जब गुलज़ार ने इक शाम को लाली बख्शी!
लिखने और जीने में ज़्यादा फर्क़ नहीं होता। इंसान जी रहा होता है तो लिख रहा होता है। जब वो लिखना रोक देता है तो यकीन मानिए कहीं कुछ ठहर गया होता है उसके भीतर। इस ठहरे हुए कलम के कारिंदे को फिर एक धक्का चाहिए होता है ताकि बिना बैटरी के भी वो स्टार्ट हो सके। लिखने को गति मिलने की ज़रूरत होती है। फिर तो डायनमो काम कर ही लेता है।
आज शनिवार की शाम शायद कुछ ऐसा ही महसूस हो रहा है। हम फिल्म व टीवी निर्देशकों का एक संगठन है- इंडियन फिल्म एंड टीवी डायरेक्टर्स एसोसिएशन (इफ्टडा)। इसका एक खास कार्यक्रम होता है मीट द डायरेक्टर – मास्टर क्लास। आज की शाम हमने इसमें गुलज़ार साब को सुना। उन्होंने एक नई नज़्म से इस शाम को लाली बख्शी। ये नज़्म आप सबके साथ साझा करने से खुद को रोक नहीं पा रहा हूं। इस पूरी शाम का किस्सा भी मैं लिखूंगा। फिलहाल, आप गुलज़ार साब की इस नई नज़्म को अपना नज़ला बनाइए, जी हां! आने वाले कई दिनों तक ये आपका साथ ना छोड़ेगा -
पुरानी नज़्मों के खोलने से
कभी कभी होती है एलर्जी
किसी पुराने ख्याल की धूल
उड़के जाती है नाक में
तो झड़ी सी लगती है छींको की
और कुछ रोज़ नज़ला लग जाता
है पुराने दिनों का मुझको
पुराना सा इक ख्याल
के दिन तो टोकरी है मदारी की
और रात जैसे उसका ढक्कन
गिरा के ढक्कन
तमाशा अपना उठाए बब्बन ने
और गली पार कर गया वो
मदारी मुझको ख़ुदा लगा जब छोटा था मैं
ख़ुदा मुझे अब मदारी लगता है
जब बड़ा होके देखता हूं तमाशे उसके
किसी किसी नज़्म को निकालूं तो
उड़ने लगते हैं खुश्क़ ज़र्रे
वो नज़्म जो सूखने लगी है
पड़ी पड़ी कागज़ों के अंदर
वो नज़्म जो इसलिए न छपवाने दी थी उसने
कि लोग पहचान लेंगे उसको
वो अब भी जी करता है के छपवा के देखूं
वो खुद को कैसे पहचानती है इसमें
मैं खांस लेता हूं
सांस में जब अकड़ने लगते हैं खुश्क़ ज़र्रे
पुरानी नज़्मों से एक महक़ आती है मुझे उन रजाइयों की
जो गर्मियों में सुखाई जाती हैं धूप में
इसलिए कि इस बार जब ओढ़ें
नमी न रह जाए पिछली नींदों की कोई उसमें
कोई चकत्ता हो ख्वाब का तो वो साफ कर दें
भरी सी एक छींक आ के रुक जाती है हमेशा
पुरानी नज़्मों को खोलने से कभी कभी होती है एलर्जी!
- गुलज़ार
(24 सितंबर 2016 को इंडियन फिल्म एंड टेलीविजन डायरेक्टर्स एसोसिएशन के कार्यक्रम मीट द डायरेक्टर – मास्टर क्लास में)
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