रविवार, 27 मई 2012

कॉपीराइट कानून में बदलाव: बेबसी के दिन बीते रे भैया..

किसी भी रचना का सृजन होते ही उसका कॉपीराइट उसके रचयिता के पास हो जाता है। इसके लिए अलग से किसी तरह के पंजीकरण की जरूरत नहीं है। बस कानूनी विवाद उठने पर रचयिता को ये साबित करने की जरूरत होती है कि फलां रचना उसने अमुक समय पर तैयार कर ली थी। अपनी ही रचना अपने पास रजिस्टर्ड लिफाफे से भेज उसे यूं ही सीलबंद रहने देने या फिर उसे अपनी ही ई मेल आईडी पर मेल करके उसे बिना खोले पड़े रहने देने के तरीके इसके लिए कामयाब तरीके माने जाते रहे हैं। पर, क्या हो जब आपके लिखे या गढ़े की चोरी हो जाए? या कोई और ही इसका कारोबारी इस्तेमाल करने लगे? संसद के दोनों सदनों से पारित हुए कॉपीराइट कानून संशोधन अधिनियम 2011 का मसौदा पढ़ने के बाद ऐसी ही कुछ और नुक्ता-चीनियों के बारे में विस्तार से ख़ास आपके लिए ये ख़ास जानकारी।

© पंकज शुक्ल

ज्यादा दिन नहीं हुए हैं। युवाओं के बीच छोटे और बड़े परदे पर कोका कोला का एक विज्ञापन खूब चर्चा में रहा। इस विज्ञापन में इमरान खान और कल्कि कोएचलिन एक पुराने गाने के रीमिक्स वर्जन पर हंसते, मुस्कुराते और शरारतें करते नजर आते हैं। पृष्ठभूमि में बजने वाला ये गाना था, तुम जो मिल गए हो तो ये लगता है, के जहां मिल गया..। हिंदी सिने संगीत के स्वर्णिम युग कहे जाने वाले साठ और सत्तर के दशक के ऐसे तमाम गाने हैं जो गाहे बेगाहे विज्ञापनों और अब फिल्मों में भी अपने रीमिक्स अवतार के साथ सुनाई देने लगे हैं। गीतकार को लाख एतराज हो, गायक लाख ना नुकुर करे और संगीतकार अपनी बनाई धुन के साथ बलात्कार ना होने देने के लाख चीखे चिल्लाए, कुछ दिनों पहले तक इसका कोई असर होता नहीं था। पर, अब ये सब शायद नहीं होगा। या कम से कम इन तीनों की मर्जी के बगैर नहीं होगा। वजह? संसद के बजट सत्र में पास हुए कॉपीराइट कानून संशोधन अधिनियम 2011 पर राष्ट्रपति की मुहर लगते ही ये सब करना गैर कानूनी हो जाएगा।
क्या हैं ये नए संशोधन? और इसके कानून बनने से सिनेमा के कायदों में क्या असर आने वाला है? इसे समझने के लिए अब भी हिंदी सिनेमा के ज्यादातर लेखक और गीतकार हाथ-पांव मार रहे हैं। कलर्स के लिए मशहूर सीरियल बालिका वधु के संवाद लिखने वाले राजेश दुबे इंतजार कर रहे हैं कि जावेद अख्तर मनोरंजन जगत के लेखकों की बैठक बुलाएं और इस बारे में तफ्सील से खुलासे करें। इसी महीने के पहले इतवार को मुंबई में लेखकों की सबसे बड़ी संस्था फिल्म राइटर्स एसोसिएशन के चुनाव हुए। फिल्म जगत के तमाम बड़े लेखकों के प्रोग्रेसिव राइटर्स ग्रुप ने अपने ज्यादातर उम्मीदवार इसमें जिता लिए। गॉडमदर जैसी फिल्म बनाने वाले विनय शुक्ला अब इस एसोसिएशन के अध्यक्ष हैं। लेकिन, जावेद अख्तर को अपना अगुआ मानने वाला ये प्रोग्रेसिव राइटर्स ग्रुप शायद अब तक समझ ना पाया हो कि जावेद अख्तर ने अपनी बिरादरी के लिए नए कानून में क्या बटोरा है? और विनय शुक्ला जैसे हुनरमंदों के लिए क्या खो दिया है? आइए थोड़ा और विस्तार से समझने की कोशिश करते हैं।

इन नए संशोधनों में एक और खास बात जो शामिल है वो ये कि अब किसी भी साहित्य, नाटक या संगीत से जुड़े सृजन को कोई भी इसके रचे जाने के पांच साल तक किसी भी सूरत में रीमिक्स या इसकी नकल के तौर पर बाजार में नहीं ला सकेगा।

रीमेक और रीमिक्स के पेंच
जिस गाने का लेख के शुरू शुरू में जिक्र किया गया वो है 1973 में रिलीज हुई फिल्म हंसते जख्म का गाना। थोड़ा दिमाग पर जोर डालें तो आपको याद आ जाएंगे गरजते बादलों के बीच अपने सफर से गुजरते नवीन निश्चल और प्रिया राजवंश और साथ ही याद आ जाएगा वो खूबसूरत गाना, तुम जो मिल गए हो..। अब जरा गौर कीजिए इस गाने के गीतकार और संगीतकार पर। गाना लिखा है कैफी आजमी यानी जावेद अख्तर साब के ससुर ने और इसे संगीत से संवारा कालजयी संगीतकार मदन मोहन ने। कैफी साहब अगर जिंदा होते तो क्या वो अपने सामने इस गाने का कोक वर्जन सुनना चाहते? जाहिर है आपका जवाब भी होगा, हरगिज नहीं। लेकिन अगर वो होते भी तो शायद इसका कोक वर्जन बनने से रोक नहीं पाते क्योंकि पहले के कानून के मुताबिक फिल्म में शामिल हो चुके किसी भी गाने को फिर से बेचने या उससे किसी तरह की दूसरी कमाई करने का अधिकार फिल्म के निर्माता का ही होता है और अमूमन ये अधिकार फिल्म निर्माता किसी न किसी संगीत कंपनी को बिना इसकी असली कीमत जाने बेच चुका होता। पर, अब कैफी साब की रूह चैन की सांस ले सकती है। उनकी किसी भी गजल या नज्म की ऐसी दुर्गति दोबारा नहीं होगी। कॉपी राइट कानून के नए संशोधनों के मुताबिक अब किसी भी गाने के फिल्म के अलावा किसी दूसरे इस्तेमाल के लिए उसके गीतकार, संगीतकार और गायक की भी इजाजत लेनी जरूरी होगी और निर्माता कैसा भी करार फिल्म बनाते वक्त साइन क्यूं न करा ले, ये अधिकार हमेशा रचयिता के पास सुरक्षित रहेंगे। इन नए संशोधनों में एक और खास बात जो शामिल है वो ये कि अब किसी भी साहित्य, नाटक या संगीत से जुड़े सृजन को कोई भी इसके रचे जाने के पांच साल तक किसी भी सूरत में रीमिक्स या इसकी नकल के तौर पर बाजार में नहीं ला सकेगा।
राज्यसभा सदस्य जावेद अख्तर ने जो लंबी लड़ाई लड़ी, उसके लिए उनका नाम लेखकों की बिरादरी में हमेशा हमेशा के लिए अमर रहेगा, क्योंकि अब किसी फिल्म का रीमेक बनने पर मूल फिल्म के लेखक की रजामंदी भी जरूरी होगी, और इसका सबसे पहला फायदा जावेद अख्तर को ही मिलने वाला है जिन्होंने बिना अपनी इजाजत सुपरहिट फिल्म जंजीर का रीमेक न बनने देने का मोर्चा संभाल रखा है। अमिताभ बच्चन की सुपरहिट फिल्म जंजीर निर्माता निर्देशक प्रकाश मेहरा ने बनाई थी और अपने पिता के अधिकार को विरासत में मिला समझ उनके बेटे इसकी रीमेक बनाने का कानूनी अधिकार भी अपने ही पास समझ रहे थे। ये सही है कि नए कानून में कोई लेखक अपने अधिकार अपने वारिसों या फिर किसी कॉपीराइट सोसाइटी को ही रॉयल्टी पाने के लिए स्थानांतरित कर सकेगा, लेकिन इससे उसके अपने इस लिखे रचे का संबंधित फिल्म के अलावा कहीं और इस्तेमाल होने पर इसकी कीमत वसूलने के अधिकार पर रोक नहीं लग सकेगी।


कॉपीराइट कानून के दांव
कॉपीराइट कानून संशोधन विधेयक पहली बार नवंबर 2010 में राज्यसभा में पेश किया गया था, लेकिन इसके कुछ प्रावधानों पर आपत्ति के बाद इसे संसद की स्थायी समिति के पास विचार के लिए भेजा गया। समिति ने इसमें कई सुझाव दिए और इसके बाद संबंधित संशोधनों के साथ संशोधित विधेयक 2011 तैयार किया गया। कॉपीराइट कानून में संशोधनों के बाद के नए कानून को समझने के लिए ये भी जरूरी है कि इसकी जरूरत क्यों आई, इसे भी समझा जाए। दरअसल, देश में अभी तक लागू रहे कॉपीराइट एक्ट 1952 के सेक्शन 2 (डी) के मुताबिक देश में बनी किसी भी सिनेमैटोग्राफ फिल्म या साउंड रिकॉर्डिंग के मामले में इसका निर्माता ही इसका रचयिता होता है। अगर कानून के सेक्शन 17 को भी इसके साथ पढ़ा जाए तो पता चलता है कि ऐसे किसी भी सृजन का एक मात्र कॉपीराइट निर्माता के पास ही होता है और ये सेक्शन ये भी स्पष्ट करता है कि इसके किसी भी तरह के अधिकार किसी को देने या स्थानांतरित करने का एकमात्र अधिकार निर्माता के पास ही था। ऐसा होने की सूरत में फिल्म के निर्देशक से लेकर इसके गीतकार, संगीतकार, लेखक या किसी दूसरे कलाकार के पास इसका कोई अधिकार नहीं था। इसके मुताबिक भले फिल्म निर्देशक का दिमाग ही फिल्म बनाने के लिए लगता रहा हो, पर नैतिक अधिकारों को छोड़ उसका फिल्म के ऊपर कोई कानूनी अधिकार नहीं होता। चूंकि फिल्म का निर्देशक कानून के सेक्शन 2 (जीजी) के तहत भी कलाकार नहीं है, लिहाजा वह कानून के सेक्शन 38 के तहत किसी तरह के अधिकार पर दावा नहीं कर सकता। यही नहीं, अभी तक के कानून के सेक्शन 38 (ए) के मुताबिक एक बार अगर कोई कलाकार किसी सिनेमैटोग्राफ फिल्म में काम करने की मंजूरी दे देता है तो कॉपीराइट कानून के सेक्शन 38 के तहत वह किसी भी अधिकार का मालिक नहीं रह जाता।

नए कानून से सहूलियतें
राज्यसभा और लोकसभा से पारित होने के बाद कॉपीराइट एक्ट अमेंडमेंट बिल, 2011 के कानून बनने को लेकर अब दिल्ली ज्यादा दूर नहीं है। पर, कानून में जिस संशोधन को लेकर मुंबई की लेखक बिरादरी जावेद अख्तर को सिर आंखों पर बिठाने के लिए बिछी बिछी सी नजर आ रही है, उन नए संशोधनों के बाद अगर जावेद अख्तर से सबसे ज्यादा नाराज कोई बिरादरी हो सकती है तो वो है फिल्म निर्देशकों की बिरादरी, जिनसे मुताल्लिक संशोधन संसद की स्थायी समिति ने खारिज कर दिया और कुल मिलाकर अब किसी फिल्म के अधिकारों में हिस्सेदारी या तो निर्माता की है या फिर लेखक और गीतकारों की। लेखक भी तब जब वो उसका मूल सृजक हो। किसी और के लिखे को फिल्म की पटकथा में तब्दील करने वाला पटकथा लेखक इस अधिकार से भी गया। दरअसल, कॉपीराइट कानूनों में ये संशोधन लंबे समय से लंबित थे। विश्व बौद्धिक संपदा संगठन (डब्ल्यूआईपीओ) के साथ हुई कॉपीराइट संधि और डब्ल्यूआईपीओ परफॉरमेंस एंड फोनोग्राम ट्रीटी पर हस्ताक्षर करने के साथ ही भारत के लिए 1957 से चले आ रहे कॉपीराइट कानून में संशोधन जरूरी था।

नए संशोधनों की सबसे अहम बात है कलाकारों को दिया गया नैतिक अधिकार यानी मोरल राइट्स। मतलब कि अब अगर किसी फिल्म का रीमेक या किसी गाने का रीमिक्स बने तो इसके असली अभिनेता या गायक इस बिना पर हर्जाना मांग सकते हैं कि नई फिल्म या नए गाने ने उनकी मूल प्रस्तुति को बिगाड़ दिया है।

किसका नफा, किसका नुकसान?
जो नए संशोधन संसद के दोनों सदनों से पारित हो चुके हैं, उनके तहत एक खास प्रस्ताव कानून के सेक्शन 18 में भी जोड़ा जाएगा। ये प्रस्ताव खासतौर से गीतकारों और संगीतकारों के लिए बाध्यकारी है। इसके कानून बनने के बाद ये बिरादरी अपनी बौद्धिक संपदा के एवज में रॉयल्टी वसूलने या इन्हें आगे वितरित करने के लिए अपने कानूनी वारिसों या किसी कॉपीराइट सोसाइटी के अलावा किसी और की तैनाती नहीं कर सकती। इसके अलावा सेक्शन 19 में एक सब सेक्शन 9 भी जुड़ा है जिसका मतलब है कि किसी भी गीतकार या लेखक द्वारा किसी सिनेमैटोग्राफ फिल्म या साउंड रिकॉर्डिंग के लिए अपने कॉपीराइट देने का मतलब ये भी नहीं है कि अगर फिल्म निर्माता इनकी लिखी या रची चीजों का इस्तेमाल फिल्म के अलावा किसी और तौर पर करे तो उसमें इनकी हिस्सेदारी नहीं होगी। मतलब कि अब अगर फिल्म शैतान में हवा हवाई गाने का रीमिक्स हुआ तो इसके एवज में संगीत कंपनी ने जो रकम वसूली है, वो इसके गीतकार जावेद अख्तर और संगीतकार जोड़ी लक्ष्मीकांत प्यारेलाल के प्यारेलाल और लक्ष्मीकांत के वारिसों के पास भी जानी चाहिए। यही नहीं मौजूदा कॉपीराइट कानून के सेक्शन 38 (3) और 38 (4) की जगह नए संशोधनों में सेक्शन 38 ए और 38 बी जोड़े गए हैं।
इन नए संशोधनों के मुताबिक किसी फिल्म के लिए एक बार अपनी प्रस्तुति के लिए रजामंदी दे देने के बाद किसी कलाकार का उस पेशकश को लेकर कानूनी प्रस्तुति अधिकार नहीं रह जाता, लेकिन ये प्रस्तुति देने वाले कलाकार को उस रकम का हिस्सा जरूर मिलेगा जो फिल्म के लिए की गई उसकी पेशकश का व्यापारिक इस्तेमाल फिल्म के अलावा किसी और तरीके से फिल्म के निर्माता द्वारा किए जाने पर मिलता है। मतलब कि अब अगर सोनू निगम का गाया ये दिल दीवाना किसी म्यूजिक रियल्टी शो में बजता है और म्यूजिक कंपनी इसके लिए पैसे वसूलती है तो इसमें से कुछ हिस्सा सोनू निगम के पास भी जाएगा। ये तो हुई पैसे की बात। नए संशोधनों की सबसे अहम बात है कलाकारों को दिया गया नैतिक अधिकार यानी मोरल राइट्स। मतलब कि अब अगर किसी फिल्म का रीमेक या किसी गाने का रीमिक्स बने तो इसके असली अभिनेता या गायक इस बिना पर हर्जाना मांग सकते हैं कि नई फिल्म या नए गाने ने उनकी मूल प्रस्तुति को बिगाड़ दिया है। यानी कि फिल्म डिपार्टमेंट में इस्तेमाल हुए गाने थोड़ी सी जो पी ली है..को लेकर चाहें तो बप्पी लाहिरी फिल्म निर्माता कंपनी वॉयकॉम 18 और ओबेराय लाइन प्रोडक्शंस पर दावा दाखिल कर सकते हैं।

संपर्क - pankajshuklaa@gmail.com

सोमवार, 21 मई 2012

लीक पर चलने का आदी नहीं रहा : शाहिद कपूर

लीक लीक चले होते तो शाहिद कपूर की भी इन दिनों साल में चार पांच फिल्में रिलीज हो रही होतीं, इनमें से एकाध हिट भी हो जाती। लेकिन, शाहिद को वो करने में आनंद आता है, जिसकी उनसे उम्मीद नहीं की जाती। मशहूर फिल्म निर्देशक ख्वाजा अहमद अब्बास के नवासे शाहिद खुद को ऋतिक रोशन का फैन मानते हैं और ये भी कहते हैं कि जिंदगी के कुछ लम्हे ऐसे होते हैं जिनकी यादें हमेशा साथ रह जाती है। शाहिद से एक खास बातचीत।

© पंकज शुक्ल

अक्सर देखा ये गया है कि आपके भीतर का अभिनेता आपके ऊपर हावी नचैये के सामने कहीं खो जाता है। लोग आपका अभिनय देखना चाहते हैं और आपके निर्देशक ना जाने क्यों आपकी डांसिंग बॉय इमेज को छोड़ना नहीं चाहते?
-आप शायद सही कह रहे हैं। लेकिन, क्या हुआ कि जब मैं फिल्मों में बतौर हीरो काम करने आया तो लोगों को पता नहीं था कि मेरे ऊपर क्या जमेगा। केन घोष के साथ म्यूजिक वीडियो कर चुका था तो उन्हें लगा कि म्यूजिक के आसपास ही कुछ बात रखनी चाहिए। मुझे भी उस वक्त ज्यादा कुछ पता नहीं था। बस ये लगता था कि किसी तरह लोगों को फिल्म देखने आना चाहिए। तो ये भी कर लो, वो भी कर लो। इसे भी मत छोड़ो। ऋतिक रोशन मुझसे पहले फिल्मों में आ चुके थे और मैं परदे पर उनका नाच देखा भी करता था। ये सच है कि मैं उनका बहुत बड़ा फैन हूं और करियर की शुरुआत के वक्त ये लगा भी करता था कि मैं उनकी तरह अपना सौ फीसदी परदे पर दे पाऊंगा कि नहीं। ऋतिक की तरह ही मैंने भी शियामक डावर की क्लासेस ली थीं और शायद वहीं से ये डांसिंग बॉय इमेज साथ चली आ रही है।

लेकिन, आपके करियर की दो सबसे ज्यादा हिट फिल्में जब वी मेट और विवाह आपके डांस की बजाय आपकी अदाकारी और लोगों से आपके कनेक्ट की वजह से कामयाब हुईं। इस बारे में आप क्या कहेंगे?
मैं अपने करियर में लगातार इस कोशिश में रहा हूं कि मैं अलग अलग तरह के रोल करूं। इसके लिए मुझे अक्सर डांट भी खानी पड़ती है कि जिसमें मैं हिट हो रहा हूं मैं वही क्यों नहीं करता? लेकिन, क्या है कि मेरे भीतर का कलाकार मानता नहीं है। शायद कुछ खून का असर हो (शाहिद की मां नीलिमा के पिता मशहूर ऊर्दू पत्रकार अनवर अजीम मार्क्स की विचारधारा से प्रभावित रहे, वे मशहूर फिल्म निर्देशक ख्वाजा अहमद अब्बास के वारिस थे) लेकिन मैं लीक पर चलने का आदी कभी नहीं रहा। बचपन में भी इसे लेकर लोगों के निशाने पर रहा। रिटायरमेंट के बाद चाहूंगा कि इस पर एक किताब लिखूं, लेकिन फिलवक्त ये कह सकता हूं कि अगर अपने 10 साल के करियर में मुझे कोई पहचान मिली है तो इन्हीं किरदारों की वजह से ही मिली है। मैं मानता हूं कि प्रयोग करने में गलतियां भी होती हैं, लेकिन लोगों की तारीफ भी मिलती है। एक कलाकार के लिए उसके प्रशसंकों की तारीफ ही उसका सबसे बड़ा धन है।

"आम दर्शक समझदार लोगों से ज्यादा समझदार होता है। उसकी समझ से ही हमारा लेना देना है। अगर फिल्म का कनेक्ट उसके साथ बन गया तो बाकी लोग फिल्म के बारे में क्या सोचते हैं, इससे ज्यादा फर्क नहीं पड़ता।"

विवाह की बात चली तो मुझे याद है कि इसकी रिलीज के दिन निर्देशक महेश भट्ट ने इसके बारे में मुझसे पूछा और मेरे ये कहने पर कि फिल्म सुपरहिट होगी, वो चौंक गए थे। आपको क्या लगता है कि हिंदी सिनेमा में दर्शकों की नब्ज पकड़ना कितना आसान और कितना मुश्किल है?
-विवाह राजश्री की फिल्म थी और उनकी फिल्में दो तीन साल में ही आती है। फिल्म के निर्देशक सूरज बड़जात्या की पिछली फिल्म ज्यादा चली भी नहीं थी। इसके अलावा विवाह के सफल होने की सबसे बड़ी वजह ये थी कि इसमें आम लोगों से जुड़े एक बहुत ही भावनात्मक और संवेदनशील मुद्दे को उठाया गया था। ये बातें कुछ लोगों को कम समझ में आती हैं। लेकिन, आम दर्शक समझदार लोगों से ज्यादा समझदार होता है। उसकी समझ से ही हमारा लेना देना है। अगर फिल्म का कनेक्ट उसके साथ बन गया तो बाकी लोग फिल्म के बारे में क्या सोचते हैं, इससे ज्यादा फर्क नहीं पड़ता। सूरज को दर्शकों की नब्ज पकड़ना आता है। बतौर कलाकार मेरा काम ये है कि एक बार फिल्म हाथ में लेने के बाद अपने निर्देशक पर पूरा भरोसा करना।

लेकिन, इस भरोसे ने आपको अपने करियर में नुकसान भी पहुंचाया है? शायद इसीलिए आप अब निर्देशकों को रिपीट करने में यकीन नहीं करते?
-नहीं मैं इसको इस तरह से नहीं लेता। केन घोष के साथ मैंने अपने करियर की पहली फिल्म की। इस फिल्म ने मुझे काफी फायदा भी पहुंचाया। फिर मैंने कुछ अलग करने के लिए फिदा की। ये फिल्म ज्यादा नहीं चली। फिल्म को करना न करना मेरा अपना फैसला होता है और इसके लिए हम किसी दूसरे को जिम्मेदार ठहरा भी नहीं सकते। लेकिन, जिन निर्देशकों से मेरी दोस्ती है, मैं उनके साथ ही लगातार काम करूं, ये जरूरी भी नहीं। अक्सर हम लोग अलग अलग विषयों पर बातें करते रहते हैं। इस दौरान जरूरी नहीं कि हर वो विषय जो मेरा दोस्त निर्देशक मुझे सुनाए, हम दोनों की सहमति उस पर एक जैसी हो। मैं खुल कर काम करने में यकीन करता हूं। रिश्तों में बंधकर काम करना हमेशा फायदेमंद नहीं होता। मेरा मानना है कि दोस्ती और काम दो अलग अलग चीजें हैं और इन दोनों का घालमेल जितना कम होगा, उतना ही बेहतर होगा।

"मैं चाहता हूं कि किसी भी हीरोइन के साथ मेरा कंफर्ट जोन जरूर बना रहे पर हम बार बार एक दूसरे के साथ रिपीट न हों। क्या होता है कि एक ही कलाकार के साथ बार बार काम करने से आपके अभिनय की नवीनता खत्म होने लगती है।"

ये फॉर्मूला सिर्फ निर्देशकों पर ही लागू होता है या फिर साथी कलाकारों पर भी?
-मैं समझ रहा हूं जो आप पूछना चाह रहे हैं। मैं इसका जवाब दूसरी तरह से देना चाहूंगा। सचिन और सहवाग दोनों बेहतरीन खिलाड़ी हैं। दोनों की ओपनिंग जोड़ी ने कमाल किए हैं। दोनों के चलने से देश को फायदा होता है। लेकिन, दोनों में से एक का भी आउट ऑफ फॉर्म होना देश के लिए परेशानी बन जाता है। बस मैं भी यही चाहता हूं। मैं चाहता हूं कि किसी भी हीरोइन के साथ मेरा कंफर्ट जोन जरूर बना रहे पर हम बार बार एक दूसरे के साथ रिपीट न हों। क्या होता है कि एक ही कलाकार के साथ बार बार काम करने से आपके अभिनय की नवीनता खत्म होने लगती है। आपको पता है कि सामने वाला कलाकार किसी दी गई सिचुएशन में कैसे रिएक्ट करेगा? तो ऐसे में आपकी प्रतिक्रिया भी पहले से तय जैसी होने लगती है। लेकिन, ऐसा नहीं कि मैं साथ काम नहीं कर रहा हूं तो मेरी कोई अदावत किसी से है। मैं स्वस्थ रिश्ते बनाए रखने में यकीन करता हूं।

यानी कि, बीती ताहि बिसारि दे आगे की ..?
-नहीं नहीं, मैं ऐसा नहीं कह रहा हूं। मेरे जीवन में मेरे करीबियों के साथ जो भी लम्हे गुजरे हैं, वे मेरी अनमोल यादों का हिस्सा आज भी हैं। मुझे लगता है जीवन में आप जैसे जैसे ऊपर उठते जाते हैं, आपको सादगी उतनी ही ज्यादा भाने लगती है। ये जीवन आपको सिखाता है कि मोह कैसा भी हो, लंबे समय तक नहीं रहता। फिर भी, हम यादों को अपने से सटाए रखना चाहते हैं। मैं भी ऐसा चाहता हूं और मैं भी अपनी यादों को अपनी पकड़ से फिसलना नहीं देना चाहता।

संपर्क: pankajshuklaa@gmail.com

रविवार, 6 मई 2012

मैं सबसे बड़ी नौटंकी वाली हूं: परिणिति

कम ही होता है ऐसा कि कोई लड़की बस एक फिल्म करे और बाजार में लोग उसे उसके किरदार के नाम से बुलाने लग जाएं। लेडीज वर्सेस रिकी बहल की डिंपल चड्ढा के साथ यही हुआ। मशहूर अदाकारा प्रियंका चोपड़ा की चचेरी बहन परिणिति अपनी दूसरी फिल्म में एक ऐसी मुसलमान लड़की का किरदार कर रही हैं, जो गालियां देती हैं, लड़कों को दौड़ाती है और जरूरत पड़ने पर गोली भी चला देती है। असल जिंदगी में नॉन स्टॉप मेल का तमगा पा चुकी परिणिति से एक खास मुलाकात यशराज फिल्म्स के दफ्तर में।

© पंकज शुक्ल

तो खुश तो बहुत होगी आज? और, ये नॉन स्टॉप मेल का क्या चक्कर है?
-ये नाम शायद मेरे यार दोस्तों ने दिया होगा। मैं बोलती हूं तो मुझे रोकना मुश्किल हो जाता है। लोग देखते रह जाते हैं और मैं बोलती चली जाती हूं। शायद मैं बहुत कुछ कहना चाहती हूं। ये आदत मुझे मेरी मां से मिली। वो अब भी ऐसे ही बोलती हैं, घर वाले कहते हैं मैं मां पर गई हूं। रही बात खुश होने की तो मुझसे ज्यादा मेरी मां खुश हैं। रोज टेलीविजन पर मेरे प्रोमो देखती हैं, अखबारों में मेरे बारे में पढ़ती हैं। पापा खुश हैं। दोनों छोटे भाई खुश हैं और मैं इसलिए खुश हूं कि अब तक जो कुछ भी दिखाया या छापा जा रहा है, सब अच्छा अच्छा ही है।

लेकिन गनीमत रही कि लंदन में सब कुछ अच्छा अच्छा नहीं हुआ, नहीं तो शायद हिंदी सिनेमा को एक काबिल अदाकारा से हाथ धोना पड़ता?
-सही कह रहे हैं शायद आप। अभिनेत्री बनने की बात मैंने मुंबई आने से पहले सोची तक नहीं थी। अंबाला में पढ़ाई पूरी की और वहां से सीधे इंग्लैंड। मैं इन्वेस्टमेंट बैंकर बनना चाहती थी। तो मैनचेस्टर में जाकर एडमीशन ले लिया। ट्रिपल ऑनर्स किया। मैं तेज थी पढ़ाई में। मैं शुरू से यही सोचती थी कि पढ़ाई के बाद नौकरी मिलना मुश्किल नहीं होगा। लेकिन इधर मेरी पढ़ाई पूरी हुई, उधर मंदी का दौर आ गया। जहां भी मैं इंग्लैंड में इंटरव्यू के लिए जाती, लोग कहते कि तुम यहां की नहीं हो इसलिए तुम्हें नौकरी नहीं दे सकते। इंग्लैंड तो क्या उन दिनों तो हर तरफ रिसेशन चल रहा था सो छह आठ महीने के लिए मैं मुंबई आ गई। अंबाला जाकर वहां करती भी क्या? मुझे मुंबई में ही कहीं नौकरी या इंटर्नशिप करनी थी।

फिर यशराज फिल्म्स में नौकरी कैसे मिली?
मैं मुंबई आई तो उन दिनों दीदी (प्रियंका चोपड़ा) यहां यशराज फिल्म्स के स्टूडियो में प्यार इंपॉसिबल के लिए शूटिंग कर रही थी। मुझे लगा कि ये तो बहुत कमाल जगह है। मैंने पूछा कि क्या यहां कोई दफ्तर वफ्तर भी है जहां मैं काम कर सकती हूं। यहां मेरी मुलाकात रफीक से हुई जिन्होंने कहा कि मुझे नौकरी सिर्फ प्रियंका की कजिन होने की वजह से नहीं मिल सकती तो छह महीने मैंने यहां खुद को साबित किया। कॉफी बनाने से लेकर मैंने सब काम किया। छह महीने बाद मैंने इंटरव्यू दिया। और, तब जाकर नौकरी मिली। लेकिन, काम के छह महीने बाद ही मुझे लगने लगा कि ये 10 से 5 वाला काम मुझसे होगा नहीं। इस बीच मुझे एक्टिंग को करीब से जानने का मौका भी मिल रहा था। इसी दौरान मुझे ऐक्टिंग से प्यार हो गया। आमतौर पर लोग समझते हैं कि ऐक्टर बस यूं ही होते है, बस मेकअप कराकर आए, एक दो डॉयलॉग बोले और मोटी रकम लेकर चल दिए। लेकिन अब पता चला कि ये आसान काम नहीं है। स्कूल में खूब नाटक किए हैं मैंने। घर पर भी नौटंकी करती ही रही हूं। सच पूछा जाए तो मैं सबसे बड़ी नौटंकी वाली हूं।

तो यशराज में नौकरी करते करते यशराज फिल्म्स की हीरोइन बन गईं?
नहीं, इसकी भी एक कहानी है। मेरे साथ जो हुआ वो किसी के साथ दोबारा भी होगा, पता नहीं। मेरी कहानी ऐसी है कि मैं अपने ऊपर खुद फिल्म बनाना चाहती हूं। मैं एक पंजाबी लड़की, हट्टी कट्टी मोटी, मैनचेस्टर रिटर्न, यहां मनीष शर्मा की मैनेजर बन गई। नवंबर में मेरी उससे बात हुई ऐक्टिंग को लेकर। दिसंबर में बैंड बाजा बारात आने वाली थी। वो हंसने लगा। फिर कोई महीने भर बाद एक दिन वो बोला कि शानू शर्मा से मिल लो। शानू यशराज की कास्टिंग डायरेक्टर है। शानू ने मुझे कैमरे पर शूट किया। उसी रात आदि (आदित्य चोपड़ा) को दिखाया कि ये लड़की मार्केटिंग की नहीं है। इसके अंदर ऐक्टिंग का कीड़ा है। ये सब इधर मुझे बिना बताए चलता रहा और एक महीने बाद मैंने नौकरी से इसलिए इस्तीफा दे दिया कि मुझे ऐक्टिंग स्कूल ज्वाइन करना है। अगले दिन मनीष ने फोन करके बुलाया। शायद संडे था। उसने कहा कि तुम यशराज फिल्म्स के साथ तीन फिल्मों की डील साइन कर रही हो। मुझे तो समझ ही नहीं आया कि क्या हुआ? यूं लगा कि पांचवीं में पढ़ाई की कोशिश कर रही लड़की को एकदम से पीएचडी दे दी गई हो।

तो यूं एकाएक प्रमोशन पाने वाली परिणिति का डिंपल से जोया तक का प्रमोशन कैसा रहा?
हां, इश्कजादे मेरी पहली सोलो फिल्म है और जोया का किरदार डिंपल चड्ढा से बिल्कुल अलग है। फिल्म की कहानी एक काल्पनिक छोटे शहर की है। दो लौंडा लौंडिया हैं जिन्हें बचपन से सिर्फ एक ही नुस्खा सिखाया गया है, नफरत करना। एक दूसरे को देखो तो बस गोली से उड़ा दो। लड़की होते हुए भी मैं गोली चला देती हूं। गाली गलौज भी करती हूं। लेकिन फिर कुछ होता कि दोनों का नजरिया बदल जाता है। लड़की को लगता है कि ये लड़का है तो जानवर लेकिन है कुछ मेरे जैसा ही है। लड़के को लगता है कि ये लड़की है तो पटाखड़ी पर इसमें कोई बात है। मेरी ही जात की है।

और इशकजादे के बाद की क्या प्लानिंग है?
मेरा सिनेमा को लेकर अप्रोच बिल्कुल रीयल है। मुझे इसके ग्लैमर से कोई प्यार नहीं है। कल को मैं फ्लॉप हो गई तो वापस जाकर बैंक की नौकरी कर सकती हूं। अगर मैं एक्टर बन सकती हूं तो कोई भी लड़की एक्टर बन सकती है। एक छोटे से शहर की लड़की, जिसे बैंकर बनना था, 12 वीं में मैंने टॉप किया। अपनी बहन के ग्लैमर से जो प्रभावित नहीं होती थी वो अगर एक्टर बन सकती है तो कोई भी एक्टर बन सकता है। मेरा तो यही कहना है कि कुछ बनना है तो बस मेहनत करो। तुम कहां से हो? क्या किया है? इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। अगर दिल में है तो वो हो सकता है। रही बात प्लानिंग की तो मैं जिंदगी में कुछ भी प्लान करने में यकीन नहीं करती क्योंकि एक ही प्लानिंग अब तक की थी बैंकर बनने की वो बन नहीं पाई। मैं बहुत नॉर्मल लड़की है, मुझे सब कुछ पसंद है। मुझे जब जो जिस सिचुएशन में सही लगेगा, वो मैं करने को तैयार हूं।

इन बातों से कुछ कुछ बगावत की बू भी आती है?
-बगावत? नहीं, नहीं। ऐसा कुछ मत लिख दीजिएगा। मैं बहुत ही शरीफ लड़की हूं (ठहाका लगाकर हंसती रहती हैं)। अरे, सर। मुंबई में हैं तो क्या हुआ? हीरोइन भी बन गए तो क्या हुआ? अपना अलग घर लेकर भी मुझे यहां अपनी बहन को रिपोर्ट करना होता है। रोज वहां अंबाला में अपनी मां को रिपोर्ट करना पड़ता है। यारी रोड पर अपना घर ले लिया। लेकिन, वहां भी छापा पड़ता रहता है। अभी चार दिन पहले दीदी का एकाएक फोन आया कि कि मैं आ रही हूं। सिर्फ आधा घंटा पहले बताया। चाहो भी तो कुछ बदल नहीं सकते। बस छापा पड़ा। घर चेक हुआ। लेकिन, फिर भी मैं अपनी दीदी को बहुत प्यार करती हूं। अपने घरवालों को बहुत प्यार करती हूं। ये इन लोगों का प्यार, हिम्मत और हौसला ही है, जो मुझे यहां तक ले आया है। आगे अब मेरे चाहने वालों की दुआएं काम आएंगी।

मंगलवार, 1 मई 2012

नया चलन नहीं हैं महिला प्रधान फिल्में: करिश्मा कपूर

कपूर खानदान की पहली बागी और हिंदी सिनेमा में अल्हड़पन की नई परिभाषा लिखने वाली करिश्मा कपूर की पिछली फिल्म बाज रिलीज हुए नौ साल का लंबा अरसा हो चुका है। लेकिन, अपनी नई फिल्म डैंजरस इश्क को वह अपनी कमबैक फिल्म मानने से इंकार करती हैं। बीच के इस वक्फे को छुट्टियां मानने वाली करिश्मा कपूर मानती हैं कि उनके दादा राज कपूर का उनके लिए खास स्नेह था और इसके चलते कपूर खानदान के बच्चे उनसे ईर्ष्या भी करते रहे हैं।

© पंकज शुक्ल

तो आप ये नहीं मानतीं कि आपकी हिंदी सिनेमा में वापसी हो रही है?
-इसमें मानने न मानने की बात ही कहां है। वापसी उसकी होती है जिसने कभी कहा कि वो सिनेमा छोड़कर जा रहा है। मैं तो यही थी। सबके बीच। बड़े परदे पर न सही पर तो छोटे परदे पर भी लोग मुझे देखते ही रहे हैं। और, हम सिर्फ फिल्म करने के लिए फिल्म नहीं कर सकते। हर कलाकार के जीवन में एक ऐसा वक्त आता है, जब उसे अपनी शख्सियत के हिसाब से किरदार करने के बारे में सोचना पड़ता है। मुझे जब लगा कि डैंजरस इश्क में संजना का किरदार मेरे हिसाब से ठीक रहेगा, तभी मैंने इसके लिए हां की। किरदार के अलावा मुझे कहानी को लेकर भी थोड़ा सचेत रहना ही होगा। अब मैं टीन एजर्स लड़कियों वाले रोल तो कर नहीं सकती तो जाहिर है नाच गाने के साथ साथ मुझे ऐसे किरदार करने होंगे, जो मेरे प्रशंसकों को मुझसे जोड़ सकें।

छोटे परदे पर करिश्मा-ए मिरैकल ऑफ डेस्टिनी और नच बलिए 4 जैसे कार्यक्रमों को करने के पीछे कोई तो मकसद रहा होगा? आपको क्या लगता है छोटे परदे के पहले से तय रीयल्टी शो बेहतर हैं, या फिर जिंदगी का वो कैनवस जो सिर्फ बड़े परदे पर ही मुमकिन है?
-सिनेमा में हम वो सब कुछ कर सकते हैं, जो छोटे परदे पर मुमकिन नहीं है। छोटे परदे की अपनी बंदिशें हैं और हमें उस तय दायरे में ही रहकर काम करना होता है। मैं ये तो नहीं कह सकती है कि टेलीविजन रीयल्टी शोज में परदे के पीछे क्या क्या गुणा भाग चलता है, लेकिन कहानी को दर्शकों तक पहुंचाने के लिए सिनेमा ही सबसे बढ़िया माध्यम है, इसे मानने में मुझे कोई हिचक नहीं होती। अब जैसे लोगों के पिछले जन्म में जाने का और वहां की बातों को खुद देखने के शौक को ही ले लें। मैं ऐसे तमाम लोगों को जानती हूं जो इन बातों को मानते हैं और ऐसा करते भी हैं। पहले सिर्फ हाथ की लकीरें और कुंडली देखकर भविष्य बताया जाता है।
अब लोग भविष्य से ज्यादा अपने अतीत को जानने के इच्छुक रहते हैं। अतीत से मेरा मतलब यहां पिछले जन्म से है। जहां तक मेरी अपनी बात है, तो मैं निजी जिंदगी के भूतकाल में कतई दिलचस्पी नहीं रखती। मैं नहीं जानना चाहती कि मैं पिछले जन्म में क्या थी और कैसे मरी? लेकिन इसका मतलब ये नहीं कि मुझे इन सब बातों में यकीन नहीं है। मेरी ऐसे कई लोगों से बात हुई है जिन्होंने ये करके देखा है और उनकी तमाम बातों में दम भी दिखता है। पिछले जन्म में जाने की ये विध्ाा यानी प्रतिगमन (रिग्रेशन) के दौरान क्या क्या होता है, ये आप डैंजरस इश्क में देख पाएंगे। ये फिल्म हिंदी फिल्मों की लीक को तोड़ने की कोशिश करती है, और मुझे लगता है कि बेहतर कथानक को पसंद करने का जो नया दौर इन दिनों दिख रहा है, उससे इस फिल्म को भी फायदा होगा।


आपका इशारा पान सिंह तोमर, कहानी या डर्टी पिक्चर की तरफ है? या फिर आप कहना चाह रही हैं कि कहानी और डर्टी पिक्चर जैसी फिल्मों से महिला प्रधान फिल्मों का दौर हिंदी सिनेमा में लौट आया है?
-हां, मेरे नजरिये से ये एक अच्छा संकेत है सिनेमा के लिए भी और कलाकारों के लिए भी। अब लेखक फिर से अभिनेत्रियों को ध्यान में रखकर फिल्में लिखने लगे हैं। लेकिन, ऐसा नहीं कि ये सब अब हो रहा है। अगर आप ध्यान दें तो ऐसी फिल्में मैं तो बरसों पहले कर चुकी हूं। फिजा, जुबैदा, शक्ति और बीवी नंबर वन, वे फिल्में हैं जिन्होंने महिला किरदारों को हिंदी सिनेमा में मजबूती दी और एक नई पहचान दी। मुझे महिला प्रधान फिल्में अच्छी लगती हैं और ये काफी रोचक भी होता है। लेकिन ये कोई नया ट्रेंड है, इसे मैं नहीं मानती। मेरा ये मानना है कि एक अच्छी कहानी और एक अच्छी पटकथा का कोई तोड़ नहीं है। दोनों एक साथ हों तो दर्शक सिनेमाघरों तक आते ही हैं। ये किसी दौर की बातें नहीं हैं। ऐसा हर दौर में होता है। अगर आप में अदाकारी का दम है तभी आपके पास अच्छी कहानियां आएंगी। खुशी बस इस बात की होनी चाहिए कि ये चलन लगातार बना रहे।

मतलब कि आप सिनेमा के करीब रहें या सिनेमा से दूर, सिनेमा से इश्क आपका बना ही रहता है। दर्शकों या कि कहें अपने प्रशंसकों से इस दौरान आपने रिश्ता कैसे बनाए रखा?
-ये थोड़ा कठिन सवाल लगता है मुझे, पर मैं इसका जवाब भी पूरी ईमानदारी से देने की कोशिश करूंगी। हां, ये सही है कि अगर आप लगातार परदे पर नजर नहीं आते हैं तो दर्शकों की आपसे दूरी बनने लगती है, पर मैं शुक्रगुजार हूं अपने उन प्रशंसकों की, जिन्होंने मुझे कभी ये महसूस नहीं होने दिया कि मैं छुट्टी पर हूं या फिर मैं लगातार फिल्में नहीं कर रही हूं। ऐसे तमाम प्रशंसक हैं जिनके कार्ड्स, शुभकामना संदेश और बधाई संदेश लगातार आते रहते हैं। सिनेमा में कैमरे के सामने मैंने लंबा अरसा गुजारा है। मैंने भले कभी अपने प्रशंसकों या दर्शकों के बीच बैठकर उनकी प्रतिक्रिया ना जानी हो, पर मुझे पता है कि अपने चाहनेवालों व प्रशंसकों के संपर्क में रहना कितना सुखकर होता है। एक कलाकार को और क्या चाहिए, वो तो तालियों का ही भूखा होता है ना?

अब जबकि आपकी बच्ची बड़ी हो गई है, वह स्कूल भी जाने लगी है तो आपने अपनी छुट्टियां खत्म होने का ऐलान कर दिया है। वे दिन भी याद आते होंगे, जब आपकी स्कूल की छुट्टियां खत्म होती होंगी और आप स्कूल ना जाने की जिद करती होंगी?
-नहीं ऐसा तो कोई खास वाकया याद नहीं आता। हमारे यहां किसी पर कभी कोई दबाव नहीं रहा। कपूर खानदान में सबको अपने फैसले लेने की छूट रही है। बस हमें जीवन में अपनी प्राथमिकताएं तय करना आना चाहिए। अगर आपकी प्राथमिकता देर तक सोना है तो जाहिर है आप सुबह की मुस्कुराहट मिस करेंगे ही करेंगे। रही बात बचपन की तो मुझे याद है कि मैं पूरे खानदान की सबसे लाडली बिटिया रही हूं और मेरी हर बात सब मानते थे। राज जी भी मुझे बहुत चाहते थे और बाद में जब करीना, रणबीर और ऋद्धिमा का जन्म हुआ तो ये तीनों मुझसे चिढ़ते भी थे क्योंकि बाबा की मैं सबसे दुलारी पोती थी।