सोमवार, 4 अगस्त 2008

कसौटी पर फेल विनय बिहारी



भोले शंकर (2)
गतांक से आगे...
मिथुन दा और मनोज तिवारी से मुलाक़ात और दोनों की हां के बाद प्रोड्यूसर गुलशन भाटिया निश्चिंत हो गए। फिल्म का एक मोटा मोटा बजट तय हुआ और भाटिया जी ने फिल्म की पूरी कमान मेरे हाथ में सौंप दी। मैंने दिल्ली से विदा ली और आकर ठौर जमा लिया मुंबई में। मनोज तिवारी के घर के ठीक पास में भाटिया जी का दफ्तर खुला और बैठकी शुरू होते ही सबसे पहला काम मैंने शुरू किया फिल्म के संगीत का।

बचपन में रेडियो सुनने को मुझे बहुत शौक रहा है। तब एफएम चैनल तो होते नहीं थे। और रेडियो हर वक़्त सुनने की घर में इजाज़त भी नहीं थी। हां, सुबह आठ बजे के समाचार से पहले रेडियो खोला जाता था और सुबह नौ बजे तक इसे हर कोई सुन सकता था। पापा की दिलचस्पी सुबह आठ बजे के समाचार में होती और अपनी साढ़े सात बजे प्रसारित होने वाले कार्यक्रम संगीत सरिता में। इस कार्यक्रम में हर दिन किसी ना किसी शास्त्रीय राग के बारे में बताया जाता और फिर उसी राग पर आधारित कोई फिल्मी गीत सुनाया जाता। धीरे धीरे इतना तो समझ में आने लगा था कि गाना कोई भी हो अगर उसका आधार शास्त्रीय है तो वो कानों को अच्छा लगता ही लगता है। संगीत की राग माला धीरे धीरे समझ आती रही। कई बार मन भी हुआ कि संगीत सीखना चाहिए, लेकिन लालटेन की रोशनी में पढ़ाई के दिनों में ये मुमकिन नहीं था और ना ही पूरी जवार में कोई संगीत का गुणी ही ऐसा नज़र आया, जिसे गुरु बनाया जा सके। सो हुआ ये कि बजाय तानसेन बनने के अपन कानसेन बन गए। बचपन से ही दोस्तों में चित्रलोक पर गाना बजते ही शर्त लगती कि गाना हिट होगा या नहीं। दस पैसे की ये शर्त छठी से लेकर आठवीं तक लगातार तीन साल मैं कभी हारा नहीं।

खैर, लौटते हैं वापस भोले शंकर के संगीत की तरफ। फिल्म का खाका अपने दिमाग में था और ये भी तय कर लिया था कि फिल्म का कोई भी गाना बस गाने के लिए फिल्म में नहीं होगा। हर गाने को कहानी का हिस्सा होना चाहिए। और गाना शुरू होने से पहले से लेकर गाना खत्म होने तक फिल्म की कहानी आगे बढ़ चुकी होनी चाहिए, ऐसा मेरा मानना रहा है। उन दिनों निरहुआ की फिल्म निरहुआ रिक्शा वाला सुपर हिट हो चुकी थी। और श्रीमान ड्राइवर बाबू का हर तरफ हल्ला हो रहा था। कई बार मन हुआ कि मिट्टी के इस लाल से मिलना चाहिए। लेकिन, सिनेमा की सियासत हवा तब तक मुझ तक पहुंचने लगी थी। मनोज तिवारी और रवि किशन की खेमेबंदी के बारे में लोगों ने बताया। लोगों ने ये भी बताया कि निरहुआ का भी एक अलग खेमा बन रहा है। फिल्म बनाने से पहले अपन पेशे से पत्रकार थे, और अब भी हैं, ऐसे मामलों में निष्पक्ष रहने की अपनी पुरानी आदत रही है। लिहाजा, पता लगाया कि निरहुआ रिक्शा वाला के संगीतकार कौन हैं, राजेश - रजनीश नाम के दो नए संगीतकारों का पता चला और संपर्क होते ही दोनों से मिलने की इच्छा मैंने जाहिर की। पहली मुलाकात में ही मैंने अपनी फिल्म की सारी सिचुएशन्स इनके सामने रखी, तो पता चला कि भोजपुरी सिनेमा में मैं शायद पहला निर्देशक था उनके लिए, जो सिचुएशन बताकर संगीत बनाने की बात कर रहा था। खैर, दोनों ने तब भी कहा कि काम हो जाएगा। मैंने अपने गानों का स्टोरी बोर्ड दोनों को समझाया और कहा कि गीतकार बताइए। दोनों ने भोजपुरी सिनेमा के मशहूर गीतकार विनय बिहारी का नाम लिया। और अगले ही दिन उनको लेकर दफ्तर भी आ गए।

विनय बिहारी गुणी गीतकार हैं। उनके गाने हिट होते रहे हैं, और उनकी काबिलियत उनसे पहली मुलाक़ात के दौरान समझ भी आ गई। लेकिन, साथ ही ये भी समझ आ गया कि नए संगीतकार विनय बिहारी के नाम का फायदा किस तरह उठाना चाहते हैं। खैर विनय बिहारी को भी मैंने सारे गीतों की सिचुएशन समझाई। और उनसे बस फिल्म का पहला गाना लिखकर लाने को कहा। मैंने वायदा किया कि अगर ये गाना फिल्म की कसौटी पर ख़रा उतरा, तो पैसे जो वो मांगेगे मिलेंगे, लेकिन बाकी गाने भी कहानी की कसौटी पर खरे उतरने चाहिए। राजेश रजनीश से मैंने अलग से कहा कि आप दोनों विनय बिहारी को सिचुएशन की मांग के हिसाब से ट्यून समझा दीजिए, ताकि गाना उसी हिसाब से लिखा जाए। मैंने ये भी सलाह दी कि गाना अगर राग पहाड़ी पर बन सके तो बहुत बेहतर होगा। राजेश और रजनीश ने ये सुनकर जो रीएक्शन दिया, उसे देखकर मुझे थोड़ा हैरानी हुई। लेकिन, मैं शांत रहा और अगले दिन की मीटिंग का इंतज़ार करने लगा।

कोई दो या तीन दिन बाद राजेश - रजनीश दफ्तर आए। मुझे बताया गया कि ये म्यूज़िक सिटिंग होगी। लेकिन राजेश रजनीश आए तो खाली हाथ। ना हारमोनियम और ना ही कोई रिदम वाला। मैंने कहा कि सिटिंग कैसे करोगे, तो बोले बस हो जाएगी। थोड़ी देर में विनय बिहारी भी आ गए। उन्होंने तुरंत एक फाइल बनाई। सुंदर ही हैंडराइटिंग में अपना, मेरा और फिल्म का नाम फाइल पर लिखा। और अंदर से दो तीन पन्ने निकाले। गाना वो लिखकर लाए थे। जैसा कि अमूमन होता है, म्यूज़िक सिटिंग में गाने के बोल संगीतकार ही गाकर सुनाता है और गीतकार उस पर अपनी राय देता है। लेकिन, यहां उल्टा हुआ। गीतकार ने गाना शुरू किया, किसी बहुत ही घिसे पिटे गाने से मिलते जुलते गाने की पैरोडी टाइप के इस गाने के बोल विनय बिहारी के मुंह से निकलते ही, राजेश - रजनीश में से एक ने टेबल बजाना शुरू कर दिया और दूसरे ने अपने मुंह से ही रिदम निकालनी शुरू कर दी।

फिल्म पत्रकारिता के दिनों में फिल्म इंडस्ट्री के कई दिग्गज संगीतकारों से मिलना हुआ। गीतकारों से भी बात होती रही है। तमाम म्यूज़िक सिटिंग्स में भी बैठने का सौभाग्य मिला। लेकिन जो कुछ मेरे सामने हो रहा था, उसे देखकर मैं तय नहीं कर पा रहा था कि ये क्या है। खैर जैसे तैसे विनय बिहारी ने अपना पहला गाना खत्म किया। कुछ और गाने भी वो लिखकर लाए थे। कुछ चोली के पीछे क्या है टाइप और कुछ वैसे गाने जैसे मनोज तिवारी के अलबमों में अक्सर सुनने को मिल जाते हैं। और ये सब इसके बावजूद कि भोले शंकर का संगीत खाका मैं इन तीनों को विस्तार से समझा चुका था, और ये भी निवेदन कर चुका था कि मुझे चालू माल नहीं चाहिए। विनय बिहारी का मैंने नाम बहुत सुना था, लिखते भी वो अच्छा ही होंगे। लेकिन, शायद मेरी ही गलती रही होगी कि मैं अपनी बात ढंग से उन्हें समझा नहीं पाया। नहीं तो गीतकार तो चेतक की तरह होता है, डायरेक्टर की पुतली फिरने से पहले ही कलम दिल का हाल ना लिख दे तो वो गीतकार ही क्या? फिल्म भोले शंकर की टेक्निकल टीम तैयार करने के दौरान ये मेरा पहला बड़ा फैसला था कि विनय बिहारी से फिल्म के गीत नहीं लिखवाने हैं। राजेश - रजनीश ही विनय बिहारी को लेकर आए थे, लिहाजा उन्हें भी नमस्ते कहना पड़ा। मनोज तिवारी के बुलावे पर मैं कई बार उनके यहां निजी समारोहों में शामिल हुआ। वहां अक्सर एक लड़का बाल रंगाए हुए, और बैगी पैंट पहने दिखता रहा। बाद में मनोज तिवारी ने इस लड़के का मुझसे परिचय बिपिन बहार के तौर पर कराया। कैसे बिपिन बहार ने लिखा, अपने करियर का बेहतरीन गाना, और कैसे धनंजय मिश्रा जैसे धुरंधर संगीतकार का भी फिल्म भोले शंकर के लिए हुआ लिटमस टेस्ट? ये अगले अंक में...


कहा सुना माफ़

पंकज शुक्ल
निर्देशक- भोले शंकर


(पाठक अपनी प्रतिक्रिया पंकज शुक्ल को pankajshuklaa@gmail.com पर भेज सकते हैं)

1 टिप्पणी:

  1. सर अपन तो अभी तक भोले शंकर के म्यूजिक और राजा के सुर के ही कायल थे पर ब्लॉग पढ़ने के बाद अनोखी "म्यूजिक सिटिंग" के कायल हुए बगैर रह नहीं सके। काश मेज की थाप और मौखिक संगीत की ये अनोखी संगत फिलम का हिस्सा बन पाती तो शायद फिल्म में गोपाल के सिंह का काम कुछ हल्का हो जाता :)

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