गुरुवार, 30 जुलाई 2009

बाग़ी हो गया छोटा शकील !!!


मुंबई में पिछले साल हुए आतंकी हमले के बाद से भले ही केंद्रीय खुफिया एजेंसियां सतर्क हों और खुद गृह मंत्री पी चिदंबरम ये कह रहे हों कि भारत के पश्चिमी तटों की समुद्रीय सीमाएं सुरक्षित नहीं हैं, जानकार बताते हैं कि अगला हमला पूरब की तरफ हो सकता है। मुंबई का अंडरवर्ल्ड अब सिर्फ देश की आर्थिक राजधानी का ही अंडरवर्ल्ड नहीं रहा। इसके इस शहर से निकल कर दक्षिण और पूरब में पैर पसार लेने के पुख्ता सबूत सामने आने लगे हैं। निजी बातचीत में मुंबई पुलिस के अफसर भले ये कहते नहीं थकते कि हिंदी फिल्मों के गिरते कारोबारी स्तर और मुंबई में हर तरफ दिखने वाली दिक्कतों ने अंडरवर्ल्ड को इस शहर से बाहर ठिकाने बनाने पर मज़बूर किया है, लेकिन बात बस इतनी सी नहीं है। देश की सबसे बड़ी म्यूज़िक कंपनी के संस्थापक टी सीरीज के मालिक गुलशन कुमार का हत्यारा अब्दुल रऊफ मर्चैंट यूं ही बांग्लादेश नहीं पहुंच जाता है। कोल्हापुर जेल में 2002 से उम्र कैद की सज़ा काट रहे रऊफ को अदालत ने इसी साल 23 मई को फर्रलॉग पर छोड़ा था। रऊफ के त्रिपुरा के रास्ते बांग्लादेश में दाखिल होने की पूरी आशंका जताई जा रही है, और रऊफ को पकड़े जाने के साथ ही बांग्लादेश पुलिस ने चार साल पुराने वो रिकॉर्ड भी खंगालने शुरू कर दिए हैं, जिसमें 10 ट्रक असलाह की तस्करी के मामले में दाऊद इब्राहिम का नाम सामने आया था। दाऊद की डी कंपनी का कराची का आशियाना दुनिया की निगाह में है। बढ़ते अमेरिकी दबाव के चलते पाकिस्तान भी चाहता है कि दाऊद अपना ठिकाना, भले कुछ दिन के लिए ही सही, कहीं और बना ले। और, समुद्र तक आसान पहुंच, तीन तरफ से भारत से सटी सीमाएं डी कंपनी के लिए बांग्लादेश को एक मुफ़ीद देश बना देती हैं। लेकिन, भारत के पूरब में अंडरवर्ल्ड के बनते नए आशियाने की ख़बर पाकर भारतीय सुरक्षा और खुफिया एजेंसियों ने कोई बड़ा कदम उठाया हो, अभी तक तो सामने नहीं आया।

बांग्लादेश की खुफिया एजेंसी मानती है कि डी कंपनी के कम से कम 50 बड़े सिपहसालार लगातार बांग्लादेश आते रहे हैं और यही नहीं इन्हें वहां सियासी और मज़हबी मददगार भी मिल रहे हैं। बांग्लादेश पुलिस को चार पेज की एक ऐसी लिस्ट मिली है, जिसमें इन गुनहगारों और उनके बगलगीरों के नाम हैं। ज़ाहिद शेख उर्फ मुज़ाहिद नाम के एक शातिर के घर मिली इस लिस्ट से ये भी खुलासा होता है कि मुंबई अंडरवर्ल्ड अपने गिरोह में नौजवानों को भर्ती करने के लिए खूबसूरत युवतियों का सहारा भी लेने लगा है। बांग्लादेश की खुफिया एजेंसियों ने इस बात की पुष्टि की है कि डी कंपनी में बांग्लादेश से भर्ती हुईं कम से कम 20 हसीनाएं पढ़े लिखे नौजवानों. काबिल कंप्यूटर जानकारों और फर्राटेदार अंग्रेजी बोलने वाले लड़कों को डी कंपनी की तरफ खींचने के काम में लगी हुई हैं। गुलशन कुमार के हत्यारे अब्दुल रऊफ की बांग्लादेश में गिरफ्तारी के तुरंत बाद मुंबई पुलिस की तरफ से इसकी कोई जानकारी ना होने का बयान आने से भी खुफिया एजेंसियों के कान खड़े हुए हैं। रऊफ बांग्लादेश में ब्राह्मणबरिया में पहचान बदलकर एक हिंदू के तौर पर रह रहा था। रऊफ के मोबाइल से डी कंपनी के पूरब में जड़ें जमाने की साज़िश के पुख्ता सबूत मिले हैं।
आईएसआई का मोहरा बन चुके दाऊद के सामने अब पाकिस्तान की खुफिया एजेंसी के इशारे पर नाचने के अलावा दूसरा चारा बचा भी नहीं है और आईएसआई डी कंपनी के गुर्गों का इस्तेमाल आतंक के अलावा एक और ख़तरनाक खेल में भी कर रही हैं। रऊफ मर्चेंट की गिरफ्तारी के बाद बांग्लादेश में ही पकड़े गए लश्कर ए तोइबा आतंकी मुफ्ती ओबैदुल्ला के अतीत ने भारत के उत्तर पूर्व राज्यों के पुलिस प्रमुखों और खुफिया एजेंसियों को हिलाकर रख दिया है। मुफ्ती वो आतंकी है जिसे पुलिस पिछले डेढ़ दशक से पकड़ने की फिराक में रही है और ये शातिर बांग्लादेश के मदरसों में मौलवी का भेस धरकर छिपता रहा। मुफ्ती ही वो कड़ी है जिसके ज़रिए डी कंपनी के तार लश्कर ए तोइबा से कोई 14 साल पहले जुड़े थे। और इन दोनों खतरनाक प्यादों का इस्तेमाल करके ही आईएसआई ने भारत के उत्तर पूर्व राज्यों में गड़बड़ी फैलाने के मंसूबे बांध रखे हैं। उत्तर पूर्व को भारत से अलग करके एक इस्लामी देश बनाने की साज़िश आईएसआई ने काफी खुफिया तरीके से रची है लेकिन मुफ्ती ओबैदुल्ला की गिरफ्तारी से इसका पहली बार पर्दाफाश सबूत के साथ हुआ है। मुफ्ती खुद को देवबंद से पढ़ा हुआ बताता है और उसने से भी राज़ खोला है कि उत्तर पूर्व में कराची के आतंकी कैंपों के लिए भर्ती भी चालू हो चुकी है।
लेकिन, ऐसा भी नहीं है कि दाऊद ने पूरब में नई पनाहगाह पाने के बाद मुंबई से दामन दूर करने का कोई फैसला कर लिया हो। इस साल की शुरुआत में कॉमेडियन राजू श्रीवास्तव को आई कराची से धमकी को भले किसी ने गंभीरता से ना लिया हो, लेकिन वो अंडरवर्ल्ड की मुंबई में नई दस्तक थी। तब से लेकर पिछले छह सात महीनों में ऐसी तमाम वारदातें हुई हैं, जो इस तरफ साफ इशारा करती हैं कि अंडरवर्ल्ड की हरकतें तेज़ हो रही हैं और इस बार शायद वो पहले से ज़्यादा प्लानिंग के साथ पैर पसार रही है। यूटीवी के मालिक रॉनी स्क्रूवाला को मिली धमकी और फिर उनके दफ्तर से टपोरियों की गिरफ्तारी तो बस एक झलकी है। पुलिस के बड़े अफसर दबी ज़ुबान से उन दुर्घटनाओं का ज़िक्र खासतौर से करते हैं जो पिछले कुछ महीनों में मुंबई की सड़कों पर हुईं। इन दुर्घटनाओं में पुलिस के वो ख़बरी निपटाए गए, जो अंडरवर्ल्ड खासतौर से अंडरवर्ल्ड की हरकतों के बारे में क्राइम ब्रांच तक जानकारियां लाया करते थे। अंडरवर्ल्ड मुंबई को अब ऑपरेशन सेंटर नहीं बल्कि कॉरपोरेट हब बनाना चाहता है। और, यहां से दक्षिण की तरफ भी निशाना साध रहा है। कभी दाऊद के करीबी और फिर दाऊद के खिलाफ पुलिस को टिप देने वाले मुथप्पा राय का नाम कर्नाटक में बच्चा बच्चा जानता है। सितंबर में कर्नाटक में आईपीएल की तर्ज़ पर केपीएल होने जा रहा है और आप शायद ये पढ़कर चौंक जाएं कि इस टूर्नामेंट की एक टीम का मालिक मुथप्पा राय हो सकता है। मुथप्पा ने बाकायदा टीम खरीदने के लिए बोली लगाने का फॉर्म भी भरा है। प्रत्यर्पण संधि का इस्तेमाल करके भारत लाए गए मुथप्पा के खिलाफ अब कोई केस नहीं है। दो साल पहले उसके खिलाफ़ चल रहे सारे मुकदमों का उसके पक्ष में निपटारा हो गया, यहां तक कि कत्ल जैसे मुकदमों में भी पुलिस दमदार सबूत और गवाह नहीं पेश कर पाई।
मुथप्पा तो बस एक नमूना है। डी कंपनी देश के हर सूबे में अपने गुर्गे खड़े करने की फिराक में हैं। अंडरवर्ल्ड की वापसी इस बार बहुत ही सफाई के साथ बनाई गई साज़िश के तहत होती नज़र आ रही है। डी कंपनी के गुर्गे जानबूझकर विदेश से भारत की जेलों में पहुंच रहे हैं, इस उम्मीद के साथ कि गवाहों और सबूतों के अभाव में वो कल नहीं तो परसों खुली हवा में सांस ले रहे होंगे। महाराष्ट्र में अश्विन नायक के जेल से बाइज्जत बरी होने और फिर शिव सेना नेता उद्धव ठाकरे से मिलने के भी अलग अलग कयास मुंबई पुलिस के अफसर लगा रहे हैं। लेकिन, डी कंपनी के इस नए खेल की मुख़ालिफ़त करने वाले भी सामने आने लगे हैं। उसके अपने ही गैंग में इसके खिलाफ फूट पड़ने की ख़बरें हैं। दाऊद के भाई नूरा को भी इसी सिलसिले में निशाना बनाया गया। खबरें ये भी हैं कि डी कंपनी की नई प्लानिंग में सेकंड लाइन के गुर्गे बड़ा हिस्सा पाना चाहते हैं।
और सेकंड लाइन के इन गुर्गों का लीडर है छोटा शकील। वो छोटा शकील जिसका नाम सुनते ही देश के बड़े बड़े धन्नासेठों की तिजोरियों के ताले अपने आप खुल जाते हैं। लेकिन अंडरवर्ल्ड की नई दस्तक इस बार ज्यादा चौंकाने वाली हो सकती है। डी कंपनी की ख़बर रखने वाले नूरा इब्राहिम से जुड़ी ख़बरों का इस बारे में खासतौर से ज़िक्र करते हैं। दाऊद का मुंबई और भारत के दूसरे सूबों में फिरौती और हत्या की सुपारी लेने का कारोबार छोटा शकील ही संभालता रहा है, लेकिन छोटा शकील और नूरा के बीच अनबन और इसके बाद नूरा पर क़ातिलाना हमले की ख़बर फैलने की असलियत तक अब तक कोई नहीं पहुंच पाया है। और, इस अनबन के बीज तब पहली बार पनपे थे जब छोटा शकील के छोटे भाई अनवर को डी कंपनी से बाहर का रास्ता दिखाया गया। नूरा पर क़ातिलाना हमले की ख़बर और देश में फर्जी करेंसी की बड़ी बरामदगियों के बीच कुछ ही दिनों का अंतर रहा। और, ये बात किसी से भी छिपी नहीं हैं कि छोटा शकील ने फर्जी करेंसी का कारोबार का दारोमदार अपने छोटे भाई को सौंप रखा था। अनवर का फर्जी करेंसी का नेटवर्क पाकिस्तान से शुरू होकर नेपाल, बांग्लादेश और भारत तक फैला रहा है। लेकिन, डी कंपनी से बाहर होने के बाद भी अनवर ने अपना काम बंद नहीं किया। उसने बांग्लादेश में अपनी नई पनाहगाह बनाई और वहीं से फर्जी करेंसी के कारोबार को अंजाम देने लगा। और, यहीं से डी कंपनी के इतिहास में पहली बार अदावत के अंदाज़ नज़र आने लगे।
गुलामी के रिश्ते पर अब खून का रिश्ता भारी पड़ चुका है। बीस साल से दाऊद इब्राहिम के साथ साए की तरह रहा छोटा शकील अपने भाई को लगातार मदद पहुंचाता रहा है। और, नूरा पर क़ातिलाना हमले की ख़बर आने से पहले नूरा और छोटा शकील के बीच अनबन की जो ख़बर आई थी, उसकी वजह भी यही थी। भाजपा नेता वरुण गांधी को मारने की तैयारी करके आए राशिद मलबारी की गिरफ्तारी ने छोटा शकील का रुआब डी कंपनी में घटाया तो छोटा शकील को लगने लगा कि अब डी कंपनी में उसे अपना खोया हुआ रुतबा पाने के लिए किसी बड़ी वारदात को अंजाम देना पड़ेगा। वैसे मुंबई के पुलिस अफसरों के बीच इस बात की चर्चा अब आम है कि ऐसा कुछ कर पाने से पहले ही छोटा शकील को अपने बॉस यानी दाऊद का ठिकाना छोड़ना पड़ा है। और, अगर खुफिया खबरों पर यकीन किया जाए तो छोटा शकील का नया अड्डा बांग्लादेश हो सकता है। फिलहाल वो कहां है, ये कोई नहीं जानता, अंडरवर्ल्ड की नब्ज थामने वालों को कोई जानकारी है तो बस इतनी कि डी कंपनी के ज़्यादातर शार्प शूटर्स छोटा शकील के हमसफर बन चुके हैं और आने वाले दिनों में अगर छोटा शकील ने अपना अलग गैंग बनाने के सपने को हक़ीक़त में बदलने की कोशिश की, तो इसकी पहली सूनामी पूरब से ही आएगी।
बांग्लादेश में बड़े पैमाने पर हो रही अंडरवर्ल्ड के लोगों की गिरफ्तारी को मुंबई में कुछ साल पहले चले गैंगवार के तौर पर देखा जा रहा है। तब मुंबई पुलिस के कुछ अफसरों पर ये आरोप लगा था कि वो अंडरवर्ल्ड के इशारों पर विरोधी गैंगलीडर्स का एनकाउंटर में सफाया कर रहे हैं। कुछ कुछ ऐसा ही अब बांग्लादेश में हो रहा है। वहां लगातार या तो बड़े पैमाने पर नकली करेंसी बरामद की जा रही है या कोई ना कोई शार्प शूटर गिरफ्तार हो रहा है। लेकिन, इस लुकाछिपी के बीच डी कंपनी और छोटा शकील दोनों के गुर्गे तेज़ी से अपने लिए महफूज़ ठिकाने भारतीय सीमा से सटे इलाकों में बनाते जा रहे हैं। मुकाबला अब अपना अपना दबदबा कायम करने का है और इस दबदबे की मिसाल देने के लिए और अपने पाकिस्तानी आकाओं की नज़र में चढ़ने के लिए दोनों खेमों में से कोई भी पूरब के किसी बड़े शहर में अपने घिनौने कारनामों को अंजाम देने की पूरी फिराक़ में हैं।

(यह लेख नई दुनिया के 29 जुलाई के सभी संस्करणों में संपादकीय पृष्ठ पर संपादित स्वरूप में प्रकाशित हुआ। इसे पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें य लिंक को ब्राउज़र में कॉपी पेस्ट करें)

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शनिवार, 25 जुलाई 2009

सहकारिता को सियासत का श्राप- 1



आधुनिक अर्थशास्त्रियों को तो ख़ैर ये बात बहुत देर में समझ में आई, लेकिन भारतीय वेदों में सह अस्तित्व की बात शुरू से मान्य रही है। ओम् सह नानवतु, सह नौ भुनक्तु, सह वीर्यम करवावहै का ज़िक्र हो या फिर सर्वे भवन्तु सुखिन:, सर्वे सन्तु निरामयाः , सर्वे भद्राणि पश्यन्तु मा कश्चित् दुःखभाग्भवेत। हर बार मंशा यही रही कि ‘सब’ का कल्याण हो। समाज को आगे बढ़ाने की ये धारणा भारतीय मानस ने ऋषियों से लेकर आगे बढ़ाई। भारत का मानस गांवों में है और गांवों में रहने वालों के सामूहिक विकास के लिए ही सहकारिता की अवधारणा अपने यहां नई बात नहीं है। लेकिन, जिस सहकारिता के पाश ने महाराष्ट्र के किसानों के लिए श्राप का काम किया है, उसकी कथा ज़रा अनोखी है। ऐसा कैसे हो गया कि एक साथ, एक ही सहकारिता समिति के सदस्यों ने एक साथ काम शुरू किया, लेकिन उनमें से एक करोड़ों की संपत्ति का मालिक बन गया और देश में कानून बनाने वालों के बीच तक जा बैठा, जबकि उसके साथ के किसान अब उसी के रहमोकरम पर हैं। आर्थिक विकास के लिए विपणन प्रणाली के साथ साथ ही सहकारिता का भी जन्म हुआ। इसका विकास और स्वरूप पहले भारतीय संयुक्त परिवारों के चलाने और आगे बढ़ाने के ढंग को आदर्श मानकर किया गया। गावों के तालाब सहकारिता के सबक की पहली सीढ़ी हुआ करते थे, लेकिन जैसे जैसे आधुनिकता के आडंबर में सर्व की बजाय अहम् की स्थापना होती गई, व्यवस्थाएं व्यक्तिपूजक होने लगीं और सहयोग की जगह ले ली एक ऐसी गलाकाट प्रतिस्पर्धा ने, जिसमें दूसरे का अहित कर अपनी तिजोरी भरने की होड़ सी मच गई। महाराष्ट्र की सियासत में चमकने वाले 80 फीसदी से ज़्यादा नेताओं के आभा मंडल के पीछे वो चीनी मिलें हैं, जिन्हें शुरू तो सहकारिता के आधार पर किया गया, लेकिन समितियों के कानूनों की अनदेखी और ‘मुनाफा हमारा, घाटा सरकार का’ की नीति ने इनके सदस्य गन्ना किसानों को नेताओं का बंधुआ मतदाता बनाने से ज़्यादा कुछ नहीं किया।
आज़ादी से 46 साल पहले पड़े भीषण अकाल के वक्त देश के किसानों की माली हालत सुधारने की कोशिशें शुरू हुई थीं। तब बने अकाल आयोग ने सिफारिश की थी कि किसानों को सस्ती दरों पर कर्ज़ मुहैया कराया जाए। इस सुझाव पर सरकार ने एडवर्ड लॉ की अगुआई में बनी समिति की राय ली और इसी समिति ने पहली बार देश में ऐसी सहकारी समितियां गठित करने का सुझाव दिया, जिसके जरिए किसानों को सीधे सहायता दी जा सके। ये समितियां बहुउद्देश्यीय हों, इस बारे में रिजर्व बैंक के कृषि ऋण विभाग ने एक लंबी रपट बनाई, आज़ादी से दस साल पहले रिजर्व बैंक ने सहकारी आंदोलन के बारे में जो कुछ काम किया, वो लंबे अरसे तक कागज़ों में कैद रहा और यहां तक कि प्रथम प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू ने जब ग्रामीण ऋण सर्वेक्षण समिति बनाई तो इसकी रिपोर्ट में साफ तौर पर लिखा गया कि भारत में सहकारिता असफल रही है। लेकिन, तब सरकार ने ये भी माना था कि देश के किसानों के हालात सुधारने के लिए सहकारिता के अलावा दूसरा कोई रास्ता भी नज़र नहीं आता, लिहाजा सरकार को सहकारिता को सफल बनाना ही होगा। इसका असर भी हुआ और खाद, बीज व दूध जैसे मामलों में सहकारिता ने कामयाबी के नए अध्याय लिखे। लेकिन, गन्ने की खेती को बढ़ावा देने के लिए किए गए सहकारिता के प्रयोग पर कुछ खास लोगों ने कब्जा कर लिया।
कहते हैं कि महाराष्ट्र में वोट गन्ने की पोरों से निकलते हैं। वो गन्ना जिसे चलते ट्रैक्टर से खींचने के लिए आप भी कभी इसके पीछे दौड़े होंगे और जिसका रस पीने के लिए कभी गांव के बाहर बने कोल्हू पर बच्चों की भीड़ लगी रहती थी। कोल्हुओं का रस बस गांव में गुड़ बनाने के काम आता और ज्यादातर रस गन्ने की खोई के साथ ही बर्बाद हो जाता। गन्ने से ज्यादा से ज्यादा फायदा किसानों को मिल सके, इसके लिए महाराष्ट्र में सहकारिता के प्रयोग शुरु हुए। गन्ने के दाम इससे मिलने वाले गन्ने के रस के प्रतिशत यानी रिकवरी के हिसाब से तय होते हैं। 2009-2010 के चीनी सीजन के लिए केंद्र सरकार गन्ने की एमएसपी में 32 फीसदी की बढ़ोतरी करते हुए इसका दाम रुपये 107.76 करने का ऐलान कर चुकी है। ये दाम 9.5 फीसदी रिकवरी वाले गन्ने पर है, इसके बाद हर 0.1 फीसदी पर किसानों को रुपये 1.13 प्रति क्विंटल और मिलेंगे। महाराष्ट्र में चीनी मिलें सहकारी क्षेत्र में हैं और वहां गन्ने में रिकवरी भी अधिक होती है। लिहाजा, केंद्र के इस ऐलान से महाराष्ट्र के गन्ना किसानों में खुशी की लहर दौड़ जान चाहिए थी, लेकिन ऐसा दिखता नहीं है।
गन्ना खरीद के इस दांव पेंच को समझने के बाद ज़रूरी है ये समझना कि आखिर महाराष्ट्र में सहकारिता को आंदोलन मानने वाले बड़े नेताओं ने कैसे इसे अपने फायदे के लिए दुहा। ये तो सब जानते हैं कि महाराष्ट्र के गठन से लेकर अब तक अगर 1995 से 1999 तक का समय छोड़ दें तो मुंबई के मंत्रालय पर कांग्रेसियों का ही कब्ज़ा रहा है। कांग्रेस का मतलब यहां उन पार्टियों से भी है जो सोनिया गांधी के विदेशी मूल के मुद्दे पर कांग्रेस से छिटक कर अलग हुईं, लेकिन सत्ता की मलाई में शामिल रहने के लिए फिर से उसी की गोद में आ बैठीं। महाराष्ट्र के चीनी मिलों के पदाधिकारियों की सूचियों को भीतर तक छान चुके लोग बताते हैं कि इनमें से 90 फीसदी से ज़्यादा चीनी मिलों पर आज भी कांग्रेस या उसकी सहयोगी पार्टियों का कब्ज़ा है। और, इनमें से ज़्यादातर पदाधिकारी ना तो खुद किसानी करते हैं और ना ही किसानों को इन पदों पर काबिज़ होने देते हैं। महाराष्ट्र में सहकारिता कैसे किसानों के लिए श्राप बन चुकी है, इसकी बात चलने पर महाराष्ट्र के सीमांत और मझोले किसान संगमनेर फैक्ट्री के 13 साल पहले के चुनावों को हवाला देते हैं। बताते हैं कि उस वक्त फैक्ट्री के छोटी जोत वाले 14 हज़ार किसान सदस्यों में से एक एस तानपुरे ने गवर्निंग बॉडी के चुनावों में हिस्सा लेने की गुस्ताख़ी कर दी थी। बिना धन बल या बाहुबल के चुनाव जीतने का ख्वाब देखने वाला तानपुरे चुनाव तो हारा ही, बाद में खद्दरधारियों ने ना तो उसका गन्ना खरीदा और ना ही उसे कभी पनपने दिया। सहकारिता के मठाधीशों का विरोध करने वालों को महाराष्ट्र में खुलेआम धमकी मिलना तो अब आम बात है, और बगावत का झंडा बुलंद करने की कोशिश करने वालों का क्रेडिट रोक देना, उनके पानी, बिजली के कनेक्शन कटवा देना भी महाराष्ट्र के गन्ना किसानों की रोज़मर्रा की ज़िंदगी का हिस्सा बन चुका है।
(जारी...)

गुरुवार, 9 जुलाई 2009

रहिमन निज मन की व्यथा...


कल से आज तक छत्तीसगढ़ से लेकर दिल्ली, उत्तर प्रदेश और महाराष्ट्र तक से ना जाने कितने फोन आए, सिर्फ इस बात की बधाई देने के लिए कि मैंने अपने ब्लॉग पर अपने मन की बात कही। दरअसल, ब्लॉग की मूल अवधारणा भी यही है कि जो बात इंसान किसी से ना कह पाए, वो अपने ब्लॉग पर लिखकर मन को हल्का कर ले। वैसे तो रहीम बाबा बहुत पहले कह गए हैं कि "रहिमन निज मन की व्यथा, मन ही राखो गोय, सुनि इठिलइहैं लोग, सब बांटि ना लैहै कोय।" लेकिन पीर जब शूल बनकर भीतर चुभने लगती है तो लोग लेखनी का सहारा लेते हैं।

रायपुर से आने के कोई 15 दिन बाद यानी 18 जून को मैंने एक ब्लॉग लिखा था, लेकिन वो था महज दिल हल्का करने के लिए, भड़ास 4 मीडिया ने इसे भले अब इसकी सामयिकता देखते हुए उठाया हो। हां, ये और बात है कि भड़ास 4 मीडिया की हेडलाइन से ऐसा लगता है कि जैसे सारे सेठों के सुपुत्र गण भ्रष्टाचार और अनाचार को बढ़ावा देने वाले हों। ऐसा कतई नहीं है, मुझे तो अमर उजाला अखबार के मालिकों के बेटे आज भी याद हैं, जो संपादकों के पैर सबके सामने छुआ करते थे और व्यक्तिगत मुलाकातों में आज भी छूते हैं। ये संस्कार ही है जो बड़े बिजनेस घरानों के बेटों को दौलत के साथ साथ विरासत में मिलते हैं। हिंदी फिल्मों के प्रोड्यूसर वाशू भगनानी की असल कमाई रीयल इस्टेट से होती है। उनका मुंबई से लेकर दुबई, चीन और ना जाने कहां कहां तक इतना कारोबार फैला है कि वो दस बारह चैनल तो कभी भी खोल सकते हैं, लेकिन उनके बेटे जैकी (जो हाल ही मे फिल्म कल किसने देखा से लॉन्च हुए) से मिलने के बाद किसी को लगेगा भी नहीं कि ये एक अरबपति का बेटा है। कमर से दोहरा होकर अभिवादन करने की उसकी मासूम अदा के सब कायल हैं। मिथुन चक्रवर्ती अपने समय में देश के सबसे बड़े आयकर दाता रह चुके हैं। इलस्ट्रेटेड वीकली ने तब मिथुन के ऊपर कवर स्टोरी की थी। लेकिन, उनका बेटा मिमोह अब भी झुककर दादा के दोस्तों के पैर छूता है। ऐसे तमाम उदाहरण हैं जिन्हें गिनाने बैठें तो शायद पूरी रात बीत जाए।

दरअसल, बेटा किसी का भी हो, वो अपने पूर्वजों की परछाई ही होता है। कई बार अच्छे घरों के बेटे भी बिगड़ जाया करते हैं और इसमें दोष होता है बेहिसाब मिलने वाली दौलत या फिर विरासत में मिली किसी तरह की मठाधीशी का। रही बात मीडिया की तो, वो घराने जिन्होंने मीडिया को अपने इकलौते कारोबार के रूप में अपना रखा है, वहां संस्कार आज भी ज़िंदा हैं। लेकिन, कोई चैनल या अखबार अपने घोषित उद्देश्य से इतर मकसद से खोला गया हो, तो हालात वैसे ही हो सकते हैं जैसे मैंने अपने ब्लॉग में लिखे। टीवी चैनल तो खैर बहुत बड़ी बात है, किसी मुख्यमंत्री ने आज तक किसी छोटे या मंझोले अखबार को भी उसके मालिक के मूल धंधे को लेकर सार्वजनिक रूप से अपमानित नहीं किया होगा। लेकिन, भाजपा की 'आदर्श' छत्तीसगढ़ सरकार के मुखिया रमन सिंह ने ये भी कर दिखाया। और, ऐसा तभी हो सकता है जब हमने पहले अपना गिरेबान ना झांका हो। संपादकों तक यह संदेश पहुंचाना कि छोटे साहब फलां फीमेल एंकर पर मेहरबान हैं, या फिर फलां फीमेल रिपोर्टर से नाराज़ हैं, और ये सोचना कि इससे ये लोग काम खत्म होने के बाद खास केबिन में मिलने के लिए पहुंच जाएंगे मीडिया के बारे में नासमझी नहीं तो और क्या है। और ऐसी ही हरकतें कई बार नासमझी में ही हो जाती हैं सूबे के मुखिया पर दबाव बनाने के लिए। उदाहरण इसके उलट भी बहुतेरे हैं, रंगबाज़ सियासी दिग्गज नेताओं को कई नौजवान मीडिया मालिकों ने नाकों चने चबवाए हैं, औऱ आज भी मीडिया में सेठों के लायक लौंडों की कमी नहीं है, लेकिन तालाब गंदा करने के लिए बस एक ही मछली काफी है।

।।इति श्री दण्डकारण्ये रायपुरखंडे श्रीदित्यनारायण कथाया: अंतिमोध्याय:।।

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गुरुवार, 2 जुलाई 2009

माओवादियों का ‘मिशन दिल्ली’ !

छत्तीसगढ़ की राजधानी से कोई तीन- साढ़े तीन सौ किलोमीटर आंध्र प्रदेश की तरफ जाने पर नक्सलवाद की असल कहानी सामने आती है। ये इलाका कहलाता है बस्तर यानी रामायण काल के दण्डकारण्य का हृदय प्रदेश। नक्सली इसे आज भी दण्डकारण्य ही कहते हैं। और कहते हैं कि जैसे भगवान राम ने वनवासियों की मदद से सेना बनाई थी, वैसे ही ये भी वनवासियों की मदद से अपना मिशन फतेह करना चाहते हैं। यहां अगर आप पहली बार जा रहे हैं और इलाके में किसी को नहीं जानते तो आपकी जान ख़तरे में है। और, मुख्य सड़क या सड़क किनारे बने कस्बों से उतर कर सात- आठ किलोमीटर अंदर की तरफ चले गए तो आपके लौट कर मुख्य सड़क पर आने की भी कोई गारंटी नहीं। ये नक्सलियों का इलाका है। नक्सली जो अब खुद को माओवादी कहलाना ज़्यादा पसंद करते हैं। माओ त्से तुंग कौन थे, उनकी बताई क्रांति के तीन पड़ाव कौन से हैं? इन सब बातों से देश के नक्सलियों का अब ज़्यादा लेना-देना बचा नहीं है। उनका नक्सलवाद जानता है तो बस एक बात 2015 तक भारत के बड़े भू भाग पर अपनी सरकार कायम करना। इसकी शुरुआत हो भी चुकी है। खुद छत्तीसगढ़ के पुलिस महानिदेशक ये बात स्वीकार कर चुके हैं कि नक्सली देश के बड़े हिस्से पर कब्जे की योजना पर काम कर रहे हैं। नक्सली इन इलाकों में समानांतर सरकार चलाने की तरफ कदम भी बढ़ा चुके हैं।
ये सरकार कैसी होगी, इसका स्वरूप क्या होगा और इसकी कार्यपद्धित क्या हो सकती है? ये जानना है तो बस्तर आइए। छत्तीसगढ़ के बस्तर। वो छत्तीसगढ़ जिसकी सरकार को भाजपा आदर्श सरकार के तौर पर पूरे देश के सामने प्रचारित करती रही है। लेकिन, ये ‘आदर्श’ सरकार भी नक्सलवादियों की समानांतर सरकार के सामने मौन है। इस ‘आदर्श’ सरकार के मुखिया और मंत्री भले अतीत में सलवा जुड़ूम की कुछ सभाओं में जाकर और फिर वनवासियों और आदिवासियों में नक्सलियों के खिलाफ उभरे इस जन आंदोलन को समर्थन की बात ढोल बजाकर कहते हों, लेकिन हक़ीक़त यही है कि नक्सलवाद का ख़ात्मा कोई नहीं चाहता। आख़िर इसी के नाम पर तो नक्सल प्रभावित राज्य केंद्र से मोटी रकम वसूलते रहे हैं। न कोई स्पष्ट रणनीति और ना ही कोई ठोस कार्य योजना। ले देकर बस्तर में कुछ दिखता है तो बस नुकीले तारों से घिरे पुलिस थाने और नक्सलियों के इशारे पर चलती स्थानीय मशीनरी।
बस्तर के बेलाडिला में दुनिया का सबसे उम्दा लौह अयस्क पाया जाता है। बेलाडिला की पहाड़ियों पर घूमते हुए बदलते भारत के लिए ज़रूरी इस्पात को देश के इस सबसे पिछड़े इलाकों की छाती चीरकर निकालती मशीनें दिखती हैं। बताते हैं कि एक एक मशीन पच्चीस करोड़ की है। और, लौह अयस्क को ढोने वाले डंपर की कीमत करीब चार पांच करोड़ रुपये। बेलाडिला की पहाड़ियों पर जिस दिन मैं पहुंचा उस दिन एनएमडीसी की खदानों में काम बंद था, पूछने पर पता चला कि स्थानीय आदिवासियों ने हड़ताल का ऐलान किया है। देश की शान समझे जाने वाली एनएमडीसी, उसके कर्मचारियों की सुरक्षा में तैनात केंद्रीय सुरक्षा बलों और स्थानीय पुलिस के जवान किसी की हिम्मत नहीं कि इस ऐलान के बाद खदान से एक टुकड़ा भी लौह अयस्क का निकाल सकें। कुछ कुछ जम्मू कश्मीर जैसे हालात। दुर्गम और ख़तरनाक मोड़ों से गुजरते हुए बेलाडिला की पहाड़ियों की चोटी पर सीआरपीएफ के बेस कैंप आकाश नगर पहुंचे तो वहां भी वैसा ही सन्नाटा। ख़ाकी ने खुद को सुरक्षा घेरे में कैद कर रखा था। पूरे बस्तर में कहीं भी किसी भी जगह एक भी पुलिस कर्मी सड़क पर गश्त करता नहीं दिखा। पुलिस थानों को देखकर साफ पता चलता है कि यहां ख़ाकी खुद खौफ़ज़दा रहती है, वो दूसरों की नहीं बस अपनी ही हिफाज़त कर ले तो बहुत बड़ी बात है।
बेडाडिला की इन पहाड़ियों के एक तरफ अगर मिलता है दुनिया का बेहतरीन लौह अयस्क तो दूसरी तरफ है केंद्र और राज्य की सारी विकास नीतियों की पोल खोलती आदिवासियों की बस्तियां। आने जाने के लिए ना कोई सड़क और ना ही मुसीबत के लिए घरवालों तक ख़बर पहुंचाने के लिए कोई मोबाइल नेटवर्क। पहुंचा जा सकता है तो बस पैदल, वो भी लगातार 24 घंटे पैदल चलने के बाद। यहां पैंट शर्ट पहने पहुंचा शख्स भी एक अजूबा है। जंगलों के बीच रहने वाले ये लोग आज भी शहरों से पहुंचे लोगों को देखकर भाग खड़े होते हैं। और, वो भी बच्चों को छोड़कर। फिर टुकुर टुकुर पेड़ों के पीछे से ये समझने की कोशिश करते हैं कि आखिर ये शहरी चाहते क्या हैं। इंसान तो बस कहने भर को हैं। ना पीने को पानी और ना खाने को अनाज। नवरात्र या दूसरे व्रतों के दौरान हम और आप कुटू का आटा खाते हैं। ये वनोपज छत्तीसगढ़ की पहाड़ियों पर खूब होती है। काले तिल को अगर तिकोनी शक्ल में सोचें तो कुटू के बीज की शक्ल का अंदाजा आप लगा सकते हैं। रसहीन, स्वादहीन इसी कुटू के सहारे इन आदिवासियों की ज़िंदगी चलती है। सूर्योंदय से शुरू होने वाली ज़िंदगी सूर्यास्त होते ही थम जाती है। ना कहीं कोई ढिबरी ना चिराग। तेल क्या होता है, ये भी इन लोगों के लिए अजूबा है। और, इन्हीं आदिवासियों को ढाल बनाकर खड़ा हो रहा है नक्सलवादियों का मिशन दिल्ली।
चीन में क्रांति के वाहक माओ त्से तुंग ने क्रांति के तीन पड़ाव बताए। पहला भूख से बिलबिला रहे आदिवासियों और वनवासियों के समूह बनाना और उनका भरोसा हासिल करना। दूसरा दिखावे के लिए ही सही पर इनकी सहायता के लिए लोकप्रिय आंदोलन खड़ा करना और प्रचार में इन भूखे नंगों की मदद लेकर आंदोलन को मजबूत बनाना, इसका विस्तार करना। इसी दूसरे चरण में माओवाद छोटे छोटे सशस्त्र दलों के गठन की वक़ालत करता है। इन दोनों चरणों की कामयाबी के बाद माओवाद का अगला कदम होता है इन सशस्त्र दलों को गांवों में संगठित करना और वाजिब ताक़त हासिल करने के बाद शहरों की तरफ कूच कर देना। छत्तीसगढ़ में धमतरी के पास सिहावा के करीब 15 पुलिस कर्मियों की हत्या अगर कोई संकेत है तो छत्तीसगढ़ में नक्सलवादियों के शहरी बस्तियों तक पहुंचने में अब ज़्यादा वक्त नहीं बचा है। वैसे उद्योगपतियों से हफ्तावसूली तो शहरी क्षेत्रों में शुरू हो ही चुकी है। छत्तीसगढ़ के दो तिहाई से ज्यादा हिस्सों पर नक्सलवादियों का प्रभाव है, और इन इलाकों के जंगलों में अब सूबे के मुख्यमंत्री रमन सिंह की नहीं नक्सलियों की समानांतर सरकार चलती है। चाहे वो उत्तर में सरगुजा और कोरबा की एसईसीएल खदानें हों या दक्षिण में बस्तर की एनएमडीसी की खदानें, बिना नक्सलियों की इच्छा के यहां कोई ठेकेदार काम नहीं कर सकता। तेंदूपत्ता ठेकेदारों से सैकड़ों की वसूली अब पुरानी बात हो चुकी, बस्तर में अब वसूली लाखों में होती है वो भी खुले आम। छत्तीसगढ़ में मीडिया पर इस तरह की भी अघोषित पाबंदी है कि नक्सलियों के बढ़ते प्रभाव के बारे में वो कम ही लिखे। कभी सरकारी विज्ञापनों का लालच तो कभी नक्सलियों को महिमामंडित करने से रोकने के लिए बनाए गए कानून की धौंस दिखाकर नक्सलप्रभावित इलाकों के पत्रकारों को सरकारी महकमा अरदब में लेने की कोशिश करता रहता है। लेकिन, ये मूल समस्या का हल नहीं बल्कि बदबू देने लगी व्यवस्था पर टाट डालने की कोशिश भर है, लेकिन टाट के परदों से पाखाने की बदबू भला छुपी है कहीं?
वैसे चौंकाने वाली बात ये भी है चीन के माओ त्से तुंग को छोड़कर देश का नक्सलवाद अब क्यूबा के चे गुवेरा सरीखे चमत्कार की आशा करने लगा है। चे की रणनीति के तहत नक्सली अब पुलिस को सीधे चुनौती देते हैं, उन्हें हिंसा के लिए प्रेरित करते हैं और फिर पुलिस की तानाशाही के खिलाफ आदिवासियों को भड़का कर अपनी तरफ शामिल करते हैं। सिहावा कांड से नक्सलियों के पूरी तरह से चे गुवेरा की कार्यशैली से प्रभावित होने का पहला प्रमाण मिलता है। दिन ढलते ही दूसरे जिले की पुलिस तक अपना खबरी भेजकर नक्सलियों ने गलत जानकारी पहुंचाई। पुलिस वाले बिना ज़मीनी सूचना लिए या कोई रणनीति बनाए प्राइवेट वाहनों में सवार होकर जंगल के भीतर जा पहुंचे। जहां पुलिस वाले पहुंचे वो इलाका दूसरे जिले का था। दिखावे के लिए गांव वालों का झगड़ा दिखाया गया। पुलिस ने उचट रही हाट बाज़ार में जाकर वनवासियों को धमकाया डराया और काम पूरा हुआ समझ उसी रास्ते से लौट लिए, जिस रास्ते से वो आए थे, जबकि नक्सल विरोधी ऑपरेशन में लगे हर पुलिस कर्मी को ये स्पष्ट निर्देश हैं कि जंगल में जिस रास्ते से प्रवेश किया जाए, उस रास्ते कभी ना लौटा जाए।
लेकिन, ऐसा हुआ और नक्सलियों ने पूरी पुलिस पार्टी उड़ा दी। पुलिस पर हमले के बाद से इलाके में वन वासियों और आदिवासियों के खिलाफ पुलिस अभियान जारी है। दर्जनों लोग हवालात में हैं और बाहर बढ़ने लगा है पुलिस के खिलाफ असंतोष। और, यही तो नक्सली चाहते हैं। सिहावा जैसे हालात पश्चिम बंगाल में लालगढ़ से लेकर झारखंड, बिहार, छत्तीसगढ़, उड़ीसा और आंध्र प्रदेश तक माओवादियों ने जानबूझकर बनाए हैं। नेपाल से सटे उत्तर प्रदेश के जिलों से जो लाल गलियारा शुरू होता है, वो इन प्रदेशों से होता हुआ आंध्र प्रदेश के आगे तमिलनाडु से होता हुआ केरल तक पहुंचता है। 2003 में जब पीपल्स वॉर ग्रुप और माओवादी कम्यूनिस्ट सेंटर यानी एमसीसी मिलकर जब सीपीआई- माओवादी हुए तो इन सूबों की पुलिस ने इसे बहुत हल्के में लिया। जबकि, ये माओवादियों की एक बहुत बड़ी योजना की शुरुआत का संकेत था। ये विलय हुआ था दक्षिण एशिया में सक्रिय सभी माओवादी गुटों को एक साथ लाने के लिए। इसी के साथ नक्सलवाद को आंध्र प्रदेश, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़ और बिहार के कॉलेजों तक सक्रियता से पहुंचाया गया। नक्सलवाद से लैपटॉप और सेटैलाइट फोन रखने वाले लोग जुड़े और नेपाल से श्रीलंका तक माओवादियों का बेखटके आना जाना हो गया। और, नेपाल की चीन से बढ़ती नजदीकियों के बारे में तो प्रचंड के सत्ता में आने से पहले ही बातें होने लगी थीं। नक्सलवादी अपने पहले मकसद यानी दक्षिण एशिया के सभी माओवादियों को एक छाते के नीचे लाकर कोऑर्डिनेशन कमेटी ऑफ माओइस्ट पार्टीज़ ऑफ साउथ एशिया नामक संगठन बनाने में कामयाब रहे हैं, लेकिन दक्षिण एशिया की सरकारों के बीच तो दूर दिल्ली और नक्सलप्रभावित राज्यों के बीच भी ऐसी कोई कोऑर्डिनेशन कमेटी अब तक नहीं बन पाई है, जो नक्सलियों के खिलाफ साझा अभियान चलाने का इरादा रखती हो।
राज्यों की राजधानियों के एसी कमरों में बैठकर एंटी नक्सल ऑपरेशन चलाए जा रहे हैं। जंगलों में जवानों की जानें जा रही हैं। और, अफसरों के चेहरों पर शिकन तक नहीं है। नक्सल प्रभावित इलाकों में विकास के नाम पर सरकारी रकम से ठेकेदार और अफसर किस तरह अपनी जेबें भर रहे हैं, इसे देखना हो तो अपनी जान जोखिम में डालकर बस्तर के किसी भी गांव की सैर कर आइए। राशन में 25 पैसे किलो की दर से मिलने वाला नमक वनवासियों तक नहीं बल्कि सीधे इलाके के कारोबारियों के पास पहुंचता है। और, खुले बाज़ार में यही नमक 3 से 4 रुपये किलो की दर पर खुलेआम बिकता है। बस्तर में ड्यूटी करने आए जवानों को मलेरिया तक से बचाने के इंतजाम नाकाफ़ी हैं। दिल्ली, मुंबई और दूसरे बड़े शहरों में रहने वालों को ये जानकर हैरानी हो सकती है कि बस्तर में आज भी मलेरिया ही सबसे बड़ी जानलेवा बीमारी है। सरकारी अस्पतालों की हालत ऐसी है कि बस पूछिए मत। जन्म पूर्व मृत्यु दर राष्ट्रीय औसत से कई गुना है, जबकि कुपोषण के ताजा आंकड़े तो चौंकाने वाले हैं।
बस्तर के कई गावों में आज भी वनवासी और आदिवासी बस एक समय ही भोजन करते हैं। इस सबके बावजूद पटवारी हो या फिर वन विभाग का कर्मचारी वनवासियों को डराता धमकाता है। उनकी स्थानांतरण खेती की परंपरा को कानून के खिलाफ बताता है। वन्य कानूनों से अनजान आदिवासियों को फसलों को बर्बाद करने वाले सुअर को मारने तक में जेल भेजने की धमकी देना या फिर सरेआम पिटाई करना, ये सब वो बातें हैं जो नक्सलवाद को यहां पनपने में मदद देती हैं। नक्सली 10- 12 के गोल में आते हैं, ऐसे पटवारी या वन कर्मी से कान पकड़कर उठक बैठक कराते हैं और गांव वाले बोल उठते हैं- लाल सलाम। लेकिन, रत्ती रत्ती भरता ये गुस्सा नक्सलवाद की जड़ें फैलाने में मदद कर रहा है। ये जड़ें जंगलों की मिट्टी से निकलकर शहरों की बुनियादों को छूने लगी हैं। नक्सलवाद अब किसी एक राज्य की समस्या भर नहीं है, ये देश पर आई आफ़त है। दिल्ली की सरकार इसे जितना जल्दी समझ
ले उतना ही अच्छा, क्योंकि 2015 में अब साल ही कितने बचे हैं।
फोटो परिचय: बेहतरीन लौह अयस्क की खान बेलाडिला की सबसे ऊंची चोटी पर लेखक, पीछे विस्फोट के बाद धरती से बाहर आया लौह अयस्क दिख रहा है।
(इस लेख का संपादित स्वरूप 'नई दुनिया' के सभी संस्करणों में 26 जून को 'माओवादियों का ख़ौफनाक मिशन' शीर्षक से संपादकीय पृष्ठ पर प्रकाशित हुआ। लिंक है - http://epaper.naidunia.com/Details.aspx?id=69682&boxid=27670770 )