गुरुवार, 9 जुलाई 2009

रहिमन निज मन की व्यथा...


कल से आज तक छत्तीसगढ़ से लेकर दिल्ली, उत्तर प्रदेश और महाराष्ट्र तक से ना जाने कितने फोन आए, सिर्फ इस बात की बधाई देने के लिए कि मैंने अपने ब्लॉग पर अपने मन की बात कही। दरअसल, ब्लॉग की मूल अवधारणा भी यही है कि जो बात इंसान किसी से ना कह पाए, वो अपने ब्लॉग पर लिखकर मन को हल्का कर ले। वैसे तो रहीम बाबा बहुत पहले कह गए हैं कि "रहिमन निज मन की व्यथा, मन ही राखो गोय, सुनि इठिलइहैं लोग, सब बांटि ना लैहै कोय।" लेकिन पीर जब शूल बनकर भीतर चुभने लगती है तो लोग लेखनी का सहारा लेते हैं।

रायपुर से आने के कोई 15 दिन बाद यानी 18 जून को मैंने एक ब्लॉग लिखा था, लेकिन वो था महज दिल हल्का करने के लिए, भड़ास 4 मीडिया ने इसे भले अब इसकी सामयिकता देखते हुए उठाया हो। हां, ये और बात है कि भड़ास 4 मीडिया की हेडलाइन से ऐसा लगता है कि जैसे सारे सेठों के सुपुत्र गण भ्रष्टाचार और अनाचार को बढ़ावा देने वाले हों। ऐसा कतई नहीं है, मुझे तो अमर उजाला अखबार के मालिकों के बेटे आज भी याद हैं, जो संपादकों के पैर सबके सामने छुआ करते थे और व्यक्तिगत मुलाकातों में आज भी छूते हैं। ये संस्कार ही है जो बड़े बिजनेस घरानों के बेटों को दौलत के साथ साथ विरासत में मिलते हैं। हिंदी फिल्मों के प्रोड्यूसर वाशू भगनानी की असल कमाई रीयल इस्टेट से होती है। उनका मुंबई से लेकर दुबई, चीन और ना जाने कहां कहां तक इतना कारोबार फैला है कि वो दस बारह चैनल तो कभी भी खोल सकते हैं, लेकिन उनके बेटे जैकी (जो हाल ही मे फिल्म कल किसने देखा से लॉन्च हुए) से मिलने के बाद किसी को लगेगा भी नहीं कि ये एक अरबपति का बेटा है। कमर से दोहरा होकर अभिवादन करने की उसकी मासूम अदा के सब कायल हैं। मिथुन चक्रवर्ती अपने समय में देश के सबसे बड़े आयकर दाता रह चुके हैं। इलस्ट्रेटेड वीकली ने तब मिथुन के ऊपर कवर स्टोरी की थी। लेकिन, उनका बेटा मिमोह अब भी झुककर दादा के दोस्तों के पैर छूता है। ऐसे तमाम उदाहरण हैं जिन्हें गिनाने बैठें तो शायद पूरी रात बीत जाए।

दरअसल, बेटा किसी का भी हो, वो अपने पूर्वजों की परछाई ही होता है। कई बार अच्छे घरों के बेटे भी बिगड़ जाया करते हैं और इसमें दोष होता है बेहिसाब मिलने वाली दौलत या फिर विरासत में मिली किसी तरह की मठाधीशी का। रही बात मीडिया की तो, वो घराने जिन्होंने मीडिया को अपने इकलौते कारोबार के रूप में अपना रखा है, वहां संस्कार आज भी ज़िंदा हैं। लेकिन, कोई चैनल या अखबार अपने घोषित उद्देश्य से इतर मकसद से खोला गया हो, तो हालात वैसे ही हो सकते हैं जैसे मैंने अपने ब्लॉग में लिखे। टीवी चैनल तो खैर बहुत बड़ी बात है, किसी मुख्यमंत्री ने आज तक किसी छोटे या मंझोले अखबार को भी उसके मालिक के मूल धंधे को लेकर सार्वजनिक रूप से अपमानित नहीं किया होगा। लेकिन, भाजपा की 'आदर्श' छत्तीसगढ़ सरकार के मुखिया रमन सिंह ने ये भी कर दिखाया। और, ऐसा तभी हो सकता है जब हमने पहले अपना गिरेबान ना झांका हो। संपादकों तक यह संदेश पहुंचाना कि छोटे साहब फलां फीमेल एंकर पर मेहरबान हैं, या फिर फलां फीमेल रिपोर्टर से नाराज़ हैं, और ये सोचना कि इससे ये लोग काम खत्म होने के बाद खास केबिन में मिलने के लिए पहुंच जाएंगे मीडिया के बारे में नासमझी नहीं तो और क्या है। और ऐसी ही हरकतें कई बार नासमझी में ही हो जाती हैं सूबे के मुखिया पर दबाव बनाने के लिए। उदाहरण इसके उलट भी बहुतेरे हैं, रंगबाज़ सियासी दिग्गज नेताओं को कई नौजवान मीडिया मालिकों ने नाकों चने चबवाए हैं, औऱ आज भी मीडिया में सेठों के लायक लौंडों की कमी नहीं है, लेकिन तालाब गंदा करने के लिए बस एक ही मछली काफी है।

।।इति श्री दण्डकारण्ये रायपुरखंडे श्रीदित्यनारायण कथाया: अंतिमोध्याय:।।

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