शनिवार, 22 अक्तूबर 2016

अफसोस, तुम मेरे मित्र बन सके..।


सच्ची सच्ची तो तुमने 
सारी झूठी बातें कहीं,
कभी कसमों तो कभी 
वादों से रूठी बातें कहीं,



बेमेल सी सुलगती बुझती 
वो जगरातें कहीं,
कभी दिल से न निकलीं 
वो मुलाकातें कहीं,


ऐसा कैसे किया तुमने?
तुम तो राम के पड़ोसी थे,
कैवल्य की धरती के करीबी,
गो रक्ष पीठ के वासी थे,


लखन की धरती के लाल,
ये गोरखधंधा कहां पाया?
समंदर के पानी से भी खारा,
मंथरा सा संबल कहां पाया?




प्रण प्राण प्रतिष्ठा के ग्राहक,
वणिक को लजाते जगयाचक !

तुम ब्रह्ण न पा सके, 
चांद में भी न झलक सके,
सुदामा को तुमने लजाया,
चाणक्य भी न बन सके।

पर
अफसोस, तुम मेरे मित्र बन सके..।

- पंशु

शुक्रवार, 14 अक्तूबर 2016

श्वेतसम कौमार्य !

तुम चपल हो चंचला हो,
मैं अधिक मधुमास सा,
चोंच भर सा प्रेम का रस
दंभ क्यूं ब्रज रास सा !

बिंब तुम प्रतिबिंब तुम हो
मैं तनिक नटराज सा
रक्त की रजधार का सत
आरंभ यूं निज ताप का !

(pic used only for referential purpose)


सत की डुबकी शांत तुम हो
फैलना नवरास सा
दाग आंचल पर अमिट कर
सानंद सती संताप का!

देवता की देह तुम हो
या रज अधर सहवास का?
प्रेरणा के प्रेम बनकर
किन्नर कुंवरि अभिसार का!

सृष्टि का आश्चर्य तुम हो
उतंग जल पाताल का
कृष्ण से जन्मांत प्रेमी
स्वप्न के स्वर राज का!

नववधू सा रूप तुम हो
निज नहीं कुछ पास का
चांद चंचल से चपल चर
श्वेतसम कौमार्य का!

तुम चपल हो चंचला हो,
मैं अधिक मधुमास सा,
चोंच भर सा प्रेम का रस
दंभ क्यूं ब्रज रास सा !

पंशु 10102015




(Inspired from “The Virgin in White” by Ramya Vasishta)

सोमवार, 10 अक्तूबर 2016

बहुत दिनों की बात है..


बहुत दिनों की बात है
फिज़ा को याद भी नहीं
ये बात आज की नहीं
बहुत दिनों की बात है

शबाब पर बहार थी
फिज़ा भी खुशगवार थी
ना जाने क्यों मचल पड़ा
मैं अपने घर से चल पड़ा
किसी ने मुझको रोककर
बड़ी अदा से टोककर
कहा था लौट आइए
मेरी कसम ना जाइए



पर मुझे ख़बर ना थी
माहौल पर नज़र ना थी
ना जाने क्यूं मचल पड़ा
मैं अपने घर से चल पड़ा
मैं शहर से फिर आ गया
खयाल था के पा गया
उसे जो मुझसे दूर थी
मगर मेरी ज़रूर थी


और इक हसीन शाम को

मैं चल पड़ा सलाम को
गली का रंग देखकर
नई तरंग देखकर
मुझे बड़ी खुशी हुई
मैं कुछ इसी खुशी में था
किसी ने झांककर कहा
पराए घर से जाइए
मेरी कसम ना आइए

वही हसीन शाम है
बहार जिसका नाम है
चला हूं घर को छोड़कर
ना जाने जाऊंगा किधर
कोई नहीं जो टोककर
कोई नहीं जो रोककर
कहे के लौट आइए
मेरी कसम ना जाइए..




-सलीम मछलीशहरी

शुक्रवार, 7 अक्तूबर 2016

जब कसी जाएगी कसौटी !


कि,
भरोसा बार बार क्यूं करता हूं.
कि धोखा बार बार,
क्यूं पाता हूं,


हर चमक
कुंदन नहीं होती,
मन को समझाता हूं,
पर, बावरा मन,
कसौटी को करता दरकिनार,
खुद ही चल देता है
खुद को कसने कसौटी पर।


कि
कभी तो कसौटी
को भी कसा जाएगा,
और, तब, होगा हिसाब,
हुनर का, हौसले का,
और कसौटी पर कसने वालों का..


(पंशु. 07102012)


शनिवार, 1 अक्तूबर 2016

गुलज़ार को गुस्सा क्यों आता है?

पंकज शुक्ल

बच्चों के लिए ढेर सारे चुलबुले गाने लिखने वाले गीतकार, पटकथा लेखक और निर्देशक गुलज़ार देश में बच्चों को लेकर बने हालात से बहुत नाराज़ हैं। उनका साफ कहना है कि बच्चों के लिए सिवाय जुमले कहने के हमने कुछ नहीं किया। बच्चों के लिए फिल्में बनाने वाली सरकारी संस्था चिल्ड्रेन फिल्म सोसाइटी को उन्होंने सिर्फ नए फिल्ममेकर्स के लिए हाथ साफ करने वाली संस्था करार दिया और कहा कि बच्चों के लिए नया साहित्य गढ़ने में हमारी राष्ट्रभाषा हिंदी शून्य तक गिर चुकी है।



बाल फिल्मों में प्रोड्यूसर्स को मुनाफा नहीं दिखता

बच्चों के लिए फिल्में न बनने की वजह के बारे में अमर उजाला के सवाल पर गुलज़ार ने पहले तो बहुत ही सीधा सा सपाट जवाब दिया कि इन फिल्मों में फिल्म निर्माताओं को मुनाफ़ा नज़र नहीं आता, इसीलिए वे बच्चों की फिल्में नहीं बनाते। लेकिन, जब उन्हें लगा कि जवाब थम गया है तो उन्होंने इसके जमाव में अपने गुस्से का पत्थर फेंका। वह बोले, बच्चों के लिए हम कहते बहुत हैं। उन्हें हम अपनी आने वाली नस्लें कहते हैं। हमारा भविष्य, देश का भविष्य कहते हैं। लेकिन क्या हमने कभी इसे महसूस भी किया या कि कभी ऐसा कुछ किया भी है। सिवाय जुमले कहने के हमने कुछ नहीं किया।

बच्चों के लिए हमारा रवैया घिनौना

देश में बच्चों को लेकर बन रहे हालात पर गुलज़ार का गुस्सा इसके बाद बढ़ता ही गया। उन्होंने कहा कि हमने बच्चों की दरअसल परवाह ही नहीं की है। हमने बच्चों के साथ बहुत बहुत बुरा बर्ताव किया है। हम उनका सम्मान भी नहीं करते। हम उन्हें प्यार करते हैं? हम अपने बच्चों को प्यार करते हैं और शायद सिर्फ अपने ही बच्चों को प्यार करते हैं, यहां तक कि पड़ोसियों के बच्चों को भी हम प्यार नहीं करते। हमारा मूल रवैया ही बच्चों के लिए गंदा और घिनौना हो चुका है। तीन साल, चार साल, पांच साल के बच्चों के साथ स्कूल बसों में बलात्कार हो रहे हैं, उनके शरीर के साथ खिलवाड़ हो रहा है। उन्होंने सवाल किया कि क्या एक देश के तौर पर हम बच्चों को लेकर अपने सरोकारों पर गर्व कर सकते हैं? होना तो ये चाहिए कि कोई बच्चा अगर सड़क पार कर रहा हो तो सड़क पर ट्रैफिक अपने आप रुक जाना चाहिए।

हिंदी में बाल साहित्य का स्कोर ज़ीरो

गुलज़ार ने कहा कि हमारे समाज के मूल में कहीं कुछ गड़बड़ी आ गई है। हम बच्चों को प्यार ही नहीं करते हैं। हम सिर्फ उनके भीतर इसकी आशा जगाते हैं। बच्चों को लेकर हमारे सराकोर मरते जा रहे हैं। मराठी, मलयालम और मराठी के अलावा किसी दूसरी भाषा में बच्चों के लिए नया साहित्य नहीं लिखा जा रहा है। राष्ट्रभाषा हिंदी तो शून्य पर पहुंच चुकी है और कई अन्य मुख्य भाषाओं में ये रिकॉर्ड ज़ीरो के भी नीचे जा चुका है।



चिल्ड्रेन फिल्म सोसाइटी ने कुछ नहीं किया

वापस मुख्य सवाल यानी देश में बच्चों की फिल्मों की तरफ ध्यान न होने की तरफ लौटते हुए उन्होंने बच्चों की फिल्में बनाने के लिए बनी सरकारी संस्था चिल्ड्रेन फिल्म सोसाइटी ऑफ इंडिया की जमकर खिंचाई की। उन्होंने कहा कि इस सोसाइटी के पास तीन सौ से ऊपर फिल्में ऐसी पड़ी हैं जिन्हें किसी ने देखा तक नहीं और न ही ये रिलीज़ हो सकी हैं। इसके लिए सोसाइटी ने कुछ नहीं किया। बस बच्चों की फिल्में बनाने के नाम पर हर साल कुछ नए फिल्म मेकर हाथ साफ करने पहुंच जाते हैं।

गुलज़ार का नया प्रयोग!

गुलज़ार जल्द ही कविताओं की दिशा में एक नया प्रयोग अपने चाहने वालों के बीच लेकर आने वाले हैं। वह इन दिनों हिंदी से इतर भाषाओं के कवियों और शायरों की कलम से निकले शब्दों से होकर गुजर रहे हैं। उनकी कोशिश देश की तमाम भाषाओं और बोलियों में इन दिनों लिखी जा रही कविताओं से अपने प्रशंसकों और हिंदी प्रेमियों को अवगत कराना है। इस प्रयोग को उन्होंने ए पोएम ए डेनाम दिया है यानी कि हर रोज़ एक कविता। गुलज़ार की ये अनूदित कविताएं जल्द ही एक संकलन के तौर पर बाज़ार में आने वाली हैं। वह कहते हैं, मैं 28 का था तो लेखक ही बनना चाहता था पर फिल्मों में आ गया। अब 82 का हो गया हूं तो वापस वही करना चाहता हूं और कर रहा हूं जो मैं शुरू में करना चाहता था।  

(गुलज़ार बीते शनिवार मुंबई के इस्कॉन सभागार में देश के फिल्म और टेलीविजन निर्देशकों की संस्था इफ्टडा की मीट द डायरेक्टर- मास्टर क्लास के अतिथि थे। उनसे ये बातचीत अमर उजाला के एसोसिएट एडीटर और इफ्टडा के सदस्य पंकज शुक्ल ने वहीं की।)

 © पंकज शुक्ल 01102016