रविवार, 26 फ़रवरी 2012

अपने यहां नहीं चलेगा इंटेलेक्चुल सिनेमा : इरफ़ान खान

इरफ़ान खान भारतीय सिनेमा के उन चंद कलाकारों में से हैं, जिनकी शोहरत घर और बाहर एक जैसी है। स्पाइडर मैन सीरीज की नई फिल्म में एक खास किरदार कर रहे इरफ़ान की एक और अंतर्राष्ट्रीय फिल्म लाइफ ऑफ पाई भी जल्द रिलीज होने वाली है। लेकिन, इरफ़ान इस कामयाबी पर इतराते नहीं है। उनके पांव अब भी जमीन पर है, बिल्कुल अपने नए किरदार पान सिंह तोमर की तरह।

© पंकज शुक्ल

ऐसे कलाकार कम ही होते हैं, जिनके सपने बहुत जल्दी सच हो जाते हैं। बड़े परदे पर नाम कमाने के आपके तमाम सपने पूरे हो चुके हैं। तो सपने पूरे होने के बाद एक कलाकार की मनोदशा क्या होती है?
-सपनों के साथ परेशानी क्या है कि ये पूरे तो होते हैं, लेकिन साथ ही कुछ और बड़े सपने आंखों में जगा जाते हैं। जयपुर से वाया दिल्ली मुंबई पहुंचने के दौर में मैंने तमाम सपने देखे और इनमें से ज़्यादातर एक एक करके पूरे भी होते गए। पर, अब मेरे सपने दायरों से बाहर फैलते जा रहे हैं। मुझे अब किसी दूसरे की पसंद के सिनेमा के लिए ना कह सकने की स्थिति हासिल है। मेरा सपना है कि मैं अपने तरह का सिनेमा कर सकूं। टेलीविजन पर जब अदाकारी के मेरे सारे सपने पूरे हो गए तो वहां मैं निर्देशन करने लगा था। लेकिन, बड़े परदे पर मेरे तमाम सपने अभी देखे जाने बाकी हैं। अदाकारी के आसमान में मेरी हसरतों के तमाम तारे अभी जगमगा रहे हैं और ऐसा हर तारा मेरी नींद में चमकता रहता है। मेरा सपना फिल्म निर्माता बनने का भी है और मुझे एहसास होता रहता है कि दूसरी खेप के ये सारे सपने मेरे जल्द पूरे होने वाले हैं।

पिछले एक दशक का हिंदी सिनेमा देखा जाए तो इरफ़ान खान उन चंद कलाकारों की फेहरिस्त में सबसे आगे दिखते हैं, जिनके नाम से लोगों में सिनेमाघर तक जाने की उत्सुकता जागती है। दूसरे शब्दों में कहें तो इरफान एक ब्रांड भी है। आप कभी सोचते हैं अपने बारे में इस तरह?
-हां, सच कहें तो ऐसा महसूस तो होता है लेकिन सच ये भी है कि मेरा ध्यान कभी इन बातों की तरफ ज्यादा जाता नहीं है। मेरा ये मानना है कि अगर आप जीवन में कोई स्थान हासिल कर पाने में सफल रहते हैं तो पूरा जोर फिर उस हैसियत को बनाए रखने में लगाना चाहिए। और, ये काम आसान नहीं है। एक कलाकार की तौर पर मेरा मानना है कि एक सितारे को कहानियों में ज्यादा रुचि लेनी चाहिए बजाय कि खुद को आगे बढ़ाने में। एक कलाकार सफल तभी है जब उसका निर्माता फिल्मों से पैसा कमा पाता है। मैंने कभी अपनी स्टाइल पर ध्यान नहीं दिया। मेरा ज़्यादा ज़ोर लोगों के दिलों से जुड़ने पर रहता है और मेरी कहानियां लोगों के दिमाग से जुड़ती हैं।

लेकिन ये कौन सी कहानियां हैं, वे जिन्हें कमर्शियल सिनेमा कहा जाता है या फिर वे जो वास्तविकता के काफी करीब हैं?
-मेरे हिसाब से सिनेमा वही है जो लोगों की ज़िंदगी के जज़्बात बांट सके। फंतासी या वास्तविक सिनेमा जैसा कोई बंटवारा होता नहीं है। सिनेमा अपने आप में एक फंतासी है। फंतासी यानी जो दर्शकों को कुछ घंटों के लिए किसी दूसरी दुनिया में ले जा सके। दर्शक अगर इस समय के लिए अपनी वास्तविक दुनिया को भूल जाए तो सिनेमा की असली सफलता यही है। सिनेमा में प्रयोग तो चलते ही रहते हैं तो रीयलिज्म भी सिनेमा में दिखेगा। लेकिन, अगर आप मेरी राय पूछें तो सिनेमा वही कामयाब होता है जो लोकप्रिय होता है। बौद्धिक सिनेमा कुछ लोग बनाते हैं जिसे इंटेलेक्चुल सिनेमा के नाम पर मीडिया में तारीफ भी खूब मिलती है लेकिन भारत में उसका सफल होना मुश्किल है। हिंदुस्तानी सिनेमा में कामयाबी की पहली शर्त है फिल्म में भावनाओं का उफान होना। बिना मानवीय संवेदनाएं समझे, उन्हें महसूस किए और उन्हें अपनी कहानी का हिस्सा बनाए भारतीय सिनेमा में किसी फिल्मकार का सफल होना बहुत मुश्किल है।

क्या कुछ कुछ वैसे ही जैसे इन दिनों हॉलीवुड सिनेमा में एक भारतीय किरदार होना? क्या मानते हैं आप इसे भारतीय कलाकारों की अंतर्राष्ट्रीय फलक पर बढ़ती पहचान या हॉलीवुड सिनेमा के सामने भारतीय बाजार की मजबूरी?
-हॉलीवुड सिनेमा में भारतीय कलाकारों की बढ़ती मौजूदगी बाजार की मजबूरी है, इसे मानने में मुझे कोई हिचक नहीं है। लेकिन, ये हमारे देश के हुनर की बढ़ती पहचान भी है। इसे सिर्फ बाजार की जरूरत मानकर खारिज कर देना ठीक नहीं। मैंने भी अंतर्राष्ट्रीय फिल्मों से बहुत कुछ सीखा है। वारियर से लेकर अमेजिंग स्पाइडर मैन तक के पड़ावों से मैंने जाना है कि सिनेमा की गहराई क्या है। यहां हर कलाकार पहले से धारणा बना लेता है कि मेरी फिल्म आखिर में बनकर ऐसी होनी चाहिए। वहां, फिल्म तैयार होने तक कोई किसी तरह की धारणा से काम नहीं करता। खुद मुझसे पूछिए तो मुझे नहीं पता कि अमेजिंग स्पाइरमैन बनकर तैयार होगी तो कैसी होगी? मेरा किरदार उसमें क्या प्रभाव छोड़ सकेगा, ये भी मैं नहीं कह सकता। वहां 400-500 करोड़ रुपये की फिल्म बनाना सामान्य बात है और कई बार वहां शूटिंग होने के बाद ही फिल्म पर असली काम शुरू होता है।

लेकिन, मेहनत तो कई फिल्मकार हिंदी सिनेमा में भी करते हैं, जैसे पान सिंह तोमर?
-हां, पान सिंह तोमर एक ऐसा किरदार है जिसे हमने वास्तविक जिंदगी से उठाया लेकिन जिसके बारे में हमें कहीं भी एक लाइन तक नहीं लिखी मिली। आठ साल तो इस कहानी पर रिसर्च करने में ही लग गए। इस किरदार के बारे में पहली बार हम लोगों को तब पता चला था जब हम बैंडिट क्वीन की शूटिंग चंबल में कर रहे थे। गांव का एक मामूली लड़का कैसे फौज में भर्ती हो गया और कैसे फौज के एक अफसर की नजर में आकर वह देश का काबिल एथलीट बना और फिर कैसे पारिवारिक रंजिश ने उसे एक दिन चंबल का दबंग बागी बना दिया? इस पूरी कहानी का ग्राफ ही दिल को झकझोर देता है। पान सिंह तोमर के बारे में तमाम किस्से हैं, लेकिन हमने हक़ीक़त के करीब रहने की कोशिश ज्यादी की है। पानसिंह की कहानी एक आम भारतीय के एहसासों की कहानी है। उसके संघर्ष की कहानी है।

(संडे नई दुनिया के 25 फरवरी 2012 के अंक में प्रकाशित)

6 टिप्‍पणियां:

  1. ek accha interview jise irfan ka najarea jhalkta hai apne kam aur industry ko lekar..irfan un chand kalkaro me se hai jo apne harek kirdar me jaan dal dete hai..ghhat ka ek scene-jab unki first entery hoti hai-manoj ke samne-aur wo ek dioluge bolker ki tu banega inspector..kahte hue frame ka sara attarcation le lete hai..sabse khas baat hai ki wo apne dioluge me melo drama nahi late..chahe wo salam bombay ho ya hasil..ek shandar abhineta

    जवाब देंहटाएं
  2. Jitendra Jha Jitu - बहुत बहुत धन्यवाद।

    जवाब देंहटाएं
  3. वाकई मजा आ गया इस साक्षात्कार को पढ़कर.....इरफान पर कुछ और हो तो जरूर बताइया....टीवी की दुनिया से में इरफान को देख रहा हूं...और बस देखता ही आ रहा हूं....दि फादर सीरियल में एक मनोचिकित्सक की भूमिका से ही मैं इराफान की एक्टिंग का दिवाना हूं....इन्शाअलाह प्रोड्यूसर बनने की मुराद उनकी जल्द पूरी हो....अल्लाह उनके रास्ते का हर कांटा चुन लें....

    जवाब देंहटाएं