारते रहते थे और आज भी मारते हैं। पर, जल्द ही इन लोगों को भी समझ में आ जाता है कि सिनेमा में दो वक्त की रोटी कमाने के लिए तमाम समझौते करने पड़ते हैं। आनंद बक्षी से बड़ा गीतकार मैं किसी को नहीं मानता, लेकिन कितनी इज्जत दी उनको हिंदी कविता के पैरोकारों या साहित्य के अलमबरदारों ने। किसी के जाने के बाद उसे महान बताना, उसकी याद में मुशायरे करना और बात है, उसके जीते जी उसको अदब में इज्जत न मिले तो क्या फायदा। मैं तो रोटी सिनेमा के गीतों से कमाता हूं और लिखने की कसक मुशायरों के लिए लिखकर अलग से पूरी करता हूं।

इन हालात के लिए जावेद अख्तर हिंदी सिनेमा के मौजूदा गीतों पर हावी होते संगीत को जिम्मेदार मानते हैं। वह कहते हैं, अब तो सिर्फ शोर सुनाई देता है। शब्द सुनाई कहां देते? कोई अच्छी लाइन आती भी है, तो उससे पहले तबले, ड्रम या किसी और वाद्य की ऊंची थाप चलने लगती है। ये संगीत का ऊंचा शोर, थाप, ये तो पश्चिम की निशानी रही है। भारत देश मूल रूप से गवैयों का देश रहा है और हम गाना गाने में यकीन करते हैं, गाना बजाने में नहीं। हिंदी सिनेमा के संगीत में गाने के बोलों की बजाय संगीत से श्रोता को आकर्षित करने की प्रवृत्ति ने ही सिनेमा के गीतों से कविता को नदारद कर दिया है।


इन हालात के लिए जावेद अख्तर हिंदी सिनेमा के मौजूदा गीतों पर हावी होते संगीत को जिम्मेदार मानते हैं। वह कहते हैं, अब तो सिर्फ शोर सुनाई देता है। शब्द सुनाई कहां देते? कोई अच्छी लाइन आती भी है, तो उससे पहले तबले, ड्रम या किसी और वाद्य की ऊंची थाप चलने लगती है। ये संगीत का ऊंचा शोर, थाप, ये तो पश्चिम की निशानी रही है। भारत देश मूल रूप से गवैयों का देश रहा है और हम गाना गाने में यकीन करते हैं, गाना बजाने में नहीं। हिंदी सिनेमा के संगीत में गाने के बोलों की बजाय संगीत से श्रोता को आकर्षित करने की प्रवृत्ति ने ही सिनेमा के गीतों से कविता को नदारद कर दिया है। इरशाद कामिल भी हिंदी सिनेमा के गीतों में कविता को न सिर्फ बनाए रखने के हिमायती हैं बल्कि खुद को हिंदी साहित्य और सिनेमा के बीच का पुल बनाने के लिए भी तैयार हैं। वह कहते हैं, अगर अच्छा लिखा जाएगा तो अच्छा सुना भी जाएगा। मैं तकरीबन रोज ही किसी न किसी फिल्म में गीत लिखने के प्रस्ताव को ना कह देता हूं। जबकि लोग मुझे मुंहमांगी कीमत देने का प्रस्ताव भी देते हैं लेकिन मैं जानता हूं कि अच्छा लिखने के लिए मुझे खुद को लालची बनने से रोकना होगा। मैं कम लिखना चाहता हूं लेकिन बेहतर लिखना चाहता हूं। अभी तक तो इसमें कामयाबी भी मिली है और लोगों ने अच्छे गीतों को सराहा भी है।

पर, इरशाद कामिल बनना और इस बने पर टिके रहने की जिद रखना सबके बूते की बात नहीं दिखती। इरशाद अपनी कामयाबी के लिए जहां अपने पुराने दोस्त और निर्देशक इम्तियाज अली के खुद गालिब और रूमी के करीब होने को भी श्रेय देते हैं, वहीं अरसे से फिल्मों के लिए संवाद लिखते रहे और सलमान खान की तमाम फिल्मों के लिए सुपरहिट गीत लिख चुके जलीस शेरवानी साफ कहते हैं, मुझे गालिब बनकर भूखा नहीं मरना। मैं आनंद बक्षी बनना चाहता हूं।

© पंकज शुक्ल। 2011

14 टिप्‍पणियां:

  1. behad prabhvit aur gyanvardhak lekh hai... kafi dino baad aisa lekh pada... mere blog par bhi aaye...

    madhawtiwari.blogspot.com/2011/12/blog-p…

    A Hindi poem on Anna's next move on 27th.hav a look n comment

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  2. bahut hee achchha aur sateek lekh hai aaj ke sangeet aur geet ko lekar; kaafi dino se man me ye sugbugaahat thi, ki aaj ke lyrics writer ko kya ho gaya hai... par yakeenan ye unka dosh nahi hai ... irshad saab ne ab tak apni pakad banaaye rakhhi hai jabki jalees saab ne achchha kahaa;mujhe bhookha nahi marna...

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  3. पंकज शुक्‍ल जी, पहली बार आपका ब्‍लॉग देखा और पढ़ा भी. यह लेख बहुत खूबसूरत है. सोचने पर मजबूर करता है. आज यही सब हो रहा है. हर क्षेत्र में. शायरों में कोई गालिब नहीं बनना चाहता तो राजनीति में कोई लाल बहादुर शास्‍त्री नहीं बनना चाहता. सबको पैसा चाहिए, जीते जी.

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  4. माधव तिवारी जी - शुक्रिया पसंद करने के लिए। आपके ब्लॉग पर भी ज़रूर आना जाना लगा रहेगा।

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  5. अश्वनी भाई - शुक्रिया आलेख की आत्मा को परखने के लिए। संगीतकार म्यूजिक कंपनियों के दबाव में हैं और गीतकार वही लिख रहे हैं जैसा संगीतकार बजा रहे हैं। गनीमत ये है कि रनबीर कपूर जैसे सितारे न सिर्फ अच्छे संगीत को समझ रहे हैं बल्कि अच्छे लिखे की तारीफ भी कर रहे हैं।

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  6. शुक्रिया मलखान भाई। बहुत ही सटीक लाइन लिखी - शायरों में कोई गालिब नहीं बनना चाहता तो राजनीति में कोई लाल बहादुर शास्‍त्री नहीं बनना चाहता।

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  7. ऐसी बातचीत कम ही पढने को मिलती है...ख़ुशी हुई...जलिश शेरवानी जी के बारे में एक बात कहना चाहूँगा...कि न तो वे ग़ालिब बन पाएंगे और न ही आनंद बक्षी...

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  8. शुक्रिया संजीव भाई। जलीस शेरवानी जो कह रहे हैं, वो उनका अपना अनुभव है। अलीगढ़ से आकर उन्होंने मुंबई में बहुत संघर्ष किया है। कभी आधे पेट तो कभी बिना छत के रहकर एक मुकाम बनाया है। समझौता करना हमेशा हार की ही नहीं कभी समझदारी की भी निशानी होता है, मेरे हिसाब से।

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  9. Pankaj ji, aalekh ayr mera paksh lene ke liye ati dhanyavaad.

    Sanjeev Ji
    Shubh kaamnaa0n evem Shubh ikshaon ke liye mera aabhaar sweekar karen.

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  10. जलीस भाई, बहुत बहुत शुक्रिया टिप्पणी के लिए।

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  11. बिल्कुल अभी अभी एक बार फिर इस लेख से गुज़रा, तो देखा कि आपने और जलीश जी अपनी अपनी प्रतिक्रियाएं दी हैं...

    मैं फिर से कहना चाहूँगा, जलीश शेरवानी जी और उनके संघर्ष के पुराने दिनों को पूरी इज्ज़त बख्शते हुए कि उन्हें ग़ालिब की गरीबी पर उपहास नहीं करना चाहिए...उनकी गरीबी गरबीली थी...और जैसा कि गुलज़ार साब से कहीं लिखा है कि "जो व्यक्ति पूरी ज़िन्दगी अपने दोस्तों के क़र्ज़ में डूबा रहा,आज हम सब उसके कर्ज़दार हैं.."

    ये कथन ही कितना चलताऊ होगा कि मैं किसी साहित्यिक कहानी पर फिल्म बनाकर शैलेन्द्र जैसे मरना नहीं चाहता है.

    समझौते पर तो बात ही नहीं हो रही थी, बात हो रही थी फ़िल्मी गीतों,ग़ज़लों पर, शेरो-शायरी पर, कविता-कहानी पर. हिंदी के आज के गीतकार लोकगीतों से, कविता से, कहानी से, ग़ज़लों से हर तरह से इनका भायादोहन भी करें और ये भी कहें की ये साहित्य-वाहित्य कुछ नहीं है, सरासर ग़लत है. ये एक तरह का पाप-कर्म है, जिसमें लगभग सभी शामिल हैं. ये सब ओशो-रजनीश के चेले जैसे लगते हैं...वेद, गीता, कुरआन-शरीफ, बाइबल आदि से कहानियां लेकर प्रश्न-उत्तर बनाइये, और फिर इन्हें गरिआइये भी. ये ठीक नहीं है.

    एक और बात याद आई. जलीश जी कह रहे हैं कि " साहित्य के बड़े बड़े नाम सिनेमा से जुड़ने के लिए पहले भी हाथ पांव मारते रहते थे और आज भी मारते हैं। पर, जल्द ही इन लोगों को भी समझ में आ जाता है कि सिनेमा में दो वक्त की रोटी कमाने के लिए तमाम समझौते करने पड़ते हैं..." क्या इनको पता है कि आज भी कम से कम विजय दान देथा जैसे साहित्यकार शाहरुख़ खान के रेड-चिलीज का स्वाद लेने नहीं आते...? इन्हें जानना चाहिए. आनंद बक्षी या शैलेन्द्र साब जैसे लोगों ने कम से कम ग़ालिब या कबीर या मीरा को इतनी इज्ज़त तो बक्शी होगी,ऐसी उम्मीद मैं करता हूँ. और जहाँ तक आनंद बक्षी या शैलेन्द्र या साहिर बनने की बात है तो 'लाज़िम हैं कि हम भी देखेंगे...'

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  12. बिल्कुल अभी अभी एक बार फिर इस लेख से गुज़रा, तो देखा कि आपने और जलीश जी अपनी अपनी प्रतिक्रियाएं दी हैं...

    मैं फिर से कहना चाहूँगा, जलीश शेरवानी जी और उनके संघर्ष के पुराने दिनों को पूरी इज्ज़त बख्शते हुए कि उन्हें ग़ालिब की गरीबी पर उपहास नहीं करना चाहिए...उनकी गरीबी गरबीली थी...और जैसा कि गुलज़ार साब से कहीं लिखा है कि "जो व्यक्ति पूरी ज़िन्दगी अपने दोस्तों के क़र्ज़ में डूबा रहा,आज हम सब उसके कर्ज़दार हैं.."

    ये कथन ही कितना चलताऊ होगा कि मैं किसी साहित्यिक कहानी पर फिल्म बनाकर शैलेन्द्र जैसे मरना नहीं चाहता है.

    समझौते पर तो बात ही नहीं हो रही थी, बात हो रही थी फ़िल्मी गीतों,ग़ज़लों पर, शेरो-शायरी पर, कविता-कहानी पर. हिंदी के आज के गीतकार लोकगीतों से, कविता से, कहानी से, ग़ज़लों से हर तरह से इनका भायादोहन भी करें और ये भी कहें की ये साहित्य-वाहित्य कुछ नहीं है, सरासर ग़लत है. ये एक तरह का पाप-कर्म है, जिसमें लगभग सभी शामिल हैं. ये सब ओशो-रजनीश के चेले जैसे लगते हैं...वेद, गीता, कुरआन-शरीफ, बाइबल आदि से कहानियां लेकर प्रश्न-उत्तर बनाइये, और फिर इन्हें गरिआइये भी. ये ठीक नहीं है.

    एक और बात याद आई. जलीश जी कह रहे हैं कि " साहित्य के बड़े बड़े नाम सिनेमा से जुड़ने के लिए पहले भी हाथ पांव मारते रहते थे और आज भी मारते हैं। पर, जल्द ही इन लोगों को भी समझ में आ जाता है कि सिनेमा में दो वक्त की रोटी कमाने के लिए तमाम समझौते करने पड़ते हैं..." क्या इनको पता है कि आज भी कम से कम विजय दान देथा जैसे साहित्यकार शाहरुख़ खान के रेड-चिलीज का स्वाद लेने नहीं आते...? इन्हें जानना चाहिए. आनंद बक्षी या शैलेन्द्र साब जैसे लोगों ने कम से कम ग़ालिब या कबीर या मीरा को इतनी इज्ज़त तो बक्शी होगी,ऐसी उम्मीद मैं करता हूँ. और जहाँ तक आनंद बक्षी या शैलेन्द्र या साहिर बनने की बात है तो 'लाज़िम हैं कि हम भी देखेंगे...'

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  13. बाज़ीच-ए-अत्फाल है दुनिया मेरे आगे
    होता है शब-ओ-रोज़ तमाशा मेरे आगे..

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  14. इतना बढ़िया आलेख!
    पहली बार आपका ब्लॉग देखा पंकज जी और तुरंत बुकमार्क भी कर लिया.
    मैं जावेद साब की इस बात से पूरा इत्तेफाक रखता हूँ कि "हम लोगों का चैन जा रहा है। समाज का ठहराव जा रहा है और चीजों को गहराई में जाकर समझने का हमारे पास वक्त नहीं है।"
    शायद इसीलिए जलेबियाँ और चिकनी चमेलियाँ चारों तरफ तैर रही हैं. लेकिन ये एक किस्म के बदलाव का रिफ्लेक्शन है, इसे आप नापसंद तो कर सकते हैं लेकिन नज़रंदाज़ नहीं कर सकते.
    एक ऐसी दुनिया में, जहाँ सारा ज्ञान तीन डब्ल्यूज में सिमट गया हो, ये उम्मीद करना बेमानी है कि हर किसी में इतना धीरज हो कि वो अपना खुद का स्टेटमेंट बनाये और कविता चूंकि खुद का स्टेटमेंट ही है, इसलिए गुम हो रही है.
    लेकिन हाँ, हमें "...क्या हंसी है समां, कुछ हवा सर्द है, धड़कने बेखबर, दिल में भी दर्द है..." नहीं सुनना है. कान पक चुके है ये सब सुन-सुन के. आप हमें "ओ ईको फ्रेंडली, नेचर के रक्षक, मैं भी हूँ नेचर..." ही दीजिये. क्योकि ये हमें हमारा ही हिस्सा लगता है, हमारा अपना स्टेटमेंट...!
    -अभिषेक शुक्ला

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