रविवार, 29 जनवरी 2012

मैं माधुरी दीक्षित बनना चाहती थी: विद्या बालन

संघर्ष के बाद मिलने वाली कामयाबी ही असली कामयाबी मानी जाती है और कामयाबी अगर विद्या बालन जैसी हो तो फिर उसे माना जाता है वो चलन जिसके पीछे जमाना चलने को बेताब हो जाता है। हिंदी सिनेमा में अरसे से भ्रांति रही है कि यहां महिला चरित्र प्रधान फिल्में बॉक्स ऑफिस पर नहीं चलती हैं। लेकिन, जो काम हेमा मालिनी से लेकर श्रीदेवी और माधुरी दीक्षित नहीं कर पाईं, वो विद्या बालन ने कर दिखाया है। विद्या बालन से एक खास बातचीत।

© पंकज शुक्ल। 2012.

सिनेमा में शुरुआत अगर संघर्ष से हो और वो भी ऐसे संघर्ष से जबकि लगातार दो दो फिल्में शुरू होने के बाद बीच में बंद ही हो जाएं, तो अक्सर हिम्मत साथ छोड़ने लगती है। अपनी पहली हिंदी फिल्म परिणीता से पहले के सफर का कभी अब ख्याल आता है?
-नाकामी हमें हौसला देती है। बशर्ते हम इसके इशारे समझें। जीवन में कुछ भी कभी भी बेकार नहीं होता। जो होता है किसी न किसी मकसद से होता है। पढ़ाई के दौरान या बाद में जो भी फिल्में मुझे शुरू के दिनों में मुझे मिलीं और फिर पकड़ से छूट गईं, उन्होंने उस वक्त तो बहुत हताश किया था। लेकिन अब समझ में आता है कि ऐसा क्यूं हुआ? ऐसा इसलिए हुआ क्योंकि किस्मत ने मेरे लिए उससे बड़ी चीजें तय कर रखी थीं। मतलब ये कि अगर हम सफर में ठोकरें खातें हैं तो वे हमें और सतर्क होने और ज्यादा मजबूती से कदम बढ़ाने की सीख देती हैं। हर नाकामी को मैंने एक सबक की तरह लिया और अपनी कोशिश नहीं छोड़ी।

तो आखिर आप का नाम हो ही गया और वो भी किसी बड़े सितारे की मदद के बगैर?
-हां, कुछ लोगों का नाम उनके काम से होता है, मेरा बदनाम होकर हुआ है..(हंसती हैं) मेरी फिल्म द डर्टी पिक्चर का ये डॉयलॉग देखा जाए तो इस वक्त के लिए बिल्कुल मुफीद है। बस मैंने एक लीक से हटकर किरदार करने का हौसला दिखाया और वो कहते हैं न हिम्मते मर्दा मदद ए खुदा। तो कभी कभी ये कहावत हिम्मत ए जनाना पर भी लागू हो जाती है। लोग कहते हैं कि इश्किया, नो वन किल्ड जेसिका और द डर्टी पिक्चर, ये तीनों फिल्में बिना किसी बड़े सितारे के कामयाब हुई हैं। पर मेरा इस बारे में ये कहना है कि कोई भी फिल्म अपनी पूरी टीम की वजह से कामयाब होती है। इन तीनों फिल्मों में मेरे किरदार अलहदा थे और मेरा मानना है कि इनका इस तरह से लिखा जाना भी इनकी कामयाबी की मुख्य वजह रही। मेरा अभिनय तो इस सामूहिक प्रयास का एक हिस्सा भर है। लेकिन, इन तीनों फिल्मों के निर्माता और निर्देशकों ने मुझे इन किरदारों में देखा तो उनका भी योगदान कम नहीं है।


- हिंदी सिनेमा में भ्रांति रही है कि यहां महिला चरित्र प्रधान फिल्में बॉक्स ऑफिस पर कमाई नहीं कर पातीं। हेमा मालिनी से लेकर श्रीदेवी और माधुरी दीक्षित तक ने इस तरह की कोशिशें की लेकिन आपने तो इस धारणा का ध्वंस करने के लिए हैट्रिक ही लगा दी। क्या वजह हो सकती है इस भ्रांति की और आपके किरदारों को मिली शोहरत की?
-मैं ऐसा नहीं कहूंगी कि मेरे पहले जिन अभिनेत्रियों ने इस तरह की कोशिशें की, वो कामयाब नहीं रहीं। हर कामयाबी को हमें कमाई के पैमाने से नहीं नापना चाहिए। रेखा जी ने न सिर्फ इस तरह की फिल्में कीं, बल्कि बॉक्स ऑफिस और समीक्षकों दोनों को चौंकाया भी और दोनों का दिल भी जीता। तो हो सकता है कहीं न कहीं थोड़ी बहुत प्रेरणा वहां से भी मुझे मिलती रही हो। वैसे सच पूछा जाए तो अभिनय का चस्का मुझे माधुरी दीक्षित की अदाकारी देख कर ही लगा। एक जमाना था जब मैं दिन भर एक दो तीन..(माधुरी दीक्षित की फिल्म तेजाब का गाना) गाती रहती थी और नाचती रहती थी। अक्सर होता ये भी था कि हमारे घर कोई आता और किसी बड़े के डांस का डा कहने भर पर मैं थिरकने लगती थी। तब मैं वाकई माधुरी दीक्षित बनना चाहती थी। रही बात उन किरदारों की जिनका आपने जिक्र किया है, तो मुझे लगता है समय बदल रहा है। लोगों की पसंद बदल रही है। लोग फिर से कथानक और किरदारों को तवज्जो देने लगे हैं तो इस नए चलन का तो स्वागत ही किया जाना चाहिए।

लेकिन क्या ऐसा नहीं है कि बार बार महिला प्रधान फिल्में करने और उनके सफल भी होते जाने से लोग आपके पास ऐसी ही फिल्में लेकर आने लगें और संदेश ये भी जा सकता है कि आप नायक प्रधान फिल्में ही नहीं करना चाहतीं?
-आप सही कह रहे हैं। लेकिन मैंने न तो कभी खुद को सीमाओं में बांधा और न ही कभी किसी तरह के दायरे में खुद को कैद किया है। मैंने ऐसा कोई फैसला नहीं किया है कि मैं सिर्फ महिला किरदार प्रध्ाान फिल्मों में ही काम करूंगी। हां, मेरे प्रशंसक मुझे सशक्त और केंद्रीय किरदारों में पसंद कर रहे हैं तो मैं उनकी शुक्रगुजार हूं। लेकिन, अगर मेरे पास अच्छी फिल्में आती हैं जो हीरो ओरिएंटेड हैं और उनमें मेरे लिए भी कुछ करने को है तो मैं बेशक उन्हें करने को तैयार हूं।

लेकिन ये संयोग ही है कि आपकी अगली जो फिल्म कहानी रिलीज होने जा रही है, वह इश्किया, नो वन किल्ड जेसिका और द डर्टी पिक्चर के ही दौर को आगे बढ़ाती है। क्या है इस फिल्म में आपका किरदार?
-हम जीवन में तमाम लोगों पर भरोसा करते हैं। लेकिन, क्या हो अगर हमें पता चले कि जिस इंसान पर हम भरोसा करते रहे, वो इंसान है ही नहीं। बस मेरी अगली फिल्म कहानी की यही कहानी है। इस फिल्म में मैं एक गर्भवती महिला विद्या बागची का रोल कर रही हूं, जो अपने होने वाले बच्चे के पिता को खोज रही है। जिन तीन फिल्मों का आपने नाम लिया, उनसे ये फिल्म इस लिहाज से अलग है कि इसमें एक रहस्य है जो आपको आखिर तक बार बार चौंकाता है। इससे ज्यादा इस किरदार के बारे में बातें करने से मुझे डर है कि मैं लालच में पूरी कहानी ही न बता जाऊं तो अच्छा होगा कि आप मुझे ज्यादा न कुरेदें।

चलते चलते एक निजी सवाल। इन दिनों आपके करोड़ों के बंगले और आपके दोस्त सिद्धार्थ रॉय कपूर के बड़े चर्चे हैं। कहीं वाकई शहनाई तो नहीं बजने जा रही?
-जिस दौर से मैं इन दिनों गुजर रही हूं, वो दौर किसी अभिनेत्री के करियर में बड़ी मुश्किल और बड़ी किस्मत से आता है। मैं फिलहाल इस वक्त का मजा लेना चाहती हूं और कुछ भी मेरे दिमाग में फिलहाल नहीं है। मैं इस कामयाबी का पूरा लुत्फ उठाना चाहती हूं और चुनौतियों भरे कुछ किरदार और करना चाहती हूं। बाकी सब इसके बाद।

pankajshuklaa@gmail.com

'संडे नई दुनिया' पत्रिका के 29 जनवरी 2012 अंक में प्रकाशित

सोमवार, 23 जनवरी 2012

बिना खान सितारों के सहारे बनूंगी नंबर वन! - कंगना रनौत


सपने होते ही हैं सच कर दिखाने के लिए, लेकिन तब जब आप इन्हें खुली आंखों से देखें। हिमाचल प्रदेश के एक छोटे से कस्बे में आंखें खोलनी वाली कंगना रनौत ने हिंदी सिनेमा में आने के महज पांच साल के भीतर अपने सपने सच कर दिखाए हैं। लेकिन, जैसा कि आमतौर पर हर कामयाबी के साथ होता है, उनके अरमान भी अब आसमान छूने को बेताब हैं। सलमान खान से अपनी कथित नजदीकियों, हताश-निराश किरदारों से बाहर निकलने की अपनी कोशिशों और आने वाले कल को लेकर देखे गए नए सपनों को कंगना ने साझा किया दुनिया के सबसे बड़े होटलों में से एक दुबई के मेदान होटल में हुई मुलाक़ात के दौरान।

© पंकज शुक्ल। 2012

मंडी (हिमाचल प्रदेश) से दिल्ली और दिल्ली से बरास्ते सिनेमा लाखों लोगों के दिलों तक। मंजिलें तो खैर अभी और भी हैं, पर खुद कंगना की नजर में कंगना अब कहां है?
-मैं अब फिल्म जगत में खुद को काफी तनाव रहित माहौल में पाती हूं। मैंने मुंबई में काफी संघर्ष किया है और यहां तक कि तमाम फिल्में मिल जाने के बाद भी दो तीन साल पहले तक ये तय नहीं था मेरा यहां क्या होगा? लेकिन मेरे प्रशंसकों ने मुझे पसंद किया और फिल्म जगत के लोग भी अब मुझे जानते हैं। ये लोग ये भी जानते हैं कि मुझे हिंदी सिनेमा की आम हीरोइन की परंपरागत छवि वाले किरदार पसंद नहीं है। यही कंगना की नई इमेज है। तमाम निर्माता निर्देशक अब मेरे पास उन्हीं किरदारों के प्रस्ताव लेकर आते हैं, जो न सिर्फ चुनौतीपूर्ण होते हैं, बल्कि जिनमें अभिनय की असीम संभावनाएं भी होती हैं।

कम ही होता ऐसा कि किसी कलाकार को पहली ही फिल्म में फिल्मफेयर पुरस्कार मिल जाए और करियर के दो साल के भीतर अभिनय का राष्ट्रीय पुरस्कार भी मिल जाए। पर, जिन फिल्मों के लिए आपको ये पुरस्कार मिले, उन्होंने ही आपके करियर में अड़ंगा भी लगाया, आप ऐसा मानती हैं कि नहीं?
-आप सही कह रहे हैं। गैगस्टर, वो लम्हें और फैशन जैसे किरदार मेरे पास अनगिनत आते थे। लेकिन, फैशन के आते आते मुझे लग गया था कि इस खांचे में बांधते ही मेरा सफर रुक जाएगा। उन दिनों मेरे पास सारे प्रस्ताव एक दुखी लड़की या जीवन से हताश-निराश लड़की के ही आते थे। तो मैंने जानबूझकर तनु वेड्स मनु, डबल धमाल और रास्कल्स जैसी फिल्में कीं। इनमें से कुछ फिल्में नहीं भी चलीं लेकिन मैं मानती हूं कि मैं किसी खांचे में बंधने से बच गई। रास्कल्स की नाकामी के बारे में आप पूछें तो मेरा मानना है कि जो हो जाता है वो हो जाता है। ऐसी फिल्मों की कहानी भी नहीं होती है। ऐसी फिल्में बस बन जाती हैं। जैसे गोविंदा जी की फिल्में बना करती थीं। तो ऐसी फिल्में कभी चल जाती हैं। कभी नहीं भी चलतीं। अब आगे भी जो मैं फिल्में कर रही हूं, उनमें भी मेरे किरदार ऐसे हैं, जिनमें जान है। मैं अपनी अदाकारी को अभी और आगे ले जाना चाहती हूं और इस मामले में अपने को किसी दायरे में बांधकर कतई नहीं रखना चाहती। मुझे उम्मीद है कि क्रिश 2, तनु वेड्स मनु 2 और डेढ़ इश्किया में मेरी मेहनत को लोग सराहेंगे।

अपने किरदारों को लेकर आप अक्सर समालोचकों के निशाने पर रही हैं, किस तरह से लेती हैं आप अपनी आलोचना को?
-सच पूछें तो मैं अपनी आलोचकों की बहुत बहुत शुक्रगुजार हूं। मैं ये भी नहीं कहूंगी कि जितना श्रेय मुझे मेरी सफलता का मिलना चाहिए था वो नहीं मिला। मेरे बारे में जो भी अच्छा या बुरा लिखा जाता है, वो मैं सब पढ़ने की कोशिश करती हूं। मेरा मानना है कि मेरे करियर को संवारने और उसे नई दिशा देने में आलोचनाओं का सबसे बड़ा हाथ रहा है। मेरे हताश निराश किरदारों के बारे में बार बार लिखा गया तो शायद उसी ने मुझे तनु वेड्स मनु करने के लिए प्रेरित किया। मेरा मानना है कि अगर हम आलोचना को भी सकारात्मक तरीके से लें, तो हमें खुद को बदलने में काफी मदद मिल सकती है।

लोग अक्सर मुझे सलमान कैंप से जोड़ते हैं और मुझे उनका करीबी मानते हैं। लेकिन कोई भी हीरोइन किसी कैंप की तब होती है जब वो उस हीरो के साथ फिल्म करे। लेकिन, मेरी तो कोई फिल्म फिलहाल सलमान खान के साथ नहीं बन रही। महेश मांजरेकर की एक फिल्म को लेकर हम लोगों ने काफी मेहनत भी की, लेकिन अभी तक उसकी स्क्रिप्ट ऐसी नहीं लिखी जा सकी जो सलमान खान को प्रभावित कर सके।

लेकिन हिंदी सिनेमा में वूमन ओरिएंटेड फिल्मों का चलन लौटाने को लेकर जो हंगामा द डर्टी पिक्चर के वक्त हुआ, वो आपकी फिल्म तनु वेड्स मनु के वक्त तो नहीं हुआ? जबकि इसकी शुरूआत तो इसी फिल्म से मानी जानी चाहिए।
-हो सकता है आपकी बात में दम हो। पर मैं ये नहीं कहूंगी कि मुझे जितनी श्रेय मिलना चाहिए था वो नहीं मिला। यहां नायकों के कंधे पर रखकर बंदूक चलाने की लोगों को आदत है। ये कहा जाता रहा है कि यहां कोई हीरो चाहेगा तो ही कोई लड़की काम करेगी। पर विद्या बालन की हिम्मत की तारीफ फिर भी करना चाहूंगी। बहुत लोगों को शायद पता न हो पर द डर्टी पिक्चर का प्रस्ताव पहले मेरे पास ही आया था। लेकिन तब शायद मैं किरदारों के चयन को लेकर इतना बहादुर नहीं थी। मेरा मानना है कि किसी भी कलाकार के करियर में एक वक्त आता है जब वो इतिहास बनाने की कूवत हासिल कर लेता है। विद्या की फिल्म ने 125 करोड़ रुपये का कारोबार किया है और वाकई उन्होंने हिंदी सिनेमा में एक इतिहास बना डाला है।

ज्यादा बड़ी बात ये है कि विद्या ने ये इतिहास बिना शाहरुख खान, आमिर खान या सलमान खान की मदद के हासिल किया है। आपको क्या मानना रहा है कि कोई हीरोइन यहां क्या बिना शाहरुख खान, आमिर खान और सलमान खान के साथ काम किए भी नंबर वन हीरोइन बन सकती है?
-क्यों नहीं? बिल्कुल बन सकती है। बल्कि मैं खुद अगले दो साल में ये करके दिखा दूंगी। लोग अक्सर मुझे सलमान कैंप से जोड़ते हैं और मुझे उनका करीबी मानते हैं। लेकिन कोई भी हीरोइन किसी कैंप की तब होती है जब वो उस हीरो के साथ फिल्म करे। लेकिन, मेरी तो कोई फिल्म फिलहाल सलमान खान के साथ नहीं बन रही। महेश मांजरेकर की एक फिल्म को लेकर हम लोगों ने काफी मेहनत भी की, लेकिन अभी तक उसकी स्क्रिप्ट ऐसी नहीं लिखी जा सकी जो सलमान खान को प्रभावित कर सके। मुंबई हीरोज की मैं ब्रांड अंबेसडर हूं तो इसके हर मैच के दौरान खिलाड़ियों का उत्साह बढ़ाने के लिए मैं मौजूद रहती हूं, बस। रही बात मेरी अपनी तरक्की को तो मैं मानती हूं कि मैं अभी ज्यादा मैच्योर रोल नहीं करना चाहती। मैं अभी सिर्फ 25 साल की हूं और अभी नाच गाने वाले, प्यार मोहब्बत वाले और थोड़ा बहुत लोगों को गुदगुदाने वाले माधुरी दीक्षित जी और श्रीदेवी जी वाले रोल कर सकती हूं। पांच साल बाद शायद मैं थोड़ा गंभीर किस्म के रोल भी फिर से करना चाहूं।

चलते चलते, एक सवाल आपकी अगली फिल्म क्रिश की सीक्वेल को लेकर। क्या आप फिल्म में वही रोल कर रही हैं जो पहले चित्रांगदा सिंह को दिया गया था? कुछ बताएंगी इस रोल के बारे में?
-मेरी जो बात फिल्म के निर्देशक राकेश रोशन जी से हुई, उसके मुताबिक ये रोल मेरी कद काठी के हिसाब से ही लिखा गया। स्क्रिप्ट में भी कई जगहों पर कंगना ही लिखा हुआ है। पहले जब मेरे पास इस फिल्म का प्रस्ताव आया था तो मैं दूसरी फिल्मों की शूटिंग में व्यस्त थी। इसीलिए राकेश जी ने कुछ और लोगों को भी इस किरदार के लिए सोचा। पर, बाद में फिल्म की शूटिंग आगे खिसकी तो तब तक मेरे पास भी वक्त निकल आया। बस, इसके बाद ही मैं फिल्म का हिस्सा बन गई। फिल्म में मेरा किरदार एक सुपरवूमन का किरदार है और ये विवेक ओबेरॉय के अपोजिट बिल्कुल नहीं है। फिल्म में मेरी एक अलग तरह की प्रेम कहानी है, पर इस साइंस फिक्शन में मेरे किरदार का ज्यादा जोर एक्शन दृश्यों पर है। फिल्म के लिए चीन से आए हुनरमंद मुझे ये सिखा रहे हैं। हो सकता है, इस फिल्म के बाद मुझे हिंदी सिनेमा की एक्शन हीरोइन का तमगा मिल जाए।

विशेष- कंगना का कहना है कि उनका सरनेम हिंदी अखबारों में अक्सर गलत लिखा जाता है। कंगना का सही सरनेम रनौत है और वह चाहती हैं कि इसे ऐसे ही लिखा जाए। सुधी पाठकों की सूचनार्थ :)

pankajshuklaa@gmail.com

(संडे नई दुनिया के 22 जनवरी 2012 के अंक में प्रकाशित)

रविवार, 22 जनवरी 2012

फिल्म वयस्कों के लिए : मनोरंजन सबके लिए..?


देश में सरकार की तरफ से सिनेमा का सबसे बड़ा पुरस्कार दादा साहब फाल्के पुरस्कार जिन धुंदीराज गोविंद फाल्के के नाम से दिया जाता है, उनकी आत्मा लोकप्रिय पुरस्कारों के नए स्तर को देखकर जरूर दुखी होगी। लेकिन, शुचिता के पक्षधर करें भी तो क्या? क्योंकि खुद भारत सरकार पिछले साल सलमान खान की दबंग को संपूर्ण मनोरंजन देने वाली पूरे भारत में बनी फिल्मों में से सबसे अच्छी फिल्म मान चुकी है। नतीजा साफ है कभी वयस्क फिल्में दिखाने वाले थिएटरों के आसपास भी दिखने से डरने वाले बच्चे अब पीठ पर स्कूल का बस्ता टांगे झुंड बनाकर द डर्टी पिक्चर देखने पहुंचते हैं।



© पंकज शुक्ल

कहते हैं सिनेमा बड़ा हो गया है। बात भी सही है। अगले साल किसी भारतीय द्वारा बनाई देश की पहली फिल्म राजा हरिश्चंद्र के निर्माण के सौ साल पूरे हो रहे हैं। हिंदी सिनेमा के निर्देशकों की संस्था इसके जश्न की तैयारियां भी शुरू कर चुकी है और इसे लेकर मुंबई से दिल्ली तक हलचल भी तेज है। ये वही सिनेमा है जिसके प्रचार के लिए बनने वाले पोस्टरों पर पहले बड़ा बड़ा लिखा रहता था- संपूर्ण पारिवारिक मनोरंजन फिल्म। पर, जरा रुककर सोचिए तो जरा, और बताइए उस फिल्म का नाम जो आपने पिछली बार पूरे परिवार के साथ देखी हो।

शायद दिमाग पर जोर डालना पड़ रहा हो। जी हां, सिनेमा अब परिवार के साथ देखने लायक बचा ही नहीं है और हिंदी सिनेमा के सबसे अहम माने जाने वाले तीन लोकप्रिय पुरस्कारों स्क्रीन पुरस्कार, फिल्म फेयर पुरस्कार और जी पुरस्कार में से जिस पहले पुरस्कार से इस सीजन की बोहनी हुई है, उसने वाकई बता दिया है सिनेमा बड़ा हो गया। पिछले साल देल्ही बेली के एक गाने को सेंसर बोर्ड ने देश भर के टीवी चैनलों पर प्रसारित करने की मंजूरी दी। उत्तर भारत की एक भदेस गाली को तोड़मरोड़ कर बने इस गाने को सुनने के बाद निर्देशक राम गोपाल वर्मा ने कहा, हमें आमिर खान का शुक्रिया अदा करना चाहिए जिन्होंने पूरी एक पीढ़ी को एकदम से बड़ा कर दिया। बात भले तंज में कही गई हो, लेकिन इसके निहितार्थ हिंदी सिनेमा के उस नए चलन को पुख्ता करते हैं जिसमें अब शाहरूख खान बिकाऊ रहें हों या न रहें पर सेक्स ही कामयाबी की पहली गारंटी बन गया है।

किसी भी उद्योग में दिए जाने वाले पुरस्कार उस क्षेत्र की गुणवत्ता, चलन और चरित्र को ही नहीं दर्शाते बल्कि पुरस्कृत कलाकृतियों को इनका मानक भी मान लिए जाने की परंपरा रही है। तो, क्या अब हिंदी सिनेमा में आने वाली कलाकारों और निर्देशकों की नई पीढ़ी सिर्फ द डर्टी पिक्टर, शैतान और देल्ही बेली को अपना आदर्श नहीं मानेगी? एक्सप्रेस समूह की पत्रिका स्क्रीन द्वारा दिए जाने वाले पुरस्कारों में इस साल जिस तरह केवल वयस्कों के लिए बनी फिल्मों ने जी भरकर पुरस्कार जीते, उससे तो यही लगता है कभी हाशिए पर रहने वाला और आमतौर पर अछूत समझे जाने वाला एडल्ट सिनेमा ही अब मुख्य धारा का सिनेमा बन चुका है। और, ऐसा है तो फिर क्या इसे बदलते समाज का आईना नहीं कहा जाना चाहिए? छोटे परदे पर पॉर्न स्टार सनी लिओन की मौजूदगी को अपना लेने वालों के लिए घर से बाहर सिनेमाघर के अंधेरे और एकांत में शायद यही सब कुछ एंटरटेनमेंट है। जैसे कि विद्या बालन अपनी फिल्म द डर्टी पिक्चर में कहती भी हैं, फिल्म केवल तीन वजहों से चलती है-एंटरटेनमेंट, एंटरटेनमेंट, एंटरटेनमेंट। और मैं एंटरटेनमेंट हूं। लेकिन लोग यह भूल जाते हैं कि ये बात वो किरदार कह रहा है जो फिल्म जगत में कभी आइटम गर्ल से आगे गया ही नहीं। पर अब हर हीरोइन आइटम बनना चाहती है। आइटम यानी मुंबइया टपोरी भाषा का वो शब्द जो निचले तबके में आमतौर पर किसी ऐसी लड़की के लिए इस्तेमाल होता है, जो छिछोरे छोकरों को देखकर हमेशा मुस्कुराती है।

विद्या बालन कहती भी हैं, लोग मुझसे पूछते हैं कि मैं आइटम नंबर क्यूं नहीं करती। अरे जब मैंने पूरी फिल्म ही आइटम गर्ल की कर दी तो आइटम नंबर का क्या?
लेकिन, हिंदी सिनेमा की नायिका की ऐसा ही मुस्कुराहाट कातिलाना है। और इसका असर दूर तक होता है। कभी केवल वयस्कों के लिए पोस्टर वाली फिल्मों के थिएटर तक जाने से पहले आसपास किसी परिचित की संभावित मौजूदगी की आहट लेते रहने वाले स्कूली बच्चे इस बार फिल्म द डर्टी पिक्टर दिखाने वाले सिनेमाघरों के सामने पीठ पर अपना बस्ता टांगे दर्जनों के झुंड में दिखाई दिए और फिल्मी विद्वानों ने इसे ही पिछले साल की सर्वोत्तम फिल्म भी माना। ऐसे में अगर पुरस्कार समारोह के दौरान विद्रूपता की सारी सीमाएं लांघते हुए फिल्म जगत के तीन पहले सितारों में से एक शाहरूख खान अगर पर तमाम तरह की भोंडी हरकतें अब करते भी हैं तो फिर गलत क्या? हौसला तो हम ने ही उनका बढ़ाया है। इस हौसले का ही नतीजा है कि मुंबई की पत्रकार वार्ताओं में उनकी देखादेखी अब ऋतिक रोशन भी कोई टेढ़ा मेढ़ा सवाल सुनकर सवाल करने वाली पत्रकार को अपने बेडरूम तक आने का न्यौता दे देते हैं, और वो भी सरेआम। कहीं से कोई विरोध नहीं, किसी पत्रकार संगठन के तरफ से कोई बयान तक नहीं। वजह? शायद अब हमें भी इसी में मजा आता है।

साल 2012 के पहले पुरस्कारों ने ये पूरी तरह साफ कर दिया कि सिनेमा की नायिका का पैमाना भी बदल रहा है। अब फिल्म में आइटम नंबर करने के लिए अलग से किसी मॉडल को ढूंढने की जरूरत नहीं होती। अब नंबर वन हीरोइन बनने की दावेदार कैटरीना कैफ खुद चिकनी चमेली बनने को तैयार है। अरसा पहले यही काम ऐश्वर्या राय ने करिश्मा कपूर की फिल्म शक्ति में इश्क़ कमीना में भी किया था। लेकिन मामला कभी मुख्य धारा का वैसे नहीं बना जैसा विद्या बालन ने फिल्म द डर्टी पिक्चर में कर दिखाया है। वह बीते साल की सर्वश्रेष्ठ अभिनेत्री बन चुकी हैं तो जाहिर है कि अब होड़ उनसे आगे निकलने की ही होगी। ऐसे में हर दूसरी अभिनेत्री न पूरी फिल्म में सही तो कम से कम किसी गाने में ही सिल्क स्मिता सी सिल्की सिल्की दिखने की कोशिश तो करेगी ही। चिकनी चमेली इसी का विस्तार है। विद्या बालन कहती भी हैं, लोग मुझसे पूछते हैं कि मैं आइटम नंबर क्यूं नहीं करती। अरे जब मैंने पूरी फिल्म ही आइटम गर्ल की कर दी तो आइटम नंबर का क्या? उनकी बात में दम है। और इसी दम का नतीजा है कि उनको बांग्ला साहित्य के भद्रलोक की परिणीता बनाकर बड़े परदे पर लाए मशहूर फिल्म निर्माता विधु विनोद चोपड़ा भी अब अपनी अगली फिल्म फरारी की सवारी में विद्या से एक आइटम नंबर कराने की सोच रहे हैं।

जमाना बदगुमानी के बोलबाले का है और इस मैली गंगा में नाक बंद करके भी सब हाथ धोना चाहते हैं। तो भला फिल्म पुरस्कार ही पीछे क्यूं रहें। स्क्रीन पुरस्कारों में बेहतरीन अदाकारा का तमगा पाने के बाद विद्या बालन अब जी सिने अवार्ड्स समारोह को थोड़ा और नमकीन बनाने की तैयारी में हैं। जमाने की बलिहारी देखिए जिन पुरस्कारों के लिए अभी तक जी चैनल शाहरुख खान और प्रियंका चोपड़ा की मेजबानी को ही अपना तुरुप का इक्का मान रहा था, वही चैनल अब बाकायदा प्रेस विज्ञप्ति जारी कर ये बता रहा है कि विद्या बालन इस समारोह में दक्षिण के सिनेमा में नायिका के तमाम बिंबों और प्रतिबिंबों को अपनी शोख अदाओं के जरिए मंच पर सजीव करेंगी। वजह यही है कि ज्यादा से ज्यादा विज्ञापनदाता इसके लिए आए आएं। एक पान मसाला कंपनी पहले ही इस गंगा में तरने के लिए डुबकी लगा चुकी है।

बात लड़कों की करें तो नई पीढ़ी के कलाकारों में इन दिनों आगे निकलने की होड़ रणबीर कपूर और इमरान खान में लगी है। रणबीर ने अपनी इमेज बचाए रखने के लिए भले देल्ही बेली से हाथ जोड़ लिए हों, पर इमरान खान इसे करके अब भी न सिर्फ गौरान्वित महसूस करते हैं बल्कि अपने मामू आमिर खान के साथ मिलकर इस बात की जी तोड़ कोशिश कर रहे हैं कि किसी तरह ये फिल्म टेलीविजन पर भी आ जाए और उनके खास हुनर का जलवा हिंदुस्तान का बच्चा बच्चा देख ले। इस बारे में बात करने पर वह कहते हैं, हमने पहले ही लोगों का बता दिया था कि ये फिल्म बड़ों की फिल्म है। और, इसकी भाषा वो है जो आम तौर पर आजकल बड़े लोग आपस में बातचीत करते वक्त इस्तेमाल करते हैं। लेकिन, उन दृश्यों का क्या जो वात्स्यायन के कामसूत्र को भी मात करते हैं? इस सवाल पर वो चुप्पी साध जाते हैं। वो चुप्पी साधें तो साधें रहे पुरस्कार देने वालों को इसी फिल्म का स्क्रीनप्ले पिछले साल बनी सारी फिल्मों में द बेस्ट लगा, आखिर खुश तो आमिर खान को भी रखना है न। फिल्म को दो पुरस्कार और भी मिले। एडल्ट फिल्मों के जश्न की रही सही कसर एक ऐसी फिल्म ने पूरी कर दी जिसके निर्माता अनुराग कश्यप की छवि ही ऐसी फिल्में बनाने की है, जो पंरपराओं से विद्रोह करती हों और फिल्म को यू सर्टिफिकेट दिए जाने की सोचती तक न हों। घर वालों से पैसे ऐंठने के लिए अपने ही किसी साथी का अपहरण कर लेने की तरकीब बताती और तमाम तरह की सामाजिक बुराइयों का जलसा सजाती इस फिल्म के निर्देशक को साल के पहले ही पुरस्कार में बीते साल अपनी पहली फिल्म बनाने वाले सारे निर्देशकों में सर्वोत्तम माना गया। बलिहारी है जमाने की भी और बलिहारी है सिनेमा के इस बदलते रूप की, जिसमें सेक्स, ड्रग्स, नशा सब जायज है। कुछ नाजायज है तो बस पूरे परिवार के साथ फिल्म देखने आना।

(नई दुनिया 22 जनवरी 2011 के साप्ताहिक परिशिष्ट 'रंगोली' में प्रकाशित)

रविवार, 1 जनवरी 2012

आओ 2012...


आओ 2012.
देखें तुम्हारी झोली में क्या क्या है?

क्या मां के घुटनों के दर्द का है कोई इलाज पक्का?
या इस साल भी मेरे न आने पर पापा रहेंगे हक्का बक्का?
क्या इस बार भी रक्षा बंधन पर बहन के घर पहुंचने दोगे?
क्या भाई की मन्नतों का सपना फिर पूरा होने दोगे?
क्या बिटिया का इंजीनियरिंग में एडमीशन मेरिट से ही हो जाएगा?
और, कहीं बेटा ये साल कोलावेरी डी गाने में ही तो नहीं लगाएगा?
क्या बीवी इस साल भी पूरे मन से विदा कर पाएगी?
और, क्या मेरे सपनों की बस्ती अब के बरस बस पाएगी?
आओ 2012.
देखें तो तुम्हारी झोली में क्या क्या है?

आओ 2012.
देखें तो तुम्हारी झोली में क्या क्या है..?

सब पटाखे दगाकर देखो शांत हो गए,
बस घोंसलों के पक्षी आक्रांत हो गए,
रस्मों की अदायगी का अब शोर बहुत है,
अफसर वही बड़ा जो सबसे बड़ा चुगद है,
चेहरे पर हरेक के कैसी ये खुशी आमद है,
क्यूं नजदीकियों की खामोशी हर ओर नदारद है,
यूं हरेक नए साल में कब और क्या बदलेगा?
याद है ना वो नारा, हम बदलेंगे, युग बदलेगा।
आओ 2012.
देखें तो तुम्हारी झोली में क्या क्या है..?

(पंशु. 01012012)