गुरुवार, 7 जून 2012

बदनाम बॉलीवुड उर्फ लव, सेक्स और धोखा (2)

हिंदी सिनेमा में काम करने के लिए मुंबई में संघर्ष करने वाली तमाम लड़कियों का खर्च कैसे चलता है? और किन मजबूरियों में इन लड़कियों के पांव दलदल में जा धंसते हैं, इसकी तफ्तीश की पहली कड़ी को लेकर मिली प्रतिक्रियाएं बताती हैं कि वाकई चांद जब नजदीक होता है, तो उसके दाग डरावने लगने लगते हैं। कुछ लोगों ने ये भी कहा कि ये गंदगी सिर्फ सिनेमा में ही नहीं बल्कि दूसरे क्षेत्रों में भी है तो फिर सिनेमा पर ही अंगुली क्यों? इस कड़ी का मकसद किसी का दिल दुखाना या किसी को हतोत्साहित करना नहीं बल्कि एक ऐसी सच्चाई पर से परदा हटाने की कोशिश है, जिसके बारे में तमाम अभिभावकों को भी पता नहीं होता और न ही उन हजारों लड़कियों को जिनका मुंबई आने का बस एक ही सपना होता है, मैं माधुरी दीक्षित बनना चाहती हूं। अब आगे..

© पंकज शुक्ल


... धुएं की महक से पता चला कि सिगरेट में सिर्फ तंबाकू ही नहीं था। निर्माता ने अपने सहायक से मोहतरमा को बाहर छोड़ आने के लिए कहा तो वो रो पड़ीं। आई नीड दिस रोल..आई कैन मैक यू हैपी इन व्हिचएवर वे यू लाइक..(मुझे ये रोल चाहिए..आप जिस भी तरह चाहें मैं आपको खुश कर सकती हूं..)। निर्माता के इशारे पर सहायक ने उन्हें बाहर चलने को कहा। लड़की इस बार हिंदी बोलने लगी, सर, प्लीज मुझे पांच हजार रुपये दे दीजिए। मैं अगले महीने वापस कर दूंगी। निर्माता खुद इसके बाद उसे बाहर करके आया। लौटकर इस निर्माता मित्र ने ये भी बताया कि ऑडीशन हॉल के भीतर भीख मांग रही पर अच्छे घर की दिख रही ये लड़की हॉन्डा सिटी कार से आई थी और वो भी अपने ड्राइवर के साथ। कोई भी ये सोचने पर मजबूर हो सकता है कि आखिर चालक के साथ कार से आने वाली कोई लड़की भला निर्माता से पैसे मांगने के लिए क्यूं रोएगी?

सवाल यही मेरे मन में भी उठा। मैंने सहायक से थोड़ी बहुत पूछताछ की तो पता चला कि हॉल जिस कैंपस में है, उसके गेट पर हर अंदर आने वाले का नाम और उसकी गाड़ी का नंबर दर्ज होता है। लड़की का नाम पता करके मैंने गाड़ी का नंबर पता किया और अगले दिन नजदीकी आरटीओ ऑफिस जाकर गाड़ी के मालिक का नाम पता किया। गाड़ी के मालिक का जो नाम था, उसने मुझे और हैरानी में डाल दिया। ये नाम हिंदी फिल्मों के एक बड़े निर्माता के मैनेजर का था।

और, पता चला कि ये मैनेजर अक्सर जुहू सर्किल से वर्सोवा की तरफ जाने वाली सड़क पर बने एक क्लब में मिलता है। शाम कोई सात बजे का वक्त। क्लब में रंगत बढ़ रही है। साथ आए निर्माता ने कोहनी के इशारे से सामने देखने का इशारा किया। निर्देशक राम गोपाल वर्मा की फिल्म में काम कर चुकी एक अभिनेत्री एक कुर्सी पर बैठ रही है। उसके कुर्सी पर बैठते ही उसके दाएं बाएं पड़ी कुर्सियों पर दो चार लोग और बैठ गए। दो सियासी पार्टियों के नेता हैं। एक सादा वर्दी पुलिस अफसर है और एक महिला है। महिला की शक्ल जानी पहचानी सी है और उसे अक्सर मंत्रालय में टहलते देखा जाता है। हम लोग चुपचाप माजरा देख रहे हैं। थोड़ी देर बाद सब वहां से निकल गए। सिर्फ पुलिस अफसर वहां बैठा है। वह अभिनेत्री को कुछ समझा रहा है। पर अभिनेत्री उसकी तरफ ध्यान नहीं दे रही। पुलिस अफसर गुस्से में कुछ बोलता हुआ निकल जाता है। अब निर्माता मुझे लेकर आगे बढ़ता है। अभिनेत्री निर्माता को पहचानते ही कुर्सी से खड़ी होती है। नमस्ते करती है। फिर हमसे हाथ भी मिलाती है। ये कौन था?, निर्माता ने पूछा। अभिनेत्री का जवाब, दल्ला है। मैं इसके बॉस को सीधे जानती हूं। सबको लगता है हम लोग यहां झक मारने आए हैं। कोई फंक्शन में नाचने का दबाव डालता है तो कोई साहब के बच्चे की बर्थडे पार्टी में पहुंचने को बोलता है। क्या करें? ये बेगारी तो करनी ही होती है। लेकिन, ये सब फिर भी ठीक है। कुछ तो इसके आगे की डिमांड लेकर भी आ जाते हैं। यहीं आगे वो मैनेजर भी दिखा, जिसके नाम से रजिस्टर्ड गाड़ी पर वो मोहतरमा ऑडीशन देने आई थीं। मामला और खुलकर पता करने के लिए हमें अब आराधना से मिलना था।

लखनऊ के आशियाना से आकर यहां वर्सोवा में रहने वाली आराधना जैन इस बारे में मिलने पर बताती हैं, यहां कलाकार कितना भी बड़ा हो। अगर औरत है तो उसकी इज्जत बचना उतना ही मुश्किल है जितना दूध में नींबू पड़ने के बाद उसका पनीर बनने से बचना। और, अब तो युवकों का भी शोषण खूब होने लगा है। आराधना कई म्यूजिक वीडियो में काम कर चुकी हैं। हिंदी सिनेमा में काम करने के लिए वह पिछले चार पांच साल से संघर्ष कर रही हैं। वह कहती हैं, यहां सिनेमा बनाने वाले कम हैं। मनोरंजन करने वाले ज्यादा। जो लोग बरसों से सिनेमा कर रहे हैं, उनके यहां फिर भी एक सिस्टम है और काम मिलने के बाद ही वहां आगे की मांग की जाती है। लेकिन, नव कुबेरों ने इंडस्ट्री का नाम ज्यादा खराब किया है। ये वो लोग हैं जिन्होंने पॉलिटिक्स या बिल्डिंग के धंधे में पैसा कमाया है। ये लोग फिल्म बनाने नहीं अय्याशी करने आते हैं। और, इन लोगों को पहचानने में माहिर होती हैं वो लड़कियां, जिनका दिन रात का पेशा ही यही है। ये लड़कियां महंगे फ्लैटों में रहती हैं, महंगी गाड़ियों में घूमती हैं। चाय तक पांचसितारा होटलों में पीती हैं और सजने संवरने का जो इनका खर्चा होता है सो अलग। इन सब चीजों पर जो महीने का खर्च आता है, उसको मुंबइया भाषा में मैंटेनेंस कहते हैं। बांद्रा, जुहू, लोखंडवाला, वर्सोवा, अंधेरी, मलाड तक हर दूसरी ऊंची इमारत में कम से एक एक लड़की आपको ऐसी जरूर मिल जाएगी, जिसका मैटेनेंस कोई न कोई बिल्डर या मोटा आसामी दे रहा होता है। ये लोग वीकएंड पर मुंबई आते हैं। दो दिन इनके साथ बिताते हैं। बाकी के पांच दिन ये खाली घूमती हैं। मटरगश्ती करते हुए। और, इनकी लाइफ स्टाइल देख बाकी बेवकूफ लड़कियां ये समझती हैं कि फिल्मों में पैसा ही पैसा है। हां, यहां पैसा है लेकिन फिर इज्जत नहीं है।

मुंबई के फिल्म जगत को पिछले चार दशकों से करीब से देखते आ रहे ट्रेड मैगजीन सुपर सिनेमा के संपादक विकास मोहन मनोरंजन जगत के मौजूदा हालात को लेकर काफी निराश दिखते हैं। वह कहते हैं, जैसे जैसे हिंदी फिल्म जगत में पैसा बढ़ रहा है। यहां अपराध बढ़ रहे हैं। कॉरपोरेट घरानों के फिल्म और टेलीविजन सीरियल निर्माण में कूदने के बाद से यहां काम बढ़ा है। रोज नए नए चैनल खुल रहे हैं। कलाकारों को जी खोलकर पैसे मिल रहे हैं। लेकिन, यहां काम की तलाश में आने वाले जो बात नहीं समझते वो ये कि यहां कामयाबी का प्रतिशत इंजीनियर और डॉक्टर बनने से भी ज्यादा कम है। अगर आईआईटी की एक सीट के लिए कोई 60 से 65 दावेदार होते हैं, तो यहां एक किरदार के लिए कम से कम डेढ़ सौ संघर्षशील कलाकारों के बीच मुकाबला होता है और वो भी मुख्य किरदार को छोड़कर। लाखों में कोई एक हीरो बन पाता है और उसके चक्कर में बाकी 99,999 लोग कई कई साल परेशान रहते हैं। लोगों के सपने टूटते रहते हैं, लेकिन कोई ये शहर छोड़कर जाना नहीं चाहता। शायद, वे खाली लौटकर घर वालों का सामना करने की सूरत में नहीं होते। तो बस लाइफ स्टाइल बनाए रखने और शहर में बने रहने के लिए कुछ बचता है तो वो है लड़कियों के लिए देह का सौदा और लड़कों के लिए ड्रग्स। तमाम डायरेक्टरों के पीछे लड़कों की फौज लगी रहती है, काम पाने के लिए। अपने घरों में एक गिलास पानी भी खुद उठाकर नहीं पीने वाले बच्चे इन डायरेक्टरों के दफ्तरों में जूठे कप उठाकर यहां से वहां रखते रहते हैं। सेट्स पर पोछा मारते दिखते हैं और कुछ तो इससे भी नीचे के काम करने लग जाते हैं।

मनोरंजन जगत में नाम और पैसा कमाने की चाहत लेकर आने वालों के लिए ये हकीकत आंखें खोल देने वाली है। यहां शोहरत सिर्फ चंद लोगों को ही मिल पाती है। लेकिन, इस चकाचौंध की असलियत समझ में आने तक काफी देर हो चुकी होती है। यहां हर शख्स दूसरे को उल्लू बनाने में लगा रहता है। सबके पास सुनाने को ये लंबे लंबे किस्से हैं कि एक बार आदमी झालर में फंसा तो बस गिरता ही चला जाता है। इलाहाबाद की मीना थापा की भी हत्या ना हुई होती अगर वो अपने दोस्तों को अपनी रईसी के झूठे किस्से ना सुनाती रहतीं। मीना थापा की तरह ही यहां हर संघर्षशील कलाकार खुद को गरीब मानने से डरता है। लड़की अगर खूबसूरत है और लंबी है तो उसका पहला परिचय यही होता है कि वो साल भर पहले तक फलां एयरलाइंस में एयर होस्टेस थी, लेकिन नौकरी में मन नहीं लगा तो अभिनेत्री बनने चली आई। उसका एक काल्पनिक भाई होता है जो सिंगापुर या दुबई जैसे किसी शहर में किसी बड़ी कंपनी में बड़ी पोस्ट पर होता है और हर महीने उसके लिए मैंटेनेस का खर्च भेजता है। वह कम से कम दो तीन ऐसे कमर्शियल में काम कर चुकी होती है, जिन्हें कनाडा या साउथ अफ्रीका की किसी कंपनी ने बनाया होता है और जिसकी कॉपी उसके पास दिखाने को नहीं होती। लड़की अगर एयर होस्टेस वाली कहानी बनाने लायक लंबी नहीं है तो वो अपनी किसी मौसी या बुआ के पास रह रही होती है (ये बुआ या मौसी दरअसल उस घर की मालकिन होती है, जहां ये लड़कियां पांच हजार रुपये प्रतिमाह से लेकर 15 हजार रुपये प्रतिमाह के खर्च पर बतौर पेइंग गेस्ट रह रही होती हैं)। इनके काल्पनिक पिता दिल्ली, अहमदाबाद, जयपुर या रांची में के लखपति होते हैं और जो अपनी बेटी के हीरोइन बनने के फैसले के हक में होते हैं।

लेकिन, जब सुनिधि चौहान जैसी कामयाब कलाकार के पैर इन राहों पर फिसल जाते हैं तो भला उनकी क्या बिसात, जिन्हें यहां जुम्मा जुम्मा हुए ही चार दिन हैं। लखनऊ की पूनम जाटव का किस्सा भी तो ज्यादा पुराना नहीं है। पूनम की रीएल्टी शोज के निर्णायक इस्माइल दरबार से मित्रता हुई, मित्रता अंतरंगता में बदली और मामला इतना आगे निकल गया कि समय रहते उनके घरवाले उन्हें अस्पताल न पहुंचाते तो पेट में पहुंच चुकी दर्जन भर से ज्यादा नींद की गोलियां उनकी मंजिल दूसरे जहान में लिख चुकी होतीं। पूनम ने ये कदम अपने घर में उठाया और घरवालों ने उसे बचा लिया। लेकिन जीटीवी के ही रीएल्टी शो सिनेस्टार्स की खोज की फाइनलिस्ट दीपिका तिवारी ने ऐसा ही एक कदम घरवालों से दूर अपने किराए के कमरे में नोएडा में उठाया और घरवालों के हाथ केवल उसकी देह ही आ सकी।

मायानगरी के सपनों के इस तिलिस्म ने ही शहर में अपराध का एक नया सिलसिला खोल दिया है। मशहूर लेखिका और पेज थ्री पार्टियों का नियमित चेहरा रहने वाली शोभा डे कहती हैं, एक समय था जब हम दिल्ली के अपराधों की खबरें सुनते थे और सोचते थे कि हम कितने सुरक्षित शहर में रहते हैं। लेकिन, अब? अब तो रोज ही यहां किसी न किसी की हत्या की खबरें आती रहती हैं। शहर में मालदार बनने का सपना लेकर आने वालों की संख्या पहले भी कम नहीं थी। लेकिन, इसके लिए गुनाह करने वाले पहले इतने कभी नहीं रहे। शोभा डे की बात में बात मिलाते हैं अभिनेता निर्देशक अरबाज खान। वह कहते हैं, मुंबई में अपराध बढ़ने के पीछे यहां लोगों की बढ़ती तादाद भी है। लेकिन, फिल्म जगत से जुड़े लोग इस तरह के गुनाहों से दूर ही रहे हैं। ये पहली बार देखने में आ रहा है कि फिल्मों में काम करने आए लोग इतने सोचे समझे तरीके से साजिशें रचकर गुनाह कर रहे हैं। इससे इंडस्ट्री का नाम खराब हो रहा है। निर्देशक अनुराग कश्यप की फिल्म गैंग्स ऑफ वासेपुर लिखने वाले सचिन लाडिया ये सब देखकर ना सिर्फ हैरान है बल्कि ग्लैमर के आकर्षण से धीरे धीरे उनका मन भी ऊबने लगा है। वह कहते हैं, ये दुनिया ही अलग है। यहां बाहर से कुछ और दिखता है और भीतर का सच उसके बिल्कुल उलट है। मंचों और फिल्म समारोहों में बड़ी बड़ी बातें करने वाले निजी जिंदगी में इतने घटिया इंसान निकलते हैं कि पूछो मत। यहां जो दुनिया की नजरों में जितना महान है, अपने साथ काम करने वालों के दिलों में वो उतना ही गिरा हुआ है। यहां हर वक्त जिंदा रहने का संघर्ष जारी है। और, जाहिर है अगर संघर्ष जिंदा रहने का है तो फिर जिएगा वही जिसके पास पैसा होगा। भले इसके लिए किसी को कुछ भी क्यूं न करना पड़े।

संपर्क - pankajshuklaa@gmail.com

14 टिप्‍पणियां:

  1. उम्दा आर्टिकल पंकज जी ..
    आपका यह लेख कई युवाओं की आँखें खोल सकता है जो ग्लैमर की चकाचौंध के मारे हैं ..

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    1. शुक्रिया..। एक साथी भी मर्म समझ पाया तो लगेगा कि मेहनत सफल रही।

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  2. बेहतरीन लेख !! मायानगरी की 'माया' को हटाता हुआ...

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  3. बेहतरीन लेख !! मायानगरी की 'माया' को हटाता हुआ...

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  4. bilkul hi saral language mai apne sari baat samjha di kmal ka article hai

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  5. great writing. eyes opener, heart hitting naked true of glamour world

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