सोमवार, 25 जून 2012

फितरत में नहीं अड्डेबाजी-कबीर कौशिक

अगर सिनेमा एक तिलिस्म है तो निर्देशक कबीर कौशिक इसके एक ऐसे तालिस्मान हैं, जिन्हें समझना मुश्किल नहीं तो इतना आसान भी नहीं है। उनका निर्देशकीय कौशल काबिल ए दाद होता है पर, रिश्तों में उनका यकीन न बन पाना उन्हें हर फिल्म के साथ दो कदम आगे और चार कदम पीछे ले जाता है। कबीर कौशिक के करियर की चौथी फिल्म मैक्सिमम रिलीज के लिए तैयार है, लेकिन बिरले ही जानते हैं कि इस अकड़फूं डायरेक्टर का ताल्लुक बिहार के एक मशहूर सियासी खानदान से है और मशहूर हिंदी पत्रकार स्व.घनश्याम पंकज के वह बेटे हैं। कबीर कौशिक से उनके नए दफ्तर में एक खास मुलाकात।

© पंकज शुक्ल

हर फिल्म के बाद आपसे एक नए दफ्तर में मुलाकात होती है। मुलाकात भी क्या, करीब करीब जबरन घुस आते हैं हम आपके दफ्तर में। ये आप दुनिया से इतने कटे कटे और अकेले क्यूं रहते हैं?
-(एक शरारत भरी मुस्कान तैरती है चेहरे पर) सिनेमा मेरा प्यार है, मेरा जुनून है। मैं मुंबई में होता हूं तो सिर्फ इसी के बारे में सोचता हूं। मेरी मसरूफियत इसके अलावा मेरी कंसलटेंसी एजेंसी और कुछ दीगर कामों को लेकर भी रहती है। खाली वक्त मिलता है तो पढ़ता हूं या फिर स्कवैश खेलता हूं। बाकी फालतू की लफ्फाजी और गॉसिपबाजी में मेरा यकीन शुरू से नहीं रहा। मेरा मानना है कि आपका संपर्क जितना विस्तृत और विशाल होता जाता है, आपके सोचने का तरीका उतना ही दूसरों से प्रभावित होने लगता है। इस मायावी दुनिया में अपने जैसा बना रहने का सबसे साधारण फॉर्मूला जो मुझे समझ आता है, वह है अपने में मगन रहना। अड्डेबाजी मेरी फितरत में ही नहीं है।

सहर, चमकू, हम तुम और घोस्ट और अब मैक्सिमम। सात साल में चार फिल्में किसी भी हिंदी फिल्म निर्देशक के इतराने के लिए काफी हैं। पर आप अब भी कम ही खुलते हैं लोगों से। इल्जाम ये भी लगता है आप पर कि आप जिनके ज्यादा करीब होते हैं, वे सब आपसे जल्दी ही दूर हो जाते हैं?
-पंकज जी..। आप क्यूं ऐसा कह रहे हैं? मैंने कहा न ये सब मेरी फितरत में ही नहीं है। लोग आते हैं। मेरे साथ काम करते हैं और फिर अपना रास्ता पकड़ लेते हैं। मैंने कभी किसी को बंधन में नहीं रखा। और, न ही मैं किसी बंधन में रहने में यकीन करता हूं। हां, मैं मानता हूं कि इस सफर में मुझसे भी गलतियां हुई हैं। कुछ छोटी मोटी गलतियां हैं तो कुछ बड़ी गलतियां भी हुई हैं। पर, ये मेरे सबक हैं। मैंने इनसे सीखा है। सबक ये है कि ये गलतियां दोबारा ना हों। और, सीखा ये है कि कारोबार की इस नगरी में कारोबार ही अंतिम सत्य है। बाकी सब मिथ्या है।

क्या ये भी मिथ्या है कि मैक्सिमम की शूटिंग से ऐन दो दिन पहले आपके सबसे करीबी दोस्त अरशद वारसी ने फिल्म में काम करने से मना कर दिया था?
-लेकिन, इससे हुआ क्या? फिल्म की शूटिंग तो उसी तारीख को शुरू हुई। हां, वह रोल अब फिल्म में नसीर साब कर रहे हैं, बिना स्क्रिप्ट में एक भी लाइन के फेरबदल के। अरशद को शायद पहले रोल पसंद आया था लेकिन बाद में उनका ख्याल बदला और उन्हें लगा कि ये रोल उनके लिए मुफीद नहीं है। वह फैसला लेने के लिए आजाद हैं, मैं इसमें क्या कर सकता था।

"जीवन में सब कुछ पा लेने के बाद भी परेशान बने रहने से बेहतर है सब कुछ पा लेने के लिए परेशान रहना। मुझे अपने अब तक के करियर से कोई गिला शिकवा नहीं है। जल्द ही अगली एक फिल्म पर भी काम शुरू होने जा रहा है।"-कबीर कौशिक



किसी निर्देशक का अपनी पहली ही कोशिश से फिल्म जगत में चर्चा का सबब बन जाना। खुद आमिर खान का एसएमएस करके अपने लायक किसी स्क्रिप्ट के होने पर संपर्क करने का संदेश भेजना और इसके बाद भी ये जद्दोजहद?
-फिल्म जगत का कारोबार वैसा रूमानी है नहीं, जितना बाहर से दिखता है। आपने तो इसे करीब से देखा और तकरीबन सारा कुछ जानते भी हैं इसके बारे में। आमिर को ध्यान में रखते हुए एक फिल्म लिखी गई थी, क़ज़ा। उस फिल्म में आमिर को आतंकवादी का किरदार करना था पर संयोग कहिए या कुछ और उन्हीं दिनों यशराज फिल्म्स की फिल्म फना शुरू हो गई। आमिर के बारे में जितना मुझे मालूम है, वह एक ही किरदार को दोहराने में ज्यादा दिलचस्पी नहीं रखते। बाकी रही जद्दोजहद, तो यही तो जीवन है। ये खत्म हुई तो फिर जीवन कैसा? जीवन में सब कुछ पा लेने के बाद भी परेशान बने रहने से बेहतर है सब कुछ पा लेने के लिए परेशान रहना। मुझे अपने अब तक के करियर से कोई गिला शिकवा नहीं है। जल्द ही अगली एक फिल्म पर भी काम शुरू होने जा रहा है।

और, वह कोयला खदानों पर हम दोनों द्वारा मिलकर लिखी गई फिल्म खदान? अब तो अनुराग कश्यप उसी से मिलती जुलती थीम पर गैंग्स ऑफ वासेपुर लेकर आ रहे हैं। इस फिल्म से कितना खतरा महसूस होता है मैक्सिमम को?
-खदान का विषय अब भी जीवित है। उस फिल्म को लेकर एक बड़े सितारे से बात चली लेकिन बात बिना किसी निष्कर्ष के बीच में ही रुक गई। फिर मैं मैक्सिमम में व्यस्त हो गया। उस विषय पर मैं जल्द ही लौटूंगा। रही बात गैंग्स ऑफ वासेपुर की, तो उस फिल्म से मेरी फिल्म को रत्ती भर भी चुनौती मिलती नहीं दिखती। हां, अगर स्पाइडरमैन की बात करें तो बतौर निर्देशक मुझे थोड़ी सी सिहरन जरूर होती है। स्पाइडरमैन ऐसी फिल्म है जिसके सामने थिएटर में आना जिगरे का काम है। रही बात गैंग्स ऑफ वासेपुर की तो उससे मैक्सिमम की क्या टक्कर?

अच्छा ये बताइए। आप दिल्ली से हैं। ये अनुराग, दिबाकर, विशाल, इम्तियाज भी सब दिल्ली के ही हैं। सबका एक अच्छा खासा गैंग भी है जो मुंबई के स्थापित प्रोडक्शन घरानों से सींग लड़ाता रहता है, क्या आप ने कभी इस गैंग में शामिल होने के बार में सोचा?
-मैंने पहले ही कहा कि ये सब करना मेरी फितरत में शामिल नहीं है। मैं चाहता हूं कि लोग मेरा काम देखें और मेरे काम को सराहें या खारिज करें। फिल्ममेकिंग के अलावा और किसी बात के लिए मेरे बारे में खबरें लिखी जाएं, इसका मतलब तो ये हुआ कि मुझे अपने हुनर पर भरोसा नहीं है। अपने हुनर को छोड़ अगर कोई कलाकार या तकनीशियन अन्य किन्हीं वजहों से खबरों में बने रहने की कोशिश में हैं तो समझ लीजिए कि वह आपको घुमा रहा है। दूसरी बात ये कि मैं सिनेमा में अभी जुम्मा जुम्मा सात साल पहले आया हूं। ये सब यहां 18-20 साल से हैं। ये लोग जो भी है, जिस भी मुकाम पर हैं, वहां इनका पहुंचना बनता है क्योंकि इस शहर ने इन सबकी काफी घिसाई की है। मेरी घिसाई तो अब भी चल रही है। देखते हैं कि जिन्ना कब प्रकट होता है?

और, मैक्सिमम के बाद?
-अक्सर लोग मुझसे कहते हैं कि मेरी फिल्मों की नायिकाएं जितनी सशक्त होती हैं, उतना विस्तार उनके किरदारों को मेरी कहानियों में मिल नहीं पाता। तो इस बार जिस कहानी पर काम चल रहा है वह पूरी तरह से नायिका प्रधान कहानी है। बहुत ही दमदार किरदार है, पर उस पर विस्तार से बात फिर कभी।

संपर्क- pankajshuklaa@gmail.com

रविवार, 17 जून 2012

कामयाब होने से ज्यादा मुश्किल बेहतर इंसान बनना- मिथुन चक्रवर्ती



फुटपाथ से उठकर सतरंगी आसमान पर छा जाने वाले मिथुन चक्रवर्ती हिंदी सिनेमा के आखिरी सुपर सितारे हैं। दो वक्त की रोटी कमाने के लिए कभी टैक्सियों पर स्टिकर चिपकाने वाले मिथुन बाद में देश में सबसे ज्यादा व्यक्तिगत आयकर चुनाने वाले रईस भी बने। अपने प्रशंसकों के बीच प्रभुजी के नाम से पूजे जाने वाले मिथुन चक्रवर्ती बता रहे हैं कामयाबी के कुछ अनोखे मंत्र।

© पंकज शुक्ल

दादा, वैसे तो आपके बारे में जितना जानने की कोशिश की जाए कम है, और आप हैं कि अपनी संघर्ष यात्रा के बारे में ज्यादा कुछ लोगों को बताते भी नहीं हैं, ऐसा क्यों?
-शायद मेरी आदत नहीं रही शुरू से अपने बारे में ज्यादा बात करने की। आप ने तो मुझे बरसों से देखा है। मुझे अपनी मार्केटिंग करने का शौक कभी नहीं रहा। मैं कर्म करने में विश्वास करता हूं। ईश्वर में आस्था रखता हूं और कोशिश में रहता हूं कि ये जीवन जिन ऋणों को चुकाने के लिए मिला है, वे सारे समय रहते पूरे कर सकूं। जीवन एक ऐसा चक्र है जिसमें उतार चढ़ाव, यश अपयश, ऊंच नीच सब लगी रहती है। इससे परेशान होने वाला ही जीवन को जी नहीं पाता। मेरा फलसफा रहा है कि दूसरों के बीच खुशियां बांटते रहो, आपके बीच खुशियां खुद चलकर आएंगी। मेरी खुशियां भी हमेशा खुशियां बांटने से ही बढ़ीं हैं।

आपने एक बार कहा था कि आप उस इंसान की आखिरी आशा हो जिसकी कोई आशा पूरी न हुई हो। आज भी आपके यहां निर्माताओं की कतार लगी रहती है, पर अब तो आप उतनी फिल्में नहीं करते?
-ये दिलचस्प है कि लोग मुझे अब भी मुख्य भूमिकाओं के लिए साइन करने आते हैं। क्षेत्रीय भाषाओं के निर्देशक अब भी मुझे बतौर हीरो रिटायर नहीं होने देना चाहते। हिंदी फिल्मों में मेरे बाद दो तीन पीढ़ियां आ चुकी हैं तो वहां मैं अब अपने हिसाब से फिल्में करता हूं। दूसरा मेरा क्या मानना है कि किसी चीज को ज्यादा घिसने से उसकी चमक चली जाती है। मैं जीवन के आखिरी दिन तक काम करना चाहता हूं, इसके लिए जरूरी है कि मैं उतना ही काम करूं जितना मेरे लिए सही है। मैंने हर तरह का समय देख लिया, अब तो बस मैं सिनेमा का होकर उसका लुत्फ लेना चाहता हूं।

फिल्म मृगया में अपनी पहली ही फिल्म के लिए सर्वश्रेष्ठ अभिनेता का पुरस्कार जीतने के बाद पहला इंटरव्यू देने से पहले आपने एक पत्रकार से मांगकर बिरयानी खाई थी, अब आप सैकड़ों लोगों का पेट खुद भरते हैं, इसे समय चक्र मानते हैं या कुछ और?
-मेरा ये स्पष्ट मानना रहा है कि कर्म और भाग्य दोनों एक दूसरे के पूरक हैं। भाग्य अक्सर आपसे वही कर्म करवाता है जिसकी नियति आपके लिए शायद पहले से तय है। लेकिन, कर्म से भाग्य भी बदले जाते हैं। पक्की लगन और अनुशासन हो तो लक्ष्य पा लेने में दिक्कत कम होती है। दूसरे मेरा ये मानना है कि समय के हिसाब से भी हमें अपने लक्ष्य तय करने चाहिए। हमारे लक्ष्य छोटे छोटे और अनवरत बनते रहने चाहिए। हमें अपनी मंजिल पहले कदम में उतनी ही बनानी चाहिए, जितनी हमारी नजरों के सामने है। पुणे फिल्म इंस्टीट्यूट में मुझे देखकर मृणाल बाबू ने मुझे मृगया दे दी थी, लेकिन जरूरी नहीं कि हर कोयले को ऐसा जौहरी जीवन में मिल ही जाए। समय बदला है, जौहरी भी अब बाजार के हिसाब से हीरे तलाशने लगे हैं तो जाहिर है ऐसे में गुदड़ी के लालों को मौका नहीं मिल पा रहा है। लेकिन, मैं आखिरी इंसान नहीं हूं जो फुटपाथ से उठकर यहां तक आया। लोगों की उम्मीदें बंधती रहेंगी और लोग कामयाबी भी पाते रहेंगे।

और, आपसे लगी ऐसी ही छोटी छोटी उम्मीदों ने ऐश्वर्या राय को अपनी पहली ही फिल्म में आपकी हीरोइन बनने से वंचित कर दिया?
-अरे शुक्लाजी, वो बहुत पुरानी कहानी हो चुकी। लेकिन, आपकी बात सही है। मोहनलाल वाला रोल लेकर मणिरत्नम पहले मेरे पास ही आए थे। पर मैं करता क्या मेरी एक दर्जन से ज्यादा फिल्में फ्लोर पर थीं और अगर मैं इस रोल के हिसाब से बाल कटा लेता तो बाकी सारे निर्माताओं की फिल्में आगे खिसक जातीं। मैं नहीं चाहता था कि मुझे कोई बड़ा मौका मिले तो मेरे सहारे अपना घर बार छोड़े बैठे फिल्म निर्माताओं को नुकसान हो। अपना भला करके दूसरों को भला करना तो बहुत आसान है। मजा तो तब है कि आपको पता है कि दूसरे के इस भले में आपका नुकसान हो रहा है, पर आप को उसमें भी आनंद आता है। जीवन में कामयाब होना ज्यादा मुश्किल नहीं है, मुश्किल है बेहतर इंसान बनना।

और, वो एक ही साल भगवान और शैतान के किरदारों के पुरस्कृत होने का किस्सा?
-अभिनेताओं को भी ये गजब की नियामत हासिल है। वो हर फिल्म में क्या क्या भेस धरकर पर लोगों के सामने आते हैं? लेकिन क्या कभी हम सोचते हैं कि ये कितनी बड़ी चीज हमें ईश्वर ने दी है। स्वामी विवेकानंद की शूटिंग चल रही थी। लंच ब्रेक था और मैं एक पेड़ के नीचे बैठकर सिगरेट पीने लगा। कुछ महिलाएं वहां थोड़ी परे खड़े होकर सहमे सहमे मुझे देख रही थीं। फिर उनमें से दो तीन हिम्मत करके मेरे पास आईं। मैं फिल्म में रामकृष्ण परमहंस का किरदार कर रहा था। महिलाएं आईं और आते ही प्रणाम किया। फिर मेरी सिगरेट की तरफ इशारा किया। बोलीं, आप भगवान हैं। इसे मत पीजिए। मैं तो जैसे बैठे बैठे ही काठ का हो गया। इसके बाद पूरी फिल्म जब भी मैं गेटअप में रहा, मैंने सिगरेट को हाथ नहीं लगाया। इस फिल्म के लिए मुझे 1995 में अभिनय का एक और राष्ट्रीय पुरस्कार मिला। उसी साल फिल्म जल्लाद के लिए मुझे सर्वश्रेष्ठ खलनायक का पुरस्कार मिला। सलाम है ऐसे दर्शकों का जिन्होंने मुझे एक ही साथ भगवान के रूप में भी प्यार दिया और मैं खलनायक बना तो उसे भी सराहा।

हिंदी सिनेमा में हर बड़े सितारे ने अपने बेटे के लिए फिल्में बनाईं, आपने नहीं। ऐसा क्यों?
-मिमोह अपनी जगह बना रहा है हिंदी सिनेमा में। उसे पता होना चाहिए कि जिंदगी में जो कुछ मिलता है, वो बड़ी मेहनत और मुश्किल से मिलता है। मिमोह को मेहनत का मतलब समझ आ रहा है। अब वह जो भी बन रहा है उसमें उसका आत्मविश्वास शामिल है। रिमोह ने निर्देशन का कोर्स किया है विदेश से। वह कैमरे के पीछे अपना हुनर दिखाना चाहता है। उसकी एक डिप्लोमा फिल्म को कनाडा फिल्म फेस्टिवल में अवार्ड भी मिल चुका है। दोनों के सपोर्ट के लिए मैं हमेशा यहां हूं, लेकिन दोनों को हिंदी सिनेमा में जो भी मुकाम पाना है, वो अपनी मेहनत से ही पाना होगा।


संपर्क - pankajshuklaa@gmail.com

रविवार, 10 जून 2012

चॉकलेटी हीरो बनना पसंद नहीं-इमरान हाशमी

एक सुपर फ्लॉप फिल्म से अपना करियर शुरू करने वाले इमरान हाशमी की गिनती इन दिनों हिंदी सिनेमा के उन चंद अभिनेताओं में होती है, फिल्म से जिनका नाम भर जुड़ा होने से टिकट खिड़की गुलजार हो जाती है। नौ साल की मेहनत के बाद इमरान हाशमी ने ये मुकाम पाया है। एक स्टार की बजाय एक अदाकार के तौर पर अपनी पहचान और मजबूत करने में लगे इमरान हाशमी से एक खास बातचीत।

© पंकज शुक्ल

तो आखिरकार आपने खुद पर लगा सीरियल किसर का धब्बा धो ही दिया। कितना मुश्किल रहा इस खांचे से खुद को बाहर निकालना?
-(हंसते हुए) हां, आप सही कह रहे हैं शायद। लेकिन, ये खांचा मैंने खुद नहीं गढ़ा अपने आसपास। शायद लिखने वालों को सहूलियत होती है किसी अदाकार को किसी खांचे में ढालकर उसकी एक खास मूरत गढ़ देने से। देखा जाए तो मेरी कोशिश शुरू से रही है कि मैं किसी खांचे में न फंसने पाऊं। इसे मेरी बदकिस्मती ही कहा जाएगा कि मुझे उन दिनों ऐसे निर्माता ही नहीं मिले, जो मुझ पर दांव लगाने का जोखिम उठा सकते। मेरी कदकाठी के हिसाब से लेखकों को किरदार नहीं समझ आए या कहें कि ऐसी कहानियां नहीं लिखी गईं, जिनमें कि लगता इमरान हाशमी फिट बैठेगा। लेकिन, अब हिंदी सिनेमा बदल रहा है। लोगों को बेहतर कहानियों में बेहतर मनोरंजन मिल रहा है। लोग ऐसी कहानियां पसंद कर रहे हैं, जिनमें कहने को कुछ है। तो जाहिर है कि मुझे भी अच्छा लग रहा है।

एक वक्त था जब इमरान हाशमी को एक खास किस्म की फिल्मों का ही हीरो समझा जाता था। पर, पहले वन्स अपॉन ए टाइम इन मुंबई और फिर द डर्टी पिक्चर की कामयाबी ने लोगों का परिचय एक नए इमरान से कराया। ये एक योजना के तहत हुआ या बस यूं ही?
-मेरे किरदार कैसे हों या मैं कौन सी फिल्में करूं, इसे लेकर मैं सजग तो रह सकता हूं लेकिन किसी योजना के तहत सिनेमा में काम करना अक्सर मुश्किल ही होता है। मेरा ये मानना है कि हिंदी सिनेमा में लोगों को एक तय लकीर पर चलना सुखद लगता है। शायद इसलिए कि इसमें जोखिम कम होता होगा। बहुत कम अभिनेता ऐसे हैं जो अपनी बनी बनाई इमेज से बाहर निकलने की कोशिश करते हैं। सबको ये लगता है कि एक बढ़िया जींस और ब्रांडेड जैकेट पहनकर अगर परदे पर खूबसूरत दिखने से ही गाड़ी चल रही है तो फिर अपने थोबड़े के साथ एक्सपेरीमेंट क्यूं करना? पर मैं आरामतलबी से अदाकारी करने का कायल शुरू से नहीं रहा। मुझे चॉकलेटी हीरो बनना पसंद नहीं। मैं अपने किरदारों से लोगों के बीच पहचान बनाने में यकीन रखता रहा हूं। जन्न्त 2 ने भी इस बात को पुख्ता किया और अब शंघाई में तो खैर जैसा मैं दिख रहा हूं, वो आप देख ही रहे हैं। पेट निकला हुआ है। दांत पान मसाले से रंगे हुए हैं। लेकिन, किरदार की यही जरूरत
है।

यानी कि मौका मिले तो इमरान हाशमी को परदे पर बदसूरत दिखने में भी परहेज नहीं होगा?
-कह सकते हैं। लेकिन बदसूरत शब्द का इस्तेमाल क्यूं करें? हमारे आपके बीच जैसे लोग होते हैं, वे सब के सब फिल्मों में दिखने वाले सितारों जैसे तो नहीं होते। कोई कलाकार अगर फिल्म में भी सुपरस्टार दिखता रहे तो फिर शायद निजी जिंदगी में सुपरस्टार बने रहने के उसके दिन पूरे होने लगते हैं। अगर आप फिल्म मदर इंडिया को याद करें तो उसमें सुनील दत्त बदसूरत नहीं दिखते। वह एक ऐसे किरदार में दिखते हैं जो जमीन से जुड़ा है। तो इसके लिए जाहिर है उन्हें वैसा ही रंग ढंग और चाल चलन अपनाना होगा जो उनके किरदार पर अच्छा लगे। एक और फिल्म है अशोक कुमार की जिसमें उन्होंने अपनी इमेज को तोड़ने के लिए चेहर पर कोयला मला था। तो किरदारों के हिसाब से खुद को पेश करने के लिए एक कलाकार को हमेशा अपने स्टारडम के आभामंडल को तोड़ने के लिए तैयार रहना चाहिए, और मैं यही कर रहा हूं। मेरा अपना मानना तो यही है कि फिल्म जगत में स्टार बनना आसान है, पर कलाकार बनना उतना ही मुश्किल।

शंघाई की बात करने से पहले जैसा कि आपने जन्नत 2 का जिक्र किया तो ये बताइए कि इस फिल्म का नायक सोनू जिस स्टाइल से अपना परिचय परदे पर कराता है, क्या वो हिंदी सिनेमा के नायक के पतनकाल की एक और पायदान नहीं बन जाता?
-शायद ठीक कह रहे हैं आप। फिल्म की रिलीज के बाद मेरी फिल्म के कुछ वितरकों से बात हुई। उन्होंने बताया कि अगर फिल्म में इतनी गालियां न होतीं तो फिल्म कम से कम 10 करोड़ रुपये का कारोबार और करती। क्या है, फिल्म में गालियां हों तो परिवार ही नहीं बल्कि कई बार जोड़े भी फिल्म देखने से कतरा जाते हैं। लोग अगल बगल बैठकर एक दूसरे से नजरें चुराते नहीं दिखना चाहते। जन्नत 2 का ये सबक है मेरे लिए और मैंने इसे दिल से सीखा भी है। रही बात शांघाई की तो ये फिल्म नेताओं के लुभावने वादों की असलियत को लोगों के सामने पेश करने की एक कोशिश है। जनता को बेवकूफ बनाकर सियासी लोग कैसे अपना मतलब सीधा करते हैं, इस पर फिल्म के निर्देशक दिबाकर बनर्जी ने बहुत ही सामयिक तरीके से कैमरा घुमाया है।

आपकी मौजूदा फिल्मों की लिस्ट और आने वाली फिल्मों की लिस्ट देखी जाए तो कहा जा सकता है कि आपने अपनी पीढ़ी के चोटी के तीन अभिनेताओं के बीच जगह बना ली है। अब आगे क्या इरादा है?
-मेरी हाल की फिल्मों की कामयाबी का श्रेय अगर आप सिर्फ मुझे देंगे तो ये उन बाकी लोगों के साथ काफी नाइंसाफी होगी जिन्होंने इन फिल्मों को कामयाब बनाने में पूरा योगदान दिया। फिल्म एक सामूहिक प्रयास होता है और इसमें किसी के काम को अलग करके नहीं देखा जा सकता। मेरी अगली फिल्मों चाहे वो घनचक्कर हो, राज 3 हो या फिर एक थी डायन हो, सबकी खासियत यही है कि इन फिल्मों की टीम बहुत अच्छी बन सकी है। बाकी अगर लोगों को लगता है कि मेरी मेहनत का रंग दिख रहा है तो इसके लिए मैं सबका शुक्रिया अदा करना चाहूंगा।

शुक्रवार, 8 जून 2012

आलोचनाएं मजबूत बनाती हैं: विधु विनोद चोपड़ा

इन दिनों विधु विनोद चोपड़ा फुल टाइम प्रोड्यूसर के रोल में हैं। विधु को जो करीब से जानते हैं, वे ये भी जानते हैं कि एक पल हंसता खिलखिलाता चेहरा कैसे अगले ही पल एकदम से एक पत्रकार के लिए दुस्वप्न साबित हो सकता है। किसी फिल्म समीक्षक को दौड़ाकर पीटने वाले वह अकेले फिल्म निर्माता है, लेकिन साथ ही किसी फिल्म समीक्षक से शादी करने वाले भी वह अकेले ही हैं। सितारों से ज्यादा कलाकारों और टोटकों से ज्यादा फिल्म की कहानी में यकीन रखने वाले विधु विनोद चोपड़ा से एक खास बातचीत।

© पंकज शुक्ल


कुछ ज्यादा ही वक्त नहीं लग गया आपकी नई फिल्म फरारी की सवारी की रिलीज में?
-हां, कह सकते हैं। लेकिन, अगर एक दमदार कथानक वाली और किसी ऐसे विषय वाली फिल्म पर काम करना हो, जो आपको रोज कुछ न कुछ नया सोचने को मजबूर करती हो, तो इससे ज्यादा वक्त भी अगर किसी फिल्म पर लगता हो तो मुझे दिक्कत नहीं है। फरारी की सवारी का आइडिया पहली पहली बार मुझे इसके निर्देशक राजेश मापुस्कर ने तब सुनाया था, जब हम पहली मुन्नााभाई फिल्म पर काम शुरू करने जा रहे थे। फिर, हम लोग दूसरी फिल्मों में व्यस्त रहे और इस विचार पर काम शुरू नहीं हो सका। कोई चार साल से ये फिल्म लिखी जा रही है और हम इसे लेकर फ्लोर पर तभी गए, जब हम सब पूरी तरह मुतमईन थे कि हां अब ये फिल्म शुरू की जा सकती है।

इस हम सब में मुन्नाभाई सीरीज के निर्देशक राजकुमार हीरानी भी शामिल हैं? बतौर संवाद लेखक उनका कितना योगदान है इस फिल्म में?
-राज कुमार हीरानी (एक एक शब्द पर जोर देकर बोलते हैं)। हां, भाई अब राजू भी राज कुमार हीरानी बन गया है। सेलेब्रिटी है। तो उसके साथ होने से अब हमें कुछ ना कुछ तो फायदा होगा ही। लेकिन, अगर दूसरे लिहाज से भी देखा जाए तो राजू हमारी टीम का अब अहम हिस्सा है। राजेश मापुस्कर और राजकुमार हीरानी की दोस्ती तब की है जब दोनों एक साथ विज्ञापन फिल्में बनाया करते थे। राजेश तब राजू का प्रोडक्शन का काम देखा करता था। शायद मुन्नाभाई पर काम करते वक्त किसी दिन नशे में राजू ने राजेश को उसके निर्देशक बनने पर फिल्म के संवाद लिखने का वादा कर दिया था। वही वादा राजू निभा रहा है। और, हां मुझे इस बात पर दिली खुशी होती थी जब राजू किसी सीन के डॉयलॉग लिखकर लाता था और राजेश उसे खारिज कर देता था। इस बंदे ने मेरे साथ भी मुन्नाभाई सीरीज के दौरान ऐसा ही सुलूक किया है, अब आया है ऊंट पहाड़ के नीचे।

राजेश मापुस्कर को फिल्म के निर्देशन का जिम्मा सौंपने को आप एक जोखिम भरा फैसला मानते हैं कि नहीं?
जिंदगी में बिना जोखिम के मैंने कम ही काम किया है। मेरे लिए किसी भी फिल्म की कहानी महत्वपूर्ण है। राजेश का ही ये विचार था। मैंने फिर राजेश के साथ मिलकर इस आइडिया को डेवलप किया और जब पूरी फिल्म लिखकर तैयार हुई तो मुझे लगा कि राजेश ही इस फिल्म को बेहतर तरीके से परदे पर ला सकता है। राजेश ने राजू हीरानी के साथ रहकर फिल्म निर्देशक की बारीकियां सीखी हैं और इन फिल्मों के दौरान भी उसने कई बार रोचक और सोचने पर मजबूर कर देने वाले सुझाव भी दिए। मेरा मानना है कि एक फिल्म की कहानी ही उसका सबसे बड़ा यूएसपी होनी चाहिए। निर्देशक अहम होता है, लेकिन मेरे लिए जब सुपरस्टार मायने नहीं रखते तो फिर निर्देशक तो बाद की बात है।

किसी फिल्म को बनाने के लिए आप उसमें सबसे पहले क्या जरूरी तत्व तलाशते हैं?

मेकिंग शुरू की तो बस दो ही चीजें मेरे पास हुआ करती थीं, एक मैं और दूसरा मेरा सिनेमा। एकाकीपन में आप जो सोचते हैं, उस पर समाज का असर कई बार कम और आपकी अपनी याददाश्त या दूसरी बातों का असर ज्यादा होता है। अब आप मेरी फिल्म खामोश को लीजिए। आज की तारीख में अगर मुझे वो फिल्म दोबारा बनानी हो तो उसके लिए कास्टिंग करते वक्त मेरा दिमाग दूसरी तरह काम करेगा। अब मैं अमोल पालेकर वाले किरदार में आमिर खान को लेना चाहूंगा।

आलोचनाओं से आपको बैर क्यों है?
किसने कहा? दरअसल मेरा व्यवहार कई बार ऐसा हो जाता है कि लोग मेरे बारे में गलत राय बना लेते हैं। मैं वैसा हूं नहीं जैसी प्रतिक्रियाएं कई बार मुझसे हो जाती हैं। मैं थोड़ा उद्विग्न रहने वाला या कह लें कि आवेग के साथ काम कर जाने वाला इंसान हूं। मुझे लगता है कि जो लोग ज्यादा सोचते हैं, उनके विचारों की गति टूटने से वे उत्तेजित हो जाते हैं। आलोचनाओं को मैं तो बहुत ही सकारात्मक तरीक से लेता हूं। सच पूछिए तो कम ही लोग होंगे इंडस्ट्री में जो रिलीज से पहले अपनी फिल्म दर्जनो लोगों को दिखाते हैं। मैं तो जानबूझकर ऐसा करता हूं। मैं ज्यादा से ज्यादा लोगों को अपनी फिल्म के बारे में बातें करते सुनना और देखना पसंद करता हूं। मैं चाहता हूं कि लोग मुझे बताएं कि मैंने गलती कहां की? मेरी निजी राय है कि आप आलोचनाओं से मजबूत होते हैं। आपके लिखने, कहने के ढंग में आलोचनाओं से ही तब्दीली आती है।

संपर्क - pankajshuklaa@gmail.com

गुरुवार, 7 जून 2012

बदनाम बॉलीवुड उर्फ लव, सेक्स और धोखा (2)

हिंदी सिनेमा में काम करने के लिए मुंबई में संघर्ष करने वाली तमाम लड़कियों का खर्च कैसे चलता है? और किन मजबूरियों में इन लड़कियों के पांव दलदल में जा धंसते हैं, इसकी तफ्तीश की पहली कड़ी को लेकर मिली प्रतिक्रियाएं बताती हैं कि वाकई चांद जब नजदीक होता है, तो उसके दाग डरावने लगने लगते हैं। कुछ लोगों ने ये भी कहा कि ये गंदगी सिर्फ सिनेमा में ही नहीं बल्कि दूसरे क्षेत्रों में भी है तो फिर सिनेमा पर ही अंगुली क्यों? इस कड़ी का मकसद किसी का दिल दुखाना या किसी को हतोत्साहित करना नहीं बल्कि एक ऐसी सच्चाई पर से परदा हटाने की कोशिश है, जिसके बारे में तमाम अभिभावकों को भी पता नहीं होता और न ही उन हजारों लड़कियों को जिनका मुंबई आने का बस एक ही सपना होता है, मैं माधुरी दीक्षित बनना चाहती हूं। अब आगे..

© पंकज शुक्ल


... धुएं की महक से पता चला कि सिगरेट में सिर्फ तंबाकू ही नहीं था। निर्माता ने अपने सहायक से मोहतरमा को बाहर छोड़ आने के लिए कहा तो वो रो पड़ीं। आई नीड दिस रोल..आई कैन मैक यू हैपी इन व्हिचएवर वे यू लाइक..(मुझे ये रोल चाहिए..आप जिस भी तरह चाहें मैं आपको खुश कर सकती हूं..)। निर्माता के इशारे पर सहायक ने उन्हें बाहर चलने को कहा। लड़की इस बार हिंदी बोलने लगी, सर, प्लीज मुझे पांच हजार रुपये दे दीजिए। मैं अगले महीने वापस कर दूंगी। निर्माता खुद इसके बाद उसे बाहर करके आया। लौटकर इस निर्माता मित्र ने ये भी बताया कि ऑडीशन हॉल के भीतर भीख मांग रही पर अच्छे घर की दिख रही ये लड़की हॉन्डा सिटी कार से आई थी और वो भी अपने ड्राइवर के साथ। कोई भी ये सोचने पर मजबूर हो सकता है कि आखिर चालक के साथ कार से आने वाली कोई लड़की भला निर्माता से पैसे मांगने के लिए क्यूं रोएगी?

सवाल यही मेरे मन में भी उठा। मैंने सहायक से थोड़ी बहुत पूछताछ की तो पता चला कि हॉल जिस कैंपस में है, उसके गेट पर हर अंदर आने वाले का नाम और उसकी गाड़ी का नंबर दर्ज होता है। लड़की का नाम पता करके मैंने गाड़ी का नंबर पता किया और अगले दिन नजदीकी आरटीओ ऑफिस जाकर गाड़ी के मालिक का नाम पता किया। गाड़ी के मालिक का जो नाम था, उसने मुझे और हैरानी में डाल दिया। ये नाम हिंदी फिल्मों के एक बड़े निर्माता के मैनेजर का था।

और, पता चला कि ये मैनेजर अक्सर जुहू सर्किल से वर्सोवा की तरफ जाने वाली सड़क पर बने एक क्लब में मिलता है। शाम कोई सात बजे का वक्त। क्लब में रंगत बढ़ रही है। साथ आए निर्माता ने कोहनी के इशारे से सामने देखने का इशारा किया। निर्देशक राम गोपाल वर्मा की फिल्म में काम कर चुकी एक अभिनेत्री एक कुर्सी पर बैठ रही है। उसके कुर्सी पर बैठते ही उसके दाएं बाएं पड़ी कुर्सियों पर दो चार लोग और बैठ गए। दो सियासी पार्टियों के नेता हैं। एक सादा वर्दी पुलिस अफसर है और एक महिला है। महिला की शक्ल जानी पहचानी सी है और उसे अक्सर मंत्रालय में टहलते देखा जाता है। हम लोग चुपचाप माजरा देख रहे हैं। थोड़ी देर बाद सब वहां से निकल गए। सिर्फ पुलिस अफसर वहां बैठा है। वह अभिनेत्री को कुछ समझा रहा है। पर अभिनेत्री उसकी तरफ ध्यान नहीं दे रही। पुलिस अफसर गुस्से में कुछ बोलता हुआ निकल जाता है। अब निर्माता मुझे लेकर आगे बढ़ता है। अभिनेत्री निर्माता को पहचानते ही कुर्सी से खड़ी होती है। नमस्ते करती है। फिर हमसे हाथ भी मिलाती है। ये कौन था?, निर्माता ने पूछा। अभिनेत्री का जवाब, दल्ला है। मैं इसके बॉस को सीधे जानती हूं। सबको लगता है हम लोग यहां झक मारने आए हैं। कोई फंक्शन में नाचने का दबाव डालता है तो कोई साहब के बच्चे की बर्थडे पार्टी में पहुंचने को बोलता है। क्या करें? ये बेगारी तो करनी ही होती है। लेकिन, ये सब फिर भी ठीक है। कुछ तो इसके आगे की डिमांड लेकर भी आ जाते हैं। यहीं आगे वो मैनेजर भी दिखा, जिसके नाम से रजिस्टर्ड गाड़ी पर वो मोहतरमा ऑडीशन देने आई थीं। मामला और खुलकर पता करने के लिए हमें अब आराधना से मिलना था।

लखनऊ के आशियाना से आकर यहां वर्सोवा में रहने वाली आराधना जैन इस बारे में मिलने पर बताती हैं, यहां कलाकार कितना भी बड़ा हो। अगर औरत है तो उसकी इज्जत बचना उतना ही मुश्किल है जितना दूध में नींबू पड़ने के बाद उसका पनीर बनने से बचना। और, अब तो युवकों का भी शोषण खूब होने लगा है। आराधना कई म्यूजिक वीडियो में काम कर चुकी हैं। हिंदी सिनेमा में काम करने के लिए वह पिछले चार पांच साल से संघर्ष कर रही हैं। वह कहती हैं, यहां सिनेमा बनाने वाले कम हैं। मनोरंजन करने वाले ज्यादा। जो लोग बरसों से सिनेमा कर रहे हैं, उनके यहां फिर भी एक सिस्टम है और काम मिलने के बाद ही वहां आगे की मांग की जाती है। लेकिन, नव कुबेरों ने इंडस्ट्री का नाम ज्यादा खराब किया है। ये वो लोग हैं जिन्होंने पॉलिटिक्स या बिल्डिंग के धंधे में पैसा कमाया है। ये लोग फिल्म बनाने नहीं अय्याशी करने आते हैं। और, इन लोगों को पहचानने में माहिर होती हैं वो लड़कियां, जिनका दिन रात का पेशा ही यही है। ये लड़कियां महंगे फ्लैटों में रहती हैं, महंगी गाड़ियों में घूमती हैं। चाय तक पांचसितारा होटलों में पीती हैं और सजने संवरने का जो इनका खर्चा होता है सो अलग। इन सब चीजों पर जो महीने का खर्च आता है, उसको मुंबइया भाषा में मैंटेनेंस कहते हैं। बांद्रा, जुहू, लोखंडवाला, वर्सोवा, अंधेरी, मलाड तक हर दूसरी ऊंची इमारत में कम से एक एक लड़की आपको ऐसी जरूर मिल जाएगी, जिसका मैटेनेंस कोई न कोई बिल्डर या मोटा आसामी दे रहा होता है। ये लोग वीकएंड पर मुंबई आते हैं। दो दिन इनके साथ बिताते हैं। बाकी के पांच दिन ये खाली घूमती हैं। मटरगश्ती करते हुए। और, इनकी लाइफ स्टाइल देख बाकी बेवकूफ लड़कियां ये समझती हैं कि फिल्मों में पैसा ही पैसा है। हां, यहां पैसा है लेकिन फिर इज्जत नहीं है।

मुंबई के फिल्म जगत को पिछले चार दशकों से करीब से देखते आ रहे ट्रेड मैगजीन सुपर सिनेमा के संपादक विकास मोहन मनोरंजन जगत के मौजूदा हालात को लेकर काफी निराश दिखते हैं। वह कहते हैं, जैसे जैसे हिंदी फिल्म जगत में पैसा बढ़ रहा है। यहां अपराध बढ़ रहे हैं। कॉरपोरेट घरानों के फिल्म और टेलीविजन सीरियल निर्माण में कूदने के बाद से यहां काम बढ़ा है। रोज नए नए चैनल खुल रहे हैं। कलाकारों को जी खोलकर पैसे मिल रहे हैं। लेकिन, यहां काम की तलाश में आने वाले जो बात नहीं समझते वो ये कि यहां कामयाबी का प्रतिशत इंजीनियर और डॉक्टर बनने से भी ज्यादा कम है। अगर आईआईटी की एक सीट के लिए कोई 60 से 65 दावेदार होते हैं, तो यहां एक किरदार के लिए कम से कम डेढ़ सौ संघर्षशील कलाकारों के बीच मुकाबला होता है और वो भी मुख्य किरदार को छोड़कर। लाखों में कोई एक हीरो बन पाता है और उसके चक्कर में बाकी 99,999 लोग कई कई साल परेशान रहते हैं। लोगों के सपने टूटते रहते हैं, लेकिन कोई ये शहर छोड़कर जाना नहीं चाहता। शायद, वे खाली लौटकर घर वालों का सामना करने की सूरत में नहीं होते। तो बस लाइफ स्टाइल बनाए रखने और शहर में बने रहने के लिए कुछ बचता है तो वो है लड़कियों के लिए देह का सौदा और लड़कों के लिए ड्रग्स। तमाम डायरेक्टरों के पीछे लड़कों की फौज लगी रहती है, काम पाने के लिए। अपने घरों में एक गिलास पानी भी खुद उठाकर नहीं पीने वाले बच्चे इन डायरेक्टरों के दफ्तरों में जूठे कप उठाकर यहां से वहां रखते रहते हैं। सेट्स पर पोछा मारते दिखते हैं और कुछ तो इससे भी नीचे के काम करने लग जाते हैं।

मनोरंजन जगत में नाम और पैसा कमाने की चाहत लेकर आने वालों के लिए ये हकीकत आंखें खोल देने वाली है। यहां शोहरत सिर्फ चंद लोगों को ही मिल पाती है। लेकिन, इस चकाचौंध की असलियत समझ में आने तक काफी देर हो चुकी होती है। यहां हर शख्स दूसरे को उल्लू बनाने में लगा रहता है। सबके पास सुनाने को ये लंबे लंबे किस्से हैं कि एक बार आदमी झालर में फंसा तो बस गिरता ही चला जाता है। इलाहाबाद की मीना थापा की भी हत्या ना हुई होती अगर वो अपने दोस्तों को अपनी रईसी के झूठे किस्से ना सुनाती रहतीं। मीना थापा की तरह ही यहां हर संघर्षशील कलाकार खुद को गरीब मानने से डरता है। लड़की अगर खूबसूरत है और लंबी है तो उसका पहला परिचय यही होता है कि वो साल भर पहले तक फलां एयरलाइंस में एयर होस्टेस थी, लेकिन नौकरी में मन नहीं लगा तो अभिनेत्री बनने चली आई। उसका एक काल्पनिक भाई होता है जो सिंगापुर या दुबई जैसे किसी शहर में किसी बड़ी कंपनी में बड़ी पोस्ट पर होता है और हर महीने उसके लिए मैंटेनेस का खर्च भेजता है। वह कम से कम दो तीन ऐसे कमर्शियल में काम कर चुकी होती है, जिन्हें कनाडा या साउथ अफ्रीका की किसी कंपनी ने बनाया होता है और जिसकी कॉपी उसके पास दिखाने को नहीं होती। लड़की अगर एयर होस्टेस वाली कहानी बनाने लायक लंबी नहीं है तो वो अपनी किसी मौसी या बुआ के पास रह रही होती है (ये बुआ या मौसी दरअसल उस घर की मालकिन होती है, जहां ये लड़कियां पांच हजार रुपये प्रतिमाह से लेकर 15 हजार रुपये प्रतिमाह के खर्च पर बतौर पेइंग गेस्ट रह रही होती हैं)। इनके काल्पनिक पिता दिल्ली, अहमदाबाद, जयपुर या रांची में के लखपति होते हैं और जो अपनी बेटी के हीरोइन बनने के फैसले के हक में होते हैं।

लेकिन, जब सुनिधि चौहान जैसी कामयाब कलाकार के पैर इन राहों पर फिसल जाते हैं तो भला उनकी क्या बिसात, जिन्हें यहां जुम्मा जुम्मा हुए ही चार दिन हैं। लखनऊ की पूनम जाटव का किस्सा भी तो ज्यादा पुराना नहीं है। पूनम की रीएल्टी शोज के निर्णायक इस्माइल दरबार से मित्रता हुई, मित्रता अंतरंगता में बदली और मामला इतना आगे निकल गया कि समय रहते उनके घरवाले उन्हें अस्पताल न पहुंचाते तो पेट में पहुंच चुकी दर्जन भर से ज्यादा नींद की गोलियां उनकी मंजिल दूसरे जहान में लिख चुकी होतीं। पूनम ने ये कदम अपने घर में उठाया और घरवालों ने उसे बचा लिया। लेकिन जीटीवी के ही रीएल्टी शो सिनेस्टार्स की खोज की फाइनलिस्ट दीपिका तिवारी ने ऐसा ही एक कदम घरवालों से दूर अपने किराए के कमरे में नोएडा में उठाया और घरवालों के हाथ केवल उसकी देह ही आ सकी।

मायानगरी के सपनों के इस तिलिस्म ने ही शहर में अपराध का एक नया सिलसिला खोल दिया है। मशहूर लेखिका और पेज थ्री पार्टियों का नियमित चेहरा रहने वाली शोभा डे कहती हैं, एक समय था जब हम दिल्ली के अपराधों की खबरें सुनते थे और सोचते थे कि हम कितने सुरक्षित शहर में रहते हैं। लेकिन, अब? अब तो रोज ही यहां किसी न किसी की हत्या की खबरें आती रहती हैं। शहर में मालदार बनने का सपना लेकर आने वालों की संख्या पहले भी कम नहीं थी। लेकिन, इसके लिए गुनाह करने वाले पहले इतने कभी नहीं रहे। शोभा डे की बात में बात मिलाते हैं अभिनेता निर्देशक अरबाज खान। वह कहते हैं, मुंबई में अपराध बढ़ने के पीछे यहां लोगों की बढ़ती तादाद भी है। लेकिन, फिल्म जगत से जुड़े लोग इस तरह के गुनाहों से दूर ही रहे हैं। ये पहली बार देखने में आ रहा है कि फिल्मों में काम करने आए लोग इतने सोचे समझे तरीके से साजिशें रचकर गुनाह कर रहे हैं। इससे इंडस्ट्री का नाम खराब हो रहा है। निर्देशक अनुराग कश्यप की फिल्म गैंग्स ऑफ वासेपुर लिखने वाले सचिन लाडिया ये सब देखकर ना सिर्फ हैरान है बल्कि ग्लैमर के आकर्षण से धीरे धीरे उनका मन भी ऊबने लगा है। वह कहते हैं, ये दुनिया ही अलग है। यहां बाहर से कुछ और दिखता है और भीतर का सच उसके बिल्कुल उलट है। मंचों और फिल्म समारोहों में बड़ी बड़ी बातें करने वाले निजी जिंदगी में इतने घटिया इंसान निकलते हैं कि पूछो मत। यहां जो दुनिया की नजरों में जितना महान है, अपने साथ काम करने वालों के दिलों में वो उतना ही गिरा हुआ है। यहां हर वक्त जिंदा रहने का संघर्ष जारी है। और, जाहिर है अगर संघर्ष जिंदा रहने का है तो फिर जिएगा वही जिसके पास पैसा होगा। भले इसके लिए किसी को कुछ भी क्यूं न करना पड़े।

संपर्क - pankajshuklaa@gmail.com

बुधवार, 6 जून 2012

बदनाम बॉलीवुड उर्फ लव, सेक्स और धोखा (1)

एक मशहूर गजल का शैर है, हर हंसी मंजर से यारों फासले कायम रखो, चांद जो धरती पे उतरा देखकर डर जाओगे। कुछ कुछ ऐसा ही हाल मुंबई मनोरंजन जगत का है। इसका आकर्षण दूर से जितना नजर आता है, इसके भीतर आकर इसके दलदल से उतनी ही कोफ्त होती है। फिल्ममेकर बनने की वैसे तो पहली शर्त यहां अपना ईमान खूंटी पर टांग देने की ही है, पर क्या करें पत्रकारिता के उस कीड़े का जिसके काटे का कहते हैं कोई इलाज नहीं। पत्रकार बनकर ये रपट लिखने से पहले मैंने फिल्म जगत का सक्रिय क्षेत्र माने जाने वाले मुंबई के चंद खास इलाकों का दौरा किया तो जो तस्वीर सामने आई वो न सिर्फ चौंका देने वाली रही बल्कि सच का सामना करते वक्त कई बार डर भी लगा।

© पंकज शुक्ल

दक्षिण भारत की एक फिल्म में लीड हीरोइन, वहां के मशहूर अभिनेता आर माधवन के साथ विज्ञापन फिल्म और माउथ फ्रेशनर के एक मशहूर ब्रांड के विज्ञापन में काम कर चुकी अभिनेत्री अनुष्का को हर साल गर्मियों में एक ऐसी मुसीबत से दो चार होना होता है, जो मुंबई फिल्म, टीवी और कमर्शियल इंडस्ट्री में काम करने की चाहत लेकर देश भर से आने वाले युवक युवतियों के लिए किसी सालाना मिशन से कम नहीं। ये मिशन है यहां किराए पर एक घर तलाशने का। मुंबई फिल्म इंडस्ट्री मुख्यतया बांद्रा से लेकर अंधेरी के बीच बसती है और फिल्मों और टेलीविजन से जुड़े ज्यादातर प्रोडक्शन घरानों के दफ्तर भी इसी इलाके में हैं। जाहिर है फिल्म और टीवी में काम करने का इच्छुक हर युवक व युवती इसी इलाके में इसीलिए रहना चाहता है ताकि मीटिंग या ऑडीशन का बुलावा आने पर वो झट से मौके पर पहुंच सके। लेकिन, पिछले कुछ साल से इस इलाके में हालात बदल गए हैं। अब यहां किसी अकेली युवती या युवक के लिए घर ढूंढना किसी मिशन इंपॉसिबल से कम नहीं है। वजह? अभिनेत्री मारिया सुसईराज के घर में एक प्रोडक्शन कंपनी के एक्जीक्यूटिव नीरज ग्रोवर की हत्या। अपने अभिनेता बेटे अनुज टिक्कू के घर में दिल्ली के कारोबारी अरुण टिक्कू की हत्या। अभिनेत्री मीनाक्षी थापा की अपहरण के बाद हत्या। अभिनेत्री लैला का रहस्मयी तरीके से परिवार समेत गायब हो जाना। और, वर्सोवा इलाके में कई संघर्षशील लड़कियों का वेश्यावृत्ति के धंधे में लिप्त होने के कारण पकड़े जाना।

ये हैं वो चंद हादसे और गुनाह जो पुलिस की निगाह में आने की वजह से आम लोगों की जानकारी तक पहुंच सके। इस कवर स्टोरी के लिए और जानकारियां जुटाने के लिए बांद्रा से लेकर अंधेरी तक के इलाकों में भटकने के दौरान कुछ और चौंकाने वाली बातें भी सामने आईं। अभिनेता आर माधवन अंधेरी के ओशिवरा स्थित जिस इमारत में कुछ साल पहले तक रहा करते थे, उस इमारत में कम से दो फ्लैट ऐसे हैं, जिनमें कुछ महीने पहले तक दिन दहाड़े चकलाघर चलता रहा है। इसी इमारत में एक खूबसूरत मॉडल रहती है, जिसके पास महीनों महीने कोई काम नहीं होता लेकिन जिसके रहन सहन को देखकर इमारत में रहने वाले भौंचक्के रहते हैं। थोड़ा और आगे चलने पर वो इमारत आती है, जिसमें कोएना मित्रा रहती हैं। कोएना मित्रा को झारखंड की ब्रांड अंबेसडर बनवाने की अंतर्कथा में ना भी जाएं तो इसी इमारत के करीब रहती हैं वो मोहतरमा जिनकी फिल्म जगत में बोहनी अक्षय कुमार की एक फिल्म से हुई। इनसे सप्ताहांत में मिलना हो तो कहते हैं दो महीने पहले बुकिंग करानी होती है। थोड़ा आगे ओशिवारा का नाला पार करते ही बाईं तरफ का रास्ता एक ऐसी बस्ती की तरफ जाता है, जहां फिल्म और टीवी में काम करने के लिए संघर्षरत निम्नमध्यमवर्गीय युवक युवतियां रहते हैं। यहीं पर अड्डा है कुछ ऐसे कोऑर्डिनेटर्स का जो लड़कियों को निर्माता निर्देशकों से मिलवाने का ठेका लेते हैं। इसके बदले में फीस कभी नकद के तौर पर तो कभी देह के तौर पर वसूली जाती है। अपना घर बार छोड़ अभिनेत्री बनने की जिद पर मुंबई चली आईं लड़कियों के सामने इसके सामने दूसरा चारा होता भी नहीं है। जो मजबूर हैं वो इसमें भी अपने लिए जीने का जरिया ढूंढ लेती हैं और जो शातिर हैं वो बन जाती हैं सिमरन सूद। सिमरन सूद के अपराधी बनने की कहानी किसी फिल्म की कहानी से कम नहीं है।

ओशिवारा का नाला पार करते ही बाईं तरफ का रास्ता एक ऐसी बस्ती की तरफ जाता है, जहां फिल्म और टीवी में काम करने के लिए संघर्षरत निम्नमध्यमवर्गीय युवक युवतियां रहते हैं। यहीं पर अड्डा है कुछ ऐसे कोऑर्डिनेटर्स का जो लड़कियों को निर्माता निर्देशकों से मिलवाने का ठेका लेते हैं। इसके बदले में फीस कभी नकद के तौर पर तो कभी देह के तौर पर वसूली जाती है। अपना घर बार छोड़ अभिनेत्री बनने की जिद पर मुंबई चली आईं लड़कियों के सामने इसके सामने दूसरा चारा होता भी नहीं है।

सिमरन सूद को मुंबई पुलिस ने अरुण टिक्कू की हत्या के आरोप में गिरफ्तार विजय पलांडे से रिश्तों के चलते पूछताछ के लिए बुलाया था। लेकिन, सिमरन सूद के गिरफ्त में आने के बाद जो खुलासे होने शुरू हुए उनसे एक के बाद एक कई गुनाहों की कड़ियां खुलती चली गईं। सिमरन सूद तो वो मछली है जो पकड़ में आई है लेकिन मनोरंजन जगत के तालाब को गंदा करने वाली ऐसी तमाम मछलियां मायानगरी के समंदर में बेखौफ तैर रही हैं। ये लड़कियां अपराध के दलदल में क्यूं उतरती है? इनका शोषण होता है या फिर मौज मस्ती करते करते कब ये इस कीचड़ के दाग अपने दामन पर लगा लेती हैं? इसे समझने के लिए हमने एक फिल्म निर्माता मित्र की मदद ली। फिल्म निर्माता ने हमें कुछ ऐसी लड़कियों से मुलाकात कराने का वायदा किया, जो फिल्मों में काम पाने के लिए कुछ भी कर गुजरने को तैयार रहती हैं। इस निर्माता ने अपने मैनेजर से अपनी एक अनाम फिल्म के ऑडीशन रखने को कहा। मैनेजर ने ऑडीशन कोऑर्डिनेटर को इसकी इत्तला दी। और तय समय और दिन पर हम लोग ओशिवारा के एक ऑडीशन हाल में सुबह सुबह जा बैठे। ऑडीशन सुबह 10 बजे से 2 बजे तक होने थे और इसके लिए लड़कियों को 10-10 मिनट के अंतराल पर बुलाया गया। लेकिन, 10 बजने से पहले ही हॉल के सामने कोई दो दर्जन लड़कियां पहुंच चुकी थीं। कुछ तो अपनी खुद की गाड़ियों से आई थीं। निर्माता ने अपने एक सहायक को हैंडी कैम देकर तैयार कर रखा था। ऑडीशन के लिए पहुंचने वाली हर लड़की को चार पांच लाइनों का एक संवाद पहले से दिया जा चुका था।

शुरू की दो तीन लड़कियां तो आकर अपना नाम, मोबाइल नंबर बोलने के बाद दिए गए संवाद पर अदायगी करके चलती बनीं। इनमें से भी दो ने जाते जाते निर्माता से गले मिलने का उपक्रम किया और मिलने के लिए किसी भी वक्त बुला लेने की इत्तला भी दी। लेकिन चौथे नंबर पर आई लड़की की चाल में लड़खड़ाहट थी। उसने जैसे तैसे अपना नाम और मोबाइल नंबर बोला। संवाद के लिए इशारा मिलते मिलते वो पास में पड़ी कुर्सी पर ढेर हो गई। मे आई स्मोक? पूछने के बाद जवाब मिलने से पहले ही वो अपनी पर्स से सिगरेट निकालकर सुलगा चुकी थी। धुएं की महक से पता चला कि सिगरेट में सिर्फ तंबाकू ही नहीं था। निर्माता ने अपने सहायक से मोहतरमा को बाहर छोड़ आने के लिए कहा तो वो रो पड़ीं। आई नीड दिस रोल..आई कैन मैक यू हैपी इन व्हिजएवर वे यू लाइक..(मुझे ये रोल चाहिए..मैं आप जिस भी तरह चाहें मैं आपको खुश कर सकती हूं..)। निर्माता के इशारे पर सहायक ने उन्हें बाहर चलने को कहा। लड़की इस बार हिंदी बोलने लगी, सर, प्लीज मुझे पांच हजार रुपये दे दीजिए। मैं अगले महीने वापस कर दूंगी। निर्माता खुद इसके बाद उसे बाहर करके आया। लौटकर इस निर्माता मित्र ने ये भी बताया कि ऑडीशन हॉल के भीतर भीख मांग रही पर अच्छे घर की दिख रही ये लड़की हॉन्डा सिटी कार से आई थी और वो भी अपने ड्राइवर के साथ। कोई भी ये सोचने पर मजबूर हो सकता है कि आखिर चालक के साथ कार से आने वाली कोई लड़की भला निर्माता से पैसे मांगने के लिए क्यूं रोएगी?
हमने ये भी समझने की कोशिश की, इस बारे में पढ़िए अगली कड़ी में..

संपर्क : pankajshuklaa@gmail.com

(Disclaimer - हिंदी सिनेमा के लिए बॉलीवुड शब्द के इस्तेमाल का मैं भी समर्थन नहीं करता। लेकिन, इस आलेख में इसी शब्द की असलियत दिखाई गई है।)