इसे कायदन मेरी पहली ग़ज़ल कह सकते हैं. रदीफ़, काफ़िया में न उलझलते हुए और बहर आदि की जानकारी न होते हुए भी बस क्रोंच पक्षी से मन के रुदन को शब्दों में पिरो डाला है। कहते हैं पहले भाषा आई, फिर उसे संस्कारित करने के लिए व्याकरण के नियम बने, लिहाजा 'जौ बालक कह तोतरि बाता' जैसी उदारता के साथ ही इसे पढ़ें और अपनी टिप्पणियों से ज़रूर अवगत कराएं। अवध के इलाके में जब तराजू उठाया जाता है तो पहला पलड़ा राम कह कर ही गिना जाता है, तो मेरी इन कोशिशों की शुरुआत भी राम से...।
पंशु
यूं न मौत को बदनाम करो ज़िंदगी के बाद,
अब आंखें किसी के इंतजार में जागती तो नहीं।
नश्तर ने यूं पाया उनके करतब से नया नाम,
गिरेबां में दोस्ती अब अपने ही झांकती तो नहीं।
सुलह थी सब्र की ज़ालिम से नीम रहने की,
रवानगी ये मेरे रगों की मानती तो नहीं।
पुराना कुर्ता है और चमक ये नील टीनोपाल की,
नज़र ये उनकी अब असलियत मेरी ढांकती तो नहीं।
रहा करे दिल में मेरे, मेरे बचपन का फितूर,
मेरे इंतजार में मां अब मेरी जागती तो नहीं।
चित्र सौजन्य - मुक्ता आर्ट्स की फिल्म "नौकाडूबी"