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रविवार, 7 जून 2009

मिठलबरा: पार्ट टू


मिठलबरा - अब भी ज़िंदा है!

हिंदी फिल्मों में सीक्वेल की परंपरा पुरानी है। लेकिन, किसी कालजयी उपन्यास का सीक्वेल भी लिखा गया हो, ऐसा सुनने में नहीं आता। लेकिन, प्रिंट पत्रकारिता के चंद मठाधीशों के चेहरों से नक़ाब उतारने में सफल मशहूर व्यंग्य उपन्यास मिठलबरा को पढ़ने के बाद लगता है कि इसका सीक्वेल लिखा जाना चाहिए।
हिंदी के मशहूर व्यंग्यकार गिरीश पंकज ने न जाने किस स्नेहवश अपने उपन्यास “मिठलबरा” की लेखकीय प्रति मेरे हवाले की। इस उपन्यास के हाथ में आने से पहले ही इसके प्रतिमानों मसलन सरायपुर, इससे निकलने वाले अख़बार सरायपुर टाइम्स, सेठ मोटूमल, उसके बेटे, मिस जूली, सुमन कुमार, मिठलबरा और मिठलबरा के जासूसों के ख़ाके मेरे दिमाग़ में खिंच चुके थे। उपन्यास मिला तो पढ़ने का समय नहीं था और पढ़ने का समय मिला तो रायपुर से मैं दूर आ चुका था। रायपुर में होता तो गिरीश पंकज जी के गले ज़रूर लगता और कहता, “भाई! मिठलबरा अब अख़बारों से निकलकर इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में घुस चुका है।” वैसे ब्रेकिंग न्यूज़ गिरीश पंकज जी और उन जैसे पत्रकारिता के अलमबरदारों के लिए ये भी है कि मिठलबरा का सारा काम अब सेठ मोटूमल के वारिसों या फिर उनके चमचों ने संभाल लिया है।
मिठलबरा जिस दिन हाथ में आया, उस दिन गिरीश पंकज जी से देर तक सरायपुर टाइम्स और उसके प्रतिमानों पर चर्चा होती रही। किसी भी कहानी या उपन्यास का कोई भी किरदार किसी एक चरित्र से रेखांकित नहीं होता। लेखक अपने आसपास के चरित्रों को पढ़ता है और फिर उनसे एक नया किरदार गढ़ता है। गिरीश पंकज जी ने अपना ये उपन्यास मुझे उस चर्चा के बाद दिया, जिसमें मैं उनसे अपनी एक प्रस्तावित हिंदी फिल्म की कहानी का ज़िक्र छेड़ बैठा था। कहानी का सार सुनने के बाद गिरीश पंकज जी ने अगली मुलाकात में मुझे मिठलबरा की लेखकीय प्रति दी, उस शाम देर तक हिंदी पत्रकारिता के गिरते स्तर और उसके एक धंधे में बदलते स्वरूप पर बातें होती रहीं। गिरीश पंकज जी को बार बार स्टूडियो में बुलाना रायपुर के उन स्थापित मानदंडों को चुनौती देना भी था, जिनमें कुछ खास स्वनामधन्य पत्रकारों को ही स्टूडियो में बुलाने की परंपरा रही है। इनमें से एक अमूमन भोपाल से आयातित होते थे, और किसी भी विषय पर चर्चा के लिए तत्पर रहते थे, ये और बात है कि विषय के विवाद में जाते ही वो हाथ खड़े कर देते और आंकड़े (या कहें कि जानकारी) ना होने की दुहाई देने लगते। दूसरे पत्रकार रोचक किस्म के रहे, उनसे कभी बौद्धिक वार्तालाप का संयोग तो नहीं बना। लेकिन, उनकी जादूगरी यही है कि उनके बारे में पत्रकारिता को छोड़कर बाकी सारे किस्से रायपुर के पत्रकारों से सुनने को मिले।
सरायपुर को जितना गिरीश पंकज जी ने अपनी नज़रों से जाना, वो उन्होंने मिठलबरा में लिख दिया है। मैं दुनिया में उनसे कोई एक दशक बाद आया तो ज़ाहिर है कि उनकी और उनकी बाद की पीढ़ी के मिठलबरों को भी जान चुका हूं। गिरीश पंकज जी ने प्रिंट को करीब से देखा और समझा और शायद इसीलिए वो पत्रकारिता के गिरते स्तर को देख तड़प जाते हैं। मैंने प्रिंट में पत्रकारिता की घुट्टी पाई और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में लोगों को सच से कतरा कर निकलते देखा है। ये सुलभ पत्रकारिता का ज़माना है, माने जो सुलभ हो जाए वही ख़बर है। कुछ कुछ सुलभ शौचालयों की तरह, जिसे जहां सुलभ हो जाए, वहीं पेट खाली कर लेता है।