रविवार, 23 अक्तूबर 2011

‘नायिकाओं में पहनावे की तमीज नहीं रही’ : हेमा मालिनी


पंकज शुक्ल

“मैं नारी हूं। मैं परंपराओं की जननी भी हूं तथा उनका निर्वाह करने वाली भी। संसार मुझ पर मोहित है तो इतिहास गर्वित है। मुझमें जीवित है वो सारी नारियां जो अपने आदर्श चरित्र यहां स्थापित कर के गई हैं। मैं अतीत भी हूं और वर्तमान भी और आने वाले कल का उत्तरदायित्व भी।“ ये पंक्तियां भले हेमा मालिनी के नए संगीत नाटक नारी की हों, पर हेमा मालिनी पर सौ फीसदी सटीक बैठती हैं। इन पंक्तियों को हेमा ने निजी जीवन में भी जीकर दिखाया है। हेमा मालिनी से एक खास मुलाकात।

नायक प्रधान हिंदी सिनेमा में नायिका का आम दर्शकों से जो एक अनदेखा रिश्ता हुआ करता था, वो अब ग्लैमर की चकाचौंध में कहीं खो सा गया है। इसके लिए जिम्मेदार कौन है?
हिंदी सिनेमा में नायिका की जब तक गर्ल नेक्सट डोर वाली छवि रही लोगों को उसमें अपने सपनों के अक्स नजर आते रहे। इसकी वजह ये थी कि तब की नायिकाओं ने जमीन से जुड़े किरदारों को ज्यादा तवज्जो दी। शर्मिला टैगोर जैसी नायिकाओं ने इस परंपरा को मजबूत दी थी। मैंने भी उस दौर में ऐसे तमाम किरदार निभाए। हर किरदार फिल्म संन्यासी जैसा नहीं हो सकता न, तो रजिया सुल्तान और मीरा जैसे किरदार भी निभाने की हिम्मत होनी चाहिए। ड्रीम गर्ल होना अच्छा है पर ड्रीम गर्ल हर जगह नहीं हो सकती। उस दौर में जब मैंने लाल पत्थर में काम किया तो लोग कहते थे कि ऐसे किरदार लोगों को अच्छे नहीं लगेंगे। लेकिन, हकीकत ये है कि ऐसे किरदारों में खासी मेहनत करनी होती है। अब तो नायिकाएं पैंट शर्ट और जीन्स पहनती हैं। कम कपड़े पहनती हैं और कभी कभी तो वो भी नहीं होता। पहनावे से भी नायिका की अलग छवि बनती है, लेकिन अफसोस की बात है कि हिंदी सिनेमा की नायिका में पहनावे की तमीज खत्म होती जा रही है।

यानी कि फिल्मी सितारों को लेकर जो पहले एक रहस्य का माहौल बना रहता था वो अब नहीं रहा?
इसके लिए कुछ टेलीविजन जिम्मेदार है, कुछ इंटरनेट और कुछ बदलता वक्त। अब तो हर सितारा टेलीविजन पर मौजूद रहता है। अभी हमारी फिल्म टेल मी ओ खुदा का म्यूजिक लॉन्च हुआ तो मैं खुद लोगों से पूछ रही थी कि उसकी रिपोर्ट टेलीविजन पर आई कि नहीं। पहले ये बंद मुट्ठी होती है, पर ये मुट्ठी अब खुल चुकी है और खुली मुट्ठी की अहमियत तो आप जानते ही हैं। अब हर चीज व्यावसायिक हो गई है। सितारों को फिल्म की लागत वसूल करने के लिए सब जगह जाना पड़ता है। पहले हम लोग छुप कर रहते थे। पहले सितारों के चाहने वाले उन्हें तलाशा करते थे, अब हम खुद अपने आप को हर जगह तलाशते रहते हैं। शाहरुख खान इन दिनों हर जगह भागे भागे नजर आते हैं, ऐसा इसलिए क्योंकि आजकल सिनेमा बनाने में पैसा बहुत लगता है और इसकी वसूली में हम लोगों की जान निकल जाती है।

शाहरुख खान को आपने बड़े परदे पर पहला ब्रेक दिया था। तब के और आज के शाहरुख खान में आपको क्या तब्दीली नजर आती है?
शाहरुख खान एक बहुत ही प्यारा इंसान है। उसकी शख्सीयत में तब से लेकर अब तक जमीन-आसमान का अंतर आ गया है। कहां से उसने अपना करियर शुरू किया था और आज कहां पहुंच गया। ये हमेशा मेरे लिए गर्व की बात रहेगी कि मैंने इस कलाकार को अपनी फिल्म के लिए सबसे पहले चुना। मुझे इस बात की भी खुशी होती है कि जिस कलाकार को मैंने चुना, वो पूरी दुनिया को पसंद आया। लेकिन, निजी तौर पर शाहरुख बिल्कुल नहीं बदला है। वो अब भी पहले जैसा प्यारा इंसान है। टेल मी ओ खुदा के म्यूजिक रिलीज का न्यौता देने के बाद भी मुझे यकीन नहीं था कि वो अपने व्यस्त कार्यक्रमों से वक्त निकाल पाएगा। लेकिन, वो आया और इस मौके पर उसने जो बातें की, उसने मेरे दिल में शाहरुख के लिए इज्जत और बढ़ा दी है।
रही बात विजयाराजे सिंधिया पर घोषित हुई फिल्म की तो मुझे नहीं लगता कि अब वो पूरी हो पाएगी। इसे मृदुला सिन्हा बना रही हैं, जिन्होंने विजयाराजे सिंधिया के साथ काफी वक्त गुजारा। लेकिन वो लेखक हैं, सिनेमा के समीकरणों से वो अनजान हैं। फिल्म बनाने के लिए ढेर सारा पैसा चाहिए होता है। पर खुद सिंधिया परिवार ने कभी इस फिल्म के निर्माण में न तो कभी मदद की और ना ही कोई उत्साह दिखाया। यहां तक कि ग्वालियर में शूटिंग की इजाजत तक नहीं दी।

और, फिल्म टेल मी ओ खुदा का विचार कैसे आया?
मैंने एक अखबार में एक लड़की के बारे में पढ़ा था। भारत में जन्मी और ऑस्ट्रेलिया में पली बढ़ी ये लड़की जब बड़ी हुई तो उसे लगने लगा कि उसके आसपास के बच्चे उस जैसे नहीं हैं। तब उसे पता चला कि उसे गोद लिया गया था। किसी भी इंसान को अगर पता चले कि जिन लोगों के साथ उसने इतना लंबा वक्त गुजारा वो उसके असली माता पिता ही नहीं तो उस पर क्या गुजरती होगी? इसी विचार पर ये फिल्म बनी है। ऐसे कितने लोग होंगे भारत में और पूरी दुनिया में, जिन्हें लोग अनाथालयों से गोद ले जाते हैं। एपल के स्टीव जॉब्स को भी कितनी तड़प हुई होगी, जब उन्हें पता चला होगा कि वो एक गोद ली हुई संतान हैं। ऐसे ही एक शख्स के बारे में मैं जानती हूं जो जम्मू कश्मीर में फौज के बहुत बड़े अफसर हैं। वो अब भी अपने असली माता पिता की तलाश में लगे हुए हैं।

अनाथालय में जो बच्चे छोड़ दिए जाते हैं, उसकी वजह क्या आप सिर्फ गरीबी को मानती हैं या कुछ और?
मैंने खुद जितना ऐसे बच्चों के बारे में जाना है, उसके लिहाज से कह सकती हूं कि अनाथालय में बच्चों को सिर्फ मां छोड़ती है। पिता का इसमें शायद उतना हाथ नहीं रहता क्योंकि अनाथालयों में छोड़े जाने वाले ज्यादातर बच्चे बिन ब्याही मांओं की संतान होते हैं। कुछ गरीब घरों के बच्चे भी अनाथालय में छोड़ दिए जाते हैं, लेकिन मैंने देखा है कि कुछ बहुत अमीर माता पिता भी लगातार बेटियों के जन्म लेने पर अपनी बेटियों को अनाथालय छोड़ आते हैं। मैं वृंदावन गई थी तो वहां भी मुझे बताया गया कि वहां के आश्रमों में पलने वाली तमाम लड़कियों के माता पिता बहुत अमीर लोग हैं।

तो इसकी वजह क्या आप समाज में लड़कियों के जन्म को स्वीकार न कर पाने की प्रवृत्ति को भी मानती हैं?
मैंने हाल ही में तीस मिनट का जो संगीत नाटक बनाया है नारी। इसके पीछे मूल सोच यही है। इसमें मेरा किरदार कहता है, कन्या के जन्म के समाचार से मातम छा जाता है। इस वंश प्राप्ति पर जग बधाई देने से कतराता है। कन्या का आना जाना क्यूं दुर्भाग्य दिखाई देता है? जग में आने से पूर्व ही जग झट से उसे विदाई दे देता है। जिन्हें पुत्र कहते उनकी भी सृष्टि कहां से होगी? नारी न रही तो नूतन जग की सृष्टि कहां से होगी? जिसकी हत्या की वो क्या पता आगे चलकर क्या होती? इस नवयुग के निर्माण में उन कन्याओं का योगदान कितना होता। युग बदल रहा है अब अपनी चिंताधारा को भी बदलो। पुत्र रत्न है और कन्या विपदा इस भ्रम से तुम बाहर निकलो।
इसमें मेरी छोटी बेटी आहना रानी पद्मिनी बनकर आती है और एशा झांसी की रानी। ये दोनों कहती हैं, यदि देखना चाहते हो नारी की उड़ान को तो और ऊंचा कर दो आसमान को। दुर्भाग्य है कि यत्र नार्यस्तु पूज्यंते, रमंते तत्र देवता को मानने वाले देश में कन्याओं को जन्म से पहले ही मार दिया जाता है।

अपने इन विचारों को आप छोटे परदे पर माटी की बन्नो जैसे धारावाहिकों के जरिए भी प्रकट करती रही हैं? आपको क्या लगता है कि टेलीविजन समाज के निर्माण में सार्थक भूमिका निभा पा रहा है?
टेलीविजन के लिए सारे मापदंड अब टीआरपी पर आकर खत्म हो जाते हैं। मैं टेलीविजन के पीछे नहीं भागती लेकिन फिर भी इसके लिए काम करते रहने की इच्छा मेरी रहती है। माटी की बन्नाो शायद गलत समय पर आया या कोई और वजह रही होगी। लेकिन, मैंने कोशिश बंद नहीं की है। एक और धारावाहिक पर भी काम चल रहा है। भारतीय नृत्य को लेकर भी छोटे परदे पर बहुत कुछ किया जा सकता है लेकिन हिंदी भाषी उत्तर भारत में नृत्य को बहुत नीची नजर से देखा जाता है हालांकि दक्षिण में इसे बहुत सम्मान हासिल है। मेरा मानना है कि नृत्य ईश्वर की आराध्ाना की उच्चतम उपासना पद्धति है। इसमें भक्त का पूरा शरीर भक्ति में तल्लीन हो जाता है। मैं ईश्वर का ध्ान्यवाद देती हूं कि उन्होंने मुझे अच्छी नृत्यांगना और लोकप्रिय अभिनेत्री दोनों बनाया। बतौर अभिनेत्री मिली लोकप्रियता का फायदा मेरी नृत्य साधना को मिला है, नहीं तो देश में ना जाने कितने लोग भरतनाट्यम करते हैं और मुझसे अच्छा भी करते हैं, लेकिन उनको लोग नहीं जानते।

और, इस लोकप्रियता का फायदा आपको राजनीति में भी मिला? इसी के चलते मध्य प्रदेश से भाजपा की बड़ी नेता रहीं विजयाराजे सिंधिया के किरदार में आपको लेकर एक फिल्म भी शुरू हुई थी?
अब देखिए ना (मुस्कुराते हुए), मैं भी कहां से कहां तक का सफर करती रहती हूं। मैं फिल्में बनाती हूं, नृत्य करती हूं और दूसरी तरफ ये सब। लेकिन, मुझे वहां भी सम्मान मिला। भाजपा में कुछ बहुत अच्छे लोग हैं, विद्वान लोग हैं। वहां तो मैं बस सुनती रहती हूं, बैठकों में चुपचाप ज्ञान की बातें सुनती रहती हूं। रही बात विजयाराजे सिंधिया पर घोषित हुई फिल्म की तो मुझे नहीं लगता कि अब वो पूरी हो पाएगी। इसे मृदुला सिन्हा बना रही हैं, जिन्होंने विजयाराजे सिंधिया के साथ काफी वक्त गुजारा। लेकिन वो लेखक हैं, सिनेमा के समीकरणों से वो अनजान हैं। फिल्म बनाने के लिए ढेर सारा पैसा चाहिए होता है। पर खुद सिंधिया परिवार ने कभी इस फिल्म के निर्माण में न तो कभी मदद की और ना ही कोई उत्साह दिखाया। यहां तक कि ग्वालियर में शूटिंग की इजाजत तक नहीं दी।

अच्छा, अमिताभ बच्चन जब भी आप से अपनी किसी फिल्म का हिस्सा बनने की बात कहते हैं, आप झट से मान लेती हैं, लेकिन आपकी अपनी फिल्म टेल मी ओ खुदा का वो हिस्सा नहीं बने, ऐसा क्यूं?
पहले इस फिल्म के जो निर्देशक थे मयूर पुरी वो अमिताभ बच्चन के पास इस फिल्म का प्रस्ताव लेकर गए थे। मयूर के दिमाग में अमर, अकबर, एंथनी का विचार घूमता रहता था। लेकिन, फिल्म के लिए जो भावनाएं जरूरी थीं वो फिल्म में मयूर नहीं ला पा रहे थे। इसके बाद जब फिल्म के निर्देशन की कमान मैंने संभाली तो कहानी में काफी कुछ फेरबदल हुए और मुझे लगा कि धर्म जी इस रोल के लिए ज्यादा उपयुक्त रहेंगे। ये फिल्म डा विंची कोड की शैली में बनी फिल्म है, जिसमें कैमरा फिल्म की नायिका के नजरिए से चलता रहता है और दर्शकों को लगेगा कि वो खुद इन सब जगहों पर जा रहा है। ये आजकल की कहीं की ईंट कहीं का रोड़ा जैसी फिल्म नहीं है। मुझे लगता है कि आज की पीढ़ी के निर्देशकों को सीनियर कलाकारों से कायदे से काम लेना नहीं आता। ये या तो कलाकारों को पूरी बात ढंग से समझा नहीं पाते, या फिर हमेशा अति आत्मविश्वास का शिकार रहते हैं।

और, धर्म जी को निर्देशित करने का एहसास?
उन्हें अब कोई क्या निर्देशित करेगा। वो खुद इतने अच्छे कलाकार हैं। खुद इतने अच्छे सीन्स लिखते हैं। वो बहुत काबिल इंसान हैं। लेकिन अब भी सीन देने के बाद भागकर मॉनीटर देखने आते हैं। कभी कभी खुद ही बोलते थे, हेमा, ये सीन अच्छा नहीं गया। फिर से करते हैं। मेरा काम तो सिर्फ किसी सीन को शॉट्स में बांटने तक रहता था, बाकी वो इतने अच्छे इंसान हैं कि अपना सारा काम खुद ही कर लेते थे। सनी देओल में मुझे ध्ार्म जी के सारे गुण नजर आते हैं। सनी देओल खुद अपनी तरफ से रुचि लेकर एशा देओल की इस फिल्म की मदद कर रहे हैं और मुझे क्या चाहिए? बस।

© पंकज शुक्ल। 2011।

रविवार, 9 अक्तूबर 2011

गीतों में लड़कियों को छेड़ने वाले शब्द ढूंढते हैं युवा: रनबीर कपूर

पंकज शुक्ल

परदादा धाकड़ अभिनेता, दादा अपने जमाने का सबसे बड़ा शो मैन, पिता हिंदी सिनेमा का सुपर स्टार और मां दमदार अदाकारा हो तो जाहिर है चौथी पीढ़ी पर दबाव आ ही जाता है। लेकिन करियर की पहली ही फिल्म फ्लॉप हो जाने के बावजूद रनबीर कपूर ने हिंदी सिनेमा में न सिर्फ अपनी अलग पहचान बनाई है बल्कि नई पीढ़ी के अभिनेताओं के बीच वो सबसे चमकते सितारे भी बन चुके हैं।

मुंबई में पला बढ़ा एक मेट्रो ब्वॉय फिल्म रॉक स्टार का जनार्दन जाखड़ कैसे बना?
जनार्दन जाखड़ जैसा किरदार वाकई मेरी जिंदगी के करीब कभी नहीं रहा। मैं तो वेक अप सिड जैसा सिड हूं। ये किरदार मेरा अब तक का सबसे मुश्किल किरदार रहा। ये दिल्ली के पीतमपुरा का एक जाट है जो हिंदू कॉलेज में पढ़ता है और जिसका सपना है रॉक स्टार बनना। इसे एक दिन कैंटीन वाला कहता है कि अगर जिंदगी में दुख दर्द आंसू नहीं सहा तो झंकार कहां से आएगी। जब तक तेरा दिल नहीं टूटता तब तक तू बड़ा कलाकार बन नहीं सकता। तो बस वो स्टीफेंस कॉलेज की जो सबसे हाईसोसाइटी वाली लड़की है, उसे पटाने की कोशिश करता है ताकि वो उसका दिल तोड़े। वहां से उनकी दोस्ती शुरू होती फिर उनकी आगे की 8-10 साल की स्टोरी है ये फिल्म।

रॉक स्टार में जो बैंड संस्कृति है, उसे आज के युवा कितना खुद को जोड़ पाएंगे?
आज के जो युवा हैं वो पश्चिम से ज्यादा प्रभावित रहते हैं, पर अपने यहां भी तो तमिल, तेलुगू और दूसरी भाषाओं में इतना सारा संगीत है जो हमें हमारी जड़ों से जोड़ता है। आज के संगीतकार पश्चिम की धुनें और कंपोजीशन चुराकर संगीत बना रहे हैं, लेकिन मेरा मानना है कि अगर संगीत अपनी जड़ों से न जुड़ा हो तो कनेक्ट नहीं करेगा। रॉक स्टार के निर्देशक इम्तियाज की अली की भारतीय साहित्य के बारे में समझ बहुत है। उन्हें गालिब और रूमी जैसों का लिखा कंठस्थ है। इस फिल्म के गाने खटिया वाले गाने नहीं हैं। रिंग टोन वाले गाने नहीं है, उनका एक अलग स्तर है। जिन्हें गानों के बोलों और धुनों की कद्र होती है, रॉक स्टार के गाने उनके लिए हैं। हमने कोशिश की है, कुछ बेहतर देने की क्योंकि आज की पीढ़ी को बस डिस्को थेक वाले गाने चाहिए। उन्हें हर गाने में ऐसा कोई शब्द चाहिए होता है जिससे वो लड़कियों को छेड़ सकें। लेकिन हमने वैसा संगीत बनाने की कोशिश की जिसके लिए हिंदी सिनेमा को जाना जाता रहा है।

सांवरिया फ्लॉप हुई तो बुरा तो लगा लेकिन शायद ये सच्चाई से मेरा सामना भी था। फिल्म हिट होती तो मेरा दिमाग घूम सकता था। इस नाकामी ने मुझे बताया कि आप चाहे जितनी बड़ी फैमिली से हो लेकिन आपका काम ही आपको आगे बढ़ाएगा।


आपके अब तक के सारे किरदार एक दूसरे से काफी अलग रहे हैं, इसमें आपकी अभिनय की शिक्षा का कितना योगदान है?
मैं बचपन से अभिनेता बनना चाहता था। मैं किरदारों को लेकर बोर नहीं होना चाहता। मेरी कोई इमेज नहीं है। साथ ही मैं खुद को भाग्यशाली मानता हूं कि मुझे अब तक बहुत ही अच्छे निर्देशकों के साथ काम करने का मौका मिला। अदाकारी के बारे में जो जानता हूं, उसका श्रेय मैं संजय लीला भंसाली को देना चाहता हूं। मैं ऐसे निर्देशकों के साथ काम करना चाहता हूं जो फिल्म के जरिए कुछ कहना चाहते हैं। अगर निर्देशक को अपनी फिल्म को लेकर जुनून है तो आधा काम तो वहीं हो जाता है। रही बात अभिनय की शिक्षा की तो मैंने न्यूयॉर्क के ली स्ट्रासबर्ग थिएटर एंड फिल्म इंस्टीट्यूट से मैथड एकटिंग सीखी है पर मैं अदाकारी के इस तरीके को बिल्कुल नहीं मानता हूं। मेरा मानना है कि अदाकारी का हर अभिनेता का अपना अलग मेथड होता है।

किसी भी सितारे की कामयाबी में उसकी इमेज का बहुत बड़ा योगदान होता है और आपकी इमेज खराब करने के लिए तो मुंबइया गॉसिप मिल दिन रात काम करती दिखती है?
गॉसिप कॉलमों में क्या छपता है, मैं इस पर ज्यादा ध्यान नहीं देता। शुरू शुरू में इस सबको लेकर दिक्कत होती थी पर मेरा मानना है कि एक अभिनेता को अपने काम से मतलब रखना चाहिए। लगातार अच्छा काम करते जाने से कुछ दिनों बाद लोग भी इस तरह की बातें नहीं पूछते और आपके काम की तरफ ही ध्यान देने लगते हैं। मेरी अभी कोई इमेज नहीं है। और वो जमाना भी गया जब कलाकार एक इमेज लेकर चलते थे। एक जैसी ही फिल्में करते थे। इस बारे में मैं आमिर खान का अनुयायी हूं जिन्होंने हर फिल्म में नए लुक का चलन हिंदी सिनेमा में शुरू किया।

लेकिन, डेल्ही बेली में काम करने से आपने मना कर दिया था? और रीमेक के चलन के बारे में आपका क्या कहना है?
हां, डेल्ही बेली पहले मेरे पास ही आई थी। लेकिन तब मैं अपने करियर के साथ पंगा नहीं लेना चाहता था। मेरी एक जिम्मेदारी है अपने दर्शकों को लेकर। मैं ऐसी फिल्में करना चाहता हूं जिन्हें मैं अपने माता पिता के साथ देख सकूं। वैसे डेल्ही बेली एक कामयाब फिल्म है और इसकी स्क्रिप्ट भी अच्छी थी। रही बात रीमेक की तो मुझे नहीं लगता है कि ऐसा कहानियों की कमी की वजह से हो रहा है। हां, ये दिक्कत जरूर है कि अब फिल्में लिखने वाले खुद निर्देशक बन रहे हैं। मेरा मानना है कि फिल्में लिखने वाले अगर बड़े निर्देशकों के लिए फिल्में लिखें तो काफी अच्छा काम हो सकता है। हां, मैं रीमेक कभी नहीं करूंगा।

मैं अगले साल या उसके अगले साल अच्छी कहानी मिलने पर एक फिल्म निर्देशित करना चाहूंगा। मैं श्री 420 जैसी फिल्म बनाना चाहूंगा जिसका कोई संदेश भी हो।


आमिर, सलमान, शाहरुख की तिकड़ी के बाद लोग शाहिद, रनबीर और इमरान की तिकड़ी का नाम लेते हैं?
ये सही है कि शाहिद कपूर और इमरान खान अच्छा काम कर रहे हैं। मैं भी सही समय पर सही किरदार कर पा रहा हूं तो इसमें मेरे निर्देशकों का बड़ा योगदान रहा है। लेकिन, आमिर, सलमान या शाहरुख जैसी ऊंचाई पाने के लिए हम तीनों को बहुत मेहनत करनी होगी। हमें और चुनौती वाले किरदार करने होंगे तभी शायद हम वहां तक पहुंच सकें। इन लोगों के पीछे बहुत बड़ा काम और बहुत सारी मेहनत है। वहां पहुंचने के लिए बहुत कड़ी मेहनत और लगन की जरूरत होगी। मेरा पूरा ध्यान अब इसी तरफ है ताकि मैं इनसे भी आगे जाने की सोच सकूं।

आरके फिल्म्स के भविष्य को लेकर आपका क्या सपना है?
कपूर खानदान की विरासत एक बड़ी जिम्मेदारी है। मेरा सपना है कि मैं आरके फिल्म्स के लिए एक फिल्म बतौर निर्माता-निर्देशक बनाऊं। जिस तरह की फिल्में राज कपूर ने बनाई वैसी हम बना नहीं सकते क्योंकि वैसे किरदार अब नहीं होते तो हमें आगे बढ़ना है। लेकिन उससे पहले मुझे अपने अभिनय पर भी ध्यान देना है क्योंकि यहां कामयाबी कब आपके हाथ से फिसल जाए पता नहीं होता। मैंने अपने पिता को देखा है कि कैसे लीड हीरो से कैरेक्टर आर्टिस्ट बनने पर इंसान तनाव से गुजरता है। लेकिन, आप अच्छे एक्टर हो तो आपका करियर कभी खत्म नहीं होता। मैं अगले साल या उसके अगले साल अच्छी कहानी मिलने पर एक फिल्म निर्देशित करना चाहूंगा। मैं श्री 420 जैसी फिल्म बनाना चाहूंगा जिसका कोई संदेश भी हो। मौजूदा वक्त के हिसाब से पूछें तो मैं राजू हिरानी की फिल्मों जैसी फिल्म बनाना चाहूंगा।

अपनी पहली फिल्म सांवरिया के फ्लॉप होने के एहसास के बारे में बताइए?
मैंने संजय लीला भंसाली के साथ इससे पहले फिल्म ब्लैक में बतौर सहायक निर्दशक काम किया था। सांवरिया फ्लॉप हुई तो बुरा तो लगा लेकिन शायद ये सच्चाई से मेरा सामना भी था। फिल्म हिट होती तो मेरा दिमाग घूम सकता था। इस नाकामी ने मुझे बताया कि आप चाहे जितनी बड़ी फैमिली से हो लेकिन आपका काम ही आपको आगे बढ़ाएगा। अब साढ़े तीन साल में मुझे लगता है कि लोग मुझे मेरे काम से जानने लगे हैं। मेरे माता-पिता कहीं बाहर जाते हैं तो लोग उन्हें रनबीर कपूर के माता-पिता के नाम से बुलाते हैं, ये उन्हें भी बहुत अच्छा लगता है।

कपूर खानदान रिश्तों में बड़ा यकीन करता है, इन दिनों का पारिवारिक मिलन कैसा होता है?
हम अब भी हर रविवार को एक साथ लंच करते हैं। मेरी दादी चेंबूर में रहती हैं। हम लोग वहीं जाते हैं। घर में इतने सारे बड़े बड़े सितारे हैं कि हम लोग तो बस किनारे ही हो जाते हैं। खाने के सब शौकीन हैं और बात भी करते हैं तो लगता है झगड़ा कर रहे हैं। हमारे लिए तो ये टेनिस मैच जैसा होता है, आंखें यहां से वहां नाचती रहती हैं, एक चेहरे से दूसरे चेहरे पर।

रॉक स्टार के बाद आप बर्फी कर रहे हैं, उसके बाद?
बर्फी का नाम पहले साइलेंस था। इसमें मैं गूंगा बहरा बना हूं तो लोगों ने समझा कि ब्लैक की तरह की फिल्म होगी। पर ये बच्चों की फिल्म है। बहुत ही दिल को छू लेने वाली फिल्म है। इसमें रोमांस भी है और फिर एक मर्डरमिस्ट्री। फिल्म के निर्देशक अनुराग बासु के साथ काम करने में मजा आ रहा है। वो खुद भी बहुत बड़े बच्चे हैं। बच्चों पर आज जो टीवी का जो प्रभाव है, उससे उन्हें थिएटर जाने का मन नहीं करता लेकिन अगर आप अच्छी फिल्म बनाओ तो बच्चे आते हैं। अजब प्रेम की गजब कहानी देखने बहुत बच्चे आए। इसके बाद मैं एक फिल्म जनवरी में वेक अप सिड के निर्देशक अयान मुखर्जी के साथ शुरू कर रहा हूं, निर्माता करण जौहर की इस फिल्म में मेरे साथ दीपिका पादुकोण होंगी।

© पंकज शुक्ल। 2011।

रविवार, 2 अक्तूबर 2011

हौसले, हिम्मत और मोहब्बत की निशानी


किला जाधवगढ़

इतिहास सिर्फ वही नहीं जो हम किताबों में पढ़ते हैं। इतिहास वो भी है जिसकी जानकारी हमें दुर्गम इलाकों में मौजूद अतीत की निशानियों तक पहुंचकर मिलती है। बाजीराव मस्तानी की प्रेम गाथा भी महाराष्ट्र के एक ऐसे किले के करीब आज भी गुनगुनाई जाती है, जिसके बारे में तमाम घुमंतुओं को भी कम ही मालूम है।


जिन लोगों को ऐतिहासिक पृष्ठभूमि पर बने सिनेमा में खास रुचि रहती है, उनको भी और जिन्हें लोकप्रिय सितारों के साथ बनने वाली फिल्मों में दिलचस्पी रहती है, उनको भी याद होगा फिल्म निर्देशक संजय लीला भंसाली का वो ऐलान, जो उन्होंने अपनी सुपर हिट फिल्म हम दिल दे चुके सनम के ठीक बाद किया था। संजय तब बाजीराव पेशवा और मस्तानी नाम की एक राजकुमारी की प्रेमकथा पर फिल्म बनाना चाहते थे, इसके लिए सलमान खान के साथ पहले ऐश्वर्या राय और फिर करीना कपूर को लेने की बात भी चली थी पर किन्हीं वजहों से ये फिल्म शुरू नहीं हो सकी। फिल्मों में मेरी रुचि तो शुरू से रही है, पर देशाटन के दौरान कम ज्ञात जगहों को लेकर भी मेरा विशेष आग्रह रहता है। लिहाजा इस बार मुंबई की चिल्लपों से दूर प्रकृति के वीराने में दिवे घाटी की गोद में इतिहास के एक अहम पन्नो की दास्तां खुद में समेटे जाधवगढ़ किले को घूमने का मौका मिला तो ना जाने कैसे बाजीराव-मस्तानी की प्रेम कहानी अपने आप याद आ गई। जी हां, पुणे से कोई 25 किमी दूरी पर स्थित जाध्ावगढ़ के किले के पास ही है वो मस्तानी झील, जहां मोहब्बत के कुछ हसीन लम्हे इन दोनों ने बिताए। जमाने के दस्तूरों को झकझोरा और पूरे किए अपने वो अरमान जिन पर उन दिनों तमाम तरह के पहरे रहा करते थे।
खुद महाराष्ट्र में बरसों से रहने वालों को भी जाध्ावगढ़ किले के बारे में ज्यादा जानकारी नहीं है। मुंबई से सड़क रास्ते से पांच घंटे और पुणे से करीब 40 मिनट की दूरी पर है इतिहास की ये अनोखी विरासत। पिलाजी जाधवराव द्वारा 1710 में बनवाया गया ये किला महाराष्ट्र ही नहीं बल्कि देश के उन किलों में सबसे आगे गिना जाता है, जिन्हें हेरिटेज होटल में तब्दील करने की महात्वाकांक्षी योजना पर काम चल रहा है। पुराने पुणे-सतारा मार्ग पर पुणे से 22 किमी आगे समुद्र तल से करीब ढाई हजार फिट की ऊंचाई पर छोटी छोटी पहाड़ियों के बीच कोई 25 एकड़ समतल जमीन पर बना है ये खूबसूरत किला। महाराष्ट्र की मशहूर मराठा वास्तुशिल्प के इस अद्बभुत नमूने में वो सब कुछ है जो आपका मन मोह लेता है। छत्रपति शाहू जी की सेना के मराठा जनरल पिलाजी जाधवराव के नाम पर ही इस इलाके का नाम पड़ा है जाध्ाववाड़ी। पहाड़ से निकाले गए पत्थरों को तराश कर बनाए गए इस किले की मजबूती और इसकी अभेद्य सुरक्षा व्यवस्था यहां पहुंचकर की समझी जा सकती है।
इतिहास के झरोखे से
शाहजहां द्वारा बंदी बनाए गए छत्रपति शिवाजी के पोते शाहू जी 1707 में इक्कीस साल बाद जेल से रिहा हुए। मराठवाड़ा के लिए वो वक्त मुसीबतों का था। इलाके पर तब भी मुगलों का कब्जा था लेकिन औरगंजेब की मौत के साथ ही इनके पैर भी इस इलाके से उखड़ने लगे थे। मराठों के बीच शिवाजी के दूसरे बेटे राजाराम की विध्ावा रानी ताराबाई की सत्ताशीन होने को लेकर मतभेद लगातार कायम थे। शाहू जी ने सारे हालात को देख समझ कर एक समग्र योजना बनाई, जिसका अंतिम उद्देश्य था इस इलाके में मराठों की संप्रभुता फिर से कायम करना। आम इंसानों के बीच से हुनरमंदों को पहचानने की जबर्दस्त काबिलियत रखने वाले शाहू जी ने अपने विश्वासपात्र लोगों का एक खास जत्था तैयार किया। इन लोगों को शाहू जी ने पूरे इलाके में फैल जाने का निर्देश दिया और सबको अपने जैसे ही तमाम लोगों को अपने साथ जोड़कर एक ऐसी फौज तैयार के काम में जुट जाने को कहा, जो किसी भी हमले का मुकाबला करने में सक्षम हो। शाहू जी के इसी खास दस्ते में सबसे अहम शख्स थे पिलाजी जाध्ावराव। जाध्ाववाड़ी और सासवड इलाके के चुनिंदा जांबाजों को इकट्ठा कर पिलाजी ने लड़ाकू दस्ते तैयार किए। पिलाजी की तलवारबाजी के किस्से अब भी इलाके की लोककथाओं और लोक गीतों में सुने जा सकते हैं। पिलाजी और उनके जैसे कुछ अन्य जांबाजों की मदद से ही आखिरकार शाहू जी फिर से राजगद्दी पर बैठे और अपने वफादार पेशवाओं की मदद से इलाके पर राज किया।
जाधवगढ़ किले की खासियत
पिलाजी जाधवराव ने पेशवाओं की तीन पीढ़ियों और मराठों की लंबे समय तक सेवा करने के बाद 1784 में आखिरी सांस ली थी। जाध्ावगढ़ किला अब भी उनकी दूरदृष्टि और युद्धकौशल रणनीति की कहानियां सुनाता है। दूर दूर तक खुले मैदान के बीच बने इस किले के मुख्यद्वार तक पहुंचने का रास्ता घुमावदार है। किले के मुख्यद्वार तक पहुंचने के लिए बनी सीढ़ियां भी यू टर्न लेकर ऊपर तक पहुंचती है, मतलब कि दुश्मन की किसी भी टुकड़ी को किले के दरवाजे पर पहुंचने से पहले हर मोड़ पर मुकाबले के लिए तैयार मराठा सैनिकों से लोहा लेना होता था। ये किला दुश्मन के हमले से बचने के लिए तो बेजोड़ था ही, आरामतलबी के भी इसमें पूरे इंतजाम हैं। अनाज रखने के लिए बनी बड़ी सी बखारी और विपत्ति के समय बच निकलने के लिए गर्भतल में बनी लंबी सुरंग अब भी मौजूद है। किले की चौड़ी बाहरी दीवारों और परकोटे के बीच महिलाओं के रहने के लिए अलग से इंतजाम किया गया है।
इसी भीतरी इलाके में बरसात का पानी इकट्ठा करने के लिए एक बावड़ी भी बनी थी, जिसे अब स्वीमिंग पूल में तब्दील कर दिया गया है। 300 साल पहले बने किले में वाटर हार्वेस्टिंग की इतनी पुरानी व्यवस्था अचरज में डाल देती है। किले की भीतरी बनावट भी कम हैरान कर देने वाली नहीं है। राजपूताना महलों के विपरीत इस किले में कहीं भी किसी तरह की शौकीनमिजाजी के प्रमाण नहीं मिलते। ना दीवारों पर कहीं कोई नक्काशी, ना घुमावदार मेहराब और ना ही कहीं तड़क भड़क वाली चीजें। हां, मुख्य प्रवेश द्वार पर लगी नुकीले भाले और दरवाजे से भीतर घुसते ही दाहिनी तरफ हाथियों को भोजन खिलाने के लिए रखी शिला जरूर किले को अलग आभा प्रदान करती है। किला होटल में भले तब्दील हो गया हो, पर इसके मुख्य कर्ताधर्ता को अब भी कहा किलेदार ही जाता है। किले के परिसर में एक तीन सौ साल पुराना गणेश मंदिर भी है, जिसमें पूजा अर्जना का क्रम लगातार चलता रहता है। पिलाजी के वंशजों की शादियां आज भी इसी मंदिर में ही होती हैं।
बाजीराव-मस्तानी की अमर कहानी
जाधवगढ़ किले के पास ही है मशहूर दिवे घाट, जहां देश विदेश के उन सैलानियों का जमावड़ा लगता रहा है जिन्हें पर्वतारोहण में खास रुचि है। और इसी देवे घाट में स्थित है मस्तानी झील। घाटी की गहराइयों को नापती इस झील के बारे में कहा जाता है कि यही वो जगह है जहां बाजीराव पेशवा अपनी प्रेमिका मस्तानी से मिला करते थे। बाजीराव का पूरा नाम बाजीराव बालाजी भट्ट था। ब्राह्णण होने के बावजूद उन्होंने मराठा साम्राज्य के चौथे छत्रपति शाहू जी की सेनाओं का नेतृत्व किया। बाजीराव को उत्तर में मराठा साम्राज्य के विस्तार का श्रेय दिया जाता है। उनकी शादी काशी बाई से हुई। काशी बाई से उनके दो बेटे हुए जिनमें से एक नाना साहब को शाहू जी ने 1740 में अपना पेशवा नियुक्त किया। बाजीराव की दूसीर शादी मस्तानी से हुई और उनसे हुए बेटे कृष्णराव को उस समय के ब्राह्णण समुदाय ने अपनाने से अस्वीकार कर दिया। बाद में इसकी परवरिश शमशेर बहादुर के तौर पर हुई। 1761 की पानीपत की लड़ाई में शमशेर बहादुर 27 साल की उम्र में मराठों की तरफ से लड़ते हुए शहीद हो गया। मस्तानी दरअसल पन्नाा के महाराजा छत्रसाल की मुस्लिम पत्नी से हुई बेटी थी। बाजीराव और मस्तानी के पोते अली बहादुर ने बाद में अरसे तक बुंदेलखंड में बाजीराव की मिल्कियत की देखरेख की और उसी ने उत्तर प्रदेश की बांदा रियासत की नींव रखी।

© पंकज शुक्ल। 2011