शनिवार, 10 अक्तूबर 2015

श्वेतसम कौमार्य!



तुम चपल हो चंचला हो,
मैं अधिक मधुमास सा,
चोंच भर सा प्रेम का रस
दंभ क्यूं ब्रज रास सा !

बिंब तुम प्रतिबिंब तुम हो
मैं तनिक नटराज सा
रक्त की रजधार का सत
आरंभ यूं निज ताप का !

(pic used only for referential purpose, no copyright infringement intended)


सत की डुबकी शांत तुम हो
फैलना नवरास सा
दाग आंचल पर अमिट कर
सानंद सती संताप का!

देवता की देह तुम हो
या रज अधर सहवास का?
प्रेरणा के प्रेम बनकर
किन्नर कुंवरि अभिसार का!

सृष्टि का आश्चर्य तुम हो
उतंग जल पाताल का
कृष्ण से जन्मांत प्रेमी
स्वप्न के स्वर राज का!

नववधू सा रूप तुम हो
निज नहीं कुछ पास का
चांद चंचल से चपल चर
श्वेतसम कौमार्य का!

तुम चपल हो चंचला हो,
मैं अधिक मधुमास सा,
चोंच भर सा प्रेम का रस
दंभ क्यूं ब्रज रास सा !

पंशु 10102015



(Inspired from “The Virgin in White” by Ramya Vasishta)

गुरुवार, 1 अक्तूबर 2015


रक्तिम चांद!


मन में, जन में, हलचल हलचल
शांत चित्त तुम, अविरल अविचल
दृश्य समय का ठहर गया सा
पाकर खोया तुमको जिस पल

निर्निमेष प्रतिबिंबित दृग थे
अंतर्मन के चटख रंग थे
निर्मल आंचल सधा सधा सा
उड़नखटोला सा अब हर पल

स्वप्न लालसा के पंखों से
मैंने यूं मधुमास बुने थे
अंबर तक की ऊंचाई में
पातालों के गहन छिपे थे

अंधकार का नित आलिंगन
बिन प्रसंग का निज अभिवंदन
स्वेद रक्त सब एक हुए से
बहने दो श्वासों का कंपन

मन में जन में हलचल हलचल
शांत चित्त तुम, अविरल अविचल
दृश्य समय का ठहर गया सा
पाकर खोया तुमको जिस पल


-     पंशु 01102015