सोमवार, 22 सितंबर 2008

आगे की सुधि लेहु...

मुझसे अक्सर लोग ये पूछते हैं कि मैंने भोजपुरी भाषी ना होने के बावजूद पहली फिल्म भोजपुरी में ही क्यो बनाई? सच मानें तो इस सवाल का जवाब खुद मुझे भी अब तक समझ नहीं आया। जितने बजट में भोले शंकर बनी है, उतने बजट में खोसला का घोसला और भेजा फ्राई जैसी फिल्में आसानी से बन जाती हैं। फिर, भोले शंकर ही क्यों? शायद इसलिए कि जब मैंने फिल्म मेकिंग का फाइनल फैसला लिया तो उस समय मनोज तिवारी ही मुझे सबसे सुलभ और सस्ते सुपर स्टार नज़र आए। पहली ही फिल्म अगर बिना किसी सितारे के बना दी जाए तो फिल्मी दुनिया में पहचान हो पानी मुश्किल होती है। ये अलग बात है कि जब से भोले शंकर की मेकिंग के दौरान मनोज तिवारी की एक के बाद एक लगातार कोई नौ फिल्में लाइन से फ्लॉप हो गईं, और भोले शंकर में अगर मिथुन चक्रवर्ती ना होते तो शायद भोले शंकर भी मनोज तिवारी की दो और फिल्मों ए भौजी के सिस्टर और छुटका भइया ज़िंदाबाद की तरह रिलीज़ की ही राह तक रही होती। ये दोनों फिल्में भोले शंकर के पहले से बन रही हैं और अब तक सिनेमाघरों तक नहीं पहुंच पा रही हैं, तो बस इसी वजह से कि मनोज तिवारी को टक्कर देने अब केवल रविकिशन ही नहीं बल्कि तीन चार और तीसमारखां भोजपुरी सिनेमा में आ पहुंचे हैं। ख़ैर, मैं तो यही चाहता हूं कि मनोज तिवारी दिन दूनी और रात चौगुनी तरक्की करें (शोहरत में, सेहत में नहीं)। बस वक्त आ गया है कि वो अब सोलो हीरो फिल्में करने की ज़िद छोड़ें, अपनी फीस में कम से कम 50 फीसदी की कटौती करें और भोजपुरी सिनेमा को फिर से वैसा ही सहारा दें, जैसा कि फिल्म ससुरा बड़ा पइसा वाला से उन्होंने दिया था। भोले शंकर की चर्चा को यहीं पर विराम और अब आगे की बात...।

भोले शंकर जब से बन कर तैयार हुई है और टी सीरीज़ की मार्फत इसके प्रोमोज़ और गाने टीवी चैनलों तक पहुंचे हैं, मुझे कम से चार भोजपुरी फिल्मों के ऑफर मिल चुके हैं। कम से कम दो निर्माताओं ने मिथुन चक्रवर्ती के साथ एक और भोजपुरी फिल्म बनाने की गुजारिश की। दिल्ली के एक निर्माता मनोज तिवारी और निरहुआ को लेकर एक कॉमेडी फिल्म बनाना चाहते हैं। लेकिन, मैंने अभी तक ना तो किसी को ना किया है और ना ही हां। भोजपुरी सिनेमा चाहे तो अपने कील कांटे दुरुस्त कर जल्द ही दूसरी क्षेत्रीय भाषाओं की फिल्मों की तरह सम्मानित सिनेमा की श्रेणी में आ सकता है। इस बात में दम बना रहेगा तभी मुंबई मंत्रा जैसी और कंपनियां इस भाषा में पैसा लगाने की हिम्मत जुटा पाएंगी। अभय सिन्हा जी की फिल्म हम बाहुबली के रशेज मैंने देखे हैं। रवि किशन ने इसमें मंटू गोप के तौर पर कमाल का काम किया है। फिल्म का फोटोग्राफी काबिले तारीफ है और संगीत में भोले शंकर के बाद धनंजय मिश्रा ने फिर कमाल किया है।

भोले शंकर और हम बाहुबली दोनों की मेकिंग किसी हिंदी फिल्म से कम नहीं है। निर्माण की लागत भी कमोबेश बराबर ही है। भोले शंकर की कीमत वैसे बाज़ार की दरों पर लगाई जाए तो दो करोड़ से कम नहीं बैठती, लेकिन अपने व्यवहार के चलते मैंने अपने निर्माता के कम से कम तीस चालीस लाख रुपये इस फिल्म की मेकिंग में बचाए। वैसे सच पूछें तो भोजपुरी सिनेमा के दर्शकों को भी अब अच्छे और बुरे का फर्क समझ आने लगा है। ये अलग बात है कि बिहार के निर्माताओं के बही खाते अब भी पुराने ढर्रे पर ही चलते हों और उनसे निकलकर निर्माताओं की झोली तक पैसा पहुंचना अब भी दूर की कौड़ी लगता हो। पूरी फिल्मी दुनिया बिहार के वितरकों के नाम पर जो बातें कहती है, वो पूरी तरह गलत नहीं होतीं, ये अब कुछ कुछ मुझे भी लगने लगा है। मुंबई में हिंदी फिल्मों पर चर्चा होते समय बात जब इनकी लागत की रिकवरी की होती है तो कोई भी निर्माता बिहार से आमदनी की बात सोचता तक नही है। ये इसके बावजूद कि बिहार में कोई 600 थिएटर हैं और इनमें से कोई 450 थिएटर्स में अब भी नियमित तौर पर फिल्में देखी जाती हैं।

यानी कि एक ढंग की भोजपुरी फिल्म मरी से मरी हालत में बिहार में छह महीने के भीतर कम से कम साठ से लेकर सत्तर लाख का कारोबार करती है। हां, शुरू के चार छह हफ्तों के बाद ऐसी किसी फिल्म के बिहार के किसी थिएटर में चलने का ज़िक्र किसी वितरक के बही खातों में नहीं होता। ये कमाई बस पर्चियों पर गिनी जाती है और वितरक की तिजोरी में ही सिमटकर रह जाती है। मैं जब पिछली बार बिहार में था तो निरहुआ रिक्शावाला वहां तब भी अंदरुनी इलाकों में चल रही थी, लेकिन शायद ही निरहुआ रिक्शावाला के निर्माताओं को अब ओवरफ्लो के नाम पर कुछ भी बिहार से मिलता होगा। वक्त अब पेशेगत ईमानदारी का और बिहार की छवि मुंबई के निर्माताओं के बीच निखारने का है। वक्त बिहार के सिंगल स्क्रीन थिएटर्स की दशा सुधारने का भी है। पसीने से तरबतर होने के बावजूद फिल्म देखते लोगों को आरा में देख मेरा सिर श्रद्धा से वहीं झुक गया था। ये वो लोग हैं जो सितारे बनाते हैं। और भोजपुरी के सितारे हैं कि एक बार आसमान में चमकने के बाद ज़मीन पर आने का नाम ही नहीं लेते।

कहा सुना माफ़

पंकज शुक्ल

शनिवार, 20 सितंबर 2008

एक बिहारी, सौ पर भारी...

(पहली भोजपुरी वेबसाइट अंजोरिया से साभार...)

फिल्म भोले शंकर ने बिहार में रिलीज़ होने के हफ्ते के भीतर ही कामयाबी की नई इबारत लिख दी है। हालांकि रमज़ान का महीना होने की वजह से तमाम मुस्लिम भाई सिनेमाघरों की तरफ रुख नहीं कर रहे हैं, लेकिन इसके बावजूद भोले शंकर ना सिर्फ कामयाबी का परचम लहराते हुए दूसरे हफ्ते में प्रवेश कर गई है, बल्कि पटना से मिल रही खबरों के मुताबिक इसने पहले हफ्ते में बॉक्स ऑफिस पर कमाई के लिहाज से फिल्म विधाता के रिकॉर्ड को भी तोड़ दिया है।

फिल्म भोले शंकर को बिहार में भोजपुरी के शो मैन अभय सिन्हा ने रिलीज़ किया है और ये अभय सिन्हा की कारोबारी रणनीति का ही नतीज़ा रहा कि इसने भोजपुरी सिनेमा के चढ़ते सितारे निरहुआ की चमक को भी इस बार फीका कर दिया। भोले शंकर से हफ्ता भर पहले बिहार में रिलीज़ हुई निरहुआ की फिल्म खिलाड़ी नंबर वन कमाई के मामले में मिथुन चक्रवर्ती और मनोज तिवारी स्टारर भोले शंकर के सामने कहीं नहीं टिक पाई। भोले शंकर को बिहार में दो दर्जन से ज़्यादा थिएटर्स में एक साथ रिलीज़ किया गया और इसके सारे के सारे प्रिंट्स दूसरे हफ्ते भी सिनेमाघरों में अपना जादू बिखेर रहे हैं। फिल्म भोले शंकर ने जो रिकॉर्ड कमाई की है, उसमें ये बात गौर करने लायक है कि बिहार में बाढ़ के चलते ये फिल्म उत्तरी बिहार के तमाम क्षेत्रों में रिलीज़ नहीं हो पाई, दूसरे रमज़ान का महीना होने के कारण फिल्म दर्शकों का एक बड़ा समूह थिएटरों तक पहुंचा ही नहीं। भोले शंकर को मिली सफलता में इसके संगीत और मिथुन चक्रवर्ती के संवादों का खासा योगदान माना जा रहा है। फिल्म के एक सीन में मराठी बोलने वाले बदमाश भोले यानी मनोज तिवारी की पिटाई करते दिखाई गए हैं और यहां शंकर यानी मिथुन चक्रवर्ती आकर उसे बचाते हैं। बदमाशों की पिटाई से पहले वो दो डॉयलॉग बोलते हैं, "बिहार के पट्ठा का घुटना फूट जाइ तो समझ पूरा हिंदुस्तान की किस्मत फूट जाई" और "एक बिहारी – सौ पर भारी", ये दोनों डॉयलॉग बिहार में बच्चे बच्चे की ज़ुबान पर चढ़ चुके हैं। यहां तक कि देश के पहले भोजपुरी मनोरंजन और समाचार चैनल महुआ पर इन दोनों संवादों की लोकप्रियता को लेकर गुरुवार की रात खास तौर से कार्यक्रम प्रसारित किए गए।

इस बारे में फिल्म भोले शंकर के निर्माता गुलशन भाटिया से संपर्क किए जाने पर उन्होंने फिल्म की कामयाबी के लिए बिहार के सभी दर्शकों का आभार जताया और कहा कि वो आगे भी भोजपुरी सिनेमा से सहयोग मिलने पर भोजपुरी फिल्मों का निर्माण जारी रखना चाहेंगे। उधर, फिल्म के निर्देशक पंकज शुक्ल ने मुंबई से फोन पर जानकारी दी कि फिल्म भोले शंकर को बिहार में मिली कामयाबी जल्द ही देश के दूसरे हिस्सों में भी दोहराई जाएगी। उन्होंने बताया कि फिल्म को दिल्ली-यूपी और पंजाब में भी जल्द ही रिलीज़ किया जाएगा, जबकि मुंबई में ये फिल्म दीपावली के आसपास रिलीज़ की जाएगी। फिल्म के हीरो मनोज तिवारी भोले शंकर की कामयाबी को लेकर काफी खुश हैं और उनका कहना है कि भोजपुरी सिनेमा में आने वाला समय पारिवारिक और रिश्तों की मजबूती दिखाने वाली फिल्मों का है। फिल्म के दूसरे हीरो मिथुन चक्रवर्ती इन दिनों दक्षिण अफ्रीका में शूटिंग कर रहे हैं, लेकिन उन्होंने वहीं से भोले शंकर को मिले प्यार के लिए समूचे बिहार का शुक्रिया अदा किया है। उन्होंने ये भी कहा कि बिहार में बाढ़ की विभीषिका से हुए नुकसान से वो निजी तौर पर काफी दुखी हैं और फिल्म भोले शंकर को होने वाले मुनाफे का दस फीसदी हिस्सा बिहार के बाढ़ पीड़ितों को दिए जाने के फिल्म निर्माता गुलशन भाटिया के फैसले को उन्होंने दूसरे भोजपुरी फिल्म निर्माताओं और वितरकों के लिए एक मिसाल बताया।

सोमवार, 15 सितंबर 2008

जय भोले शंकर !!!


भोले शंकर बिहार में रिलीज़, सुपरहिट बनाने के लिए दर्शकों का आभार...

12 सितंबर 2008, ये दिन मुझे हमेशा याद रहेगा। इसलिए नहीं कि इस दिन मेरे निर्देशन में बनी पहली भोजपुरी फिल्म रिलीज़ हुई, बल्कि इसलिए कि भोजपुरी समाज ने ये दिखा दिया कि वो अच्छी फिल्मों को पंसद करते हैं और ऐसी फिल्में अगर रिश्तों की बात ढंग से करें तो बिना किसी अश्लीलता और फूहड़ता के भी भोजपुरी फिल्में कामयाब हो सकती हैं। फिल्म भोले शंकर के निर्माण के दौरान मेरी बिहार के तमाम बुद्धिजीवियों से मुलाकातें होती रहती रहीं और सबका तकरीबन एक ही अनुरोध रहा कि भोजपुरी सिनेमा की शक्ल और सूरत बदलने के लिए किसी ना किसी को तो पहल करनी ही होगी। आखिर कब तक महिला देह की सुंदरता बयान करने के लिए गीतकार मिसाइल और बम गोलों का इस्तेमाल करते रहेंगे और कब वो दिन आएगा जब पूरा परिवार एक साथ बैठकर बिना एक दूसरे से नज़रे चुराए कोई फिल्म फिर से देख पाएगा।
फिल्म भोले शंकर पूरे बिहार में 12 सितंबर को एक साथ तकरीबन दो दर्जन से ज़्यादा सिनेमाघरों में रिलीज़ हुई। एक दिन पहले मैं मुंबई में था। फिल्म के वितरक अभय सिन्हा से रात बात हुई तो उनकी बातों से लगा कि उन्होंने फिल्म के बिहार में प्रचार प्रसार में काफी मेहनत की है। फिल्म निर्माता की तरफ से होर्डिंग वगैरह समय से ना मिल पाने से वो निराश भले रहे हों लेकिन फिल्म के बिहार प्रचारक निशांत से बात होने पर पता चला कि पूरे बिहार में भोले शंकर का हल्ला हो चुका है। मुझे और फिल्म के हीरो मनोज तिवारी को 12 सितंबर की सुबह 5.30 बजे की फ्लाइट से पटना पहुंचना था। मैं तो पूरी रात सोया ही नहीं। कुछ फिल्म के रिलीज़ से पहले होने वाली बेचैनी और कुछ रात में देर से सोने की आदत। सुबह मनोज तिवारी से मुंबई हवाई अड्डे पर भेंट हुई, उन्होंने गले लगकर फिल्म रिलीज़ की बधाई दी। हम दोनों लोग हवाई जहाज में बैठे तो बैठते ही मेरी आंख लग गई। पटना हवाई अड्डे पहुंचे तो वितरक अभय सिन्हा की गाड़ी मौजूद नहीं थी। मुझे लगा कि अभी तो फिल्म रिलीज़ भी नहीं हुई और अभय जी ने अभी से हाथ खींच लिया। मनोज तिवारी के किन्हीं मित्र की गाड़ी तब तक हमें लेने पहुंच चुकी थी। हम लोग एयरपोर्ट से निकलने लगे तो अभय सिन्हा के भाई अरुण भी गाड़ी लेकर पहुंचे। हम लोगों का कुछ देर मौर्या होटल में विश्राम का कार्यक्रम था और उसके बाद हमें जाना था अपनी साल भर की मेहनत का रिपोर्ट कार्ड लेने पटना के एलफिस्टन थिएटर।
जैसे जैसे घड़ी के कांटे आगे खिसकते जा रहे थे, मेरी बैचैनी बढ़ती जा रही थी। पटना से ही पहले पापा को फोन किया फिर मां का आशीर्वाद लिया। दिल में भरोसा था कि फिल्म को दर्शकों का प्यार ज़रुर मिलेगा, लेकिन कहते हैं ना कि जब तक होनी को होते हुए ना देख लिया जाए, वो इतिहास में दर्ज नहीं हो पाती। साढ़े ग्यारह बजे से खबर आने लगी कि एलफिस्टन में तिल रखने की जगह नहीं है। भोले शंकर के संवाद लिखने में मेरा भोजपुरी ज्ञान बढ़ाने वाले अजय आज़ाद का तभी फोन आया, उन्होंने बताया कि बक्सर में भोले शंकर देखने वालों की इतनी भीड़ इकट्ठी हो चुकी है कि पुलिस को लाठी चार्ज करना पड़ा। अच्छी खबर की बोहनी हो चुकी थी। फिर एलफिस्टन से फोन आया कि भीड़ वहां भी बेकाबू हो रही है। हम लोग करीब 12 बजे होटल से निकले। अपनी मेहनत के पोस्टर पूरे पटना में एयरपोर्ट से आते हुए ही देख चुका था, लेकिन एलफिस्टन थिएटर पर लगे भोले शंकर के पोस्टर और थिएटर में की गई ज़बर्दस्त सजावट देखकर मन भावुक हो उठा। अंदर पहुंचे तो मीडिया का ज़बर्दस्त जमावड़ा था। हम लोगों ने फिल्म भोले शंकर को बिहार में होने वाले मुनाफे का दस फीसदी बिहार में आई बाढ़ से प्रभावित लोगों की मदद के लिए देने का ऐलान किया। अंदर फिल्म शुरू हो चुकी थी। पूरा हाल खचाखच भरा हुआ था। अगले शो के लिए टिकटें बिकनी शुरू हो चुकी थीं। हम लोगों ने दर्शकों के इस प्यार का सिर झुकाकर आभार प्रकट किया। मनोज तिवारी के चेहरे पर खुशी देखने लायक थी। पिछले साल अक्टूबर में फिल्म जनम जनम के साथ के बाद ये उनकी पहली फिल्म थी, जिसके शो हाउसफुल हो रहे थे। मनोज तिवारी खुश भी थे और दर्शकों के कृतज्ञ भी, जिन्होंने उन्हें फिर से सिर माथे पर बिठा लिया था। एलफिस्टन से बाहर निकलकर हम लोग आरा के सपना थिएटर हाल के लिए निकले। बीच में कुछ देर हम लोग अभय सिन्हा जी के दफ्तर में रुके। पूरे बिहार से पहले दिन पहले शो की बुकिंग के नतीजे आ चुके थे। फिल्म हर जगह हाउसफुल थी। कुछ कुछ थिएटरों में तो सिनेमाघरों की क्षमता से डेढ़ गुना तक कलेक्शन था यानि कि जितने लोग वहां पहले से लगी सीटों पर बैठे थे, उतने ही लोग टिकट लेकर अंदर या तो खड़े थे या फिर अलग से लगाई गई कुर्सियों पर बैठे थे।
आरा पहुंचे तो पता चला कि वहां भीड़ को काबू मे करने के लिए मैनेजमेंट ने फिल्म का एक शो सुबह नौ बजे ही कर दिया। भोजपुरी सिनेमा में ये पहली बार हुआ कि किसी फिल्म के लिए जुटी भीड़ को नियंत्रित करने के लिए थिएटर में एक्स्ट्रा शोज़ करने पड़े। टिकट ब्लैक करने वालों के चेहरे पर भी महीनों बाद खुशी दिखाई दी। हर जगह भोले शंकर की टिकटें खूब ब्लैक में बिकीं। आरा में सबसे ज़्यादा खुशी मुझे फिल्म देखने आईं माता बहनों को देखकर हुई। माताएं बहनें घर से निकलेंगी तभी भोजपुरी सिनेमा की शक्ल और सूरत बदलेगी। भोले शंकर ने इस दिशा में पहला कदम बढ़ा दिया है, बारी अब दूसरे निर्माता निर्देशकों की है।
चलते चलते एक बात और। पटना में जुटी भीड़ देखकर जब मैंने खुशी जताई तो मनोज तिवारी ने कहा कि पहले दिन की भीड़ का क्रेडिट फिल्म के हीरो को जाता है। वैसे गंगोत्री जैसी फिल्मों में पहले दिन ही सिनेमाघरों में छाए रहे सन्नाटे का उनके पास जवाब नहीं था। लेकिन, मनोज तिवारी छोटे भाई हैं, तो उन्हें अगर इस बात में खुशी मिली तो मुझे नहीं लगा कि इस पर मुझे एतराज़ करना चाहिए। मनोज तिवारी ने कहा कि पहला दिन यानी शुक्रवार फिल्म के हीरो का, दूसरा दिन यानी शनिवार फिल्म के वितरक की पब्लिसिटी का, तीसरा दिन तो खैर संडे होता है। और इसके बाद अगर सोमवार को भी फिल्म अच्छा करे तो निर्देशक को खुश होना चाहिए। लिहाजा आज चौथे दिन के आंकड़े आने के बाद ही मैं अपने पाठकों के लिए कुछ लिख रहा हूं। पिछले तीन दिन अलग अलग सिनेमाघरों में 90 से 100 फीसदी की कमाई करती रही भोले शंकर ने आज भी कई सिनेमाघरों में हाउस फुल के बोर्ड लटकवाए। फिल्म भोले शंकर हिट हो चुकी है। मैं आभार प्रकट करता हूं सबसे पहले अपने निर्माता गुलशन भाटिया का जिन्होंने एक पारिवारिक कहानी को बनाने का बीड़ा उठाया। फिर आभार जताना चाहता हूं मिथुन चक्रवर्ती का, जिन्होंने बिहार की फिल्म वितरक संस्था की तरफ से मिले तिरस्कार के बावजूद अपने चाहने वालों के लिए फिल्म भोले शंकर में काम किया और इसके बाद आभार भोजपुरी के शो मैन अभय सिन्हा का, जिन्होंने भोले शंकर को बिहार के कोने कोने तक पहुंचाने में कोई कोर कसर नहीं छोड़ी। आभार फिल्म के बाकी सभी कलाकारों मनोज तिवारी, मोनालिसा, लवी रोहतगी, राजेश विवेक, शबनम कपूर, गोपाल सिंह, राघवेंद्र मुद्गल, मास्टर शिवेंदु, मास्टर उज्जवल और बेबी निष्ठा आदि का भी और फिल्म की पूरी तकनीकी टीम का भी मैं आभार प्रकट करता हूं। और, अंत में लेकिन जिसके बिना फिल्म भोले शंकर की मेकिंग आप तक नहीं पहुंचती, आभार अंजोरिया का। और एक बार फिर आप सबसे विनती कि भोले शंकर देखने जाएं तो अकेले नहीं बल्कि अपनी घर की सारी महिलाओं को लेकर, और यकीन मानिए कि जितना आनंद इन सबको फिल्म भोले शंकर देखते हुए आएगा, उससे कम आपको भी नहीं आएगा।

कहा सुना माफ़,
पंकज शुक्ल
निर्देशक भोले शंकर

बुधवार, 10 सितंबर 2008

कॉलेज में हुड़दंग


भोले शंकर (16). गतांक से आगे...

लखनऊ में कुर्सी रोड से थोड़ा आगे जाकर उत्तर प्रदेश के पूर्व डीजीपी गिरीश बिहारी सक्सेना द्वारा संचालित एक बहुत ही विशाल इंस्टीट्यूट है- इंटरनेशनल इंस्टीट्यूट फॉर स्पेशल एजूकेशन। इसी कैंपस में मीडिया की पढ़ाई भी होती है और छात्रों को कैमरे के पीछे और आगे की तकनीक सिखाई जाती है। शहर से दूर होने और इसके कैंपस में हर तरह की सुविधाएं होने की वजह से मैंने इस इंस्टीट्यूट का चयन फिल्म की शूटिंग के लिए किया। ज़ी न्यूज़ में मेरे एक अभिन्न सहयोगी हैं अश्वनी कुमार। अश्वनी के पुराने मित्र सुधीर रिंटेन आईआईएसई में उच्च पद पर हैं और सक्सेना जी उनका आदर भी बहुत करते हैं। रिंटेन से मैं शूटिंग से काफी पहले मिलकर आया था और उन्होंने शूटिंग के वक्त हर तरह की सहूलियत मुहैया कराने का वादा किया तो मैंने फिल्म के कैंपस सीन यहीं शूट करने का मन बना लिया।

गांव लुधमऊ से सारा माल असबाब समेट कर हम लोग आईआईएसई पहुंच गए और वहां रिंटेन ने हमारी मुलाकात अपने कुछ सहयोगियों से कराई। एक तो थे मामाजी और दूसरे राजेश गौर। राजेश खुद एक भोजपुरी फिल्म में काम कर चुके हैं और लखनऊ के स्थानीय कलाकारों के सीधे संपर्क में थे। राजेश के साथ मिलकर मैंने लखनऊ के तमाम स्थानीय कलाकारों का ऑडीशन पहले ही ले लिया था और भोले के दादा के रोल के लिए डॉ मुजम्मिल खान, सरपंच के रोल के लिए नरेंद्र पजवानी, गौरी की मां के रोल के लिए नीतू पांडे, पार्वती की मां के रोल के लिए अर्चना शुक्ला, भोले के पिता जी के रोल के लिए राजेश गौर और पार्वती के पिता के रोल के लिए इलाहाबाद के मिश्रा जी को फाइनल किया।

खैर, हम इंस्टीट्यूट पहुंचे तो वहां छात्रों में हंगामा हो गया, ये पहला मौका था जब वहां किसी फीचर फिल्म की यूनिट पहुंची थी। आईआईएसई के अंदर दो विशाल हॉल भी हैं, जहां हमें फिल्म के दो खास गाने शूट करने थे। जैसा कि अमूमन होता है हर कॉलेज में दबंग छात्रों का एक समूह होता है जो कैंपस में हर हाल में अपना दबदबा कायम रखना चाहता है। ऐसा ही हमारे साथ भी हुआ, कोई पांच छह छात्रों ने शूटिंग में दिलचस्पी लेनी शुरू की, लेकिन उनकी ज़्यादा दिलचस्पी फिल्म के हीरो मनोज तिवारी के ज्यादा से ज्यादा करीब रहने में थी। उनकी वजह से शूटिंग में दिक्कतें भी आ रही थीं। तो मैंने अपने कॉलेज दिनों की याद करते हुए एक फैसला किया। गांव में भी कहावत है कि चोर के हाथ में चाभी दे दो तो सामान ज़्यादा सुरक्षित रहता है, तो मैंने इन छात्रों के हवाले ही कैंपस में चीज़ों की देखरेख का जिम्मा दे दिया और सुधीर रिंटेन ने भी इस काम में मेरी काफी मदद की। छात्रों के इस ग्रुप को फिल्म में मनोज तिवारी के दोस्तों के किरदार भी दे दिए गए। तो अब कभी वो पासिंग शॉट्स देते नज़र आने लगे तो कभी किसी गाने में हिस्सा लेते। जवानी के जोश और इसकी ऊर्जा को सही रास्ते पर लगा दिए जाते तो क्या कमाल हो सकता है, इसकी मिसाल फिल्म भोले शंकर की शूटिंग के दौरान मैंने अपने सहयोगियों को समझाई।

फिल्म भोले शंकर के क्लाइमेक्स में भोले को एक टकाटक भोजपुरी रैप पर परफॉरमेंस देनी होती है। वैसे तो भोजपुरी रैप नई चीज़ नहीं है। और चटनी म्यूज़िक के तौर पर इसके आगे की चीज़ें भी सामने आ चुकी हैं। लेकिन किसी मेन हीरो पर भोजपुरी फिल्म में रैप का एक्सपेरीमेंट पहली बार भोले शंकर में ही होने जा रहा है। इस रैप सॉन्ग की शूटिंग हमने तीन दिन में पूरी की। गाना आज के फैशन पर कटाक्ष करता है- नाक के नथिया नाभ में आई, अब का छेदाई आह दादा। और इस गाने के दौरान भोले के दोस्त संतराम, गौरी, मां और गुरूजी की भी मौजूदगी कहानी के लिहाज से ज़रूरी थी। लेकिन इन चारों की डेट्स तीनों दिन के लिए हमें मिल नहीं पा रही थीं। तो हमने पहले मां और गुरूजी का काम निपटाया। फिल्म में जब आप ये गाना देखेंगे तो आपको पता ही नहीं चलेगा कि जब मां और गुरूजी अपनी खुशी का इज़हार कर रहे हैं तो उस समय मनोज तिवारी गाना गा ही नहीं रहे हैं। दोनों हिस्से अलग अलग शूट हुए हैं और बाद में एडीटिंग के दौरान दोनों को इस तरह मिलाया गया है कि परदे पर देखते हुए पता ही नहीं चलता कि इन सीन्स की शूटिंग अलग अलग दिनों में हुई है। यही सिनेमा है और यही है सिनेमा का मायाजाल। बाकी अगले अंक में...

कहा सुना माफ़,
पंकज शुक्ल
निर्देशक - भोले शंकर

शनिवार, 6 सितंबर 2008

कड़ाके की ठंड में रतजगा


भोले शंकर (15). गतांक से आगे...
अक्सर हम फिल्में देखने जाते हैं और तीन घंटे बाद हॉल से बाहर निकलकर अपना फैसला सुना देते हैं। पता नहीं कितने लोगों की मेहनत और कितने लोगों के अरमानों का फैसला इन तीन घंटों में हो जाता है। बड़े से बड़ा सुपरस्टार भी दर्शकों का ये फैसला नहीं बदल पाता। तमाम अभिनेता दर्शकों की नब्ज़ पकड़ने का दावा करते हैं। वो ये भी दावा करते हैं कि लगातार फिल्में करते रहने से उन्हें पता होता है कि क्या चलेगा और क्या नहीं चलेगा। अगर ऐसा होता तो फिर भला फिल्में फ्लॉप ही क्यों होती? क्यों भला कोई मेहनत करता, बस महानायक से हिट होने की रामबाण दवा लेता और बना लेता फटाफट से एक फिल्म। हिंदी फिल्मों की तरह ही भोजपुरी में भी स्टार सिस्टम का कीड़ा घुस चुका है। हर स्टार अपनी मर्जी से भोजपुरी सिनेमा को चलाना चाहता है। साथी कलाकारों को अपने से दोयम दर्जे का गिनना तो खैर कोई नई बात नहीं, प्रोड्यूसर और डायरेक्टर को भी वो अपनी उंगली पर नचाना चाहते हैं। शूटिंग के वक्त निर्देशक के कहे अनुसार काम ना करना और फिर बाद में सीन में दम ना होने का रोना ऐसे सुपरस्टार्स की आदत होती है।

इन मामलों में फिल्म के सहयोगी कलाकार ज़्यादा मेहनती साबित होते हैं। भोले शंकर की मेकिंग के दौरान ऐसा ही अनुभव हुआ मुझे निराली नामदेव के साथ गाने की शूटिंग के वक्त। निराली भोले शंकर की शूटिंग पर सीधे इलाहाबाद से पहुंची थी। मोनालिसा का तो अगले दिन रेस्ट रहा, लेकिन निराली लग गई सीधे शूटिंग पर। वैसे तो आज फिल्म भोले शंकर में मनोज तिवारी की एंट्री की बात होनी थी, लेकिन मुझे लगा कि पहले उस दिन का किस्सा ही पूरा कर लिया जाए। तो उस दिन मनोज तिवारी के वापस गांव से लौटने के सीन के बाद हम लोगों ने पारवती का रोल कर रही निराली के साथ मनोज तिवारी की मुलाकात का सीन शूट किया और फिर मनोज तिवारी का पैक अप हो गया। लेकिन बाकी पूरी यूनिट का काम अभी बाकी था। गांव में ये हमारा आखिरी दिन था और हमने तैयारी शुरू कर दी, पारवती के दिल का हाल बताने वाले गाने की शूटिंग की।

पारवती का घर जिस मकान को हमने बनाया था, उसके मालिक बहुत ही सहृदय इंसान थे। उनके घर के बाहर उस शाम ऐसी सजावट थी कि जैसे सचमुच उनके घर बारात आई हो। पूरे रास्ते को झालरों और लाइट्स से सजाया गया। शादी का गेट भी बनाया गया। बारात के आने के सीन शूट करने के बाद, हम आ गए मकान के अंदर। तब तक आठ बज चुके थे। हम लोगों ने तय किया कि आज की रात ही गाने की पूरी शूटिंग करके गांव से विदा ली जाए। अब समस्या ये थी कि दिसंबर की रात और कड़ाके की ठंड के बीच अगर हम लोग घर के अंदर शूटिंग करेंगे तो बेचारे घर के लोग कहां जाएंगे। अपने दिल की बात हमने घर के मालिक को बताई। वो दस मिनट का वक्त मांगकर घर के अंदर गए और हम बाहर उनके वापस आने का इंतज़ार करते रहे।

थोड़ी देर बाद वो वापस आए और उन्होंने कहा कि घर वाले मान गए हैं। अब सीन कुछ ऐसा था कि घर के सारे लोग एक छप्पर के नीचे बैठकर आग तापने लगे और हमने घर का सारा सामान चारपाई वैगरह समेट कर बाहर कर दी। लाइटमैन घर के अंदर लाइटस पहुंचाने लगे। कैमरामैन राजूकेजी मेरे बताए अनुसार लाइटिंग कराने लगे। और कोरियोग्राफर रिक्की ने संभाल लिया मोर्चा ट्रैक और ट्रॉली लगवाने का। थोड़ी ही देर में घर के हर कोने में हमारा सामान फैल चुका था। निराली पर ये गाना फिल्माया जाना था और गाने की ज़रूरत के लिहाज से उसे बस एक देसी सलवार सूट ही पहनना था। हड्डियां जमा देने वाली ठंड में बस एक सलवार सूट में शूटिंग के लिए कहना किसी अन्याय से कम तो नहीं, लेकिन फिल्म मेकिंग की यही मजबूरियां होती हैं। निराली ने भी एक बार उफ तक नहीं की। ऐसी ठंड में जब हाथ को रजाई से बाहर निकालना भी पहाड़ हटाने जैसा काम लगता हो, निराली ने बिना आस्तीन वाले कुर्ता पहन कर खुले आसमान के नीचे शूटिंग शुरू की।

कोरियोग्राफर रिक्की पूरे जोश में थे, और हर लाइन के बाद शॉट बदलते जा रहे थे। हम लोगों को थर्मल इनर वियर और जैकेट आदि के बाद भी कंपकंपी छूट रही थी और निराली बिना उफ किए शॉट पर शॉट दिए जा रही थी। गाने के बोल थे- तोरी मरज़ी है क्या बता दे बिधना रे.. काहे मोरा पिया ना मिला। फिल्म में ये मेरा सबसे पसंदीदा गाना है और मुझे उम्मीद है कि ये गाना आप लोगों को भी बहुत पसंद आएगा। पिछले दिन हमने कोई नौ बजे सुबह शूटिंग शुरू की थी और आधी रात होने को हो आई थी और शूटिंग जारी थी। इस गाने की शूटिंग सुबह चार बजे तक चली, यानी हमने लगातार कोई 19 घंटे शूटिंग करने का रिकॉर्ड बना डाला। लेकिन यूनिट के किसी भी मेंबर ने उफ तक नहीं की। मनोज तिवारी की फिल्म भोले शंकर में एंट्री की बात अब अगले अंक में होगी, पढ़ते रहिए कैसे बनी भोले शंकर?

पंकज शुक्ल
निर्देशक - भोले शंकर

गुरुवार, 4 सितंबर 2008

मनोज तिवारी की एंट्री


भोले शंकर (14). गतांक से आगे...

हम लोगों को लखनऊ में शूटिंग करते हुए करीब पांच दिन हो चुके थे और अब बारी थी मनोज तिवारी के सीन शूट करने की। मनोज तिवारी उन दिनों इलाहाबाद में किसी फिल्म की शूटिंग कर रहे थे। मनोज को पांच दिसंबर को भोले शंकर की शूटिंग में शामिल होना था तो चार दिसंबर की दोपहर मैंने मनोज को फोन किया। फोन पर बात करते हुए मनोज ने बताया कि उस दिन भी उनकी शूटिंग इलाहाबाद में जारी थी, लेकिन उन्होंने वादा किया कि पांच दिसंबर को भोले शंकर की शूटिंग में वो ज़रूर शामिल होंगे। फिल्म इंडस्ट्री में कहावत है कि जब तक हीरो सेट पर आ ना जाए, तब तक शूटिंग हुई ना मानो। मनोज तिवारी को मैं व्यक्तिगत तौर पर तो वोट फॉर खदेरन के दिनों से जानता हूं और उनके स्वभाव को भी। मनोज इंसानियत की कद्र करने वाले इंसान हैं और वो ये भी जानते हैं कि किसे कितना भाव देना है। वो किसी को दिल से चाह लें तो उसके लिए सब कुछ निछावर कर देंगे लेकिन कोई उनसे पंगा ले ले तो फिर तो...।

भोले शंकर की यूनिट में ऐसे तमाम लोग थे, जो पहले भी मनोज तिवारी की फिल्मों की शूटिंग में शामिल रह चुके हैं। हरेक के पास मनोज तिवारी से जुड़े अपने अपने किस्से थे। भोजपुरी इंडस्ट्री में मनोज तिवारी को लोग भैयाजी कहके बुलाते हैं। सेट पर हीरो का सम्मान होना भी चाहिए। वैसे तो भोले शंकर के लिए मनोज तिवारी को साइन करने से पहले मैं उन्हें मनोज ही कहकर बुलाता था लेकिन जैसे ही उनसे एक निर्देशक और एक कलाकार का रिश्ता रस्मी हुआ, मैंने मनोज को मनोज जी कहना शुरू कर दिया। मनोज को भी शायद इसमें आनंद आ रहा होगा कि कल तक जो शख्स फोन पर उन्हें खरी खोटी सुनाता था, वो आज उन्हें मनोज जी कहकर बुला रहा है, लेकिन मैंने ऐसा इसलिए किया ताकि हीरो को हीरो का सम्मान मिले और फिल्म के सेट पर उन्हें अटपटा ना महसूस हो। खैर, हम लोग चार दिसंबर की शाम शूटिंग खत्म करके अपने होटल लौटे और तैयारी करने लगे अगले दिन की शूटिंग की। अगले दिन हमें भोले के बड़ा होने के बाद गांव लौटने, मां- गुरुजी से मिलने और पारवती से बातचीत के सीन शूट करने थे। और रात में करनी थी एक गाने की शूटिंग। लेकिन इन सीन के लिए ज़रूरी मनोज तिवारी और निराली अब तक होटल नहीं पहुंचे थे। फिर एक बार फोन किया तो मनोज ने वादा किया कि अगले दिन शूटिंग होगी और वो अगले दिन लखनऊ में होंगे। मैं मन ही मन सोचता रहा कि इतना कोहरा पड़ रहा है ये लोग कैसे आएंगे।

सब लोग खाना खाकर अपने अपने कमरों में सोने चले गए। लेकिन मुझे नींद नहीं आ रही थी। तड़के करीब पांच बजे हॉर्न की आवाज़ सुनाई दी। दो गाड़ियां होटल के अहाते में आकर रुकीं। मनोज तिवारी, मोनालिसा, निराली नामदेव सब इलाहाबाद से सड़क मार्ग से घने कोहरे के बावजूद लखनऊ पहुंच चुके थे। इसे कहते हैं समय की पाबंदी। मनोज तिवारी के बारे में भोजपुरी फिल्म इंडस्ट्री में मशहूर है कि वो वक्त के पाबंद नहीं हैं। लेकिन, भोले शंकर की शूटिंग के पहले ही दिन जिस साहस के साथ वो पूरी रात जागते हुए इलाहाबाद से लखनऊ पहुंचे, मैं मनोज का कायल हो गया। मनोज तिवारी के बारे में भोजपुरी इंडस्ट्री में और भी कई तरह के मिथक चलते हैं, उन पर फिर कभी बात होगी। तीनों कलाकार सीधे अपने अपने कमरों में गए। होटल के स्टाफ को ये हिदायत पहले से थी कि इन्हें कतई डिस्टर्ब ना किया जाए। अगले दिन सबेरा होने पर यूनिट के सीनियर लोग जागे तो ये जानकर दंग रह गए कि मनोज तिवारी पूरी रात घने कोहरे के बीच सड़क के रास्ते इलाहाबाद से लखनऊ आ चुके हैं।

खैर मैंने सबसे तुरंत तैयार होने को कहा और सीधे लोकेशन पर पहुंचने की बात कही। प्रोड्यूसर के बेटे गौरव को मैंने होटल पर छोड़ा और निकल लिया लोकेशन पर सारी तैयारी ठीक करने के लिए। लोकेशन पर सब कुछ ठीक हो गया तकरीबन उसी समय मनोज तिवारी तैयार होकर लोकेशन पर पहुंच गए। फिल्म भोले शंकर का जो पहला सीन मनोज ने शूट किया वो था उनका बस से उतर कर मां और गुरूजी से मिलना। गुरुजी बने राजेश विवेक और मां का रोल कर रहीं शबनम कपूर को मैं पूरा काम समझा चुका था। मनोज तिवारी के आते ही मैं उनके साथ सीन डिस्कस करने बैठा ही था कि लुधमऊ गांव के प्रधान ने हंगामा कर दिया। प्रधान का कहना था कि बिना उनकी इजाज़त गांव में शूटिंग नहीं हो सकती। पंचायती राज का ये नया नमूना था। पिताजी हमारे भी करीब 15 साल अपने गांव के प्रधान रहे लेकिन कभी उन्होंने ना तो गांव को, ना गांव के तालाब को और ना ही गांव के स्कूल पर अपना कोई हक समझा। पालक में जब मालिक की भावना आने लगे तो ऐसा ही होता है। प्रधान ने पूरी कोशिश की शूटिंग रोकने की। कहां तो मैं शूटिंग में बिज़ी था, और कहां शुरू हो गया एक नया बवाल। मैं लोकेशन से उठकर वहां गया जहां प्रधान बैठे थे। पहले तो मैं प्यार से उन्हें समझाता रहा। उन्हें लगा कि मुंबई का कोई डायरेक्टर है, उनकी घुड़की में आ जाएगा और शूटिंग रुकते देख तुरंत रकम ढीली करेगा। बाद में मुझे ये भी पता चला कि प्रधान को पूरी घुट्टी फिल्म के ही एक प्रोडक्शन के बंदे ने पिलाई थी। सीधी उंगली घी ना निकलते देख, मैंने प्रधान से अवधी में बात करनी शुरू कर दी। मेरा घर पड़ोस के ज़िले उन्नाव में ही है, ये भी प्रधान को तब ही पता चला। इसके आगे प्रधान के साथ क्या कुछ हुआ, वो यहां लिखने लायक नहीं है।

मैं वापस लोकेशन पर लौटा तो मनोज तिवारी को सहायक निर्देशक अजय आज़ाद सीन समझा चुके थे। मनोज को आदतन सीन की कुछ लाइनें ठीक नहीं लग रही थीं। तो मैंने उनसे कहा कि सीन आप समझ लीजिए और जो भाव मुझे चाहिए वो दे दीजिए। लाइनों में अटकने की ज़रूरत नहीं है, वैसे भी मनोज के उस सीन में ज़्यादा डॉयलॉग्स थे नहीं। मनोज को एक बात खटक रही थी और वो ये कि अगर ये उनका फिल्म में पहला सीन है तो बहुत हल्का है। हीरो की एंट्री तो थोड़ी दमदार होनी चाहिए। मनोज की बात में दम था, लेकिन मैंने भी पहले से ही सोच रखी थी भोजपुरी के सुपर सितारे की धमाकेदार एंट्री। तो कैसी है फिल्म भोले शंकर में भोजपुरी के सुपर सितारे मनोज तिवारी की एंट्री, जानने के लिए पढ़ते रहिए, कैसे बनी भोले शंकर?


कहा सुना माफ़,

पंकज शुक्ल
निर्देशक - भोले शंकर

बुधवार, 3 सितंबर 2008

नौटंकी और नटकौरा


भोले शंकर (13). गतांक से आगे..


फिल्म भोले शंकर की कहानी के कई एंगल हैं। ये एक विधवा मां के संघर्ष की भी कहानी है। भोले शंकर की मां दरअसल एक नाचने वाली है। जिससे एक ज़मींदार के बेटे को प्यार हो जाता है। और वो उसे अपनी पत्नी बनाकर अपने घर ले आता है। फिल्म में ये किस्सा फ्लैशबैक में आता है। और, अमूमन मां के रोल में दिखने वाली शबनम कपूर ने एक धमाकेदार नौटंकी गाने पर नाच भी दिखाया है। पहली बार जब मैंने शबनम कपूर को कहा कि फिल्म में आप पर दो गाने हैं। तो वो यही समझीं कि मां बेटे के रिश्तों पर कोई गाने होंगे। मैंने उन्हें बताया कि एक गाना फिल्म में तब होता है जब भोले और शंकर बड़े बड़े हो चुके हैं और मां उनके साथ छठ पूजा की तैयारी कर रही है। शबनम कपूर खुश हुईं कि उन्हें मिथुन और मनोज तिवारी दोनों के साथ इस गाने में मौका मिल रहा है। फिर मैंने बताया कि एक और गाना फिल्म में है और ये गाना तब होता है जब भोले और शंकर पैदा भी नहीं हुए हैं। ये सुनकर शबनम कपूर चौंकी।

लखनऊ पहुंचने के बाद एक तरफ विधवा मां के रोल के लिए शबनम कपूर की तैयारी चलती रही। और दूसरी तरफ मैं तैयारी करता रहा शबनम कपूर को एक युवती के तौर पर पेश करने की। वैसे तो कोई कलाकार अपनी उम्र नहीं बताता लेकिन किसी कलाकार को उसकी असल उम्र से ज़्यादा दिखाने में अमूमन दिक्कत नहीं आती। बस थोड़ा सा डार्क मेकअप, बालों में थोड़ी सफेदी और सादे कपड़े पहनाते ही कलाकार बुजुर्ग दिखने लगता है। लेकिन किसी कलाकार को उसकी असल उम्र से कम उम्र का दिखाना और वो भी जवानी के पूरे जोश के साथ, तो मामला थोड़ा सीरियस हो जाता है। फिल्म में शबनम कपूर पर एक नौटंकी गाना फिल्माया जाना है। ये वही गाना है जिसे रिकॉर्ड करने के लिए संगीतकार धनंजय मिश्रा ने खासतौर से बनारस के नगड़ची और नगाड़े बुलाए। वैसे तो वो कह रहे थे कि जो वाद्य यंत्र चलन में हैं, उन्हीं से वो नगाड़े की आवाज़ निकाल देंगे, लेकिन मुझे असल नगाड़े की आवाज़ चाहिए थी, चोप की चोट से कड़कती हुई। और नगड़िया की वो आवाज़ जो आग में सिकाई के बाद चोप पड़ने पर होती है। हम लोग जब मुंबई से लखनऊ के लिए निकले तो धनंजय का इस गाने पर काम ज़ारी था, वादा ये था कि ये गाना वो दो तारीख तक लखनऊ भिजवा देंगे, लेकिन ऐसा हो नहीं सका।

अब शाम को शूटिंग और हमारे हाथ में गाना नहीं। खास गावों में लगने वाला शामियाना लग चुका था। नौटंकी में इस्तेमाल होने वाले बाजे आ चुके थे। गांवों की नौटंकी में जो हारमोनियम बजती है उसमें हवा पैरों से दी जाती है और बजाने वाला दोनों हाथों से हारमोनियम बजाता है। ऐसी हारमोनियम ढुंढवाई गई, नौटंकी में शबनम कपूर के साथ नाचने वाले कलाकार भी खास नौटंकी वाले ही बुलाए गए। गाना दिन ढलने के बाद ही शूट होना था, लेकिन हेयर ड्रेसर मानसी और मेकमप मैन बाबू दोपहर 12 बजे से ही शबनम कपूर की उम्र घटाने में लग गए। उत्तर भारत में सर्दियों के दिनों में शाम के चार बजते ही रोशनी कम होने लगती है। थोड़ी ही देर में शूटिंग शुरू होनी थी लेकिन गाना हाथ में नहीं था। और इसमें भी तुर्रा ये कि हमारे कोरियोग्राफर रिक्की भी तब तक लखनऊ नहीं पहुंच पाए थे, मुंबई से चलने वाली उनकी फ्लाइट लेट हो चुकी थी। तुरंत धनंजय से कहकर रिक्की के पास गाने का स्पूल भिजवाया गया। तय हुआ कि रिक्की गाना लेकर जैसे ही सेट पर पहुंचेंगे, शूटिंग शुरू कर दी जाएगी। लेकिन, शूटिंग के वक्त गाने के बोल और बोल से पहले बाद में बजने वाले म्यूज़िक की बीट्स भी एक कागज़ पर नोट की जाती हैं। ताकि शूटिंग करते वक्त पता चलता रहे कि किस हिस्से के लिए सीन्स शूट हो चुके हैं और किसके लिए नहीं। कैमरे के मूवमेंट्स भी इस कागज़ पर हाथ के हाथ लिखे जाते हैं। थोड़ी देर में रिक्की का फोन आया कि उनकी फ्लाइट रनवे की तरफ बढ़ चुकी है और फोन बंद होने से तीन घंटे के भीतर वो सेट पर होंगे। एक टेंशन खत्म हुई। अब चुनौती ये थी कि रिक्की के आते ही गाने की शूटिंग शुरू हो जानी चाहिए।

लेकिन ऐसा तभी हो सकता था जब गाना कागज़ पर पहले से लिखा हो। अगर रिक्की के आने के बाद ये काम शुरू होता तो कम से कम दो घंटे बर्बाद होने का ख़तरा था। तो मैंने धनंजय मिश्रा को फोन लगाया और कहा कि वो गाना उधर से बजाएं और हम इधर से मोबाइल पर गाना रिकॉर्ड कर लेंगे। ताकि जब तक रिक्की पहुंचे गाना हम कागज़ पर लिखकर पूरी तैयारी कर लें। धनंजय ने अपने हनुमान राजभर को इस काम पर लगाया। मैंने मुंबई में बज रहे गाने को लखनऊ में अपने मोबाइल पर रिकॉर्ड किया। और सहायक निर्देशकों की टीम बैठ गई गाना लिखने। रिक्की के आने आने तक हम पूरा गाना बीट्स के साथ कागज़ पर उतार चुके थे। रिक्की की गाड़ी सेट पर पहुंचते ही शोर मच गया कि बुलाओ, शबनम कपूर को बुलाओ। शबनम कपूर मेकअप रूम से बाहर निकलीं तो पहली बार में उन्हें कोई पहचान ही नहीं पाया। वो बिल्कुल किसी शोख और क़ातिल नौटंकी वाली की तरह लग रही थीं। ग़ज़ब की ड्रेस और कमाल का मेकअप। बस उन्हें इस ड्रेस में ठंड कड़ाके की लग रही थी। रिक्की ने सेट पर पहुंचते ही बिना कुछ खाए पिए सीधे पहला शॉट लगाया और शुरू हो गई शूटिंग उस गाने की जिसके बोल हैं..." पिया मोरे गइले रामा पूरबी बनिजिया....।"

शबनम कपूर ने शायद कभी सपने में भी नहीं सोचा होगा कि एक दिन उन्हें फिल्मों में कोई सोलो गाना भी देगा। लेकिन कोई फिल्म कामयाब तभी होती है, जब उसका हर किरदार अपने आप में पूरा हो। और शबनम कपूर के किरदार के लिए ये गाना ज़रूरी था। आमतौर पर क्या हिंदी और क्या भोजपुरी, गाने हीरो और हीरोइन को ही सोचकर लिखे जाते हैं। वो ज़माना और था जब कभी प्राण परदे पर "कसमे वादे प्यार वफा सब बातें हैं बातों का क्या" गाते दिखते थे तो कभी बलराज साहनी दिखते थे गाते - "ए मेरी ज़ोहरा जबीं, तुझे मालूम नहीं"। सिनेमा से चरित्र कलाकारों का सफाया बॉलीवुड ने ना जाने क्या सोचकर शुरू किया, और इसका वायरस अब दूसरी भाषाओं की फिल्मों तक पहुंचने लगा है। लेकिन, किसी भी कहानी में अगर हर उम्र के किरदार ना हों तो फिर हर उम्र के दर्शक मिलने की चाहत निर्माताओं को नहीं करनी चाहिए। शबनम कपूर ने उस रात चार डिग्री सेंटीग्रेड के तापमान में वो गाना पूरा किया। बेचारी शॉट लगने तक आग के पास शॉल ओढ़कर बैठी रहतीं और जैसे ही शॉट लगता वो पहुंच जातीं पूरे जोश के साथ अपनी कमर थिरकाने। बाकी अगले अंक में...

कहा सुना माफ़,

पंकज शुक्ल
निर्देशक- भोले शंकर