सोमवार, 19 दिसंबर 2016

जा तू कोयल हो जा!



तेरी मीठी बोली है,
मिसरी बहुत ही घोली है,
बनी ठनी औ सजी धजी सी
गठरी बातों की खोली है,
इस पल इस घर,
उस पल उस घर,

रहे पैर तू रोज बदलती,
जा तू पायल हो जा!


मतलब से है बात करे तू,

फुर्सत का है प्यार करे तू,

सुने ना तेरी कू कू जो भी,
उससे हर पल रार करे तू,
इधर भी कूके, उधर भी कूके,
आंचल तेरा हर घर फूंके,

रहे घोसले रोज बदलती
जा तू कोयल हो जा!



पंशु 19122016
(picture used for reference only, no copyright infringement intended)

शनिवार, 22 अक्तूबर 2016

अफसोस, तुम मेरे मित्र बन सके..।


सच्ची सच्ची तो तुमने 
सारी झूठी बातें कहीं,
कभी कसमों तो कभी 
वादों से रूठी बातें कहीं,



बेमेल सी सुलगती बुझती 
वो जगरातें कहीं,
कभी दिल से न निकलीं 
वो मुलाकातें कहीं,


ऐसा कैसे किया तुमने?
तुम तो राम के पड़ोसी थे,
कैवल्य की धरती के करीबी,
गो रक्ष पीठ के वासी थे,


लखन की धरती के लाल,
ये गोरखधंधा कहां पाया?
समंदर के पानी से भी खारा,
मंथरा सा संबल कहां पाया?




प्रण प्राण प्रतिष्ठा के ग्राहक,
वणिक को लजाते जगयाचक !

तुम ब्रह्ण न पा सके, 
चांद में भी न झलक सके,
सुदामा को तुमने लजाया,
चाणक्य भी न बन सके।

पर
अफसोस, तुम मेरे मित्र बन सके..।

- पंशु

शुक्रवार, 14 अक्तूबर 2016

श्वेतसम कौमार्य !

तुम चपल हो चंचला हो,
मैं अधिक मधुमास सा,
चोंच भर सा प्रेम का रस
दंभ क्यूं ब्रज रास सा !

बिंब तुम प्रतिबिंब तुम हो
मैं तनिक नटराज सा
रक्त की रजधार का सत
आरंभ यूं निज ताप का !

(pic used only for referential purpose)


सत की डुबकी शांत तुम हो
फैलना नवरास सा
दाग आंचल पर अमिट कर
सानंद सती संताप का!

देवता की देह तुम हो
या रज अधर सहवास का?
प्रेरणा के प्रेम बनकर
किन्नर कुंवरि अभिसार का!

सृष्टि का आश्चर्य तुम हो
उतंग जल पाताल का
कृष्ण से जन्मांत प्रेमी
स्वप्न के स्वर राज का!

नववधू सा रूप तुम हो
निज नहीं कुछ पास का
चांद चंचल से चपल चर
श्वेतसम कौमार्य का!

तुम चपल हो चंचला हो,
मैं अधिक मधुमास सा,
चोंच भर सा प्रेम का रस
दंभ क्यूं ब्रज रास सा !

पंशु 10102015




(Inspired from “The Virgin in White” by Ramya Vasishta)

सोमवार, 10 अक्तूबर 2016

बहुत दिनों की बात है..


बहुत दिनों की बात है
फिज़ा को याद भी नहीं
ये बात आज की नहीं
बहुत दिनों की बात है

शबाब पर बहार थी
फिज़ा भी खुशगवार थी
ना जाने क्यों मचल पड़ा
मैं अपने घर से चल पड़ा
किसी ने मुझको रोककर
बड़ी अदा से टोककर
कहा था लौट आइए
मेरी कसम ना जाइए



पर मुझे ख़बर ना थी
माहौल पर नज़र ना थी
ना जाने क्यूं मचल पड़ा
मैं अपने घर से चल पड़ा
मैं शहर से फिर आ गया
खयाल था के पा गया
उसे जो मुझसे दूर थी
मगर मेरी ज़रूर थी


और इक हसीन शाम को

मैं चल पड़ा सलाम को
गली का रंग देखकर
नई तरंग देखकर
मुझे बड़ी खुशी हुई
मैं कुछ इसी खुशी में था
किसी ने झांककर कहा
पराए घर से जाइए
मेरी कसम ना आइए

वही हसीन शाम है
बहार जिसका नाम है
चला हूं घर को छोड़कर
ना जाने जाऊंगा किधर
कोई नहीं जो टोककर
कोई नहीं जो रोककर
कहे के लौट आइए
मेरी कसम ना जाइए..




-सलीम मछलीशहरी

शुक्रवार, 7 अक्तूबर 2016

जब कसी जाएगी कसौटी !


कि,
भरोसा बार बार क्यूं करता हूं.
कि धोखा बार बार,
क्यूं पाता हूं,


हर चमक
कुंदन नहीं होती,
मन को समझाता हूं,
पर, बावरा मन,
कसौटी को करता दरकिनार,
खुद ही चल देता है
खुद को कसने कसौटी पर।


कि
कभी तो कसौटी
को भी कसा जाएगा,
और, तब, होगा हिसाब,
हुनर का, हौसले का,
और कसौटी पर कसने वालों का..


(पंशु. 07102012)


शनिवार, 1 अक्तूबर 2016

गुलज़ार को गुस्सा क्यों आता है?

पंकज शुक्ल

बच्चों के लिए ढेर सारे चुलबुले गाने लिखने वाले गीतकार, पटकथा लेखक और निर्देशक गुलज़ार देश में बच्चों को लेकर बने हालात से बहुत नाराज़ हैं। उनका साफ कहना है कि बच्चों के लिए सिवाय जुमले कहने के हमने कुछ नहीं किया। बच्चों के लिए फिल्में बनाने वाली सरकारी संस्था चिल्ड्रेन फिल्म सोसाइटी को उन्होंने सिर्फ नए फिल्ममेकर्स के लिए हाथ साफ करने वाली संस्था करार दिया और कहा कि बच्चों के लिए नया साहित्य गढ़ने में हमारी राष्ट्रभाषा हिंदी शून्य तक गिर चुकी है।



बाल फिल्मों में प्रोड्यूसर्स को मुनाफा नहीं दिखता

बच्चों के लिए फिल्में न बनने की वजह के बारे में अमर उजाला के सवाल पर गुलज़ार ने पहले तो बहुत ही सीधा सा सपाट जवाब दिया कि इन फिल्मों में फिल्म निर्माताओं को मुनाफ़ा नज़र नहीं आता, इसीलिए वे बच्चों की फिल्में नहीं बनाते। लेकिन, जब उन्हें लगा कि जवाब थम गया है तो उन्होंने इसके जमाव में अपने गुस्से का पत्थर फेंका। वह बोले, बच्चों के लिए हम कहते बहुत हैं। उन्हें हम अपनी आने वाली नस्लें कहते हैं। हमारा भविष्य, देश का भविष्य कहते हैं। लेकिन क्या हमने कभी इसे महसूस भी किया या कि कभी ऐसा कुछ किया भी है। सिवाय जुमले कहने के हमने कुछ नहीं किया।

बच्चों के लिए हमारा रवैया घिनौना

देश में बच्चों को लेकर बन रहे हालात पर गुलज़ार का गुस्सा इसके बाद बढ़ता ही गया। उन्होंने कहा कि हमने बच्चों की दरअसल परवाह ही नहीं की है। हमने बच्चों के साथ बहुत बहुत बुरा बर्ताव किया है। हम उनका सम्मान भी नहीं करते। हम उन्हें प्यार करते हैं? हम अपने बच्चों को प्यार करते हैं और शायद सिर्फ अपने ही बच्चों को प्यार करते हैं, यहां तक कि पड़ोसियों के बच्चों को भी हम प्यार नहीं करते। हमारा मूल रवैया ही बच्चों के लिए गंदा और घिनौना हो चुका है। तीन साल, चार साल, पांच साल के बच्चों के साथ स्कूल बसों में बलात्कार हो रहे हैं, उनके शरीर के साथ खिलवाड़ हो रहा है। उन्होंने सवाल किया कि क्या एक देश के तौर पर हम बच्चों को लेकर अपने सरोकारों पर गर्व कर सकते हैं? होना तो ये चाहिए कि कोई बच्चा अगर सड़क पार कर रहा हो तो सड़क पर ट्रैफिक अपने आप रुक जाना चाहिए।

हिंदी में बाल साहित्य का स्कोर ज़ीरो

गुलज़ार ने कहा कि हमारे समाज के मूल में कहीं कुछ गड़बड़ी आ गई है। हम बच्चों को प्यार ही नहीं करते हैं। हम सिर्फ उनके भीतर इसकी आशा जगाते हैं। बच्चों को लेकर हमारे सराकोर मरते जा रहे हैं। मराठी, मलयालम और मराठी के अलावा किसी दूसरी भाषा में बच्चों के लिए नया साहित्य नहीं लिखा जा रहा है। राष्ट्रभाषा हिंदी तो शून्य पर पहुंच चुकी है और कई अन्य मुख्य भाषाओं में ये रिकॉर्ड ज़ीरो के भी नीचे जा चुका है।



चिल्ड्रेन फिल्म सोसाइटी ने कुछ नहीं किया

वापस मुख्य सवाल यानी देश में बच्चों की फिल्मों की तरफ ध्यान न होने की तरफ लौटते हुए उन्होंने बच्चों की फिल्में बनाने के लिए बनी सरकारी संस्था चिल्ड्रेन फिल्म सोसाइटी ऑफ इंडिया की जमकर खिंचाई की। उन्होंने कहा कि इस सोसाइटी के पास तीन सौ से ऊपर फिल्में ऐसी पड़ी हैं जिन्हें किसी ने देखा तक नहीं और न ही ये रिलीज़ हो सकी हैं। इसके लिए सोसाइटी ने कुछ नहीं किया। बस बच्चों की फिल्में बनाने के नाम पर हर साल कुछ नए फिल्म मेकर हाथ साफ करने पहुंच जाते हैं।

गुलज़ार का नया प्रयोग!

गुलज़ार जल्द ही कविताओं की दिशा में एक नया प्रयोग अपने चाहने वालों के बीच लेकर आने वाले हैं। वह इन दिनों हिंदी से इतर भाषाओं के कवियों और शायरों की कलम से निकले शब्दों से होकर गुजर रहे हैं। उनकी कोशिश देश की तमाम भाषाओं और बोलियों में इन दिनों लिखी जा रही कविताओं से अपने प्रशंसकों और हिंदी प्रेमियों को अवगत कराना है। इस प्रयोग को उन्होंने ए पोएम ए डेनाम दिया है यानी कि हर रोज़ एक कविता। गुलज़ार की ये अनूदित कविताएं जल्द ही एक संकलन के तौर पर बाज़ार में आने वाली हैं। वह कहते हैं, मैं 28 का था तो लेखक ही बनना चाहता था पर फिल्मों में आ गया। अब 82 का हो गया हूं तो वापस वही करना चाहता हूं और कर रहा हूं जो मैं शुरू में करना चाहता था।  

(गुलज़ार बीते शनिवार मुंबई के इस्कॉन सभागार में देश के फिल्म और टेलीविजन निर्देशकों की संस्था इफ्टडा की मीट द डायरेक्टर- मास्टर क्लास के अतिथि थे। उनसे ये बातचीत अमर उजाला के एसोसिएट एडीटर और इफ्टडा के सदस्य पंकज शुक्ल ने वहीं की।)

 © पंकज शुक्ल 01102016





शनिवार, 24 सितंबर 2016


जब गुलज़ार ने इक शाम को लाली बख्शी!


लिखने और जीने में ज़्यादा फर्क़ नहीं होता। इंसान जी रहा होता है तो लिख रहा होता है। जब वो लिखना रोक देता है तो यकीन मानिए कहीं कुछ ठहर गया होता है उसके भीतर। इस ठहरे हुए कलम के कारिंदे को फिर एक धक्का चाहिए होता है ताकि बिना बैटरी के भी वो स्टार्ट हो सके। लिखने को गति मिलने की ज़रूरत होती है। फिर तो डायनमो काम कर ही लेता है।

आज शनिवार की शाम शायद कुछ ऐसा ही महसूस हो रहा है। हम फिल्म व टीवी निर्देशकों का एक संगठन है- इंडियन फिल्म एंड टीवी डायरेक्टर्स एसोसिएशन (इफ्टडा)। इसका एक खास कार्यक्रम होता है मीट द डायरेक्टर – मास्टर क्लास। आज की शाम हमने इसमें गुलज़ार साब को सुना। उन्होंने एक नई नज़्म से इस शाम को लाली बख्शी। ये नज़्म आप सबके साथ साझा करने से खुद को रोक नहीं पा रहा हूं। इस पूरी शाम का किस्सा भी मैं लिखूंगा। फिलहाल, आप गुलज़ार साब की इस नई नज़्म को अपना नज़ला बनाइए, जी हां! आने वाले कई दिनों तक ये आपका साथ ना छोड़ेगा -


पुरानी नज़्मों के खोलने से
कभी कभी होती है एलर्जी
किसी पुराने ख्याल की धूल
उड़के जाती है नाक में
तो झड़ी सी लगती है छींको की
और कुछ रोज़ नज़ला लग जाता
है पुराने दिनों का मुझको

पुराना सा इक ख्याल
के दिन तो टोकरी है मदारी की
और रात जैसे उसका ढक्कन
गिरा के ढक्कन
तमाशा अपना उठाए बब्बन ने
और गली पार कर गया वो

मदारी मुझको ख़ुदा लगा जब छोटा था मैं
ख़ुदा मुझे अब मदारी लगता है
जब बड़ा होके देखता हूं तमाशे उसके

किसी किसी नज़्म को निकालूं तो
उड़ने लगते हैं खुश्क़ ज़र्रे
वो नज़्म जो सूखने लगी है
पड़ी पड़ी कागज़ों के अंदर
वो नज़्म जो इसलिए न छपवाने दी थी उसने
कि लोग पहचान लेंगे उसको
वो अब भी जी करता है के छपवा के देखूं
वो खुद को कैसे पहचानती है इसमें

मैं खांस लेता हूं
सांस में जब अकड़ने लगते हैं खुश्क़ ज़र्रे
पुरानी नज़्मों से एक महक़ आती है मुझे उन रजाइयों की
जो गर्मियों में सुखाई जाती हैं धूप में
इसलिए कि इस बार जब ओढ़ें
नमी न रह जाए पिछली नींदों की कोई उसमें
कोई चकत्ता हो ख्वाब का तो वो साफ कर दें

भरी सी एक छींक आ के रुक जाती है हमेशा
पुरानी नज़्मों को खोलने से कभी कभी होती है एलर्जी!

-    गुलज़ार

(24 सितंबर 2016 को इंडियन फिल्म एंड टेलीविजन डायरेक्टर्स एसोसिएशन के कार्यक्रम मीट द डायरेक्टर – मास्टर क्लास में)



शनिवार, 13 फ़रवरी 2016

चवन्नी सी तुम!


पंकज शुक्ल


तुम अब भी वैसी ही तो हो,
सब्ज़ी की खरीदारी से बची
उसी चवन्नी की तरह
जिसे हाफ पैंट की जेब में
मैंने दशहरे के मेले तक
बचाकर रखा,
कभी सोचा कि चुका दूं
ननकू चाट वाले का सारा हिसाब
कभी सोचा कि मैं भी पढ़ूं
वो बहादुर और बेला वाली किताब
घर से स्कूल तक
और फिर शाम को
स्कूल से घर तक
पैर दौड़ना शुरू ही करते
और हाथ बस भींच लेते
चवन्नी को कि कहीं गुम न जाए।
कभी गुल्लक में जमा नहीं किया
दूसरे सिक्कों के साथ, क्योंकि
ये चवन्नी खास थी,
वो याद है तुम्हारी चोटी का फीता
पीटी सर के खींचने से फट गया था
और तुम रोती रहीं शाम तक
छुट्टी की घंटी बजने तक
चवन्नी का था वो बालों का फीता
जिसे बाज़ार में मनिहारिन से
खरीदना शायद मुश्किल था,
पर मेले में?
वहां कौन किसको चीन्हता है,
सब थोड़ा लेट्स प्लान बेटर में खोए
ना एहसासों की गर्मी
ना विश्वासों की सर्दी,
सब गुत्थमगुत्था,
जिंदगी की तरह
और, बूढ़े बाबा वाले मंदिर के मेले में
मैंने हिम्मत कर निकाली
वही चवन्नी,
अपनी हाफ पैंट की जेब से
मनिहारिन ने घूरा भी
पर मैं शायद डरा नहीं
वही स्कूल की ड्रेस वाला फीता
मेरे हाथ में मानो वर्ल्ड कप की ट्राफी
मेले में नौटंकी का नगाड़ा
अभी बजा नहीं
मेले में शाम का रंग मुझे
तनिक भी जमा नहीं
मेरी दौड़ इस बार मेले से
तुम्हारे घर तक,
पैर दोनों हवा में
और हाथ?
अब जेब पर नहीं,
हवा में लहराते फीते में खोए
पहुंच जाना चाहते थे
तुम्हारी देहरी तक
मुझसे पहले,
और फिर तुम घर से निकलीं,
हाथों में मेंहदी,
पैरों में पायल
सोने की चूड़ियां,
और झूमती बालियां,
तुम देख भी नहीं पाईं
मेरी अंगुलियों में फंसे फीते को
बस मुझे देख मुस्कुराईं
और घूमकर इतरा कर
ओझल हो गई भीड़ के मेले में
नज़र आते रहे तो बस
चोटी से अटके कुछ कंटीले पकड़दस्ते
क्या कहते हो उसको क्लचर
जो बुने नहीं जाते,
बस मशीनों से हग दिए जाते हैं
मैं हांफता बिफरता
बैठ गया चबूतरे से ऊपर उठी
पुराने दरवाजे की देहरी पर,
और रहा सोचता..
शायद,
कुछ रिश्तों के घर नहीं होते!

- पंशु 13022016


© पंकज शुक्ल 2016

शुक्रवार, 22 जनवरी 2016

फरिश्तों का ग़र पता होता !!



फरिश्तों का ग़र पता होता...।

फरिश्तों का ग़र पता होता,

ना वो बच्चा बिन मां बाप का होता,
सिसकती ना पहाड़िन वो,
याद में फौजी प्यारे की,
ना उस बूढ़ी अकेली मां,
का हर दिन, रात सा होता..
फरिश्तों का ग़र पता होता।

फरिश्तों का ग़र पता होता,

ना हरिया खुदकुशी करता,
ना गिनती सूद की वो सेठ ,
पहाड़ों के साथ यूं करता,
ना वो बूढ़ा हथेली पर,
लिफाफे ख्वाब के बुनता..
फरिश्तों का ग़र पता होता।

फरिश्तों का ग़र पता होता,

ना उसके हाथ की मेहंदी,
का रंग यूं राहे गुजर रहता,
ना वो ईंटों के घरौंदों में,
बसर करता, सफर करता,
ना दिन रात होते टीस के,
फरिश्तों का ग़र पता होता...

-पंशु 02052011

(चित्र व्यावसायिक उपयोग के लिए नहीं है। अगर इसके रचयिता को इस्तेमाल पर आपत्ति हो, तो इसे हटाया जा सकता है)

रे सूरज!


रे सूरज!


Pic: Pankaj Shukla 25102014

रे सूरज!
कैसा तू हठधर्मी है?

रोज समय से उग जाता है
रोज समय से छिप जाता है
चाल वही है ढाल वही है
कहां कहां तू बिछ जाता है?

रे सूरज!
कैसा तू हठधर्मी है?

नहीं तेरा है ध्यान मान पे,
ना पंडित के अर्ध्यदान पे,
मुंह फेरे तू चलता जाता,
गौर तो कर तू स्वाभिमान पे?

रे सूरज!
कैसा तू हठधर्मी है?

नीयत तेरी विंध्याचल सी है
प्रकृति तेरी अस्ताचल की है
क्यूं लेता तू ये आराधन?
नियति तेरी छल आंचल की है!

पंशु 22012016