शुक्रवार, 26 सितंबर 2014

तेरी खुशबुएं...

पंशु। 25092014





ये जो सूतों के 

धागों में बंधी हैं,

तेरी खुशबुएं 

मेरे ख्वाबों में बसी हैं।

इन लिहाफों में,

इन किताबों में,

इन हवाओं में,

इन फिज़ाओं में,

जागता हूं, सोचता हूं,

फिर सहमकर सिमटता हूं,

तेरी खुशबुएं,

मेरी सांसों में बसी हैं।

तेरी खुशबुएं 

मेरे ख्वाबों में बसी हैं।

ये जो सूतों के 

धागों में बंधी हैं,

तेरी खुशबुएं 

मेरे ख्वाबों में बसी हैं।

जब सिमट कर तू

आए पनाहों में,

गेसू तेरे यूं

बिखरे हैं शानों पे,

सूंघता हूं, ढ़ूंढता हूं,

फिर पलट कर खोजता हूं,

तेरी खुशबुएं 

मेरी रग रग में बसी हैं।

तेरी खुशबुएं 

मेरे ख्वाबों में बसी हैं।

ये जो सूतों के 

धागों में बंधी हैं,

तेरी खुशबुएं 

मेरे ख्वाबों में बसी हैं।


Text © Pankaj Shukla । 2014
(Pic not used for any commercial purpose)

रविवार, 21 सितंबर 2014

तुम कब आओगे?


-पं.शु.

तुम आओगे,
यही सोच के तो,
चौखट जागी है।

तुम आओगे,
यही सोच के तो,
चूल्हे की आग बाकी है।

तुम आओगे,
यही सोच के तो,
बाली उतारी है।

तुम आओगे,
यही सोच के तो,
हर रात भारी है।

तुम आओगे ना?

तुम कब आओगे,
के जब रात सहर
हो रही होगी?

तुम कब आओगे,
के जब आंख तर
रो रही होगी?

तुम कब आओगे,
के जब बिरहन रीत
बो रही होगी?

तुम कब आओगे,
के जब माहुर प्रीत
खो रही होगी?

तुम नहीं आओगे ना?


21092014 ।


Text © Pankaj Shukla । 2014
(Pic not used for any commercial purpose)

रविवार, 7 सितंबर 2014

तुमको लिख दूं? या रहने दूं..

पंशु


भीतर भीतर, सबसे छुपकर,
कुछ गाता तो हूं गुन गुनकर,
एक गीत कोई अमराई का,
संगीत किसी पुरवाई सा,

सांसों की चंचल छोर सही,
रुकती, बहती सी भोर सही,
सब कह दूं या रहने दूं?
तुमको लिख दूं? या रहने दूं..

संताप सहूं निष्पाप कहूं,
नवजीवन की पदचाप कहूं,

अधरों सी होती भोर दिखी,
उन्नत अवनत की छोर दिखी,

नभ गरजेगा, तम बरसेगा,
मन तृप्त हुआ क्यूं तरसेगा,
संबल कह दूं, या रहने दूं?
तुमको लिख दूं? या रहने दूं..

कातिक की पहली ओस कहूं,
या सावन का घनघोर कहूं,

शीतलता की दहक लिखूं,
केशों की रसती महक लिखूं,

यह श्लोक नहीं मनु स्मृति का,
आलोक यही है सहमति का,
परिणय रच दूं, या रहने दूं?
तुमको लिख दूं? या रहने दूं..

07092014


Pic & Text © Pankaj Shukla। 2014