सोमवार, 30 अप्रैल 2012

लाइट, कैमरा, रन..

फूहड़ता के सबसे निचले स्तर तक पहुंचने के बाद हिंदी सिनेमा में सफाई और साफगोई के अंकुर फिर से निकल रहे हैं। दर्शकों की मनोरंजन में भी सच्चाई की ललक बढ़ रही है और इसका सबसे सही जवाब फिल्मकारों ने तलाशा है उन नायकों को रुपहले परदे पर फिर से नई जान देने का, जिनके किस्से कहानियां बस किताबों या अखबारों की कतरनों में ही सिमट कर रह जाते रहे हैं। जिद और जीवट की चंद सार्थक कहानियों को क्रिकेट की पूजा करने वाले देश में क्रिकेट से इतर खेलों के नायकों के बहाने भी रुपहले परदे पर पेश करने की कोशिशें वाकई सुखद संकेत देने वाली हैं।

© पंकज शुक्ल

इरफान की फिल्म पान सिंह तोमर की कामयाबी ने हिंदी सिनेमा में एक तरह की नई क्रांति का बीज रोपा है। पर ध्यान देने वाली बात ये है कि ये क्रांति सिर्फ सामाजिक जिम्मेदारी वाले सिनेमा के फिर से रुपहले परदे पर लौटने भर की बात नहीं है, ना ही इस पर हो रही बहस महज जमीन से जुड़े और वास्तविकता के करीब रहने वाले सिनेमा के मुख्यधारा में फिर से जगह पाने की वापसी तक ही सीमित है। दरअसल ये दिनों दिन समझदार होते और मनोरंजन से आगे जाकर भी कुछ पाने को तैयार हो रही हिंदी सिनेमा के दर्शकों की नई पीढ़ी को फूहड़ सिनेमा के काले बादलों के पार दिखी वो चमकीली लकीर है, जिसकी बुनियाद पर हिंदी सिनेमा में खेल पर आधारित फिल्मों का एक नया चलन शुरू हो सकता है। ऐसी फिल्में जिनमें कथानक किसी खास खेल के आसपास बुना जाता है और इसे खेलने वाले किरदार को फिल्म के नायक के तौर पर पेश किया जाता है। यही नहीं, इसने राकेश ओमप्रकाश मेहरा जैस निर्देशक को मिल्खा सिंह के जीवन पर फिल्म बनाने का हौसला भी दिया है। इसने फरहान अख्तर जैसे गैरपारंपरिक अभिनेता को अपने बाल बढ़ाकर एक सरदार के गेटअप में घुसने का जज्बा भी दिया है। और, इस बदलाव की बयार का ही असर है कि हॉकी के एक असल कोच की जिंदगी की आधारित फिल्म चक दे इंडिया कर चुके शाहरूख खान अब हॉकी के जादूगर मेजर ध्यानचंद की जीवनी पर फिल्म करना चाहते हैं। ऐसी ही कुछ कुछ मंशा इन दिनों इरफान खान भी जता रहे हैं।

जैसाकि हम सब जानते हैं भारत देश में क्रिकेट और सिनेमा के सितारों के बीच लोकप्रियता का ट्वेंटी ट्वेंटी हमेशा चलता रहता है और दोनों का कॉकटेल सेलेब्रिटी क्रिकेट लीग (सीसीएल) भी इसी सोच से जन्मा है, लेकिन सच ये भी है सम सामयिक क्रिकेट को लेकर हिंदी में बनी इकबाल को छोड़कर दूसरी एक भी फिल्म बॉक्स ऑफिस पर कामयाब नहीं हो सकी है। निर्देशक आशुतोष गोवारिकर की जिस क्रिकेट आधारित फिल्म लगान ने देश विदेश में कामयाबी का झंडा गाड़ा, उसमें क्रिकेट का वह दौर दिखाया गया जब आम भारतीय गेंद और बल्ले के इस खेल का अक्षर ज्ञान भी नहीं कर पाया था। लेकिन, इस बार बात हम क्रिकेट की फिल्मों की करेंगे ही नहीं। भले लगान को टाइम पत्रिका ने दुनिया की 25 सर्वश्रेष्ठ खेल आधारित फिल्मों की कालजयी सूची में शामिल किया हो, लेकिन फिल्म की कहानी को करीब से समझा जाए तो दिखाई देता है कि लगान की कामयाबी क्रिकेट की कामयाबी कम बल्कि चंद गंवार लोगों की इस खेल को सीखने की जिद और इस खेल में महारात हासिल कर चुके चंद गोरों को हराने के जीवट की कहानी ज्यादा है।

ये जिद और ये जीवट ही पान सिंह तोमर की भी कहानी कहते हैं। इसी जिद और जीवट ने चक दे इंडिया में कबीर के सपनों को राह दिखाई और बरसों पहले ऐसी ही जिद और जीवट रखने वाले चंद बच्चों को लेकर संदीप नाम का एक कोच भिड़ गया था फुटबॉल के उन सूरमाओं से जिन्हें हराने की बात करना भी उस शहर में शायद गुनाह समझा जाता था। लोगों ने तब पूरे उत्साह से आवाज लगाई थी, हिप हिप हुर्रे। इन दिनों सियासत, सत्ता और सामाजिक अपराधों के ताने बाने में खो चुके निर्देशक प्रकाश झा की ये पहली फीचर फिल्म थी और मेरे लिहाज से भारतीय सिनेमा में गैर क्रिकेट खेलों पर बनी स्पोर्ट्स फिल्मों के किसी भी पैमाने पर तीन बेहतरीन फिल्मों में शुमार होती है। हिप हिप हुर्रे शायद समय से पहले की फिल्म थी, कुछ कुछ वैसे ही जैसे राजकपूर की मेरा नाम जोकर, राज कपूर की तीसरी कसम और अमिताभ बच्चन की मैं आजाद हूं को समय से पहले की फिल्में माना जाता है। लेकिन, बलिहारी है यूटीवी मोशन पिक्चर्स की जिसने कोई दो साल तक पान सिंह तोमर को डिब्बाबंद रखा और ऐसा ही समय से पहले की फिल्म का ठप्पा उस पर नहीं लगने दिया। ये फिल्म अगर दो साल पहले रिलीज हुई होती तो शायद चुलबुल पांडे के दौर में कहीं गुम हो गई होती, भला हो इस देरी का कि दर्शकों को फूहड़ फिल्मों की ओवरडोज झेलनी पड़ी और इसके हैंगओवर से निकलने के लिए पान सिंह तोमर हिंदी सिने दर्शकों का नया नींबू पानी बन गई।

जैसा कि हर कारोबार में होता है हिंदी सिनेमा में भी ज्यादातर फैसले मुनाफे को ध्यान में ही रखकर किए जाते हैं। पर, स्पोर्ट्स फिल्मों के मामले में कम से कम क्रिकेट आधारित फिल्में बनानकर हिंदी सिनेमा ने कई बार गच्चे खाए हैं। और, ये गच्चा खाने वालों में फिल्म अव्वल नंबर में सदाबहार अभिनेता और निर्देशक देव आनंद से लेकर फिल्म पटियाला हाउस में निर्देशक निखिल आडवाणी तक शामिल हैं। तो फिर क्रिकेट से इतर हिंदी स्पोर्ट्स फिल्मों पर हमारा ध्यान ही नहीं जाता है या फिर क्रिकेट की चकाचौंध ने हमको इतना विस्मित कर दिया है कि हम उसके दाएं बाएं देख ही नहीं पाते। अस्सी के दशक में जब नक्सलबाड़ी आंदोलन के चंगुल से छूट भागा एक काला कलूटा सा लड़का हिंदी सिनेमा में अपने कूल्हे मटकाकर अमिताभ बच्चन के सुपरस्टारडम की गिनती पूरे होने का नृत्य कर रहा था, तो निर्देशक राज एन सिप्पी ने इस लड़के की सेहत देखी। इसकी आंखों में कुछ कर गुजरने का जज्बा देखा और देखी वही जिद और जीवट जो दुनिया बदल देने का माद्दा रखती है। राज एन सिप्पी ने इस लड़के को लेकर बनाई फिल्म बॉक्सर। गुरबत में दिन बिताने वाले एक लड़के के रिंग का चैंपियन बनने की ये कहानी 1984 में फरवरी की गुलाबी सर्दियों के उस दौर में परदे पर उतरी, जब साल भर पहले ही एक इतवार को भारतीय क्रिकेट टीम ने इतिहास का सबसे बड़ा उलटफेर करते हुए विश्वविजेता का खिताब जीत लिया था और साल की शुरूआत के पहले ही दिन यानी 1 जनवरी 1984 को रिलीज हुई हिप हिप हुर्रे ने स्कूली क्रिकेट की दीवाने हो चुके देश में भी अपने लिए सिनेमा हॉल मे तालियां बजाने वाले चंद हाथ ढूंढ लिए थे।


बॉक्सर की मिली जुली कामयाबी के बाद मिथुन चक्रवर्ती ने एक स्पोर्ट्स फिल्म और की- कराटे। ये फिल्म हालांकि भारत के पारंपरिक खेलों से इतर खेल पर बनी फिल्म थी, लेकिन ब्रूस ली के दौर में मिथुन चक्रवर्ती ने तमाम भारतीय युवाओं के हाथ में पकड़ा दिया एक ऐसा खिलौना, जिसका सही वार हो तो सामने वाले पल भर में ही धूल चाटने लगता था। ये खिलौना था- नान चाकू और फिल्म की लोकप्रियता का आलम ये था कि देश में गली गली कराटे क्लब खुल गए। लोगों को येलो बेल्ट, ग्रीन बेल्ट, रेड बेल्ट और ब्लैक बेल्ट के मायने समझ आने लगे और दारा सिंह के देश के लोगों को ये भी पता चला कि दांव सिर्फ हाथों से ही नहीं बल्कि अब पैरों से भी चले जाते हैं और वार भी मुक्के का कम बल्कि फ्लाइंग किक का ज्यादा जोर का होता है। किसी भी चलन या किसी भी सितारे की कामयाबी इसी में है कि वह परदे से निकलकर निजी जिंदगी में शामिल हो जाए। तो अगर पान सिंह तोमर देखकर निकलने वाले बुंदेलखंडी में बात करने कोशिश करते नजर आते हैं तो बरसों पहले लोगों ने अगर मिथुन को देख नान चाकू घरों में टांग लिए थे, तो बात ही क्या? क्रिकेट से इतर स्पोर्ट्स फिल्मों में मिथुन से पहले दारा सिंह भी बॉक्सर नाम की एक फिल्म कर चुके थे और उनकी पहलवानी के करिश्मे लोग कुछ दूसरी फिल्मों में भी देख चुके थे, लेकिन देश में फिटनेस को लेकर युवाओं के सजग होने का पहला दौर मिथुन चक्रवर्ती की फिल्म बॉक्सर से ही माना जा सकता है। सलमान की साइकिलिंग वाली फिल्म मैंने प्यार किया और ऋतिक रोशन की कहो ना प्यार है की फिटनेस तो बहुत बाद की बातें हैं।

लेकिन, सवाल इस बार सिर्फ फिटनेस या किसी सितारे की शोहरत का नहीं है। सवाल इस बार एक ऐसे चलन का है, जिसने अगर कामयाबी के दो चार पाठ और पढ़ लिए तो खिलाड़ियों की जीवनियों पर बनने वाली फिल्मों की एक परंपरा हिंदी सिनेमा में भी नई ताकत पा सकती है। हिंदी सिनेमा में स्पोर्ट्स पर बनने वाली अन्य फिल्मों का जिक्र करने से पहले ये समझना जरूरी है कि आखिर हिंदी सिनेमा क्रिकेट के अलावा दूसरे खेलों को लेकर इतना सीरियस क्यूं नहीं होता? इसकी गहराई में जाने से पहले समझना ये भी जरूरी है कि विदेश में जो स्पोर्ट्स फिल्में बनती हैं, उनका आधार क्या होता है? ये सही है कि विदेश में स्पोर्ट्स फिल्मों की एक अलग श्रेणी सिनेमा में पूरी तौर पर विकसित हो चुकी है पर सच ये भी है कि ये फिल्में मुख्यतया किसी न किसी खिलाड़ी की निजी जिंदगी की किसी बड़ी जीत से प्रेरणा पाती हैं। इस तरह की फिल्में बनाने के लिए वहां पहले से लिखा साहित्य बहुतायत में उपलब्ध है। अगर बॉक्सर जेक ला मोटा के जीवन पर मशहूर निर्देशक मार्टिन स्कॉरसेसे ने रेजिंग बुल बनाने में कामयाबी पाई तो इसकी एक बड़ी वजह ये थी कि मार्टिन के पास इस खिलाड़ी के बारे में जानने के तमाम साधन थे। विदेशी सिनेमा में खिलाड़ियों की जीवनियों पर बनने वाली फिल्मों की लंबी लिस्ट है और हिंदी सिनेमा में पान सिंह तोमर महज एक अदना सा अगला कदम है। मीर रंजन नेगी जैसे हॉकी खिलाड़ी के जीवन पर बनी चक दे इंडिया को भले इसके लेखक जयदीप साहनी ने तब असल जिंदगी पर बनी फिल्म मानने से इंकार कर दिया हो, लेकिन तब शायद ये बाजार की मजबूरी रही हो। जयदीप साहनी ने वाकई एक काल्पनिक कहानी लिखी या फिर 2002 के कॉमनवेल्थ खेलों में भारतीय महिला हॉकी टीम की जीत की सच्ची पटकथा परदे पर उतारी, इसे लेकर बहस हो सकती है, पर सच यही है कि जयदीप को ये फिल्म लिखने में अखबारों में छपे उन तमाम लेखों, आलेखों ने भरपूर मदद की, जिन्होंने इस जीत की नायिकाओं के बारे में विस्तार से खोजबीन की। यानी कि एक सच्ची जिद और मजबूत जीवट की कहानी को परदे पर उतारने की पहली शर्त है इस बारे में शोध के लिए तमाम सामग्री का मौजूद होना। पर, जीवट अगर तिगमांशु धूलिया जैसा हो तो यह अनिवार्यता भी धरी की धरी ही रह जाती है।

हालांकि, मेहरा को भाग मिल्खा भाग के लिए तिगमांशु की तरह अपनी कहानी के लिए सालों बीहड़ में नहीं भटकना पड़ा है। भाग मिल्खा भाग की शूटिंग इन दिनों पूरी रफ्तार में हैं। मेहरा कहते हैं, मिल्खा सिंह के बुलंदियों पर पहुंचने से पहले का रास्ता बहुत ही मार्मिक और संघर्षों से भरा हुआ है। एक अनाथ के तौर पर पले बढ़े मिल्खा में हौसला शुरू से था। बिना मां-बाप के बच्चों को जैसी मेहनत बचपन में करनी होती है, मिल्खा ने उससे ज्यादा परिश्रम किया। मिल्खा के मां-बाप बंटवारे के दौरान की हिंसा में मारे गए थे। उस दौर में अपने लिए खेल में इतना ऊंचा मुकाम बनाना किसी जीवट वाले इंसान के ही बस में हो सकता है। मिल्खा के बारे में जितना मैंने जाना उस हिसाब से मैं कह सकता हूं कि हम सब कुछ करने के लिए अपने आस पास प्रेरणाएं तलाशते रहते हैं, लेकिन मिल्खा अपनी प्रेरणा खुद थे। और, उनके जीवन का बस यही पहलू मैं परदे पर उतारना चाहता हूं। पान सिंह तोमर के बाद मिल्खा सिंह यानी एक और एथलीट। लेकिन, ऐसे नायक हमारे समाज में हर तरफ फैले हुए हैं। एथलेटिक्स में पी टी ऊषा, टेनिस में विजय अमृतराज व सानिया मिर्जा, बैंडमिंटन में प्रकाश पादुकोण, पी गोपीचंद और सायना नेहवाल, फुटबॉल में वाइचुंग भूटिया जैसे तमाम नायक नायिकाएं हैं, जिन पर अगर संवेदनशील तरीकें से फिल्में बनें तो लोग पसंद कर सकते हैं। इनके अलावा भी तमाम ऐसे नायक हैं, जिनके बारे में लोग ज्यादा नहीं जानते।

फिल्म कारोबार विशेषज्ञ व ट्रेड मैगजीन सुपर सिनेमा के संपादक विकास मोहन कहते हैं, हिंदी के निर्माता व निर्देशक आमतौर पर आलसी किस्म के होते हैं। उनका ज्यादातर काम सहायकों के भरोसे चलता है। लेकिन, अगर आप किसी की जीवनी पर फिल्म बना रहे हैं तो जाहिर है इस बारे में आपको शोध खुद करनी होगी। आपके सहायक की एक छोटी सी गलती आपका पूरा करियर दांव पर लगा सकती है। इसीलिए, हिंदी सिनेमा के फिल्मकार अक्सर अंडरवर्ल्ड पर पहले से बनी फिल्मों को बतौर रिसर्च इस्तेमाल करते हैं और उनका कैमरा उसी पर घूमता फिरता रहता है। पान सिंह तोमर या भाग मिल्खा भाग जैसी फिल्में जिद और जीवट दोनों मांगती हैं, और इसकी कमी हमारे यहां हमेशा से रही है।

संपर्क - pankajshuklaa@gmail.com

(नेशनल दुनिया समाचार पत्र की 29 अप्रैल 2012 की संडे मैगजीन की यह कवर स्टोरी है)

बुधवार, 18 अप्रैल 2012

100 साल सिनेमा के: तरक्की के या गिरावट के?

हम हिंदुस्तानी परंपराओं से जश्न मनाने के शौकीन लोग हैं। हमें सिर्फ खुश होने का बहाना चाहिए। ढोल, ताशे और नगाड़े तो बस तैयार रहते हैं बजने के लिए। इस बार जश्न सिनेमा का हो रहा है। सौ साल के हिंदुस्तानी सिनेमा का। इस जश्न के बरअक्स तमाम बातें ऐसी हैं जिन पर बातें की जा सकती हैं, बहसें हो सकती हैं और गंभीर परिचर्चाएं आयोजित की जा सकती हैं। लेकिन, सिनेमा की सुध ही किसे है? न सरकार को और न सरोकार को। सिनेमा वहीं फिर से पहुंचता दिख रहा है, जहां से ये चला था।

© पंकज शुक्ल

कहते हैं कि सौ साल में हर वो संस्था अपनी पूर्णगति को प्राप्त हो लेती है जिसका जरा सा भी ताल्लुक आम लोगों से रहता है। जिस सिनेमा को बाहरगांव में गरीबी, रजवाड़ों, झोपड़पट्टियों और मदारियों के खेल तमाशों से शोहरत मिली, वो हिंदुस्तानी सिनेमा अब रा वन, रोबोट और कोचादईयान की वजह से विदेश में जाना जा रहा है। पाथेर पांचाली, मेघे ढाका तारा, सुजाता, देवदास, मुगल ए आजम, मदर इंडिया का जमाना अब गया, अब सिनेमा दबंग, वांटेड, सिंघम और सिंह इज किंग हो गया है। और, ये चलन केवल हिंदी सिनेमा का ही नहीं है बल्कि हिंदी सिनेमा में ये चलन दक्षिण की उन फिल्मों से आया है, जिन्हें बनाने वालों को सिनेमा का सिर्फ एक ही मतलब समझ आता है और वो है पैसा।

पैसा एंटरटेनमेंट से आता है और सिल्क स्मिता बनीं विद्या बालन ने अभी पिछले साल ही तो समझाया था कि एंटरटेनमेंट होता क्या है? एंटरटेनमेंट का ये नया मतलब फिल्म मेकर्स ने खुद निकाला है। नहीं तो ऐसा एंटरटेनमेंट तो पहले भी बड़े परदे पर होता रहा है। दक्षिण में श्रीदेवी और कमल हासन की शुरूआती फिल्में अगर आप देख लें तो शायद कांतिलाल शाह भी शरमा जाएं। बताने वाले बताते रहे हैं कि कैसे हिंदी सिनेमा में सुपर स्टार बनने के बाद श्रीदेवी ने अपनी तमाम बी और सी ग्रेड वाली फिल्मों के राइट्स खरीद कर उनके प्रिंट अपने कब्जे में कर लिए थे। ये बात कोई बीस-पचीस साल पहले की है, लेकिन उससे थोड़ा और पीछे जाएं तो सिनेमा में सेक्स का तड़का लगाने के लिए राज कपूर ने पहले पहल मेरा नाम जोकर में सिमी ग्रेवाल के सहारे, फिर सत्यम् शिवम् सुंदरम् में जीनत अमान के सहारे और राम तेरी गंगा मैली में मंदाकिनी के सहारे खुलेआम कोशिशें कीं। नारी सौंदर्य के बहाने हुई इन कोशिशों को कलात्मकता की सफेद लेकिन भीगी साड़ी में ढकने की वो कोशिशें अब तक जारी हैं और साथ ही जारी है सिनेमा और मनोरंजन का वो संघर्ष जो दादा साहेब फाल्के की बनाई पहली हिंदुस्तानी फिल्म राजा हरिश्चंद्र के साथ ही शुरू हो गया था। जाहिर है दूसरे कारोबारों की तरह सिनेमा भी सिर्फ एक कला शुरू से नहीं रहा। इसे कारोबार के लिए ही रचा गया और अब तक कारोबार ही इसे रच रहा है।

सिनेमा और कारोबार के बीच एक बहुत महीन फासला रहा है। कुछ कुछ वैसा ही जैसे कि नग्नता और अश्लीलता में होता है। हिंदी समेत तमाम दूसरी भाषाओं में सिनेमा ने कुछ बेहतरीन पड़ाव पचास और साठ के दशक में पार किए। तब भी भारत का सिनेमा विदेश जाता था। सराहा जाता था और पुरस्कार भी पाता था। पर तब तक सिनेमा पथभ्रष्ट नहीं हुआ था। और तब तक सेंसर बोर्ड में ऐसे लोग भी नहीं आए थे जो कैसे इसकी ले लूं मैं, जैसे विज्ञापन तो सार्वजनिक प्रदर्शन के लिए पास कर देते रहे हों लेकिन फिल्म में तिब्बत के झंडे को लेकर उनका सामाजिक बोध एकदम से जाग जाता रहा हो। देखा जाए तो भारत में सिनेमा के सौ साल एक ऐसी बेतरतीब उगी फसल है, जिसे काटने वाले और अपना बताने वाले बहुत हैं, लेकिन इसका रकबा बढ़ाने की और बाकी की बंजर जमीन पर हल चलाने की कोशिश करने वाले गिनती के भी नहीं बचे हैं। अपने आसपास से कहानियां बटोरने वाला भारतीय सिनेमा कब धीरे धीरे डीवीडी सिनेमा में बदल गया, लोगों को पता तक नहीं चला।

असल कहानियों का टोटा
ब्लैक फ्राइडे, पांच, देव डी और गुलाल जैसी फिल्मों से मशहूर हुए निर्देशक अनुराग कश्यप कहते हैं, भारतीय सिनेमा की कोई एक पहचान नहीं है। हॉलीवुड फिल्मों की बात चलते ही हम कह देते हैं कि वहां सिनेमा तकनीक से चलता है। हमारे यहां तकनीक अभी उतनी सुलभ नहीं है। हर निर्माता सिर्फ तकनीक को सोचकर सिनेमा नहीं बना सकता। भारतीय सिनेमा की एक पहचान जो पिछले सौ साल में बनी है, उसमें मुझे एक बात ही समझ आती है और वो है इसकी सच्चाई। सिनेमा और सच्चाई का नाता भारतीय सिनेमा में शुरू से रहा है। बस बदलते दौर के साथ ये सच्चाई भी बदलती रही है और बदलते दौर के सिनेकार जब इस सच्चाई को परदे पर लाने की सच्ची कोशिश करते हैं, तो बवाल शुरू हो जाता है। अनुराग की फिल्मों के सहारे भारतीय सिनेमा के पिछले बीस पचीस साल के विकास को भी समझा जा सकता है। अनुराग कश्यप भले अपने संघर्ष के दिनों को पीछे छोड़ आए हों और अपनी तरह के सिनेमा की पहचान भी बना चुके हों, लेकिन उनका सिनेमा पारिवारिक मनोरंजन के उस दायरे से बाहर का सिनेमा है, जिसे देखने के लिए कभी हफ्तों पहले से तैयारियां हुआ करती थीं। एडवांस बुकिंग कराई जाती थीं और सिनेमा देखना किसी जश्न से कम नहीं होता था। अब सिनेमा किसी मॉल में शॉपिंग सरीखा हो चला है। विंडो शॉपिंग करते करते कब ग्राहक शोरूम के भीतर पहुंचकर भुगतान करने लग जाता है, खुद वो नहीं समझ पाता। जाहिर है सिनेमा बस एक और उत्पाद भर बन जाएगा तो दिक्कत होगी ही।
किसी भी देश के मनोरंजन में उसकी मिट्टी की खुशबू न हो तो बात लोगों के दिलों तक असर कर नहीं पाती है। भले दिबाकर बनर्जी जैसे लोगों को लगता हो कि हिंदुस्तान का साहित्य अब ऐसा बचा ही नहीं जिस पर सिनेमा बन सके, पर असल दिक्कत सिनेमा के साथ तकनीशियनों के आराम की भी है। काशीनाथ सिंह के मशहूर उपन्यास काशी का अस्सी पर सनी देओल जैसे सितारे के साथ फिल्म बना रहे डॉ. चंद्र प्रकाश द्विवेदी कहते हैं, सिनेमा खुद को बनाता है। हमें बस एक ऐसा कथ्य तलाशना होता है, जिसके जरिए हम दर्शकों के दिल को टटोल सकें। भारतीय सिनेमा के उत्थान और पतन जैसी ऐतिहासिक बातों में न पड़ा जाए तो भी ये तो कहा ही जा सकता है कि भारत में सिनेमा दो खांचों में बंटा दिखता है। इसमें एक सिनेमा वो है जिसमें सिर्फ टिकट खिड़की का मनोविज्ञान काम कर रहा होता है। ये सिनेमा सिर्फ टिकट खिड़की पर भीड़ जुटाने में यकीन रखता है। दूसरी तरह का सिनेमा भी टिकट खिड़की पर भीड़ तो देखना चाहता है, लेकिन उसे बनाने वाला ये भी चाहता है कि तीन घंटे सिनेमाघर में बिताने के बाद दर्शक खुद पर खीझता हुआ बाहर न निकले। मनोरंजन हो, लेकिन स्वस्थ हो, बस दूसरी तरह का सिनेमा यही चाहता है। लेकिन, इसके लिए रास्ता बहुत कठिन है और इस पर आपको अपनी सोच का हमसफर मिलेगा भी, ये आखिर तक ठीक नहीं होता। द्विवेदी की बातों में दम नजर आता है। रीमेक पर रीमेक बना रहे सिनेमा में वाकई असल कहानियां खोजने वाले गिनती के हैं।

कहां गए वो लोग?
कहानियों के बाद सिनेमा के सौ साला जश्न के दौरान अगली बात निकलती है निर्देशन की। ऐसा क्यूं कर है कि अजीज मिर्जा, श्याम बेनेगल, रमन कुमार, बी आर इशारा और सागर सरहदी जैसे फिल्म निर्देशकों को इन दिनों पहले फिल्में बनाने के लिए और फिर बन जाने पर उन्हें बेचने के लिए सौ जगह सिर पटकने पड़ रहे हैं। सागर सरहदी की फिल्म चौसर लिखने वाले राम जनम पाठक कहते हैं, सिनेमा अब मूल्यों और सामाजिक जिम्मेदारियों को टटोलने का माध्यम नहीं रह गया है। ये माध्यम अब सिद्दीक जैसे लोगों का है जो एक ही फिल्म को अलग अलग तड़का लगाकर अलग अलग भाषाओं में बनाते रहते हैं। पाठक मानते हैं कि सिनेमा की सामाजिक सोच अकाल मृत्यु का शिकार हो चुकी है और अब यहां सिर्फ वही तीर मार सकता है जिसकी जेब में पैसा हो और जिसके निशाने पर भी बस पैसा ही हो। पैसे का बोलबाला सिनेमा में हमेशा से रहा है पर सिनेमा में भी नकारात्मक प्रवृत्तियों का प्रतिकार ही किया है। मशहूर निर्देशक जहानु बरूआ के साथ लंबे समय तक जुड़े रहे पटकथा लेखक निलय उपाध्याय कहते हैं, सिनेमा के सौ साल का सबक यही है कि यहां हुनर के बजाय तिजोरी का सम्मान होने लगा है। भारतीय सिनेमा खासकर हिंदी सिनेमा एक ऐसी अंधी सड़क पर रफ्तार लगा चुका है, जिसके मोड़ों और मंजिल के बारे में उसे खुद नहीं पता। सिनेमा अब सिनेमा रहा ही नहीं, वह खालिस मनोरंजन का बाजार बन चुका है। एक ऐसा बाजार जहां एक रुपये लगाकर सौ रुपये कमाने का जुआ खेला जा रहा है और जिसकी फड़ पर फेंके जा रहे पत्तों में हर बार तीन इक्के निकलने ही निकलने जरूरी हैं। ऐसे में ये तीनों इक्के किसके पास निकलेंगे जाहिर है ये पहले से तय होता है। भारतीय सिनेमा की अब विदेशी फिल्म समारोहों में बात होती है तो या तो किसी वाद विवाद के चलते या फिर देह के दर्शन के चलते। अब न लोगों को गुरुदत्त याद रहे, ना के आसिफ। यहां तक कि मनमोहन देसाई, प्रकाश मेहरा और रमेश सिप्पी तक लोगों को बीते जमाने की बातें लगने लगे हैं।

शो जस्ट गोज ऑन
सौ साल के सिनेमा के सफर में अगर दक्षिण के नामचीन कलाकारों में एन टी रामाराव, राजकुमार, जय ललिता जैसे दर्जनों सितारों के नाम लगातार आते हैं तो पश्चिम और पूरब के सितारों में ये गिनती कलाकारों की कम और सितारों की ज्यादा होती है। इस मामले में सिनेमा के साथ चारों दिशाओं में एक हादसा एक सा हुआ और वह है नए कलाकारों का सिनेमा में प्रवेश करीब करीब बंद हो जाना। सिनेमा अब करोड़ों का हो चला है और पिछले बीस साल में एक भी निर्माता ने करोड़ों का दांव किसी ऐसे लड़के पर नहीं खेला है जिससे उसका दूर दूर का कोई नाता तक न हो। हिंदी सिनेमा का आखिरी सुपर स्टार रणवीर कपूर जिस खानदान से है वो तो सबको पता ही है, उनसे पहले जो सुपर सितारा 2001 में बड़े परदे पर नमूदार हुआ वो ऋतिक रोशन भी फिल्मी परिवार का ही है। सिनेमा को नजदीक से जानने वालों को भी अब समझ में आता है कि अब सिनेमा नहीं बस प्रोजेक्ट बनते हैं। हर निर्देशक किसी न किसी सितारे को पकड़ने की जुगाड़ में कई कई साल गुजार देता है। अशोक कुमार, पृथ्वीराज कपूर आदि के जमाने के बाद भले पहले राज कपूर, देव आनंद, दिलीप कुमार, फिर अमिताभ बच्चन, राजेश खन्नाा, ध्ार्मेंद्र, विनोद खन्नाा, राजेंद्र कुमार और मिथुन चक्रवर्ती तक आते आते सिनेमा में अपने बूते कुछ बन दिखाने या कर सुनाने वालों की गिनती कम होती रही हो, पर तय ये भी रहा कि सिनेमा ने नए का स्वागत करना बंद नहीं किया। लेकिन, तीसेक साल पहले मिथुन चक्रवर्ती के सुपर स्टार बनने के बाद से फुटपाथ पर फाकाकशी करने वाले किसी आम इंसान ने रुपहले परदे पर शोहरत का सबसे ऊंचा शिखर नहीं पाया। और, हिंदुस्तानी सिनेमा की पतन गाथा की शुरूआत भी बस वहीं से शुरू होती है।

तकनीक का उनवान
राजेंद्र कुमार की गोरा और काला, दिलीप कुमार की राम और श्याम, हेमा मालिनी की सीता और गीता से लेकर शाहरूख खान की ओम शांति ओम तक आते आते डबल रोल को ही सिनेमा की बेहतरीन तकनीक समझने वालों के नजरिए में भी कुछ ऐसा बदलाव आया है कि अब रा वन में अर्जुन रामपाल को एक ही फ्रेम में दस दस अवतारों में देखकर भी लोगों को अचंभा नहीं होता। दशावतारम व रोबोट के बाद अगली बारी विश्वरूपम् और कोचादईयान की है लेकिन मशहूर सिनेमैटोग्राफर विजय अरोरा कहते हैं कि हिंदुस्तानी सिनेमा में भावनाएं हमेशा तकनीक पर बाजी मारती रहेंगी। देश का आम दर्शक तीन घंटे के लिए जब सिनेमाघर में घुसता है तो कहीं न कहीं उसकी पीठ पर पसीने की कुछ बूंदें टिकी रह ही जाती हैं। परदेस में सिनेमा देखने आने वाले ज्यादातर लोग महंगी कारों से आते हैं, अपने यहां अब भी मल्टीप्लेक्स में सिनेमा देखने वाले ज्यादातर लोग ऑटो रिक्शा से आते हैं। बस सिनेमा का असल फर्क यहीं है। सिर्फ महंगे हॉलों में सिनेमा देखने भर से सिनेमा की परंपरा नहीं बदलती। सिनेमा की परंपरा इसे देखने वालों के जीवन में होने वाले बदलावों से बदलती है।

सूख रही संगीत सरिता
भारतीय सिनेमा की विदेश में एक बड़ी पहचान इसके संगीत की वजह से ही रही है। दुनिया में सबसे ज्यादा फिल्में बनाने वाले देश भारत में तकरीबन हर फिल्म में संगीत को तवज्जो दी जाती है और गाने इसकी पहचान रहते हैं। पर, अब ये संगीत सरिता अपने गोमुख में ही सूख रही है। मशहूर संगीतकार जोड़ी लक्ष्मीकांत-प्यारेलाल के प्यारे लाल कहते हैं, भारतीय सिनेमा ने पिछले बीस तीस साल में सबसे ज्यादा पतन अगर किसी विभाग में देखा है तो वो संगीत ही है। नए संगीतकारों में इन दिनों बस कुछ ऐसा कर देने की होड़ लगी है जो उनके गाने के मुखड़े को लोगों की जुबान पर चढ़ा दे या फिर जिसकी बीट्स पर कम कपड़ों वाली लड़कियां डिस्कोथेक में ठुमके लगा दें। धिक्कार है ऐसी तुकबंदियों पर जिसे लोग संगीत के नाम पर बेच रहे हैं। मैं मानता हूं कि संगीत को सबसे ज्यादा नुकसान पायरेसी ने पहुंचाया है, लेकिन ये भी संगीत कंपनियों का बस एक बहाना है। जितना पैसा पहले संगीत कंपनियां सीडी या कैसेट बेचकर नहीं कमा पाती थीं, उससे कहीं ज्यादा पैसा वो कॉलर ट्यून्स बेचकर कमा रही हैं, बस नीयत बदल गई है। सिने संगीत के स्वर्णिम काल की याद दिलाने पर प्यारे लाल कहते हैं, वो जमाना ही कुछ और था। सौ लोगों का आर्केस्ट्रा अगर किसी स्टूडियो में नहीं आ पाता था तो हम लोग रात में किसी पार्क में जाकर रिकॉर्डिंग कर लिया करते थे। पर अब ना वो हरियाली बची है, ना रातों का सन्नााटा और ना लोगों में संगीत का वो जुनून। हर कोई जल्दी में हैं। हर किसी को शॉर्टकट पता हो गए हैं। लेकिन सिनेमा का तिलिस्म शॉर्ट कट से नहीं उपजता, इसके लिए लंबी और थका देने वाली मेहनत करनी ही होती है।

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(यह आलेख नेशनल दुनिया के 15 अप्रैल 2012 के अंक में प्रकाशित हो चुका है)

मंगलवार, 10 अप्रैल 2012

अच्छी कहानियों पर तवज्जो देने की ज़रूरत: सनी देओल


सनी देओल का नाम लेते ही जो सबसे पहली इमेज जेहन में उभरती है वो है ढाई किलो के हाथ वाले एक ऐसे शख्स की, गुस्सा जिसकी नाक पर रहता है। लेकिन, सनी देओल असल जिंदगी में इसके ठीक उलट हैं। बेहद शांत स्वभाव, आसपास की चीजों पर पैनी नजर और फोटोग्राफी का शौक। सनी इन दिनों अपने करियर के बेहद अहम मोड़ पर हैं। और, इस मोड़ पर वो जो फिल्में कर रहे हैं, उनमें से हरेक में उनका किरदार दूसरे से बिल्कुल इतर है। सनी से एक और खास मुलाकात।

© पंकज शुक्ल

इन दिनों हर तरफ एक ही बात की चर्चा हो रही है कि हिंदी सिनेमा की गति और इसका ग्लैमर बदल रहा है। निर्माता निर्देशक फिर से जमीन से जुड़ी कहानियां तलाश रहे हैं। आपका क्या मानना है इस बारे में?
हिंदी सिनेमा की पहचान ही शुरू से इसकी कहानियों की ही वजह से रही है। स्टारडम से फिल्में चलती हैं, लेकिन उसके लिए भी कहानी पहली जरूरत है। मेरा निजी तौर पर ये मानना है कि किसी भी फिल्म को चलाने के लिए इसकी कहानी का दिलचस्प और मनोरंजक होना जरूरी है। विद्या बालन की फिल्म कहानी का असली हीरो इसकी कहानी ही है। लोग अब ग्लैमर के साथ साथ कहानियों में सच्चाई तलाश रहे हैं, ऐसी कहानियां जो उन्हें अपने आसपास की भी लगें और उनकी कल्पना को एक नए धरातल पर भी ले जाएं। ये अच्छा संकेत है कि हिंदी सिनेमा फिर से अपनी मजबूती को समझ रहा है और इस तरफ कोशिशें भी अच्छी हो रही हैं।
तो क्या समझा जाए कि एनआरआई सिनेमा और विदेशी लोकेशन्स पर शूटिंग करने के दिन हिंदी सिनेमा में लदने वाले हैं?
मैं जो समझ पा रहा हूं उसके मुताबिक हिंदी सिनेमा के दर्शक इन दिनों सूचनाओं के विस्फोट के दौर से गुजर रहे हैं। वे अपने घरों में तमाम टीवी चैनलों पर विदेश की खूबसूरत जगहों से लेकर वे सारी चीजें देखते हैं, जिन्हें देखने के लिए कभी सिर्फ सिनेमा ही उनके पास इकलौता जरिया हुआ करता था। लेकिन, इसके बावजूद ग्लैमर का आकर्षण तो रहना ही है। सिनेमा देश में बने या परदेस में, उसका दर्शकों के लिए ईमानदार होना जरूरी है। अगर फिल्म का हीरो दर्शकों को भाता है तो फिर वहां कहां जाकर क्या करता है? इसका फर्क नहीं पड़ता।
आपकी फिल्म मोहल्ला अस्सी हिंदी सिनेमा का एक ऐसा मोड़ कही जा रही है, जिसके आगे हिंदी सिनेमा एक नई पहचान पा सकता है। खासतौर से अपने कथानक की वजह से।

मोहल्ला अस्सी मैंने बहुत सोच विचार करने के बाद की है। ऐसी फिल्में रोज रोज नहीं बनती। फिल्म की शूटिंग पूरी होने के करीब है और अभी हम इसके गाने शूट करने बनारस आए हुए हैं। लोग मुझे बता रहे हैं कि बनारस में वैसे तो तमाम फिल्में शूट हो चुकी हैं, लेकिन किसी भी फिल्म में अब तक बनारस को बनारस के नजरिए से देखने की कोशिश नहीं की गई। काशीनाथ सिंह के उपन्यास काशी का अस्सी पर बन रही इस फिल्म का असली मंतव्य ही यही है कि लोग अपनी चीजों को अपने नजरिए से देखने की पहल शुरू करें। मोहल्ला अस्सी की चर्चा इसीलिए हो रही है और इस फिल्म का सबसे बड़ा योगदान यही है कि इसी फिल्म की शुरूआत ने लोगों को जमीन से जुड़ी कहानियों की तरफ ध्यान देने के लिए प्रेरित किया। ये हिंदी सिनेमा का टर्निंग प्वाइंट हो सकती है।
शाहरुख खान के गाने छैंया छैंया में जैसे ट्रेन का और कैटरीना कैफ के गाने धुनकी धुनकी में जिस तरह ट्रकों का इस्तेमाल किया गया, वैसे ही इस फिल्म के गाने हर हर गंगे में नावों का इस्तेमाल किया जा रहा है। इस गाने के बारे में कुछ बताएंगे?
फिल्म के निर्माता विनय तिवारी गोरखपुर से हैं और बनारस उनके दूसरे घर जैसा ही रहा है। उन्होंने और डॉ. चंद्रप्रकाश द्विवेदी ने मिलकर इस गाने की परिकल्पना तैयार की और कोरियोग्राफर अहमद खान ने इसे हकीकत में तब्दील करने की कोशिश की है। अपने पूरे प्रवाह के दौरान गंगा दो स्थान पर ही धारा के विपरीत यानी दक्षिण से उत्तर की तरफ बहती है। ये स्थान हैं-उत्तरकाशी और बनारस। वरूणा और अस्सी के इस मिलन स्थल पर हमने एक गाना शूट किया है जिसमें पाल लगी दर्जनों नावें एक साथ गंगा पर तैरती दिखेंगी। बहुत ही मुश्किल शूट था ये। नावों पर सवार सैकड़ों लोग और तमाम दूसरे कलाकार। लेकिन, हमें खुशी है कि पूरा गाना बहुत ही सुरक्षित तरीके से शूट हो गया है, लोग जल्द ही इसे टीवी चैनलों पर देख पाएंगे।
और आगे?
इन दिनों काफी कुछ चल रहा है और मुझे उम्मीद है कि मेरे प्रशंसकों को इस बारे में जल्द ही जानकारी भी मिलनी शुरू हो जाएगी। मैं इन दिनों कहानियां खूब सुन रहा हूं और इनमें से तमाम नए निर्देशक और लेखक भी हैं। सिनेमा में जो नए लोग आ रहे हैं, उनका नजरिया एक दो दशक पहले के निर्देशकों से बिल्कुल अलग है। सबसे ज्यादा खुशी मुझे इस बात की भी होती है कि हिंदी सिनेमा में आ रहे नए लोगों की कहानियां पश्चिम से ज्यादा प्रभावित नहीं है। ये लोग हिंदुस्तान को जेहन में रखकर सिनेमा लिख रहे हैं और आने वाला सिनेमा इन्हीं लोगों का है।

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