मंगलवार, 20 मार्च 2012

कुछ कहता है ये सिनेमा.. !

सार्थक सिनेमा, समानांतर सिनेमा और इतर सिनेमा के बाद हिंदी सिनेमा में इन दिनों एक नया सिनेमा धीरे धीरे शक्ल लेने लगा है। ये है जमीनी सिनेमा। जी हां, वो सिनेमा जो हिंदुस्तान की जमीन से अपनी खुराक पाता है। हमारे आपके बीच से कहानियां उठाता है और उसे बिना किसी दिखावे या लाग लपेट के ज्यों का त्यों परदे पर परोस देता है। पान सिंह तोमर व कहानी की कामयाबी और आने वाली फिल्मों गैंग्स ऑफ वाशीपुर व मोहल्ला अस्सी के बहाने नए ज़मीनी सिनेमा के चलन पर एक टिप्पणी।

© पंकज शुक्ल

साल की शुरूआत में प्लेयर्स जैसी मल्टीस्टारर फिल्म को मिली नाकामयाबी और इधर पहले पान सिंह तोमर और फिर कहानी को दर्शकों से मिली वाहवाही से एक बात का संकेत साफ मिलता है और वो ये कि दर्शक अब मसाला फिल्मों के निर्माताओं के मायाजाल से निकलने को छटपटा रहे हैं। जमीन से जुड़ी कहानियों को मिल रहे अच्छे प्रतिसाद ने उन निर्माता निर्देशकों के भी हौसले बुलंद किए हैं जो विदेशी फिल्मों की नकल करने की बजाय अपने आसपास की कहानियों को परदे पर उतारने की परंपरा का पालन करते रहे हैं। पान सिंह तोमर और कहानी की कामयाबी का सबसे दिलचस्प पहलू ये है कि भले विद्या बालन ने इस फिल्म के प्रचार के लिए एक गर्भवती महिला का स्वांग भरकर जबर्दस्त प्रचार किया हो लेकिन इस फिल्म के प्रचार में एक भी अभिनेता ने हिस्सा नहीं लिया। वहीं, पान सिंह तोमर के प्रचार के लिए इन दिनों फैशन बन चुके सिटी टूर तक नहीं हुए। इरफान चुपचाप अपनी पंजाबी फिल्म किस्सा की शूटिंग करते रहे और एक अच्छी फिल्म के बारे में लोगों को बताने का जिम्मा टि्वटर और फेसबुक पर मौजूद इरफान के प्रशंसकों ने संभाल लिया। दोनों फिल्मों की अच्छाइयां बताने के लिए सोशल नेटवर्किंग साइट्स पर एक अभियान सा छिड़ा दिखा और इन दोनों फिल्मों को हिंदी सिनेमा में कथानक की वापसी और स्टार सिस्टम की विदाई के तौर पर भी लोग देखने लगे हैं।

लोग अब सितारों से ज्यादा कहानियों पर ध्यान देने लगे हैं। विद्या बालन की फिल्मों ने दर्शकों के सोचने के नजरिए में इस तरह का बदलाव लाने में बड़ी भूमिका निभाई है।-बिपाशा बसु, अभिनेत्री
पिछले दो तीन साल से जिस तरह धुआंधार प्रचार करके दबंग, रेडी और रा वन जैसी फिल्मों ने बॉक्स ऑफिस से करोड़ों रुपये बटोरे हैं, उसके चलते दर्शकों को भी अब समझ में आने लगा है कि हर वो फिल्म जिसके प्रचार के लिए सितारे शहर शहर घूमे, अच्छी ही हो ये जरूरी नहीं। काठ की हांडी के एक बार ही आग पर चढ़ पाने की बात लोगों को पता थी लेकिन इसके बावजूद बीते चंद महीनों में दर्शकों को यूं छलने का क्रम जारी रहा। ट्रेड मैगजीन सुपर सिनेमा के संपादक विकास मोहन कहते हैं, प्रचार करने के परंपरागत तरीकों में जोर फिल्म की कहानी का खुलासा करने के साथ साथ इसकी यूएसपी बताने पर रहा करता था। लेकिन, मौजूदा दौर में प्रचार के दौरान फिल्म के बारे में बातें कम होती हैं, और तमाम दूसरी चीजों के जरिए फिल्म के बारे में उत्सुकता जगाने पर फिल्म निर्माताओं की मेहनत ज्यादा होती है। इस फॉर्मूले ने कुछ एक औसत से हल्की फिल्मों के लिए काम भी किया, पर अब दर्शक भी उपभोक्ता की तरह सोचने लगा है। उसे बार बार बेवकूफ नहीं बनाया जा सकता।

अब 14-15 साल का बच्चा भी फिल्मों की कहानियों की चोरी या संगीत की धुनों की चोरी पकड़ सकता है। ऐसे में जरूरी हो गया है कि हम अपनी तरह की फिल्में बनाएं।-विनय तिवारी, निर्माता, मोहल्ला अस्सी
फिल्म प्लेयर्स में मुख्य नायिका रहीं बिपाशा बसु भी विकास मोहन की बात से सहमत नजर आती हैं। वह कहती हैं, मुझे ये मानने में कतई गुरेज नहीं कि प्लेयर्स पूरी तरह फ्लॉप रही। हिंदी सिनेमा में एक बार फिर जमाना वर्ड ऑफ माउथ पब्लिसिटी का लौट आया है यानी फिल्म देखकर निकलने वाले दर्शक अगर फिल्म के बारे में अच्छी बातें करते हैं तभी इसका फायदा फिल्म को मिलता है। सोशल नेटवर्किंग साइट्स के चलते इसकी अहमियत और भी ज्यादा बढ़ गई है। अब तो हर दर्शक फिल्म समीक्षक हो गया है, वह फिल्म देखकर निकलने के साथ ही उसके बारे में फेसबुक या टि्वटर पर टिप्पणी कर देता है और इसका असर होता है। इसका सार्थक पहलू ये है कि लोग अब सितारों से ज्यादा कहानियों पर ध्यान देने लगे हैं। विद्या बालन की फिल्मों ने भी दर्शकों के सोचने के नजरिए में इस तरह का बदलाव लाने में बड़ी भूमिका निभाई है।


तो क्या पान सिंह तोमर और कहानी जैसी फिल्मों की कामयाबी की वजह से दर्शकों को अब बड़े परदे पर और भी लीक से इतर और ख़ालिस हिंदुस्तानी कहानियों पर बनी फिल्में देखने को मिलेंगी? जवाब देते हैं फिल्म निर्माता विनय तिवारी। वह कहते हैं, हिंदी सिनेमा को विदेशी सिनेमा की नकल करने की बहुत बुरी बीमारी रही है। इंटरनेट और सैटेलाइट टेलीविजन से ही इस कैंसर का इलाज मुमकिन था और ये अब हो भी रहा है। अब 14-15 साल का बच्चा भी फिल्मों की कहानियों की चोरी या संगीत की धुनों की चोरी पकड़ सकता है। ऐसे में जरूरी हो गया है कि हम अपनी तरह की फिल्में बनाएं। भारतीय सिनेमा को विदेशों में पहचान मदर इंडिया जैसी फिल्मों से ही मिली है और हिंदी साहित्य में ऐसा बहुत कुछ लिखा गया है जिस पर अच्छी हिंदी फिल्में बन सकती हैं। हमने साहित्य अकादमी पुरस्कार विजेता काशीनाथ सिंह के उपन्यास काशी का अस्सी पर फिल्म बनाने का फैसला इसी क्रम में लिया। और, मुझे खुशी इस बात की सबसे ज्यादा है कि सनी देओल जैसे बड़े सितारे भी अब इस बात को समझ रहे हैं और इस तरह के प्रयासों का समर्थन करने के लिए आगे आ रहे हैं।

निर्माता विनय तिवारी की डॉ. चंद्र प्रकाश द्विवेदी निर्देशित फिल्म मोहल्ला अस्सी को लेकर फिल्म जगत के अलावा युवाओं खासकर छात्रों में बेहद दिलचस्पी है। और, ऐसी ही दिलचस्पी लोग एक और जमीन से जुड़ी फिल्म गैंग्स ऑफ वाशीपुर को लेकर भी दिखा रहे हैं। निर्देशक अनुराग कश्यप की इस फिल्म की प्रेरणा भले एक अंग्रेजी फिल्म ही रही हो, पर भारत की दशा और दिशा में पिछले छह दशकों में आए बदलाव को कहने के लिए जिस तरह उन्होंने एक आम गैंगवार को कहानी को सूत्रधार बनाया है, वो काफी रोचक हो सकता है। अनुराग कश्यप फिलहाल इस फिल्म के बारे में ज्यादा कुछ कहते नहीं हैं। हालांकि, इस फिल्म के निर्माण से जुड़े लोग इसे अनुराग के करियर की अब तक की सबसे महंगी और सबसे निर्णायक फिल्म बता रहे हैं। आमिर और नो वन किल्ड जेसिका जैसी फिल्में बनाने वाले निर्देशक राजकुमार गुप्ता भले नाम कमाने के बाद अब पैसा कमाने के लिए घनचक्कर जैसी विशुद्ध मसाला कॉमेडी फिल्म बनाने की राह पर निकल गए हों, लेकिन पान सिंह तोमर के जरिए कामयाबी की नई ऊंचाई छूने वाले इरफान खान का नजरिया साफ है। वह कहते हैं, कहानी को सोचे और सीते बिना फिल्म बनाना अपने साथ बेईमानी है। और कोई भी काम बिना ईमानदारी के किया जाए तो ज्यादा दिन तक सुकून देता नहीं हैं। हम हिंदुस्तानी सदियों से भावनाओं में बहते आए हैं और ऐसे में अगर ये भावनाएं हमारे अपने बीच की हों तो हर आदमी का दिल ऐसी कहानियों के साथ हो ही लेता है।

संपर्क – pankajshuklaa@gmail.com

7 टिप्‍पणियां:

  1. युवा निर्देशकों और लेखकों की नई सोच नें इस तरह के सिनेमा को जन्म दिया है और सिनेमा में कुछ अच्छा करने की सराहनिय कोशिश की है, लेकिन कुछ प्रयास करने के बाद फिर यही लोग विदेशी सिनेमा की नकल करने में लग जाते है पैसे की अंधभक्ति में मग्न हो जाते हैं ,आमिर और नो वन किल्ड जेसिका जैसी फिल्में बनाने वाले निर्देशक राजकुमार गुप्ता उदाहरण है.

    पान सिंह तोमर गजब की फिल्म है कहानी असली है इसलिए नया पन भी है लेकिन बहुत हद तक इरफान की एक्टिंग नें इस फिल्म को एक महान फिल्म बनाया है.
    मोहल्ला अस्सी भी एैसे ही दर्शकों के बीच अपनी जगह बनाएगी और विदेशी नकल करने वालो के मुंह पर एक ज़मीनी तमाचा मारकर ये बता देगी की असली सिनेमा किसे कहते हैं.

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  2. Shyam Tyagi - कामयाबी के तमाम शॉर्टकट्स में से एक दूसरों की नकल करना भी शामिल है। साहित्य, कला और सिनेमा में विदेशी रचनाओँ की नकल का लंबा इतिहास रहा है और भूमंडलीकरण के दौर से पहले ऐसे तमाम लोग 'महान' रचनाकारों का दर्ज़ा पाते रहे जिनके सृजन में बड़ा हिस्सा उठाईगिरी का था। पर, अब ये पाखंड ज्यादा टिकता नहीं है और ऐसे लोग बस धूमकेतु की तरह चमक कर रह जाते हैं। उम्मीद की जानी चाहिए कि हिंदी सिनेमा के ये नए नाम ध्रुवतारे बनकर दूसरों को भी राह दिखाएंगे।

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  3. anurag.irfan,tishu jaise log hamre le a icon hai..jo bina filmi background ke apni sarthak upaisthi darj karaye..pata nahi nakal kyo karte hai..sujao ne kaha ki mai jab ve colcatta jata hu to 50 story aati hai man me..ye kyo nbahi samajhte ki aaj se pahle ve logo ne commercialfilme ve banaye aur hit ve rahi..aaj ke samay me log unhe yaad nahi karte..unki filmo le lekar bahas nahi hoti..aaj ve log boot polish aur aab delhi door nahi ke dvd kharidte hai..salute in logo ko jo industry ke disha ko badlne ke lea katibadh hai..

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    1. इन्हीं लोगों पर सिनेमा को ईमानदार बनाए रखने की जिम्मेदारी है और उम्मीद है ये उसे निभाएंगे भी। लोगों का भ्रम टूटने में देर नहीं लगती, सिनेकारों को ये बात सतत रूप से खुद को याद दिलाती रहनी चाहिए।

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  4. वर्तमान काल में जब साहित्य का स्थान फिल्मे ले रही हों, पानसिह तोमर और कहानी जैसी फिल्मों के सफल होने का स्वागत किया जाना चाहिए. और जैसा कि पंकज जी ने कहा कि अब १५ साल का बच्चा भी समझता है कहानियों को और चाहता है जमीन से जुडी हुयी कहानियाँ .... और इसे मात्र अच्छे फिल्मकारों का योगदान कहा जाना इसे कमतर आंकना है, यहाँ तो पंकज जी एक सामाजिक समझ के निर्माण की बात कर रहें हैं, जो यह सुखद है भारतीय समाज के लिए

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    1. बहुत बहुत धन्यवाद। सिनेमा को देखने की समझ विकसित कहना वाकई बहुत ज़रूरी है।

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  5. वर्तमान काल में जब साहित्य का स्थान फिल्मे ले रही हों, पानसिह तोमर और कहानी जैसी फिल्मों के सफल होने का स्वागत किया जाना चाहिए. और जैसा कि पंकज जी ने कहा कि अब १५ साल का बच्चा भी समझता है कहानियों को और चाहता है जमीन से जुडी हुयी कहानियाँ .... और इसे मात्र अच्छे फिल्मकारों का योगदान कहा जाना इसे कमतर आंकना है, यहाँ तो पंकज जी एक सामाजिक समझ के निर्माण की बात कर रहें हैं, जो यह सुखद है भारतीय समाज के लिए

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