गुरुवार, 26 दिसंबर 2013

Searching Manish Sisodia

आओ मनीष सिसौदिया का पता लगाएं

यूपी के प्राइमरी स्कूलों में पढ़े लोगों को विज्ञान-आओ करके सीखें किताब तो याद ही होगी। इस किताब में विज्ञान पढ़ाने की अनोखी और बड़ी ही दिलचस्प तरकीब होती थी- आओ करके सीखें जिसका सबसे दिलचस्प पहलू मुझे लगता था- आओ इसका पता लगाएं। तो, इस बार मुंबई से दिल्ली आने पर एक दिन इसी प्राइमरी साइंस के नाम।


पंकज शुक्ल


मुंबई से दिल्ली आए तीसरा दिन है। पिछली रात मशहूर समाजसेविका संपत पाल से महिला दिवस के एक कार्यक्रम के सिलसिले में लंबी बात हुई। सुबह आदतन वैशाली में रामप्रस्थ ग्रीन्स की लंबी और खुली सड़क पर तेज़ कदमों टहल रहा हूं। सोमवार (23 दिसंबर 2013) को मनीष सिसौदिया के नंबर पर फोन किया था, किसी शाक़िर ने उठाया। पूरा इंटरव्यू लिया। कौन हो, कहां से बोल रहे हो, क्यों फोन कर रहे हो, वगैरह वगैरह। बोला, संदेश मनीष जी तक पहुंच जाएगा। क़ासिदों पर भरोसे की देश में पुरानी परंपरा रही है। हमने भी किया। अगले दिन सुबह पुराने मित्र और आशुकवि कुमार विश्वास से मुलाक़ात हुई। उसी पुराने जोश खरोश से मिले। न कहीं आम आदमी पार्टी को यहां तक लाने का किसी तरह का आडंबर और न ही किसी तरह का अहम। अमेठी में प्रस्तावित सभा की तैयारियों में लगे हैं। लोग आ रहे हैं, मिलना जुलना चलता रहा। मैं कुछ देर बैठ निकल आया।

मैंने कुमार विश्वास से मनीष का निजी नंबर पूछना उचित नहीं समझा। निजी नंबर निजी होते हैं। आपके नंबर सार्वजनिक हो जाएं तो क्या होता है? ये बात एनडीटीवी के रवीश कुमार बेहतर समझा सकते हैं। वह कहते हैं दो नंबर जाली लोग रखते हैं। लेकिन रवीश भाई, मजबूरियों को समझिए। खैर, बुधवार की सुबह की बात हो रही थी। मेरे मन में पेंडिंग काम अपना अपना मेमो लेकर घूम रहे हैं। दोपहर वापस मुंबई की फ्लाइट पकड़नी है। फोन बजता है। दूसरी तरफ मनीष सिसौदिया हैं। खेद जताते हैं कि वह बीते दो दिन बात नहीं कर सके। मैंने बताया कि वह अब आप के नहीं दिल्ली के मंत्री बनने वाले हैं, सो व्यस्तता समझी जा सकती है।

तय हुआ कि पांडव नगर में कोई साढ़े ग्यारह बजे मिला जाए। उधर से ही मैं एयरपोर्ट चला जाऊं। मनीष ने रास्ता रफ़्तार से समझाया और मेरा दिल्ली का कमज़ोर भूगोल कि मैं सब कुछ समझ नहीं पाया। मनीष की ये बात याद रही कि गाड़ी मेन रोड पर छोड़ दीजिएगा और अंदर गली में आ जाइएगा। लेकिन, मैंने तय किया कि आम आदमी पार्टी का ज़रा दिल्ली में मामला टटोला जाए। सो, टैक्सी से नहीं। मेट्रो से चला जाए। सो, वैशाली स्टेशन से लक्ष्मी नगर और वहां से नीचे सड़क पर। पटरियों पर बेतरतीब दुकानें। पैदल चलने वाले सड़क पर, फुटपाथों पर दुकानदारों का कब्ज़ा।

ऑटो वाले थोक में लपके। हमने एक से फुटकर भाव तौल करनी चाही। पर, सोचा चलो बैठते हैं। देखते हैं कि कैसा है ऑटोवाला? बैठने के बाद नाम-धाम पूछने के बाद मैंने सीधा सवाल दागा, “आप लोग मीटर से क्यों नहीं चलते?” ऑटो चालक अरुण झा कहते हैं, “साब मीटर से 26 रुपये बनेगा मदर डेरी तक। हम थोड़ा अंदर भी छोड़ देंगे आपको, आप परेशान न हों।” मैंने पूछा, “मनीष सिसौदिया को जानते हो? आम आदमी पार्टी वाले!” झा साब बोले, “दिल्ली में एक लाख ऑटो वाला है। हमने आप को जिताया है। दिल्ली का 75 फीसदी ऑटोवाला ईमानदार है। अब गंदा आदमी तो कहां नहीं होता। आम आदमी पार्टी ही देखिए कुल 28 ठो आदमी विधायक बना है। बीसै है ना पढ़ा लिखा। बाकी आठ गो तो किसी काम का नहीं।” दो अलग अलग जगहों का और वहां के जीते विधायकों का उन्होंने नाम लिया। जिनमें से एक के बारे में उनका मानना है कि वह सफाई कर्मचारी है और दिन भर शराब के नशे में धुत रहता है। इसलिए विधायक बनने लायक नहीं है। दूसरे का नाम लेते वक्त थोड़ी ईर्ष्या दिखी झा साब की आवाज़ में क्योंकि वह ऑटो चालक था, अब विधायक है। मेरी दिलचस्पी चूंकि जल्दी से जल्दी मनीष के घर पहुंचने की और फिर अपनी फ्लाइट पकड़ने की थी, सो मैं ज्यादा सवाल-जवाब झा साब से कर नहीं सका।

मदर डेरी के पास की दुकान पर मैंने ऑटो से उतरकर दो चार लोगों से मनीष सिसौदिया के घर के बारे में पूछा। सबका एक ही जवाब, हां नाम तो सुना है पर घर पता नहीं। बातों में तंज से ज्यादा इस बात की जलन दिखी कि लोग अब आपवालों का नाम पता भी पूछने लगे। ख़ैर, आप पत्रकार हैं तो आपको इस तरह की बेअदबी की आदत डालना बहुत ज़रूरी है, नहीं तो ख़बर का असली स्वाद नहीं मिल पाता। किसी ने बताया कि इधर पटपड़गंज की तरफ जाओ, वहीं कहीं रहते हैं। हम मुड़ लिए। झा साब ने चाय की दुकान पर अख़बार पढ़ रहे एक सज्जन की तरफ इशारा किया, “बाबू, इनसे पूछिए।” लेकिन, साब ने मनीष का नाम सुनकर अखबार से सिर तक बाहर नहीं निकाला। एक फल वाला मिला। अमरूद के नीचे एक फ्लेक्सी पोस्टर बिछा है। मनीष सिसौदिया का चेहरा उस पर चमक रहा है! सवाल सुनते ही बोला, “ए बाबू, इनका पूछत हौ। हम इनका नामौ सुना है। चेहरौ पहिचानित है। मुला घर नाईं मालूम।”

मैंने मनीष के जय-विजय यानी अंकित और शाकिर से बात करने में ही भलाई समझी। इस बार फोन शायद किसी तीसरे बंदे ने उठाया। उसने पता बताया ई 58, मयूर विहार फेस वन की तरफ। हम फिर चल पड़े। एक दो गलियों में भटकने के बाद एक बिल्डिंग का पता चला। जिसका मेन शटर बंद था। रास्ता दूसरी गली में पीछे की तरफ से था। ऑटो वाले को लगा कि मैं मंजिल तक पहुंच गया। फुटकर का जुगाड़ न होता देख ऑटोवाला मेरे पास मौजूद दस रुपये में ही मानने को तैयार दिखा। मैं हैरान। वह बोला, साब आजकल पुलिस वालों की वसूली बंद है सो एडजस्ट समझो। मुझे भी लगा कि मैं मंजिल पर हूं। पर ऐसे भ्रम तो जीवन में होते ही रहते हैं जिसे हम मंजिल समझते हैं, वो एक नई चुनौती बन जाती है। खैर, छुट्टा तीन चार दुकानों पर भी नहीं मिला तो एक मोनैको बिस्कुट पैकेट की खरीद पर मामला सुलटा। झा साब को तयशुदा 30 रुपये देकर मैंने गली में घुसकर पीछे का रास्ता तलाशा।

एक लोहे के गेट के दोनों पल्लों को जंजीर से बांधा हुआ है। बस एक बार में एक ही आदमी तिरछा होकर निकल सकता है। सुरक्षा और भीड़ रोकने का ये देसी तरीका हर जगह काम आता है। ऊपर पहुंचा तो किसी दफ्तर जैसा माहौल दिखा। निकला भी ये मनीष सिसौदिया का ही दफ्तर। पर, वहां घेरा बनाकर बैठे दर्जन भर लोगों में मनीष नहीं दिखे। मेरे चेहरे पर सवाल गहराते दिखे तो एक ने पूछा और फिर बताया कि वो तो वहां दूसरी तरफ पुल के उस ओर फलां बोर्ड वाले घर में पहली मंजिल पर मिलेंगे। यहां से सौ मीटर का वाकिंग डिस्टेंस है।

वाकिंग अपन की हॉबी है। सो हम बैग उठाए और चल पड़े जिधर दो डग मग में, की तर्ज़ पर निकल पड़े उस ओर जहां की बिल्डिंग पर बड़ा सा बोर्ड दिखना था-सिंह चिकन कॉर्नर। उसी के पीछे कहीं मनीष का घर होना बताया गया। ढूंढते ढूंढते आखिर अपन जा पहुंचे मनीष के घर। घर क्या, पार्टी दफ्तर ज्यादा लग रहा था। तीन कमरों का एक फ्लैट। हर कमरे में मनीष के घर वालों से ज्यादा आम आदमी पार्टी के समर्थकों का दखल साफ दिख रहा था। मनीष की पत्नी पहले मिलीं। मनीष पास वाले कमरे में किसी प्रशासनिक अधिकारी के साथ बैठक कर रहे थे। ईमानदार अफसरों की ढूंढ मची है। लेकिन, जो साथ में हैं, उनका तो हमेशा बेईमान अफ़सरों से ही साबका पड़ता रहा। अब ईमानदार कहां से लाएं? ख़ैर सरकार बना लेंगे तो ईमानदार अफ़सर भी दस-बारह तो तलाश ही लिए जाएंगे।

मनीष व्यस्त हैं। मैं आस पास नज़र दौड़ाता हूं। एक आम आदमी का सा ही घर। मीटिंग के बीच दरवाजा खुलता है। मनीष का बेटा मीर अंदर झाकता है। फिर पापा को बिज़ी देख लौटने लगता है। मनीष उसे भीतर बुलाते हैं। लाड़ से अपने सीने से चिपटा लेते हैं। मेरी तरफ इशारा करते हैं। इनको पहचाना? ये मेरे बहुत पुराने दोस्त हैं, पंकज जी। मुझे बेटे का नाम याद आता है- मीर। मैं सिर हिलाता हूं। बेटा तब तक खुद अपना नाम बताने लगता है, मीर, एम डबल ई आर। गहमागहमी जारी है। मनीष चाय का आग्रह करते हैं। अपनी निगाहें घड़ी पर हैं। दिमाग में कैलकुलेशन जारी है। यहां से लक्ष्मीनगर 15 मिनट। वहां से राजीव चौक 15 मिनट। फिर नई दिल्ली मेट्रो स्टेशन। वहां से एयरपोर्ट एक्सप्रेस 45 मिनट और..। जीवन बस इसी गुणा भाग में बीतता रहता है। कुछ लोग हैं, मनीष जैसे जो गणित छोड़ जीवन दर्शन लिखने निकल पड़ते हैं। मुझे याद आ रहा है कोई 22-23 साल पहले का वो दिन जब अपने गांव फतेहपुर चौरासी में टेलीफोन के खंभे पर चढ़कर मैं काले झंडे लगा रहा हूं। बाज़ार में मुट्ठी भर लोगों की सभा है। थाने में कोई बिगड़ैल दरोगा एसओ बनकर आया है। मुझे माइक थमाया जाता है। मैं दरोगा को चुनौती देने के मूड में आ जाता हूं। लाउडस्पीकर सुनकर लोग दंग हैं। लोग बस्ती की दुकानें बढ़ाकर बाज़ार की तरफ आ निकलते हैं। मुझे देख लोग बतिया रहे हैं, ‘ई का कर रहा है शुक्लाजी का लड़का, मारा जाएगा अभी...

मंगलवार, 22 अक्तूबर 2013

मेरे मित्र ?


पंकज शुक्ल

सच्ची सच्ची तो तुमने
सारी झूठी बातें कहीं,
कभी कसमों तो कभी
वादों से रूठी बातें कहीं,

बेमेल सी सुलगती बुझती
वो जगरातें कहीं,
कभी दिल से न निकलीं
वो मुलाकातें कहीं,

ऐसा कैसे किया तुमने?
तुम तो राम के पड़ोसी थे,
कैवल्य की धरती के करीबी,
गो रक्ष पीठ के वासी थे,

लखन की धरती के लाल,
ये गोरखधंधा कहां पाया?
समंदर के पानी से भी खारा,
मंथरा सा संबल कहां पाया?

प्रण प्राण प्रतिष्ठा के ग्राहक,
वणिक को लजाते जगयाचक !

तुम ब्रह्ण न पा सके,
चांद में भी न झलक सके,
सुदामा को तुमने लजाया,
चाणक्य भी न बन सके।

पर,
अफसोस तुम मेरे मित्र बन सके..।

(पंशु 22102013)

शनिवार, 21 सितंबर 2013

न ख़त आता है, न खयाल आता है...



न ख़त आता है, न खयाल आता है,
ज़िंदगी तुझ पर ही क्यूं मलाल आता है..

वो चल पड़ा है नई मंज़िल की जानिब,
उसके रस्ते कहां रिश्तों का सवाल आता है..

किए होंगे तूने एहसां रगों में भर भरके,
किस्सों में कहीं शहीदों का हवाल आता है?

कदों को नाप तू अपने कभी तो उनके भी,
तेरी परछाई ही अक्सर धूप ए बवाल आता है,

मां ने समझाया बहुत घर की देहरी तक,
जवानी में कहां सीखों का निकाल आता है,

‘पंशु’ करूं फरेब या यूं ही बहते जाऊं,
ईमां डिगाने क्यूं कर ये टकसाल आता है..

© पंकज शुक्ल
21092013






Picture used only for referential purpose

मंगलवार, 10 सितंबर 2013

टोपी टोपी, इनकी पहचान बताती है..




टोपी टोपी, इनकी पहचान बताती है..

पंकज शुक्ल


बात इनकी, इनकी पहचान बताती है
आदत इनकी, इनकी पहचान बताती है।



किए थे वादा, सूबे की नई सूरत का,
कैसे ये सूबेदार? इनकी पहचान बताती है।



बदले हैं रोज़ रंग, ये नाईं गिरगिट के,
टोपी टोपी, इनकी पहचान बताती है।



धुआं ये कैसा फिर से मेरी बस्ती पर,
झुलसी हुई हथेली, इनकी पहचान बताती है।



‘पंशु’ न कर ऐतबार, अब किसी जवानी पर
बूढ़े थे इनके बदतर, इनकी पहचान बताती है।

10.09.2013

बुधवार, 14 अगस्त 2013

आज़ादी मुबारक !!!


हो चैन का सवेरा,
खुशियों का हो बसेरा,

हर पेट में हो रोटी,
महफूज़ हरेक एक बेटी,

क्या जंग से मिला है?
बस गम का सिलसिला है।

बोलो के पहरेदारों से,
खतरा तो गद्दारों से,


फूलो फलो तुम भी,
गुलज़ार रहें हम भी,

जन गण हमें मुबारक,
तराना तुम्हें मुबारक।

आज़ादी तुम्हें मुबारक,
आज़ादी हमें मुबारक।

पंशु. - 14082013

रविवार, 30 जून 2013

शाहरुख का ‘बहादुर’ और वॉटरमैन

पंकज शुक्ल

बहादुर के परिवेश के बारे में बताते वक्त 78 साल के आबिद सुरती के चेहरे की चमक देखने लायक थी। फिर जैसे ज़ोर का झोंका आए और लौ फड़फड़ाने लगे, वैसी ही बेचैनी के साथ बताने लगे, “शाहरुख से पहले कबीर सदानंद ने भी बहादुर पर फिल्म बनाने की प्लानिंग की थी। हमने इस किरदार को ट्रेडमार्क रजिस्टर्ड कराना चाहा। पर पता चला कि एक बहुत बड़े मीडिया हाउस ने 'बहादुर बाई आबिद सुरती' नाम का ट्रेडमार्क अपने नाम रजिस्टर्ड करा लिया है।”

गतांक से आगे...

शाहरुख खान के घर उस रोज़ उनसे लंबी बातें हुईं। बचपन की शरारतों के बारे में वो बोले, अपने सपनों के बारे में बातें की और बताया कि खाली वक्त में कैसे वो खुद को किताबों में बिजी रखते हैं। नीचे हाल में खड़े खड़े ऊपर के कमरे की तरफ इशारा किया और बोले, एक पूरी लाइब्रेरी मैंने बना रखी है वहां। आर्यन को तो ज्यादा किताबों का शौक रहा नहीं, हां, सुहाना को पन्नों में खोए रहना अच्छा लगता है।‘ बात घूम फिरकर फिर सिनेमा पर आई और एक बार फिर शाहरुख के दिल से छलक आई वो ख्वाहिश जो वो हिंदी सिनेमा के बादशाह होकर भी पूरी नहीं कर पा रहे हैं। दरअसल, शाहरुख बड़े परदे पर ‘बहादुर’ बनना चाहते हैं। जिनकी उम्र पैंतालिस पचास के आसपास होगी, उनको अपने बचपन के इंद्रजाल कॉमिक्स ज़रूर याद होंगे। एक रूपये की एक किताब मिलती थी और वो एक रुपया भी जुगाड़ना जतन का काम होता था। किराए पर तब 10 पैसे में मिला करते थे कॉमिक्स।

इंद्रजाल कॉमिक्स याद होंगे तो फिर उनका एक किरदार ‘बहादुर’ भी याद होगा। ‘बहादुर’ यानी इसी नाम से बनी कॉमिक सीरीज का हीरो। बाप जिसका डाकू था, लेकिन उसने कानून के पाले में आने का फैसला किया। केसरिया कुर्ता, डेनिम की जींस। कॉमिक्स की दुनिया का पहला हिंदुस्तानी हीरो। दुनिया भर में वो आबिद सुरती के बहादुर के नाम से मशहूर हुआ। शाहरुख खान इस किरदार का चोला पहनकर बड़े परदे पर आना चाहते हैं। बोले, “बचपन में इसके बारे में खूब पढ़ा। पूरा कलेक्शन जमा करके रखा। अब मन किया कि इस पर फिल्म बनाई जाए तो इसके कॉपराइट नहीं मिल रहे।” शाहरुख खान जैसी हस्ती किसी किरदार पर फिल्म बनाना चाहे और उसके सामने ऐसी अड़चनें आ जाए कि वो भी न पार सकें तो मन में उत्सुकता तो जागती ही है।

यहां से शाहरुख ने शुरू की कहानी मुंबई के वॉटरमैन की। ये वॉटरमैन और कोई नहीं, हमारे आपके अजीज़ आबिद सुरती साब ही हैं। जी हां, वही जिनके कॉमिक किरदार ढब्बू जी ने कभी धर्मवीर भारती तक पर उर्दू को बढ़ावा देने का इल्जाम लगा दिया था, और वो इसलिए कि ढब्बूजी धर्मयुग के पीछे के पन्ने पर छपते थे और लोग धर्मयुग खरीदने के बाद उसे पीछे से ही पढ़ना शुरू करते थे। आबिद सुरती के किरदार दुनिया भर में मशहूर हैं। उनकी लिखी कहानियां परदेस में हिंदी सीखने के इच्छुक लोगों को क्लासरूम में पढ़ाई जाती हैं। नाटककार भी वो रहे। फिल्मों में स्पॉट बॉय से लेकर लेखन तक में हाथ आजमाया। पेंटर ऐसे कि अगर एक ही लीक पकड़े रहते तो आज एम एफ हुसैन से आगे के नहीं तो कम से कम बराबर के कलाकार होते।

आबिद सुरती मुंबई से थोड़ा दूर बसे इलाके मीरा रोड में अकेले रहते हैं। दोनों बेटे सैटल हो चुके हैं। एक का तो शाहरुख ने नाम भी लिया, किसी कंपनी में नौकरी लगवाने के सिलसिले में। आबिद की पत्नी अपने बच्चों के साथ हैं, और वो मीरा रोड में ही ड्रॉप डेड एनजीओ के नाम पर नलों से पानी टपकने के खिलाफ मुहिम चलाते हैं। पढ़ने में अजीब सा लग सकता है लेकिन कोई छह साल पहले अपने एक दोस्त के घर में लेटे आबिद सुरती को घर के बूंद बूंद टपकते नल ने सोने नहीं दिया। और, बस वहीं से ये ख्याल जनमा। हर इतवार आबिद अपना झोला लेकर घर से निकलने लगे। झोले में होती कुछ रिंचे, प्लास और वाशर। वो सोसाइटी के घर घर जाकर टपकते नल ठीक करने लगे। और, यहीं से शुरू हुई ड्रॉप डेड फाउंडेशन की। शाहरुख खान ने आबिद सुरती की इस मुहिम के बारे में किसी अखबार में पढ़ा और उन्हें एक लंबा एसएमएस भेज दिया। शाहरुख ने ये भी लिखा कि कैसे वो बचपन से “बहादुर” के फैन रहे हैं। फैन मैं भी बचपन से ढब्बू जी का रहा हूं। शाहरुख ने बस इस किरदार को बनाने वाले आबिद सुरती से मुलाकात की मेरी इच्छा को फिर से जगा दिया। आबिद सुरती की फ्रेंड लिस्ट में मैं शामिल रहा हूं और उनकी सालगिरह पर मुबारक़बाद भी भेजता रहा हूं। इस बार बात आगे बढ़ी। मैंने संदेश भेजा। उनका जवाब आया। पिछले इतवार हम मिले फन रिपब्लिक के पास एक रेस्तरां में।

बातों बातों में ज़िक्र फिर से बहादुर का निकला। बहादुर के परिवेश के बारे में बताते वक्त 78 साल के आबिद सुरती के चेहरे की चमक देखने लायक थी। फिर जैसे ज़ोर का झोंका आए और लौ फड़फड़ाने लगे, वैसी ही बेचैनी के साथ बताने लगे, “शाहरुख से पहले कबीर सदानंद ने भी बहादुर पर फिल्म बनाने की प्लानिंग की थी। हमने इस किरदार को ट्रेडमार्क रजिस्टर्ड कराना चाहा। पर पता चला कि एक बहुत बड़े मीडिया हाउस ने 'बहादुर बाई आबिद सुरती' नाम का ट्रेडमार्क अपने नाम रजिस्टर्ड करा लिया है।” सुनकर बड़ा दुख हुआ। दूसरों के अधिकारों की दिन रात बात करने वाले मीडिया हाउस क्या ऐसे भी किसी कलाकार का हक मार देते हैं। कॉपीराइट कानून कहता है कि किसी कृति के बनाते ही उसका कॉपीराइट सृजक के नाम हो जाता है। उसका कहीं रजिस्ट्रेशन जरूरी नहीं। माने कि अगर कोई ढंग का वकील आबिद सुरती का मामला अपने हाथ में ले तो उनके बौद्धिक संपदा अधिकार उन्हें मिल सकते हैं। मुझे खुद एक हफ्ता लग गया इस बात को दुनिया के सामने लाने में। चाहता हूं उनकी लड़ाई लड़ूं। जितना बन सकेगा कोशिश करूंगा। क्या आप साथ देंगे?

गुरुवार, 13 जून 2013

शाहरूख का मोहब्बतनामा वाया चेन्नई एक्सप्रेस

पंकज शुक्ल



एक तरफ कुरान की चंद आयतें एक आकर्षक तख्ती पर सुनहरे लफ्ज़ों में नक्श हैं। पास में किशोर शाहरुख की एक फोटो रखी है। सोफे के बिल्कुल करीब एक स्टूल पर शाहरुख की मां जन्नतनशीं लतीफ़ फ़ातिमा खान की तस्वीर मुस्कुरा रही है। चेहरे पर ओज, आंखों में ममता और कुल मिलाकर एक ऐसा चुंबकीय व्यक्तित्व जो चुगली करता है कि शाह रुख का नाम आखिर कुछ और क्यूं हो ही नहीं सकता था।


किसी बड़े फिल्मी सितारे के घर दावत का न्यौता मिलना यूं तो खास नहीं है, लेकिन दावत अगर शाहरुख खान ने रखी हो और वो भी अपने बंगले मन्नत पर, तो मामला थोड़ा खास तो ज़रूर हो जाता है। मन्नत के गेट से ही पता चलने लगता है कि एक सुपरस्टार आखिर सुपरस्टार क्यों होता है? चौकीदार से लेकर निजी स्टाफ तक आपका स्वागत शाहरुख खान के निजी मेहमान के तौर पर करते हैं। तय वक्त पर मैं शाहरुख खान के ड्राइंग रूप में और चंद ही मिनटों में शाहरुख भी अपने निजी कमरे से निकलकर ड्राइंग रूम में। समय से पहुंचने की आदतें अक्सर फायदेमंद साबित होती हैं। आमंत्रित पत्रकारों में से अब तक मैं ही पहुंचा था और शाहरुख ये देखने आए थे कि नीचे सब इंतजाम ठीक तो है। सोफे पर मुझे अकेले बैठा देख शाहरुख मुस्कुराए। साथ में सांवली सलोनी बिटिया सुहाना। शाहरुख ने अदब से सिर झुकाया। दाहिना हाथ अब भी चुटहिल है तो बायां हाथ आगे बढ़ाया। बिटिया के चेहरे पर भी स्वागत वाली मुस्कान तैर गई। शाहरुख थोड़ी देर में लौटने की इजाज़त लेकर थिएटर की तरफ निकल गए। और, मैं फिर से अकेला शाहरुख के ड्राइंग रूप में। तीन चार कारिंदें हैं खैरमकदम के लिए। मुझसे पेय पसंद पूछी जाती है। मैं बोलता हूं, मसाला चाय बिना चीनी की। भाई थोड़ी देर में लौटता है, उतरा चेहरा लेकर, सर, चाय नहीं है, ड्रिंक्स करेंगे?

मुंबई के फिल्म पत्रकार ऐसे आयोजनों में देरी से पहुंचने के आदी हैं। और, इस आदत के चलते मुझे मौका मिला कोई घंटे भर शाहरुख के ड्राइंग रूम में रखी हर चीज़ को बारीकी से देखने का। एक तरफ कुरान की चंद आयतें एक आकर्षक तख्ती पर सुनहरे लफ्ज़ों में नक्श हैं। पास में किशोर शाहरुख की एक फोटो रखी है। सोफे के बिल्कुल करीब एक स्टूल पर शाहरुख की मां जन्नतनशीं लतीफ़ फ़ातिमा खान की तस्वीर मुस्कुरा रही है। चेहरे पर ओज, आंखों में ममता और कुल मिलाकर एक ऐसा चुंबकीय व्यक्तित्व जो चुगली करता है कि शाह रुख का नाम आखिर कुछ और क्यूं हो ही नहीं सकता था। ख़ैर, मेरी नज़रें पूरे ड्राइंग रूप में घूम रही हैं। टेबल पर एक सजावटी अखबार रखा है। अखबार के नाम की जगह छपा है- हेडलाइंस टुडे। पास में एक बड़ी सी किताब में कुछ ब्लैक एंड व्हाइट फोटो खुले हैं। कुछ ही दूरी पर एक सजा धजा बार है। और, उसके ही करीब एक और टेबल पर है टैगोर का साहित्य। ड्राइंग रूम इतना बड़ा है कि एक कोने से दूसरे कोने तक नज़र को तैरते तैरते पहुंचने में भी कोई तीन चार मिनट का वक़्त लगता है और सामने जो दिखता है, उससे फिर झलक मिलती है शाहरूख और गौरी के प्यार की। जी हां, कमरे के एक कोने में अगर कुरान की आयतें हैं तो ठीक सामने के कोने में है राधा कृष्ण का भव्य मंदिर। स्याह संगमरमर की बनी सुंदर मूर्तियां और नीचे छोटे छोटे तीन या चार गणपति।

मेहमान अब आने लगे हैं। दीपिका पादुकोणे भी लहराती इतराती सी ड्राइंग रूप में चहक रही हैं। शाहरुख अपनी बेटी के साथ फिर से ड्राइंग रूप में हैं। हर एक से पूरे अदब के साथ मिल रहे हैं। थोड़ी ही देर में उनकी बहुप्रतीक्षित फिल्म का फर्स्टलुक हम लोगों को देखना है। रोहित शेट्टी वहीं थिएटर में हैं। तनाव तो होगा ही। अजय देवगन को छोड़ वह अब शाहरुख के साथ गाड़ियां उड़ाने वाले हैं। शाहरुख बार बार घड़ी देख रहे हैं। प्रेस कांफ्रेस में देरी से पहुंचना भले ठीक हो, पर घर आए मेहमानों को इंतज़ार कराना? ना बाबा ना। पता चलता है कि भारी बारिश और ट्रैफिक के चलते कुछ पत्रकार अब भी रास्ते में हैं। ठीक दस बजे शाहरुख के मन्नत में बने मिनी थिएटर में हम लोग दाखिल होते हैं। कुर्सियों के आर्म रेस्ट पर पहले से रखी कटोरियों में पॉप कॉर्न भरे जा चुके हैं। रोहित शेट्टी हैरान परेशान से नमूदार होते हैं। शाहरुख दीवार से टिककर खड़े हैं। वो नहीं बैठे तो दीपिका और रोहित भी कोना पकड़े खड़े हैं। ट्रेलर शुरू होता है। रेड चिलीज़ के स्पेशल इफेक्ट्स से लैस ट्रेलर में शाहरुख फिर से करण अर्जुन और ओम शांति ओम वाले रंग में दिखते हैं। दीपिका साउथ इंडियन गेटअप में और सुंदर दिखती हैं। कॉस्ट्यूम डिजाइनर की मेहनत नज़र आ रही है। कैमरा वर्क माल का है और रोहित ने तमाम गुणा भाग लगाकर कुछ अलग टाइप के एक्शन सीक्वेंस भी खींच डाले हैं। ट्रेलर पास है। पिक्चर अभी बाकी है।

ट्रेलर खत्म हुआ तो आवाज़ें आईं, वंस मोर। शाहरुख बोले, फिल्म देखो ना देखो, ट्रेलर तो हम दो बार दिखा ही सकते हैं। मूड में हों तो शाहरुख मज़ाक बहुत करते हैं। ट्रैलर देखने के बाद दावत शुरू हो रही है। शाहरुख ने फिर सारे मेहमानों से मिलना शुरू किया। एक एक करके। रुक रुक करके। इस बार वो ज्यादा देर रुक रहे है। बात पता नहीं कैसे पानी की बर्बादी पर आ रुकती है और शाहरुख बताते हैं एक वॉटर मैन के बारे में। 90 साल से भी ज्यादा उम्र के वॉटर मैन के बारे में। हमारे आपके बहुत पुराने अजीज़ हैं...जानेंगे उनके बारे में तो आप भी चौंक जाएंगे..(जारी)