किसी की मुस्कुराहटों पे हो निसार, किसी का दर्द मिल सके तो ले उधार, किसी के वास्ते हो तेरे दिल में प्यार, जीना इसी का नाम है..! - शैलेंद्र (1959)
बुधवार, 5 अगस्त 2009
शर्म इनको मगर नहीं आती!
हिंदुस्तानी सिनेमा जिसे लोग प्यार से, नफरत से या फिर जैसे भी बॉलीवुड कहते हैं, दरअसल इस देश की विरासत का असली आइना है। ये वो जगह है जहां एक हिंदू डायरेक्टर एक मुस्लिम कैमरामैन पर अपने ज़मीर से ज़्यादा भरोसा करता है। ये वो जगह है जहां एक सिख आर्ट डायरेक्टर एक ईसाई प्रोडक्शन कंट्रोलर के बुलावे पर रात 12 बजे भी सुनसान फिल्म सिटी तक अकेले एक ऑटो लेकर पहुंच जाता है। मुंबई की सूरत बिगाड़ने की कोशिश में कितने ही बम धमाके हो चुके हों, लेकिन फिल्म इंडस्ट्री की गंगा जमुनी तहज़ीब पर किसी ने आंच नहीं आने दी। लेकिन, इमरान हाशमी ने जो किया वो एक ऐसी चिंगारी है, जिसकी तपिश आग से ज़्यादा ख़तरनाक है। मुंबई का पाली हिल इलाका कोई जन्नत तो नहीं कि हर सितारा बस वहीं जाकर बसना चाहे। और जिन दिलीप कुमार के पड़ोस में बसने के ख्वाहिशमंद इमरान हाशमी हैं, वो भी तो आखिर मुसलमान ही हैं और पाली हिल पर बरसों से आशियाना बसाए हैं। खुद इमरान हाशमी बरसों से बांद्रा में ही रह रहे हैं, और कभी उन्होंने ये नहीं कहा कि एक मुसलमान होने के नाते उनके साथ कोई दिक्कत पेश आई हो। तो इसे बस एक खास सोसाइटी में बसने की तमन्ना को लगी ठेस कहें कि या फिर लाइम लाइट में लौटने की छटपटाहट, या फिर मामला इससे भी कहीं ज़्यादा संगीन है। मुंबई में लोग अब खुलकर पूछने लगे हैं कि आखिर भट्ट कैंप के लोगों को अपने मुसलमान होने का इलहाम ठीक उन्हीं दिनों क्यों होता है, जब उनकी कोई फिल्म रिलीज़ होने वाली होती है। अपने रोज़ेदार होने की सिर पर गोल टोपी लगाकर नुमाइश करने वाले महेश भट्ट को एकाएक मुंबई में इस्लाम ख़तरे में तभी क्यों दिखाई देने लगता है, जब उनके प्रोडक्शन हाउस के तार पाकिस्तान से जुड़ते दिखाई देने लगते हैं। दो दिन पहले ख़बर आती है कि भट्ट कैंप एक हिंदू लड़की और एक मुस्लिम लड़के की प्रेम कहानी को लाहौर में फिल्माने जा रहा है और फिर वो कुरेद देते हैं एक ऐसा किस्सा, जिसको इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के टीआरपी रिपोर्टर हाथों हाथ ले उड़ते हैं।
तह तक जाने की किसी को फुर्सत नहीं है और महेश भट्ट जैसा चतुर फिल्मकार इन टीआरपी रिपोर्टर्स को तह तक जाने भी नहीं देता। सब जानते हैं कि भट्ट कैंप को विवाद खड़े करने में महारत हासिल है, लेकिन कोई नहीं जानता कि इसका मक़सद क्या है। कभी व्यस्ततम इलाकों, कभी लोकल ट्रेनों और कभी होटलों पर धमाके करने वालों को जो मकसद सैकड़ों लोगों की जाने लेकर भी हासिल नहीं हुआ, वो ऐसी बातें फैलाने वाले चंद चैनलों पर अपने चेहरे दिखाकर हासिल कर लेते हैं। फिर क्या फर्क है सरहद पार फिरकापरस्ती की साज़िश रचने वालों और सरहद के इस पार बैठकर लोगों को सपने बेचने वालों में। इमरान हाशमी आए तो उनकी हरकतें जैसी भी रहीं, हिंदी फिल्मों के दर्शकों ने उन्हें हाथोंहाथ लिया। किसी ने ये नहीं सोचा कि अरे ये तो मुसलमान हीरो है। सिनेमा कोई भी दर्शक कलाकार का धर्म और उसकी जाति देखकर देखने जाता भी नहीं है। ऐसा होता तो भला दिलीप कुमार कैसे दादा साहब फाल्के पुरस्कार जीतने लायक कलाकार बन पाते और क्यों हिंदी सिनेमा के आज के टॉप तीन सितारे शाहरुख, आमिर और सलमान मुसलमान ही होते। महेश भट्ट की जाती तौर पर हर पत्रकार इज्जत करता है तो इसलिए कि उन्होंने कभी सारांश, अर्थ और डैडी जैसी फिल्में बनाईं। इसलिए नहीं कि इसी शख्स ने हिंदी सिनेमा में सेक्स और चुंबन को मर्डर, कसूर, राज़ और जिस्म जैसी फिल्मों से सामूहिक स्वीकृति दिलाने की भी कोशिश की।
महेश भट्ट ने इमरान हाशमी के हो हल्ले में शामिल होकर अपना ही नाम ख़राब किया, इमरान हाशमी की बेअकली को देखते हुए एक बारगी उन्हें ऐसा सोचने के लिए माफ किया जा सकता है कि उन्हें कोई सोसायटी इसलिए घर नहीं दे रही कि वो मुसलमान हैं। लेकिन, महेश भट्ट! उनका ऐसा सोचना माफी के काबिल नहीं हो सकता। हो सकता है ऐसा उन्होंने अपने भांजे इमरान हाशमी को लाइम लाइट में लाने के लिए किया हो, लेकिन इससे इमरान के प्रशंसक नाराज़ ही होंगे। इमरान हाशमी की आखिरी रिलीज़ फिल्म है जन्नत। फिल्म ने भट्ट कैंप के गोरिल्ला प्रचार के चलते अपनी कमाई भले निकाल ली हो, लेकिन एक सधी हुई फिल्म इसे किसी ने नहीं माना। इस फिल्म में भट्ट कैंप ने एक सट्टेबाज़ को हीरो बनाने की कोशिश की। यही सट्टेबाज अब एक टीवी जर्नलिस्ट के रोल में परदे पर लौटने को बेकरार है फिल्म रफ्तार में। लेकिन इमरान की मार्केट वैल्यू कम देख इसके प्रोड्यूसर्स ने फिल्म की रिलीज़ टाल दी है और इमरान को लगा कि मज़हब का इस्तेमाल करके ही सही कम से कम वो लाइम लाइट में तो आ सकते हैं।
महेश भट्ट के जुहू दफ्तर में इससे पहले भी प्रचार की साजिशें बनती रही हैं और आगे भी बनती रहेंगी, लेकिन अब वक्त है कि मीडिया कौए के पीछे दौड़ने से पहले कान को टटोल कर देख ले। मीडिया को इस्तेमाल करने का हुनर महेश भट्ट सरीखे लोगों से इमरान हाशमी जैसे सीख रहे हैं और ये एक ऐसी विरासत की पीढ़ी हस्तांतरण है, जो देश के ताने बाने के लिए ख़तरनाक ही नहीं बल्कि गंभीर भी है। खुद को चर्चा में बनाए रखने के लिए मीडिया को इस्तेमाल करने का हुनर नेताओं से अभिनेताओं से सीखा है। अब वो फिल्मों की कहानियों में विवाद ढूंढते हैं। कभी कटी हुई दाढ़ी वाले सिख का रोल करके तो कभी विवादास्पद विषयों पर फिल्म बनाकर। वो हर हाल में चर्चा में बने रहना चाहते हैं। कभी दर्शकों को अभिनेताओं की निज़ी ज़िंदगी में तांकझांक करने वाले किस्से कहानियां रोमांचित करते थे, लेकिन इलेक्ट्रानिक मीडिया के बढ़ते मायाजाल और अंतरजाल की तरक्की ने पीत पत्रकारिता को किसी एक या दो पत्रिकाओं तक सीमित नहीं रहने दिया है। तमाम टीवी न्यूज़ चैनलों ने पीत पत्रकारिता के हर स्तर को पाताल तक पहुंचा दिया है, अब दर्शक निजी जानकारी की बजाय कौतूहल से रोमांचित होता है और ये कौतूहल खोजने के लिए बाकायदा एजेंसियां काम कर रही है। मुंबई की ये एजेंसियां फिल्म निर्माताओं और अभिनेताओं को वो विचार पैसे लेकर मुहैया कराती हैं, जिनसे कि वो चर्चा में बने रह सकें। और तो और अब तो फिल्म निर्माता और अभिनेता खुद अपने करीबी पत्रकारों से ये जानना चाहते हैं कि वो क्या करें कि हंगामा हो जाए। नहीं तो और क्या वजह हो सकती है कि महेश भट्ट जैसे शख्स को अब कामयाबी के लिए जिस्म, पाप, रोग, वो लम्हे, गैंगस्टर और धोखा जैसी कहानियां लिखनी पड़ती हैं।
अपनी मां को अपने पिता की दूसरी बीवी (और कई बार गैरकानूनी भी) बताकर सुर्खियां बटोरने वाले महेश भट्ट ने ज़ख्म को अपनी मां की असली कहानी बताई थी। लेकिन, उनके इस शिगूफे की उन्हीं के घर वालों ने बाकायदा ट्रेड पत्रिकाओं में इश्तेहार देकर हवा निकाल दी थी और दुनिया को ये बताया था कि महेश भट्ट के पिता ने दो शादियां उस दौर में की थीं, जब हिंदू मैरिज एक्ट अमल में नहीं आया था और उनकी दोनों बीवियों को बराबर का कानूनी दर्ज़ा हासिल था। हां, ये और बात है कि महेश भट्ट की अपनी पहली बीवी की हालत इन दिनों ठीक नहीं है और वो महेश भट्ट की बजाय अपनी बेटी पूजा भट्ट के साथ रहती हैं। लेकिन, क्या महेश भट्ट ने कभी इस बारे में मीडिया से बात की? क्यों वो ये नहीं बताते कि आखिर डी कंपनी के धुर विरोधी पुजारी गैंग का हमला हर बार उन्हीं के दफ्तर पर क्यों होता है?
नायकों के विलुप्ति के इस दौर में चर्चा भलमनसाहत की कम और बुराई की ज़्यादा होती है। नकारात्मक चीज़ें अब लोगों को ज़्यादा लुभाती है। सलमान खान की शरारतों का ज़िक्र हर तरफ होता है लेकिन उनके एनजीओ पर शायद ही किसी ने तफसील से रिपोर्ट बनाई हो। सुलभ पत्रकारिता का अगर किसी ने सबसे ज़्यादा फायदा उठाया है तो उन लोगों ने, जिनकी जुमले बनाने में दिलचस्पी सबसे ज़्यादा है। महेश भट्ट जैसे लोगों ने मुसलमानों का खैरख्वाह होने का धोखा खड़ा करके सबसे ज़्यादा नुकसान भी इसी कौम का किया है। इमरान हाशमी जैसे रिश्तेदारों को छोड़ दें तो क्या वो बता सकते हैं कि आखिर नए कलाकारों को मौका देने वाले उनके हौसले ने कितने मुस्लिम लड़कों या लड़कियों को हीरो या हीरोइन बनाया है। और, जिन मुसलमानों को वो पटकथा लेखन या संगीतकार का काम देते भी हैं, उन्हें कितना पैसा दिया जाता है। भट्ट साहब अक्सर अपने करीबी दोस्त पत्रकारों को किसी खास वजह को लेकर शोर मचाने की गुजारिश करता एसएमएस भेजते हैं। इसकी वजह क्या हो सकती है भला? इमरान हाशमी को एक खास सोसाइटी में फ्लैट ना दिए जाने पर भी भट्ट कैंप ने ही बासी कढ़ी में उबाल लाने की कोशिश की। लेकिन, इस बार मामला उलटा पड़ता दिख रहा है। खुद फिल्म इंडस्ट्री के लोग ही उनकी मुख़ालिफ़त में खड़े होते नज़र आ रहे हैं। दिल्ली में अपने खास लोगों से वो एसएमएस भेजकर अब मदद की गुजारिश कर रहे हैं। खुद उन्हें लगने लगा है कि मामला इस बार उल्टा पड़ सकता है। इमरान हाशमी और महेश भट्ट दोनों के खिलाफ सांप्रदायिक वैमनस्यता फैलाने की आपराधिक शिकायत की जा चुकी है और महेश भट्ट का पैतरा शायद पहली बार उल्टा उन्हीं के गले पड़ता नज़र आ रहा है।
यह आलेख 5 अगस्त 2009 के 'नई दुनिया' के संपादकीय पृष्ठ पर प्रकाशित हुआ। लिंक है -
http://www.naidunia.com/Details.aspx?id=79286&boxid=29708720
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यह भी एक गलीच राजनीति है।
जवाब देंहटाएंरक्षाबंधन पर शुभकामनाएँ! विश्व-भ्रातृत्व विजयी हो!
पंकज जी ,महेश भट्ट जैसे लोग पौराणिक काल से पाये जा रहे है! वैसे भी स्वार्थ नैतिकता का पछ परिवर्तित कर देती है,और भट्ट का तो कभी नैतिक पेन्दा ही न था!
जवाब देंहटाएंनमस्कार सर,
जवाब देंहटाएंइस मुद्दे पर मेरी सोच थोड़ा अलहदा थी आपसे लेकिन फिर भी सोचने की बुनियाद एक ही है... सांस्कृतिक अलगाव फैलने वालों की समाज में कतई जगह नहीं होनी चाहिए....
हाशमी से पहले शबाना आजमी ने भी यही कारनाम किया था जो कि अपने आप को धर्मनिरपेक्षवादी बताते अघाती नहीं है....हाशमी की बीवी भी हिन्दु है....मामा के बारे में तो आपने तफसील से बता हि दिया.....ये सभी दो मुंहे सांप की तरह है जो धर्मनिरपेक्षता का लबादा ओढे हुए अपने आप आधुनिक भी बताते हैं और मौका पड़ते ही अपने आप को मुसलमान बताकर छाती भी पीटते हैं.....अगर इन लोगों के साथ कोई नाइंसाफी हुई थी तो इन्हें न्यायालय में जाना चाहिए था लेकिन नहीं ये तो दुनिया भर में भारत को बदनाम करने के अपने एजेंडे पर काम कर रहे है....
जवाब देंहटाएंbahut badiya sir ji ...
जवाब देंहटाएंनायकों के विलुप्ति के इस दौर में चर्चा भलमनसाहत की कम और बुराई की ज़्यादा होती है। नकारात्मक चीज़ें अब लोगों को ज़्यादा लुभाती है। ....
जवाब देंहटाएंBahut hi sahi kaha aapne......
Aapke is aalekh ki jitni prashansha ki jaay wah bahut kam hogi....
Mujhe bhi film jagat ki ekta,jati ya dharmgat sambhav bada hi prabhavit karti hai...parantu jo apni chhudratavash isme darar daal ise todna ,kamjor karna chahte hain aur wah bhi mahaj isliye ki we charcha me bane rahen,unka maal bazar me bike.....yah kisi bhanti kshamy nahi hona chahiye....
Aapke is aalekh ki main tahe dil se prashansha karti hun aur apna aabhar vyakt karti hun...
पंकज भाई, बड़ा खुशकिस्मत हूँ, अपने ब्लॉग पर पहली टिप्पणी आपकी मिली. आपके साथ वैसे तो बहुत कम काम करने का मौका मिला, लेकिन जो भी मिला वो मेरे लिए अनमोल धरोहर के समान है. आशा है आप के अन्दर की ज्वाला आगे भी प्रेरणा देती रहेगी.
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