शनिवार, 13 फ़रवरी 2016

चवन्नी सी तुम!


पंकज शुक्ल


तुम अब भी वैसी ही तो हो,
सब्ज़ी की खरीदारी से बची
उसी चवन्नी की तरह
जिसे हाफ पैंट की जेब में
मैंने दशहरे के मेले तक
बचाकर रखा,
कभी सोचा कि चुका दूं
ननकू चाट वाले का सारा हिसाब
कभी सोचा कि मैं भी पढ़ूं
वो बहादुर और बेला वाली किताब
घर से स्कूल तक
और फिर शाम को
स्कूल से घर तक
पैर दौड़ना शुरू ही करते
और हाथ बस भींच लेते
चवन्नी को कि कहीं गुम न जाए।
कभी गुल्लक में जमा नहीं किया
दूसरे सिक्कों के साथ, क्योंकि
ये चवन्नी खास थी,
वो याद है तुम्हारी चोटी का फीता
पीटी सर के खींचने से फट गया था
और तुम रोती रहीं शाम तक
छुट्टी की घंटी बजने तक
चवन्नी का था वो बालों का फीता
जिसे बाज़ार में मनिहारिन से
खरीदना शायद मुश्किल था,
पर मेले में?
वहां कौन किसको चीन्हता है,
सब थोड़ा लेट्स प्लान बेटर में खोए
ना एहसासों की गर्मी
ना विश्वासों की सर्दी,
सब गुत्थमगुत्था,
जिंदगी की तरह
और, बूढ़े बाबा वाले मंदिर के मेले में
मैंने हिम्मत कर निकाली
वही चवन्नी,
अपनी हाफ पैंट की जेब से
मनिहारिन ने घूरा भी
पर मैं शायद डरा नहीं
वही स्कूल की ड्रेस वाला फीता
मेरे हाथ में मानो वर्ल्ड कप की ट्राफी
मेले में नौटंकी का नगाड़ा
अभी बजा नहीं
मेले में शाम का रंग मुझे
तनिक भी जमा नहीं
मेरी दौड़ इस बार मेले से
तुम्हारे घर तक,
पैर दोनों हवा में
और हाथ?
अब जेब पर नहीं,
हवा में लहराते फीते में खोए
पहुंच जाना चाहते थे
तुम्हारी देहरी तक
मुझसे पहले,
और फिर तुम घर से निकलीं,
हाथों में मेंहदी,
पैरों में पायल
सोने की चूड़ियां,
और झूमती बालियां,
तुम देख भी नहीं पाईं
मेरी अंगुलियों में फंसे फीते को
बस मुझे देख मुस्कुराईं
और घूमकर इतरा कर
ओझल हो गई भीड़ के मेले में
नज़र आते रहे तो बस
चोटी से अटके कुछ कंटीले पकड़दस्ते
क्या कहते हो उसको क्लचर
जो बुने नहीं जाते,
बस मशीनों से हग दिए जाते हैं
मैं हांफता बिफरता
बैठ गया चबूतरे से ऊपर उठी
पुराने दरवाजे की देहरी पर,
और रहा सोचता..
शायद,
कुछ रिश्तों के घर नहीं होते!

- पंशु 13022016


© पंकज शुक्ल 2016