गुरुवार, 1 अक्तूबर 2015


रक्तिम चांद!


मन में, जन में, हलचल हलचल
शांत चित्त तुम, अविरल अविचल
दृश्य समय का ठहर गया सा
पाकर खोया तुमको जिस पल

निर्निमेष प्रतिबिंबित दृग थे
अंतर्मन के चटख रंग थे
निर्मल आंचल सधा सधा सा
उड़नखटोला सा अब हर पल

स्वप्न लालसा के पंखों से
मैंने यूं मधुमास बुने थे
अंबर तक की ऊंचाई में
पातालों के गहन छिपे थे

अंधकार का नित आलिंगन
बिन प्रसंग का निज अभिवंदन
स्वेद रक्त सब एक हुए से
बहने दो श्वासों का कंपन

मन में जन में हलचल हलचल
शांत चित्त तुम, अविरल अविचल
दृश्य समय का ठहर गया सा
पाकर खोया तुमको जिस पल


-     पंशु 01102015


कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें