सिनेमांजलि/ पंकज शुक्ल
उस्ताद सुल्तान खान भले सोमवार को जोधपुर के कब्रिस्तान में अपने वालिद की बगल में हमेशा हमेशा के लिए सो गए, पर वो हिंदुस्तानी संगीत पर जो एहसान कर गए हैं, उसे चुकता कर पाना आने वाली नस्लों के भी बस की बात नहीं होगी। उस्ताद तो खैर वो बाद में बने, लेकिन उस्तादी के अपने फन का पहला मुजाहिरा उन्होंने तभी कर दिया था जब अपने पहले उस्ताद और वालिद गुलाब खान के लाख समझाने पर भी उन्होंने गायिकी की बजाय सारंगी बजाने को ही अपना पहला इश्क़ बनाया। ये वो दौर था जब उस्ताद अब्दुल करीम खान और उस्ताद बड़े गुलाम अली खान की देखादेखी उस्ताद अमीर खां तक सारंगी छोड़ गायिकी का पहलू थाम बैठे थे।
लता मंगेशकर ने उन्हें अपने घर लगातार तीन महीने रखा। और जब खय्याम जैसे संगीतकार के साथ गालिब को गाने की बारी आई तो लता ने भी उस्ताद सुल्तान खान की सारंगी का ही सहारा लिया। खय्याम और उस्ताद सुल्तान खान का साथ फिल्म उमराव जान तक बदस्तूर जारी रहा और आशा भोसले भी इस फिल्म की तमाम गजलों में बजाई गई उस्ताद की सारंगी की कायल हुए बिना न रह सकीं।
जी हां, कम लोगों की मालूम होगा कि ये तीनों उस्ताद दरअसल पहले सारंगी के ही शागिर्द थे। लेकिन, संगतों में हारमोनियम की बढ़ती धमक और सारंगी बजाने में आने वाले मुश्किलात को देखते हुए गुलाब अली चाहते थे कि बेटा भी इन उस्तादों की तरह सारंगी छोड़ गायिकी में अपना रसूख बनाए। सोचिए, अगर तब सुल्तान खान ने वालिद का कहा मान लिया होता तो सारंगी का आज कौन नाम लेवा होता। सुल्तान खान सारंगी के उस्ताद तो बने लेकिन इंसानियत के शागिर्द वो ताउम्र बने रहे। कम शागिर्द ही होंगे ऐसे जिन्होंने अपना पुश्तैनी घराना छोड़ अपने उस्ताद का घराना अपना लिया। उस्ताद अमीर खां ने ही सुल्तान खान को पहले पहल बंबई में अपनाया और इस मोहब्बत ने दोनों के बीच ऐसा मेल कराया कि सीकर घराने का पानी इंदौर घराने के दूध में मिलकर उसके जैसा ही हो गया।
ये वो वक्त था जब लता मंगेशकर ने उन्हें अपने घर लगातार तीन महीने रखा। और जब खय्याम जैसे संगीतकार के साथ गालिब को गाने की बारी आई तो लता ने भी उस्ताद सुल्तान खान की सारंगी का ही सहारा लिया। खय्याम और उस्ताद सुल्तान खान का साथ फिल्म उमराव जान तक बदस्तूर जारी रहा और आशा भोसले भी इस फिल्म की तमाम गजलों में बजाई गई उस्ताद की सारंगी की कायल हुए बिना न रह सकीं। बेगम अख्तर जैसी बेहतरीन गजलदां से लेकर फिल्मी फन के माहिर मोहम्मद रफी तक सब उनकी सारंगी के मुरीद रहे। बीच में मीना कुमारी ने जब अपनी लिखी शायरी को खुद आवाज़ देने की कोशिश की तो उन्हें भी सहारे के लिए बस एक ही नाम याद आया-उस्ताद सुल्तान खान।
फन के रईस और शोहरत के गरीब उस्ताद सुल्तान खान अक्सर मिलने पर कहा करते, तुम लोग मीडिया वाले, जिसको चाहो स्टार बना दो। पर क्या तुम लोग वाकई हुनर को पहचानते हो या बस दावतों के दौर चलने पर ही अच्छा अच्छा लिखते हो। हिंदी सिनेमा ने उनसे क्या क्या नहीं पाया। लेकिन, सुपर्दे खाक होने के वक्त तक साथ रहे तो बस दो नए संगीतकार सलीम-सुलेमान। उन्हें अक्सर इस बात पर रंज होता कि जिस फन के लिए उन्होंने अपनी जिंदगी गुजार दी, उसकी बजाय नई पीढ़ी ने उन्हें जाना तो उनकी गायिकी के चलते। और, इस्माइल दरबार अगर फिल्म हम दिल दे चुके सनम का अलबेला सजन गाना बनाते वक्त भी उस्ताद से गाने की जिद न करते, तो न शायद पिया बसंती होता और न ही हम जैसे संगीत के नाशुक्रों को पता चलता कि क्या था इस उस्ताद का उनवान..अल्ला हाफिज़, सुल्तान साब। जहां भी रहिए, बस सुर सजाते रहिए।
जानकारी और रोमांच का संगम ....अद्भुत पोस्ट के लिए आपका शुक्रिया ....! कभी चलते-चलते पर भी दर्शन दीजियेगा ....!
जवाब देंहटाएंशुक्रिया..मित्र। बिल्कुल, फिर मिलेंगे चलते चलते..
जवाब देंहटाएंआपकी पोस्ट आज के चर्चा मंच पर प्रस्तुत की गई है
जवाब देंहटाएंकृपया पधारें
चर्चा मंच-715:चर्चाकार-दिलबाग विर्क
शुक्रिया विर्क साब !!
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