बुधवार, 29 अगस्त 2012

मेरे लिए, एक फूल, हाथों में, तुमने लिया।


पंकज शुक्ल

मेरे लिए,
एक फूल,
हाथों में,
तुमने लिया।

मैं मानता हूं,
तुम मेरे,
मित्र हो,
हितैषी हो,
शुभचिंतक हो।

इस फूल की,
लाज निभाने को,
मैंने कसमें खाईं,
रसमें निभाईं,

पुराने वादे,
तोड़े,
नए रिश्ते जोड़े।

फिर देखा
इस फूल को,

तुम्हारी पलकें,
झुकी ही रहीं,

मुझे दिखा,
उनमें,
स्नेह,
सामीप्य,
और संगम।

मैं निश्चिंत,
आत्ममुग्ध,
मित्रता के मोह में,
ना सोचा,
ना विचारा,
बस आंखें मूंदे,
रहा,
डूबता-उतराता।

और,
फिर आंखें खुलीं,
पलकों पर मिट्टी,
आंखों में अंधेरा,
देह दबी हुई,

सिर के छह हाथ ऊपर,
एक पट्टिका,
मेरे जन्म-मरण की,
मेरे नाम संग,
लगी हुई,

और वो फूल,
हाथों में तुमने लिया,

मेरे लिए,
रखने को मेरी समाधि पर।

हां, मुझे याद है,

मेरे लिए,
एक फूल,
हाथों में,
तुमने लिया...

(29082012)

गुरुवार, 19 जुलाई 2012

टाइम हो गया है, पैक अप


"मैंने पहली बार उन्हें एक फिल्म पत्रिका में देखा, शायद फिल्मफेयर थी। उन्होंने फिल्मफेयर-माधुरी प्रतियोगिता जीती थी, वो प्रतियोगिता जिसके लिए आने वाले साल में मैंने भी अप्लाई किया और रिजेक्ट कर दिया गया। उनकी फिल्म आराधना दिल्ली में कनॉट प्लेस के रिवोली थिएटर में हमारी अगली मुलाकात का सबब बनी, जिसे देखने मेरी मां मुझे साथ ले गई थीं। खचाखच भरा सिनेमाहाल और दर्शकों की इस खूबसूरत नौजवां के लिए बजती तालियों को कोई रोक नहीं सकता था।

फिल्मफेयर माधुरी कांटेस्ट में हुआ मेरा प्राथमिक रिजेक्शन मुझे सेटैल्ड जॉब के लिए कलकत्ता ले आया था। मैं घर से दूर आया था ताकि मैं इंडस्ट्री में शामिल होने के कुछ दूसरे रास्ते तलाश सकूं। लेकिन राजेश खन्ना को देखने के बाद मुझे लगा कि ऐसे लोगों के आसपास होते हुए इस नए प्रोफेशन में मेरे लिए शायद ही कोई मौका या चांस हो।

जब सात हिंदुस्तानी के लिए मुझे कॉल आया। मैं मुंबई गया, मुझे रोल मिला और मैंने शूटिंग शुरू कर दी। इन में से एक हिंदुस्तानी यानी अनवर अली से मेरी दोस्ती मुझे उनके मशहूर भाई अनवर के भी करीब ले आई। महमूद भाईजान के इंडस्ट्री में दबदबे और उनकी अपनी पहचान ने मुझे एक बार फिर राजेश खन्ना से उनकी एक शूटिंग के दौरान एक इनफॉर्मल मीटिंग का मौका दिया। हमने बहुत औपचारिक तौर से हाथ मिलाया। उनके लिए ये रोजमर्रा की बात थी, पर मेरे लिए सम्मान की।

जल्द ही मुझे उनके साथ आनंद में काम करने का मौका मिला। ये चमत्कार जैसा था, भगवान का आशीर्वाद और इसने मुझे रिवर्स रेसपेक्ट भी दिलाया। जैसे ही किसी को भी पता चलता कि मैं दि राजेश खन्ना के साथ काम कर रहा हूं, मेरी अहमियत बढ़ जाती। और, मेरी टकटकी बंधी रहती इसे लेकर। शूटिंग से जब छुट्टी मिलती तो दिल्ली लौटता और जिन लोगों से भी मेरी मुलाकात होती, उनसे मैं फिल्म के सीन्स और डॉयलॉग की खूब बातें करता। और, फिल्म के संगीत की भी। तब सीडी नहीं होती थीं, सिर्फ गोल गोल घूमते टेप्स होते थे और और ऋषि दा से ऐसा कोई टेप मिल पाना, बेकार की कोशिश होती। लेकिन, मैं किसी तरह..कहीं दूर जब दिन ढल जाए..पाने में कामयाब रहा। मेरे पुराने टेप रिकॉर्डर पर ये गाना लगातार बजता रहता।

वह बहुत ही साधारण और शांत थे। उनका खासमखास कबीर स्टीयरिंग के पीछे होता, और वह अपनी हेराल्ड की फ्रंट सीट पर होते। उनसे मिलने वालों की तादाद खासी होती थी और वे लोग हमेशा उन्हें घेरे रहते, ताज्जुब होता कि ऋषि दा इसकी इजाज़त भी देते थे। उन्हें लेकर लोगों में जो क्रेज था, उसे देखकर हैरत होती थी। सत्तर के दशक में उनके प्रशंसक स्पेन से उनसे मिलने आते थे, तब ऐसी बातें अनसुनी ही होती थीं। अपने ट्रेड मार्क राजेश खन्ना कुर्ता पायजामा में वह हमेशा किसी घरेलू लड़के जैसे दिखते, ऐसी कि हर लड़की जिसे अपनी मां से मिलवाना चाहे। लेकिन, इस सबके बीच भी उनका अपना आकर्षण अलग था। उस लड़कपन की सादगी में भी कुछ था ऐसा जो उनके अंदाज को रईसाना बना देता था। ये वो चुंबक था जिसके चलते लोग उनकी तरफ आकर्षित होते थे।

मैं आशीर्वाद सिर्फ एक बार गया उन दिनों जब हम साथ काम कर रहे थे। मैं उन्हें बर्थडे विश करने गया था और एक दिन पहले आ गया था। ये उनकी दरियादिली थी कि उन्होंने मेरी असहज हालत को समझा और मुझे रुकने को कहा। थोड़ी देर बाद वो मुझे शक्ति सामंत के यहां डिनर के लिए ले गए, जिन्होंने उनके साथ आराधना औऱ तमाम दूसरी फिल्में बनाईं और मुझे लेकर ग्रेट गैम्बलर औऱ बरसात की एक रात बनाई। अगले दिन वो फिर मेरे मेजबान थे। बरसों बाद उन्होंने मुझे अपने प्रोडक्शन हाउस की एक फिल्म में काम करने के लिए अपने दफ्तर बुलाया, पर बात बन नहीं सकी। उनसे मेरी पिछली मुलाकात आईफा के मंच पर हुई, जहां उन्हें लाइफ टाइम अचीवमेंट अवार्ड देने की जिम्मेदारी मुझे सौंपी गई। उस दिन उन्होंने जो कहा, वो आज तक मेरे कानो में गूंजता है।

ऋषि दा की फेवरेट लोकेशन मोहन स्टूडियो जो कि अब एक कंक्रीट की हाउसिंग कॉलोनी में तब्दील हो चुका है, में जब आनंद की शूटिंग शुरू हुई तो सबसे ज्यादा परेशानी मुझे उस लास्ट सीन को लेकर हो रही थी, जिसमें उन्हें मरना था और मुझे रोते हुए उन्हें फिर से बोलने के लिए कहना था। मुझे समझ नहीं आ रहा था कि मैं इसे कैसे करूं। मैंने इसके लिए महमूद भाई की मदद मांगी। उन्होंने कहा, अमिताभ बस एक बात सोचो। राजेश खन्ना मर गया है। और, बाकी सब अपने आप हो जाएगा।

उनके निधन की जानकारी पाकर मैं जब उन्हें श्रद्घांजलि देने पहुंचा, उनका एक करीबी मेरे पास आया और रुंधे गले से उसने मेरे कान में उनके आखिरी शब्द फुसफुसाए.....टाइम हो गया है, पैक अप.."

अमिताभ बच्चन

(श्री अमिताभ बच्चन के ब्लॉग http://srbachchan.tumblr.com/ की पोस्ट संख्या 1152 का हिंदी अनुवाद। इस प्रस्तुति का उद्देश्य कतई व्यावसायिक नहीं है और इसे हिंदीभाषियों व हिंदी प्रेमी पाठकों की सुविधा के लिए यहां प्रस्तुत किया जा रहा है।)

सोमवार, 25 जून 2012

फितरत में नहीं अड्डेबाजी-कबीर कौशिक

अगर सिनेमा एक तिलिस्म है तो निर्देशक कबीर कौशिक इसके एक ऐसे तालिस्मान हैं, जिन्हें समझना मुश्किल नहीं तो इतना आसान भी नहीं है। उनका निर्देशकीय कौशल काबिल ए दाद होता है पर, रिश्तों में उनका यकीन न बन पाना उन्हें हर फिल्म के साथ दो कदम आगे और चार कदम पीछे ले जाता है। कबीर कौशिक के करियर की चौथी फिल्म मैक्सिमम रिलीज के लिए तैयार है, लेकिन बिरले ही जानते हैं कि इस अकड़फूं डायरेक्टर का ताल्लुक बिहार के एक मशहूर सियासी खानदान से है और मशहूर हिंदी पत्रकार स्व.घनश्याम पंकज के वह बेटे हैं। कबीर कौशिक से उनके नए दफ्तर में एक खास मुलाकात।

© पंकज शुक्ल

हर फिल्म के बाद आपसे एक नए दफ्तर में मुलाकात होती है। मुलाकात भी क्या, करीब करीब जबरन घुस आते हैं हम आपके दफ्तर में। ये आप दुनिया से इतने कटे कटे और अकेले क्यूं रहते हैं?
-(एक शरारत भरी मुस्कान तैरती है चेहरे पर) सिनेमा मेरा प्यार है, मेरा जुनून है। मैं मुंबई में होता हूं तो सिर्फ इसी के बारे में सोचता हूं। मेरी मसरूफियत इसके अलावा मेरी कंसलटेंसी एजेंसी और कुछ दीगर कामों को लेकर भी रहती है। खाली वक्त मिलता है तो पढ़ता हूं या फिर स्कवैश खेलता हूं। बाकी फालतू की लफ्फाजी और गॉसिपबाजी में मेरा यकीन शुरू से नहीं रहा। मेरा मानना है कि आपका संपर्क जितना विस्तृत और विशाल होता जाता है, आपके सोचने का तरीका उतना ही दूसरों से प्रभावित होने लगता है। इस मायावी दुनिया में अपने जैसा बना रहने का सबसे साधारण फॉर्मूला जो मुझे समझ आता है, वह है अपने में मगन रहना। अड्डेबाजी मेरी फितरत में ही नहीं है।

सहर, चमकू, हम तुम और घोस्ट और अब मैक्सिमम। सात साल में चार फिल्में किसी भी हिंदी फिल्म निर्देशक के इतराने के लिए काफी हैं। पर आप अब भी कम ही खुलते हैं लोगों से। इल्जाम ये भी लगता है आप पर कि आप जिनके ज्यादा करीब होते हैं, वे सब आपसे जल्दी ही दूर हो जाते हैं?
-पंकज जी..। आप क्यूं ऐसा कह रहे हैं? मैंने कहा न ये सब मेरी फितरत में ही नहीं है। लोग आते हैं। मेरे साथ काम करते हैं और फिर अपना रास्ता पकड़ लेते हैं। मैंने कभी किसी को बंधन में नहीं रखा। और, न ही मैं किसी बंधन में रहने में यकीन करता हूं। हां, मैं मानता हूं कि इस सफर में मुझसे भी गलतियां हुई हैं। कुछ छोटी मोटी गलतियां हैं तो कुछ बड़ी गलतियां भी हुई हैं। पर, ये मेरे सबक हैं। मैंने इनसे सीखा है। सबक ये है कि ये गलतियां दोबारा ना हों। और, सीखा ये है कि कारोबार की इस नगरी में कारोबार ही अंतिम सत्य है। बाकी सब मिथ्या है।

क्या ये भी मिथ्या है कि मैक्सिमम की शूटिंग से ऐन दो दिन पहले आपके सबसे करीबी दोस्त अरशद वारसी ने फिल्म में काम करने से मना कर दिया था?
-लेकिन, इससे हुआ क्या? फिल्म की शूटिंग तो उसी तारीख को शुरू हुई। हां, वह रोल अब फिल्म में नसीर साब कर रहे हैं, बिना स्क्रिप्ट में एक भी लाइन के फेरबदल के। अरशद को शायद पहले रोल पसंद आया था लेकिन बाद में उनका ख्याल बदला और उन्हें लगा कि ये रोल उनके लिए मुफीद नहीं है। वह फैसला लेने के लिए आजाद हैं, मैं इसमें क्या कर सकता था।

"जीवन में सब कुछ पा लेने के बाद भी परेशान बने रहने से बेहतर है सब कुछ पा लेने के लिए परेशान रहना। मुझे अपने अब तक के करियर से कोई गिला शिकवा नहीं है। जल्द ही अगली एक फिल्म पर भी काम शुरू होने जा रहा है।"-कबीर कौशिक



किसी निर्देशक का अपनी पहली ही कोशिश से फिल्म जगत में चर्चा का सबब बन जाना। खुद आमिर खान का एसएमएस करके अपने लायक किसी स्क्रिप्ट के होने पर संपर्क करने का संदेश भेजना और इसके बाद भी ये जद्दोजहद?
-फिल्म जगत का कारोबार वैसा रूमानी है नहीं, जितना बाहर से दिखता है। आपने तो इसे करीब से देखा और तकरीबन सारा कुछ जानते भी हैं इसके बारे में। आमिर को ध्यान में रखते हुए एक फिल्म लिखी गई थी, क़ज़ा। उस फिल्म में आमिर को आतंकवादी का किरदार करना था पर संयोग कहिए या कुछ और उन्हीं दिनों यशराज फिल्म्स की फिल्म फना शुरू हो गई। आमिर के बारे में जितना मुझे मालूम है, वह एक ही किरदार को दोहराने में ज्यादा दिलचस्पी नहीं रखते। बाकी रही जद्दोजहद, तो यही तो जीवन है। ये खत्म हुई तो फिर जीवन कैसा? जीवन में सब कुछ पा लेने के बाद भी परेशान बने रहने से बेहतर है सब कुछ पा लेने के लिए परेशान रहना। मुझे अपने अब तक के करियर से कोई गिला शिकवा नहीं है। जल्द ही अगली एक फिल्म पर भी काम शुरू होने जा रहा है।

और, वह कोयला खदानों पर हम दोनों द्वारा मिलकर लिखी गई फिल्म खदान? अब तो अनुराग कश्यप उसी से मिलती जुलती थीम पर गैंग्स ऑफ वासेपुर लेकर आ रहे हैं। इस फिल्म से कितना खतरा महसूस होता है मैक्सिमम को?
-खदान का विषय अब भी जीवित है। उस फिल्म को लेकर एक बड़े सितारे से बात चली लेकिन बात बिना किसी निष्कर्ष के बीच में ही रुक गई। फिर मैं मैक्सिमम में व्यस्त हो गया। उस विषय पर मैं जल्द ही लौटूंगा। रही बात गैंग्स ऑफ वासेपुर की, तो उस फिल्म से मेरी फिल्म को रत्ती भर भी चुनौती मिलती नहीं दिखती। हां, अगर स्पाइडरमैन की बात करें तो बतौर निर्देशक मुझे थोड़ी सी सिहरन जरूर होती है। स्पाइडरमैन ऐसी फिल्म है जिसके सामने थिएटर में आना जिगरे का काम है। रही बात गैंग्स ऑफ वासेपुर की तो उससे मैक्सिमम की क्या टक्कर?

अच्छा ये बताइए। आप दिल्ली से हैं। ये अनुराग, दिबाकर, विशाल, इम्तियाज भी सब दिल्ली के ही हैं। सबका एक अच्छा खासा गैंग भी है जो मुंबई के स्थापित प्रोडक्शन घरानों से सींग लड़ाता रहता है, क्या आप ने कभी इस गैंग में शामिल होने के बार में सोचा?
-मैंने पहले ही कहा कि ये सब करना मेरी फितरत में शामिल नहीं है। मैं चाहता हूं कि लोग मेरा काम देखें और मेरे काम को सराहें या खारिज करें। फिल्ममेकिंग के अलावा और किसी बात के लिए मेरे बारे में खबरें लिखी जाएं, इसका मतलब तो ये हुआ कि मुझे अपने हुनर पर भरोसा नहीं है। अपने हुनर को छोड़ अगर कोई कलाकार या तकनीशियन अन्य किन्हीं वजहों से खबरों में बने रहने की कोशिश में हैं तो समझ लीजिए कि वह आपको घुमा रहा है। दूसरी बात ये कि मैं सिनेमा में अभी जुम्मा जुम्मा सात साल पहले आया हूं। ये सब यहां 18-20 साल से हैं। ये लोग जो भी है, जिस भी मुकाम पर हैं, वहां इनका पहुंचना बनता है क्योंकि इस शहर ने इन सबकी काफी घिसाई की है। मेरी घिसाई तो अब भी चल रही है। देखते हैं कि जिन्ना कब प्रकट होता है?

और, मैक्सिमम के बाद?
-अक्सर लोग मुझसे कहते हैं कि मेरी फिल्मों की नायिकाएं जितनी सशक्त होती हैं, उतना विस्तार उनके किरदारों को मेरी कहानियों में मिल नहीं पाता। तो इस बार जिस कहानी पर काम चल रहा है वह पूरी तरह से नायिका प्रधान कहानी है। बहुत ही दमदार किरदार है, पर उस पर विस्तार से बात फिर कभी।

संपर्क- pankajshuklaa@gmail.com

रविवार, 17 जून 2012

कामयाब होने से ज्यादा मुश्किल बेहतर इंसान बनना- मिथुन चक्रवर्ती



फुटपाथ से उठकर सतरंगी आसमान पर छा जाने वाले मिथुन चक्रवर्ती हिंदी सिनेमा के आखिरी सुपर सितारे हैं। दो वक्त की रोटी कमाने के लिए कभी टैक्सियों पर स्टिकर चिपकाने वाले मिथुन बाद में देश में सबसे ज्यादा व्यक्तिगत आयकर चुनाने वाले रईस भी बने। अपने प्रशंसकों के बीच प्रभुजी के नाम से पूजे जाने वाले मिथुन चक्रवर्ती बता रहे हैं कामयाबी के कुछ अनोखे मंत्र।

© पंकज शुक्ल

दादा, वैसे तो आपके बारे में जितना जानने की कोशिश की जाए कम है, और आप हैं कि अपनी संघर्ष यात्रा के बारे में ज्यादा कुछ लोगों को बताते भी नहीं हैं, ऐसा क्यों?
-शायद मेरी आदत नहीं रही शुरू से अपने बारे में ज्यादा बात करने की। आप ने तो मुझे बरसों से देखा है। मुझे अपनी मार्केटिंग करने का शौक कभी नहीं रहा। मैं कर्म करने में विश्वास करता हूं। ईश्वर में आस्था रखता हूं और कोशिश में रहता हूं कि ये जीवन जिन ऋणों को चुकाने के लिए मिला है, वे सारे समय रहते पूरे कर सकूं। जीवन एक ऐसा चक्र है जिसमें उतार चढ़ाव, यश अपयश, ऊंच नीच सब लगी रहती है। इससे परेशान होने वाला ही जीवन को जी नहीं पाता। मेरा फलसफा रहा है कि दूसरों के बीच खुशियां बांटते रहो, आपके बीच खुशियां खुद चलकर आएंगी। मेरी खुशियां भी हमेशा खुशियां बांटने से ही बढ़ीं हैं।

आपने एक बार कहा था कि आप उस इंसान की आखिरी आशा हो जिसकी कोई आशा पूरी न हुई हो। आज भी आपके यहां निर्माताओं की कतार लगी रहती है, पर अब तो आप उतनी फिल्में नहीं करते?
-ये दिलचस्प है कि लोग मुझे अब भी मुख्य भूमिकाओं के लिए साइन करने आते हैं। क्षेत्रीय भाषाओं के निर्देशक अब भी मुझे बतौर हीरो रिटायर नहीं होने देना चाहते। हिंदी फिल्मों में मेरे बाद दो तीन पीढ़ियां आ चुकी हैं तो वहां मैं अब अपने हिसाब से फिल्में करता हूं। दूसरा मेरा क्या मानना है कि किसी चीज को ज्यादा घिसने से उसकी चमक चली जाती है। मैं जीवन के आखिरी दिन तक काम करना चाहता हूं, इसके लिए जरूरी है कि मैं उतना ही काम करूं जितना मेरे लिए सही है। मैंने हर तरह का समय देख लिया, अब तो बस मैं सिनेमा का होकर उसका लुत्फ लेना चाहता हूं।

फिल्म मृगया में अपनी पहली ही फिल्म के लिए सर्वश्रेष्ठ अभिनेता का पुरस्कार जीतने के बाद पहला इंटरव्यू देने से पहले आपने एक पत्रकार से मांगकर बिरयानी खाई थी, अब आप सैकड़ों लोगों का पेट खुद भरते हैं, इसे समय चक्र मानते हैं या कुछ और?
-मेरा ये स्पष्ट मानना रहा है कि कर्म और भाग्य दोनों एक दूसरे के पूरक हैं। भाग्य अक्सर आपसे वही कर्म करवाता है जिसकी नियति आपके लिए शायद पहले से तय है। लेकिन, कर्म से भाग्य भी बदले जाते हैं। पक्की लगन और अनुशासन हो तो लक्ष्य पा लेने में दिक्कत कम होती है। दूसरे मेरा ये मानना है कि समय के हिसाब से भी हमें अपने लक्ष्य तय करने चाहिए। हमारे लक्ष्य छोटे छोटे और अनवरत बनते रहने चाहिए। हमें अपनी मंजिल पहले कदम में उतनी ही बनानी चाहिए, जितनी हमारी नजरों के सामने है। पुणे फिल्म इंस्टीट्यूट में मुझे देखकर मृणाल बाबू ने मुझे मृगया दे दी थी, लेकिन जरूरी नहीं कि हर कोयले को ऐसा जौहरी जीवन में मिल ही जाए। समय बदला है, जौहरी भी अब बाजार के हिसाब से हीरे तलाशने लगे हैं तो जाहिर है ऐसे में गुदड़ी के लालों को मौका नहीं मिल पा रहा है। लेकिन, मैं आखिरी इंसान नहीं हूं जो फुटपाथ से उठकर यहां तक आया। लोगों की उम्मीदें बंधती रहेंगी और लोग कामयाबी भी पाते रहेंगे।

और, आपसे लगी ऐसी ही छोटी छोटी उम्मीदों ने ऐश्वर्या राय को अपनी पहली ही फिल्म में आपकी हीरोइन बनने से वंचित कर दिया?
-अरे शुक्लाजी, वो बहुत पुरानी कहानी हो चुकी। लेकिन, आपकी बात सही है। मोहनलाल वाला रोल लेकर मणिरत्नम पहले मेरे पास ही आए थे। पर मैं करता क्या मेरी एक दर्जन से ज्यादा फिल्में फ्लोर पर थीं और अगर मैं इस रोल के हिसाब से बाल कटा लेता तो बाकी सारे निर्माताओं की फिल्में आगे खिसक जातीं। मैं नहीं चाहता था कि मुझे कोई बड़ा मौका मिले तो मेरे सहारे अपना घर बार छोड़े बैठे फिल्म निर्माताओं को नुकसान हो। अपना भला करके दूसरों को भला करना तो बहुत आसान है। मजा तो तब है कि आपको पता है कि दूसरे के इस भले में आपका नुकसान हो रहा है, पर आप को उसमें भी आनंद आता है। जीवन में कामयाब होना ज्यादा मुश्किल नहीं है, मुश्किल है बेहतर इंसान बनना।

और, वो एक ही साल भगवान और शैतान के किरदारों के पुरस्कृत होने का किस्सा?
-अभिनेताओं को भी ये गजब की नियामत हासिल है। वो हर फिल्म में क्या क्या भेस धरकर पर लोगों के सामने आते हैं? लेकिन क्या कभी हम सोचते हैं कि ये कितनी बड़ी चीज हमें ईश्वर ने दी है। स्वामी विवेकानंद की शूटिंग चल रही थी। लंच ब्रेक था और मैं एक पेड़ के नीचे बैठकर सिगरेट पीने लगा। कुछ महिलाएं वहां थोड़ी परे खड़े होकर सहमे सहमे मुझे देख रही थीं। फिर उनमें से दो तीन हिम्मत करके मेरे पास आईं। मैं फिल्म में रामकृष्ण परमहंस का किरदार कर रहा था। महिलाएं आईं और आते ही प्रणाम किया। फिर मेरी सिगरेट की तरफ इशारा किया। बोलीं, आप भगवान हैं। इसे मत पीजिए। मैं तो जैसे बैठे बैठे ही काठ का हो गया। इसके बाद पूरी फिल्म जब भी मैं गेटअप में रहा, मैंने सिगरेट को हाथ नहीं लगाया। इस फिल्म के लिए मुझे 1995 में अभिनय का एक और राष्ट्रीय पुरस्कार मिला। उसी साल फिल्म जल्लाद के लिए मुझे सर्वश्रेष्ठ खलनायक का पुरस्कार मिला। सलाम है ऐसे दर्शकों का जिन्होंने मुझे एक ही साथ भगवान के रूप में भी प्यार दिया और मैं खलनायक बना तो उसे भी सराहा।

हिंदी सिनेमा में हर बड़े सितारे ने अपने बेटे के लिए फिल्में बनाईं, आपने नहीं। ऐसा क्यों?
-मिमोह अपनी जगह बना रहा है हिंदी सिनेमा में। उसे पता होना चाहिए कि जिंदगी में जो कुछ मिलता है, वो बड़ी मेहनत और मुश्किल से मिलता है। मिमोह को मेहनत का मतलब समझ आ रहा है। अब वह जो भी बन रहा है उसमें उसका आत्मविश्वास शामिल है। रिमोह ने निर्देशन का कोर्स किया है विदेश से। वह कैमरे के पीछे अपना हुनर दिखाना चाहता है। उसकी एक डिप्लोमा फिल्म को कनाडा फिल्म फेस्टिवल में अवार्ड भी मिल चुका है। दोनों के सपोर्ट के लिए मैं हमेशा यहां हूं, लेकिन दोनों को हिंदी सिनेमा में जो भी मुकाम पाना है, वो अपनी मेहनत से ही पाना होगा।


संपर्क - pankajshuklaa@gmail.com

रविवार, 10 जून 2012

चॉकलेटी हीरो बनना पसंद नहीं-इमरान हाशमी

एक सुपर फ्लॉप फिल्म से अपना करियर शुरू करने वाले इमरान हाशमी की गिनती इन दिनों हिंदी सिनेमा के उन चंद अभिनेताओं में होती है, फिल्म से जिनका नाम भर जुड़ा होने से टिकट खिड़की गुलजार हो जाती है। नौ साल की मेहनत के बाद इमरान हाशमी ने ये मुकाम पाया है। एक स्टार की बजाय एक अदाकार के तौर पर अपनी पहचान और मजबूत करने में लगे इमरान हाशमी से एक खास बातचीत।

© पंकज शुक्ल

तो आखिरकार आपने खुद पर लगा सीरियल किसर का धब्बा धो ही दिया। कितना मुश्किल रहा इस खांचे से खुद को बाहर निकालना?
-(हंसते हुए) हां, आप सही कह रहे हैं शायद। लेकिन, ये खांचा मैंने खुद नहीं गढ़ा अपने आसपास। शायद लिखने वालों को सहूलियत होती है किसी अदाकार को किसी खांचे में ढालकर उसकी एक खास मूरत गढ़ देने से। देखा जाए तो मेरी कोशिश शुरू से रही है कि मैं किसी खांचे में न फंसने पाऊं। इसे मेरी बदकिस्मती ही कहा जाएगा कि मुझे उन दिनों ऐसे निर्माता ही नहीं मिले, जो मुझ पर दांव लगाने का जोखिम उठा सकते। मेरी कदकाठी के हिसाब से लेखकों को किरदार नहीं समझ आए या कहें कि ऐसी कहानियां नहीं लिखी गईं, जिनमें कि लगता इमरान हाशमी फिट बैठेगा। लेकिन, अब हिंदी सिनेमा बदल रहा है। लोगों को बेहतर कहानियों में बेहतर मनोरंजन मिल रहा है। लोग ऐसी कहानियां पसंद कर रहे हैं, जिनमें कहने को कुछ है। तो जाहिर है कि मुझे भी अच्छा लग रहा है।

एक वक्त था जब इमरान हाशमी को एक खास किस्म की फिल्मों का ही हीरो समझा जाता था। पर, पहले वन्स अपॉन ए टाइम इन मुंबई और फिर द डर्टी पिक्चर की कामयाबी ने लोगों का परिचय एक नए इमरान से कराया। ये एक योजना के तहत हुआ या बस यूं ही?
-मेरे किरदार कैसे हों या मैं कौन सी फिल्में करूं, इसे लेकर मैं सजग तो रह सकता हूं लेकिन किसी योजना के तहत सिनेमा में काम करना अक्सर मुश्किल ही होता है। मेरा ये मानना है कि हिंदी सिनेमा में लोगों को एक तय लकीर पर चलना सुखद लगता है। शायद इसलिए कि इसमें जोखिम कम होता होगा। बहुत कम अभिनेता ऐसे हैं जो अपनी बनी बनाई इमेज से बाहर निकलने की कोशिश करते हैं। सबको ये लगता है कि एक बढ़िया जींस और ब्रांडेड जैकेट पहनकर अगर परदे पर खूबसूरत दिखने से ही गाड़ी चल रही है तो फिर अपने थोबड़े के साथ एक्सपेरीमेंट क्यूं करना? पर मैं आरामतलबी से अदाकारी करने का कायल शुरू से नहीं रहा। मुझे चॉकलेटी हीरो बनना पसंद नहीं। मैं अपने किरदारों से लोगों के बीच पहचान बनाने में यकीन रखता रहा हूं। जन्न्त 2 ने भी इस बात को पुख्ता किया और अब शंघाई में तो खैर जैसा मैं दिख रहा हूं, वो आप देख ही रहे हैं। पेट निकला हुआ है। दांत पान मसाले से रंगे हुए हैं। लेकिन, किरदार की यही जरूरत
है।

यानी कि मौका मिले तो इमरान हाशमी को परदे पर बदसूरत दिखने में भी परहेज नहीं होगा?
-कह सकते हैं। लेकिन बदसूरत शब्द का इस्तेमाल क्यूं करें? हमारे आपके बीच जैसे लोग होते हैं, वे सब के सब फिल्मों में दिखने वाले सितारों जैसे तो नहीं होते। कोई कलाकार अगर फिल्म में भी सुपरस्टार दिखता रहे तो फिर शायद निजी जिंदगी में सुपरस्टार बने रहने के उसके दिन पूरे होने लगते हैं। अगर आप फिल्म मदर इंडिया को याद करें तो उसमें सुनील दत्त बदसूरत नहीं दिखते। वह एक ऐसे किरदार में दिखते हैं जो जमीन से जुड़ा है। तो इसके लिए जाहिर है उन्हें वैसा ही रंग ढंग और चाल चलन अपनाना होगा जो उनके किरदार पर अच्छा लगे। एक और फिल्म है अशोक कुमार की जिसमें उन्होंने अपनी इमेज को तोड़ने के लिए चेहर पर कोयला मला था। तो किरदारों के हिसाब से खुद को पेश करने के लिए एक कलाकार को हमेशा अपने स्टारडम के आभामंडल को तोड़ने के लिए तैयार रहना चाहिए, और मैं यही कर रहा हूं। मेरा अपना मानना तो यही है कि फिल्म जगत में स्टार बनना आसान है, पर कलाकार बनना उतना ही मुश्किल।

शंघाई की बात करने से पहले जैसा कि आपने जन्नत 2 का जिक्र किया तो ये बताइए कि इस फिल्म का नायक सोनू जिस स्टाइल से अपना परिचय परदे पर कराता है, क्या वो हिंदी सिनेमा के नायक के पतनकाल की एक और पायदान नहीं बन जाता?
-शायद ठीक कह रहे हैं आप। फिल्म की रिलीज के बाद मेरी फिल्म के कुछ वितरकों से बात हुई। उन्होंने बताया कि अगर फिल्म में इतनी गालियां न होतीं तो फिल्म कम से कम 10 करोड़ रुपये का कारोबार और करती। क्या है, फिल्म में गालियां हों तो परिवार ही नहीं बल्कि कई बार जोड़े भी फिल्म देखने से कतरा जाते हैं। लोग अगल बगल बैठकर एक दूसरे से नजरें चुराते नहीं दिखना चाहते। जन्नत 2 का ये सबक है मेरे लिए और मैंने इसे दिल से सीखा भी है। रही बात शांघाई की तो ये फिल्म नेताओं के लुभावने वादों की असलियत को लोगों के सामने पेश करने की एक कोशिश है। जनता को बेवकूफ बनाकर सियासी लोग कैसे अपना मतलब सीधा करते हैं, इस पर फिल्म के निर्देशक दिबाकर बनर्जी ने बहुत ही सामयिक तरीके से कैमरा घुमाया है।

आपकी मौजूदा फिल्मों की लिस्ट और आने वाली फिल्मों की लिस्ट देखी जाए तो कहा जा सकता है कि आपने अपनी पीढ़ी के चोटी के तीन अभिनेताओं के बीच जगह बना ली है। अब आगे क्या इरादा है?
-मेरी हाल की फिल्मों की कामयाबी का श्रेय अगर आप सिर्फ मुझे देंगे तो ये उन बाकी लोगों के साथ काफी नाइंसाफी होगी जिन्होंने इन फिल्मों को कामयाब बनाने में पूरा योगदान दिया। फिल्म एक सामूहिक प्रयास होता है और इसमें किसी के काम को अलग करके नहीं देखा जा सकता। मेरी अगली फिल्मों चाहे वो घनचक्कर हो, राज 3 हो या फिर एक थी डायन हो, सबकी खासियत यही है कि इन फिल्मों की टीम बहुत अच्छी बन सकी है। बाकी अगर लोगों को लगता है कि मेरी मेहनत का रंग दिख रहा है तो इसके लिए मैं सबका शुक्रिया अदा करना चाहूंगा।

शुक्रवार, 8 जून 2012

आलोचनाएं मजबूत बनाती हैं: विधु विनोद चोपड़ा

इन दिनों विधु विनोद चोपड़ा फुल टाइम प्रोड्यूसर के रोल में हैं। विधु को जो करीब से जानते हैं, वे ये भी जानते हैं कि एक पल हंसता खिलखिलाता चेहरा कैसे अगले ही पल एकदम से एक पत्रकार के लिए दुस्वप्न साबित हो सकता है। किसी फिल्म समीक्षक को दौड़ाकर पीटने वाले वह अकेले फिल्म निर्माता है, लेकिन साथ ही किसी फिल्म समीक्षक से शादी करने वाले भी वह अकेले ही हैं। सितारों से ज्यादा कलाकारों और टोटकों से ज्यादा फिल्म की कहानी में यकीन रखने वाले विधु विनोद चोपड़ा से एक खास बातचीत।

© पंकज शुक्ल


कुछ ज्यादा ही वक्त नहीं लग गया आपकी नई फिल्म फरारी की सवारी की रिलीज में?
-हां, कह सकते हैं। लेकिन, अगर एक दमदार कथानक वाली और किसी ऐसे विषय वाली फिल्म पर काम करना हो, जो आपको रोज कुछ न कुछ नया सोचने को मजबूर करती हो, तो इससे ज्यादा वक्त भी अगर किसी फिल्म पर लगता हो तो मुझे दिक्कत नहीं है। फरारी की सवारी का आइडिया पहली पहली बार मुझे इसके निर्देशक राजेश मापुस्कर ने तब सुनाया था, जब हम पहली मुन्नााभाई फिल्म पर काम शुरू करने जा रहे थे। फिर, हम लोग दूसरी फिल्मों में व्यस्त रहे और इस विचार पर काम शुरू नहीं हो सका। कोई चार साल से ये फिल्म लिखी जा रही है और हम इसे लेकर फ्लोर पर तभी गए, जब हम सब पूरी तरह मुतमईन थे कि हां अब ये फिल्म शुरू की जा सकती है।

इस हम सब में मुन्नाभाई सीरीज के निर्देशक राजकुमार हीरानी भी शामिल हैं? बतौर संवाद लेखक उनका कितना योगदान है इस फिल्म में?
-राज कुमार हीरानी (एक एक शब्द पर जोर देकर बोलते हैं)। हां, भाई अब राजू भी राज कुमार हीरानी बन गया है। सेलेब्रिटी है। तो उसके साथ होने से अब हमें कुछ ना कुछ तो फायदा होगा ही। लेकिन, अगर दूसरे लिहाज से भी देखा जाए तो राजू हमारी टीम का अब अहम हिस्सा है। राजेश मापुस्कर और राजकुमार हीरानी की दोस्ती तब की है जब दोनों एक साथ विज्ञापन फिल्में बनाया करते थे। राजेश तब राजू का प्रोडक्शन का काम देखा करता था। शायद मुन्नाभाई पर काम करते वक्त किसी दिन नशे में राजू ने राजेश को उसके निर्देशक बनने पर फिल्म के संवाद लिखने का वादा कर दिया था। वही वादा राजू निभा रहा है। और, हां मुझे इस बात पर दिली खुशी होती थी जब राजू किसी सीन के डॉयलॉग लिखकर लाता था और राजेश उसे खारिज कर देता था। इस बंदे ने मेरे साथ भी मुन्नाभाई सीरीज के दौरान ऐसा ही सुलूक किया है, अब आया है ऊंट पहाड़ के नीचे।

राजेश मापुस्कर को फिल्म के निर्देशन का जिम्मा सौंपने को आप एक जोखिम भरा फैसला मानते हैं कि नहीं?
जिंदगी में बिना जोखिम के मैंने कम ही काम किया है। मेरे लिए किसी भी फिल्म की कहानी महत्वपूर्ण है। राजेश का ही ये विचार था। मैंने फिर राजेश के साथ मिलकर इस आइडिया को डेवलप किया और जब पूरी फिल्म लिखकर तैयार हुई तो मुझे लगा कि राजेश ही इस फिल्म को बेहतर तरीके से परदे पर ला सकता है। राजेश ने राजू हीरानी के साथ रहकर फिल्म निर्देशक की बारीकियां सीखी हैं और इन फिल्मों के दौरान भी उसने कई बार रोचक और सोचने पर मजबूर कर देने वाले सुझाव भी दिए। मेरा मानना है कि एक फिल्म की कहानी ही उसका सबसे बड़ा यूएसपी होनी चाहिए। निर्देशक अहम होता है, लेकिन मेरे लिए जब सुपरस्टार मायने नहीं रखते तो फिर निर्देशक तो बाद की बात है।

किसी फिल्म को बनाने के लिए आप उसमें सबसे पहले क्या जरूरी तत्व तलाशते हैं?

मेकिंग शुरू की तो बस दो ही चीजें मेरे पास हुआ करती थीं, एक मैं और दूसरा मेरा सिनेमा। एकाकीपन में आप जो सोचते हैं, उस पर समाज का असर कई बार कम और आपकी अपनी याददाश्त या दूसरी बातों का असर ज्यादा होता है। अब आप मेरी फिल्म खामोश को लीजिए। आज की तारीख में अगर मुझे वो फिल्म दोबारा बनानी हो तो उसके लिए कास्टिंग करते वक्त मेरा दिमाग दूसरी तरह काम करेगा। अब मैं अमोल पालेकर वाले किरदार में आमिर खान को लेना चाहूंगा।

आलोचनाओं से आपको बैर क्यों है?
किसने कहा? दरअसल मेरा व्यवहार कई बार ऐसा हो जाता है कि लोग मेरे बारे में गलत राय बना लेते हैं। मैं वैसा हूं नहीं जैसी प्रतिक्रियाएं कई बार मुझसे हो जाती हैं। मैं थोड़ा उद्विग्न रहने वाला या कह लें कि आवेग के साथ काम कर जाने वाला इंसान हूं। मुझे लगता है कि जो लोग ज्यादा सोचते हैं, उनके विचारों की गति टूटने से वे उत्तेजित हो जाते हैं। आलोचनाओं को मैं तो बहुत ही सकारात्मक तरीक से लेता हूं। सच पूछिए तो कम ही लोग होंगे इंडस्ट्री में जो रिलीज से पहले अपनी फिल्म दर्जनो लोगों को दिखाते हैं। मैं तो जानबूझकर ऐसा करता हूं। मैं ज्यादा से ज्यादा लोगों को अपनी फिल्म के बारे में बातें करते सुनना और देखना पसंद करता हूं। मैं चाहता हूं कि लोग मुझे बताएं कि मैंने गलती कहां की? मेरी निजी राय है कि आप आलोचनाओं से मजबूत होते हैं। आपके लिखने, कहने के ढंग में आलोचनाओं से ही तब्दीली आती है।

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गुरुवार, 7 जून 2012

बदनाम बॉलीवुड उर्फ लव, सेक्स और धोखा (2)

हिंदी सिनेमा में काम करने के लिए मुंबई में संघर्ष करने वाली तमाम लड़कियों का खर्च कैसे चलता है? और किन मजबूरियों में इन लड़कियों के पांव दलदल में जा धंसते हैं, इसकी तफ्तीश की पहली कड़ी को लेकर मिली प्रतिक्रियाएं बताती हैं कि वाकई चांद जब नजदीक होता है, तो उसके दाग डरावने लगने लगते हैं। कुछ लोगों ने ये भी कहा कि ये गंदगी सिर्फ सिनेमा में ही नहीं बल्कि दूसरे क्षेत्रों में भी है तो फिर सिनेमा पर ही अंगुली क्यों? इस कड़ी का मकसद किसी का दिल दुखाना या किसी को हतोत्साहित करना नहीं बल्कि एक ऐसी सच्चाई पर से परदा हटाने की कोशिश है, जिसके बारे में तमाम अभिभावकों को भी पता नहीं होता और न ही उन हजारों लड़कियों को जिनका मुंबई आने का बस एक ही सपना होता है, मैं माधुरी दीक्षित बनना चाहती हूं। अब आगे..

© पंकज शुक्ल


... धुएं की महक से पता चला कि सिगरेट में सिर्फ तंबाकू ही नहीं था। निर्माता ने अपने सहायक से मोहतरमा को बाहर छोड़ आने के लिए कहा तो वो रो पड़ीं। आई नीड दिस रोल..आई कैन मैक यू हैपी इन व्हिचएवर वे यू लाइक..(मुझे ये रोल चाहिए..आप जिस भी तरह चाहें मैं आपको खुश कर सकती हूं..)। निर्माता के इशारे पर सहायक ने उन्हें बाहर चलने को कहा। लड़की इस बार हिंदी बोलने लगी, सर, प्लीज मुझे पांच हजार रुपये दे दीजिए। मैं अगले महीने वापस कर दूंगी। निर्माता खुद इसके बाद उसे बाहर करके आया। लौटकर इस निर्माता मित्र ने ये भी बताया कि ऑडीशन हॉल के भीतर भीख मांग रही पर अच्छे घर की दिख रही ये लड़की हॉन्डा सिटी कार से आई थी और वो भी अपने ड्राइवर के साथ। कोई भी ये सोचने पर मजबूर हो सकता है कि आखिर चालक के साथ कार से आने वाली कोई लड़की भला निर्माता से पैसे मांगने के लिए क्यूं रोएगी?

सवाल यही मेरे मन में भी उठा। मैंने सहायक से थोड़ी बहुत पूछताछ की तो पता चला कि हॉल जिस कैंपस में है, उसके गेट पर हर अंदर आने वाले का नाम और उसकी गाड़ी का नंबर दर्ज होता है। लड़की का नाम पता करके मैंने गाड़ी का नंबर पता किया और अगले दिन नजदीकी आरटीओ ऑफिस जाकर गाड़ी के मालिक का नाम पता किया। गाड़ी के मालिक का जो नाम था, उसने मुझे और हैरानी में डाल दिया। ये नाम हिंदी फिल्मों के एक बड़े निर्माता के मैनेजर का था।

और, पता चला कि ये मैनेजर अक्सर जुहू सर्किल से वर्सोवा की तरफ जाने वाली सड़क पर बने एक क्लब में मिलता है। शाम कोई सात बजे का वक्त। क्लब में रंगत बढ़ रही है। साथ आए निर्माता ने कोहनी के इशारे से सामने देखने का इशारा किया। निर्देशक राम गोपाल वर्मा की फिल्म में काम कर चुकी एक अभिनेत्री एक कुर्सी पर बैठ रही है। उसके कुर्सी पर बैठते ही उसके दाएं बाएं पड़ी कुर्सियों पर दो चार लोग और बैठ गए। दो सियासी पार्टियों के नेता हैं। एक सादा वर्दी पुलिस अफसर है और एक महिला है। महिला की शक्ल जानी पहचानी सी है और उसे अक्सर मंत्रालय में टहलते देखा जाता है। हम लोग चुपचाप माजरा देख रहे हैं। थोड़ी देर बाद सब वहां से निकल गए। सिर्फ पुलिस अफसर वहां बैठा है। वह अभिनेत्री को कुछ समझा रहा है। पर अभिनेत्री उसकी तरफ ध्यान नहीं दे रही। पुलिस अफसर गुस्से में कुछ बोलता हुआ निकल जाता है। अब निर्माता मुझे लेकर आगे बढ़ता है। अभिनेत्री निर्माता को पहचानते ही कुर्सी से खड़ी होती है। नमस्ते करती है। फिर हमसे हाथ भी मिलाती है। ये कौन था?, निर्माता ने पूछा। अभिनेत्री का जवाब, दल्ला है। मैं इसके बॉस को सीधे जानती हूं। सबको लगता है हम लोग यहां झक मारने आए हैं। कोई फंक्शन में नाचने का दबाव डालता है तो कोई साहब के बच्चे की बर्थडे पार्टी में पहुंचने को बोलता है। क्या करें? ये बेगारी तो करनी ही होती है। लेकिन, ये सब फिर भी ठीक है। कुछ तो इसके आगे की डिमांड लेकर भी आ जाते हैं। यहीं आगे वो मैनेजर भी दिखा, जिसके नाम से रजिस्टर्ड गाड़ी पर वो मोहतरमा ऑडीशन देने आई थीं। मामला और खुलकर पता करने के लिए हमें अब आराधना से मिलना था।

लखनऊ के आशियाना से आकर यहां वर्सोवा में रहने वाली आराधना जैन इस बारे में मिलने पर बताती हैं, यहां कलाकार कितना भी बड़ा हो। अगर औरत है तो उसकी इज्जत बचना उतना ही मुश्किल है जितना दूध में नींबू पड़ने के बाद उसका पनीर बनने से बचना। और, अब तो युवकों का भी शोषण खूब होने लगा है। आराधना कई म्यूजिक वीडियो में काम कर चुकी हैं। हिंदी सिनेमा में काम करने के लिए वह पिछले चार पांच साल से संघर्ष कर रही हैं। वह कहती हैं, यहां सिनेमा बनाने वाले कम हैं। मनोरंजन करने वाले ज्यादा। जो लोग बरसों से सिनेमा कर रहे हैं, उनके यहां फिर भी एक सिस्टम है और काम मिलने के बाद ही वहां आगे की मांग की जाती है। लेकिन, नव कुबेरों ने इंडस्ट्री का नाम ज्यादा खराब किया है। ये वो लोग हैं जिन्होंने पॉलिटिक्स या बिल्डिंग के धंधे में पैसा कमाया है। ये लोग फिल्म बनाने नहीं अय्याशी करने आते हैं। और, इन लोगों को पहचानने में माहिर होती हैं वो लड़कियां, जिनका दिन रात का पेशा ही यही है। ये लड़कियां महंगे फ्लैटों में रहती हैं, महंगी गाड़ियों में घूमती हैं। चाय तक पांचसितारा होटलों में पीती हैं और सजने संवरने का जो इनका खर्चा होता है सो अलग। इन सब चीजों पर जो महीने का खर्च आता है, उसको मुंबइया भाषा में मैंटेनेंस कहते हैं। बांद्रा, जुहू, लोखंडवाला, वर्सोवा, अंधेरी, मलाड तक हर दूसरी ऊंची इमारत में कम से एक एक लड़की आपको ऐसी जरूर मिल जाएगी, जिसका मैटेनेंस कोई न कोई बिल्डर या मोटा आसामी दे रहा होता है। ये लोग वीकएंड पर मुंबई आते हैं। दो दिन इनके साथ बिताते हैं। बाकी के पांच दिन ये खाली घूमती हैं। मटरगश्ती करते हुए। और, इनकी लाइफ स्टाइल देख बाकी बेवकूफ लड़कियां ये समझती हैं कि फिल्मों में पैसा ही पैसा है। हां, यहां पैसा है लेकिन फिर इज्जत नहीं है।

मुंबई के फिल्म जगत को पिछले चार दशकों से करीब से देखते आ रहे ट्रेड मैगजीन सुपर सिनेमा के संपादक विकास मोहन मनोरंजन जगत के मौजूदा हालात को लेकर काफी निराश दिखते हैं। वह कहते हैं, जैसे जैसे हिंदी फिल्म जगत में पैसा बढ़ रहा है। यहां अपराध बढ़ रहे हैं। कॉरपोरेट घरानों के फिल्म और टेलीविजन सीरियल निर्माण में कूदने के बाद से यहां काम बढ़ा है। रोज नए नए चैनल खुल रहे हैं। कलाकारों को जी खोलकर पैसे मिल रहे हैं। लेकिन, यहां काम की तलाश में आने वाले जो बात नहीं समझते वो ये कि यहां कामयाबी का प्रतिशत इंजीनियर और डॉक्टर बनने से भी ज्यादा कम है। अगर आईआईटी की एक सीट के लिए कोई 60 से 65 दावेदार होते हैं, तो यहां एक किरदार के लिए कम से कम डेढ़ सौ संघर्षशील कलाकारों के बीच मुकाबला होता है और वो भी मुख्य किरदार को छोड़कर। लाखों में कोई एक हीरो बन पाता है और उसके चक्कर में बाकी 99,999 लोग कई कई साल परेशान रहते हैं। लोगों के सपने टूटते रहते हैं, लेकिन कोई ये शहर छोड़कर जाना नहीं चाहता। शायद, वे खाली लौटकर घर वालों का सामना करने की सूरत में नहीं होते। तो बस लाइफ स्टाइल बनाए रखने और शहर में बने रहने के लिए कुछ बचता है तो वो है लड़कियों के लिए देह का सौदा और लड़कों के लिए ड्रग्स। तमाम डायरेक्टरों के पीछे लड़कों की फौज लगी रहती है, काम पाने के लिए। अपने घरों में एक गिलास पानी भी खुद उठाकर नहीं पीने वाले बच्चे इन डायरेक्टरों के दफ्तरों में जूठे कप उठाकर यहां से वहां रखते रहते हैं। सेट्स पर पोछा मारते दिखते हैं और कुछ तो इससे भी नीचे के काम करने लग जाते हैं।

मनोरंजन जगत में नाम और पैसा कमाने की चाहत लेकर आने वालों के लिए ये हकीकत आंखें खोल देने वाली है। यहां शोहरत सिर्फ चंद लोगों को ही मिल पाती है। लेकिन, इस चकाचौंध की असलियत समझ में आने तक काफी देर हो चुकी होती है। यहां हर शख्स दूसरे को उल्लू बनाने में लगा रहता है। सबके पास सुनाने को ये लंबे लंबे किस्से हैं कि एक बार आदमी झालर में फंसा तो बस गिरता ही चला जाता है। इलाहाबाद की मीना थापा की भी हत्या ना हुई होती अगर वो अपने दोस्तों को अपनी रईसी के झूठे किस्से ना सुनाती रहतीं। मीना थापा की तरह ही यहां हर संघर्षशील कलाकार खुद को गरीब मानने से डरता है। लड़की अगर खूबसूरत है और लंबी है तो उसका पहला परिचय यही होता है कि वो साल भर पहले तक फलां एयरलाइंस में एयर होस्टेस थी, लेकिन नौकरी में मन नहीं लगा तो अभिनेत्री बनने चली आई। उसका एक काल्पनिक भाई होता है जो सिंगापुर या दुबई जैसे किसी शहर में किसी बड़ी कंपनी में बड़ी पोस्ट पर होता है और हर महीने उसके लिए मैंटेनेस का खर्च भेजता है। वह कम से कम दो तीन ऐसे कमर्शियल में काम कर चुकी होती है, जिन्हें कनाडा या साउथ अफ्रीका की किसी कंपनी ने बनाया होता है और जिसकी कॉपी उसके पास दिखाने को नहीं होती। लड़की अगर एयर होस्टेस वाली कहानी बनाने लायक लंबी नहीं है तो वो अपनी किसी मौसी या बुआ के पास रह रही होती है (ये बुआ या मौसी दरअसल उस घर की मालकिन होती है, जहां ये लड़कियां पांच हजार रुपये प्रतिमाह से लेकर 15 हजार रुपये प्रतिमाह के खर्च पर बतौर पेइंग गेस्ट रह रही होती हैं)। इनके काल्पनिक पिता दिल्ली, अहमदाबाद, जयपुर या रांची में के लखपति होते हैं और जो अपनी बेटी के हीरोइन बनने के फैसले के हक में होते हैं।

लेकिन, जब सुनिधि चौहान जैसी कामयाब कलाकार के पैर इन राहों पर फिसल जाते हैं तो भला उनकी क्या बिसात, जिन्हें यहां जुम्मा जुम्मा हुए ही चार दिन हैं। लखनऊ की पूनम जाटव का किस्सा भी तो ज्यादा पुराना नहीं है। पूनम की रीएल्टी शोज के निर्णायक इस्माइल दरबार से मित्रता हुई, मित्रता अंतरंगता में बदली और मामला इतना आगे निकल गया कि समय रहते उनके घरवाले उन्हें अस्पताल न पहुंचाते तो पेट में पहुंच चुकी दर्जन भर से ज्यादा नींद की गोलियां उनकी मंजिल दूसरे जहान में लिख चुकी होतीं। पूनम ने ये कदम अपने घर में उठाया और घरवालों ने उसे बचा लिया। लेकिन जीटीवी के ही रीएल्टी शो सिनेस्टार्स की खोज की फाइनलिस्ट दीपिका तिवारी ने ऐसा ही एक कदम घरवालों से दूर अपने किराए के कमरे में नोएडा में उठाया और घरवालों के हाथ केवल उसकी देह ही आ सकी।

मायानगरी के सपनों के इस तिलिस्म ने ही शहर में अपराध का एक नया सिलसिला खोल दिया है। मशहूर लेखिका और पेज थ्री पार्टियों का नियमित चेहरा रहने वाली शोभा डे कहती हैं, एक समय था जब हम दिल्ली के अपराधों की खबरें सुनते थे और सोचते थे कि हम कितने सुरक्षित शहर में रहते हैं। लेकिन, अब? अब तो रोज ही यहां किसी न किसी की हत्या की खबरें आती रहती हैं। शहर में मालदार बनने का सपना लेकर आने वालों की संख्या पहले भी कम नहीं थी। लेकिन, इसके लिए गुनाह करने वाले पहले इतने कभी नहीं रहे। शोभा डे की बात में बात मिलाते हैं अभिनेता निर्देशक अरबाज खान। वह कहते हैं, मुंबई में अपराध बढ़ने के पीछे यहां लोगों की बढ़ती तादाद भी है। लेकिन, फिल्म जगत से जुड़े लोग इस तरह के गुनाहों से दूर ही रहे हैं। ये पहली बार देखने में आ रहा है कि फिल्मों में काम करने आए लोग इतने सोचे समझे तरीके से साजिशें रचकर गुनाह कर रहे हैं। इससे इंडस्ट्री का नाम खराब हो रहा है। निर्देशक अनुराग कश्यप की फिल्म गैंग्स ऑफ वासेपुर लिखने वाले सचिन लाडिया ये सब देखकर ना सिर्फ हैरान है बल्कि ग्लैमर के आकर्षण से धीरे धीरे उनका मन भी ऊबने लगा है। वह कहते हैं, ये दुनिया ही अलग है। यहां बाहर से कुछ और दिखता है और भीतर का सच उसके बिल्कुल उलट है। मंचों और फिल्म समारोहों में बड़ी बड़ी बातें करने वाले निजी जिंदगी में इतने घटिया इंसान निकलते हैं कि पूछो मत। यहां जो दुनिया की नजरों में जितना महान है, अपने साथ काम करने वालों के दिलों में वो उतना ही गिरा हुआ है। यहां हर वक्त जिंदा रहने का संघर्ष जारी है। और, जाहिर है अगर संघर्ष जिंदा रहने का है तो फिर जिएगा वही जिसके पास पैसा होगा। भले इसके लिए किसी को कुछ भी क्यूं न करना पड़े।

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बुधवार, 6 जून 2012

बदनाम बॉलीवुड उर्फ लव, सेक्स और धोखा (1)

एक मशहूर गजल का शैर है, हर हंसी मंजर से यारों फासले कायम रखो, चांद जो धरती पे उतरा देखकर डर जाओगे। कुछ कुछ ऐसा ही हाल मुंबई मनोरंजन जगत का है। इसका आकर्षण दूर से जितना नजर आता है, इसके भीतर आकर इसके दलदल से उतनी ही कोफ्त होती है। फिल्ममेकर बनने की वैसे तो पहली शर्त यहां अपना ईमान खूंटी पर टांग देने की ही है, पर क्या करें पत्रकारिता के उस कीड़े का जिसके काटे का कहते हैं कोई इलाज नहीं। पत्रकार बनकर ये रपट लिखने से पहले मैंने फिल्म जगत का सक्रिय क्षेत्र माने जाने वाले मुंबई के चंद खास इलाकों का दौरा किया तो जो तस्वीर सामने आई वो न सिर्फ चौंका देने वाली रही बल्कि सच का सामना करते वक्त कई बार डर भी लगा।

© पंकज शुक्ल

दक्षिण भारत की एक फिल्म में लीड हीरोइन, वहां के मशहूर अभिनेता आर माधवन के साथ विज्ञापन फिल्म और माउथ फ्रेशनर के एक मशहूर ब्रांड के विज्ञापन में काम कर चुकी अभिनेत्री अनुष्का को हर साल गर्मियों में एक ऐसी मुसीबत से दो चार होना होता है, जो मुंबई फिल्म, टीवी और कमर्शियल इंडस्ट्री में काम करने की चाहत लेकर देश भर से आने वाले युवक युवतियों के लिए किसी सालाना मिशन से कम नहीं। ये मिशन है यहां किराए पर एक घर तलाशने का। मुंबई फिल्म इंडस्ट्री मुख्यतया बांद्रा से लेकर अंधेरी के बीच बसती है और फिल्मों और टेलीविजन से जुड़े ज्यादातर प्रोडक्शन घरानों के दफ्तर भी इसी इलाके में हैं। जाहिर है फिल्म और टीवी में काम करने का इच्छुक हर युवक व युवती इसी इलाके में इसीलिए रहना चाहता है ताकि मीटिंग या ऑडीशन का बुलावा आने पर वो झट से मौके पर पहुंच सके। लेकिन, पिछले कुछ साल से इस इलाके में हालात बदल गए हैं। अब यहां किसी अकेली युवती या युवक के लिए घर ढूंढना किसी मिशन इंपॉसिबल से कम नहीं है। वजह? अभिनेत्री मारिया सुसईराज के घर में एक प्रोडक्शन कंपनी के एक्जीक्यूटिव नीरज ग्रोवर की हत्या। अपने अभिनेता बेटे अनुज टिक्कू के घर में दिल्ली के कारोबारी अरुण टिक्कू की हत्या। अभिनेत्री मीनाक्षी थापा की अपहरण के बाद हत्या। अभिनेत्री लैला का रहस्मयी तरीके से परिवार समेत गायब हो जाना। और, वर्सोवा इलाके में कई संघर्षशील लड़कियों का वेश्यावृत्ति के धंधे में लिप्त होने के कारण पकड़े जाना।

ये हैं वो चंद हादसे और गुनाह जो पुलिस की निगाह में आने की वजह से आम लोगों की जानकारी तक पहुंच सके। इस कवर स्टोरी के लिए और जानकारियां जुटाने के लिए बांद्रा से लेकर अंधेरी तक के इलाकों में भटकने के दौरान कुछ और चौंकाने वाली बातें भी सामने आईं। अभिनेता आर माधवन अंधेरी के ओशिवरा स्थित जिस इमारत में कुछ साल पहले तक रहा करते थे, उस इमारत में कम से दो फ्लैट ऐसे हैं, जिनमें कुछ महीने पहले तक दिन दहाड़े चकलाघर चलता रहा है। इसी इमारत में एक खूबसूरत मॉडल रहती है, जिसके पास महीनों महीने कोई काम नहीं होता लेकिन जिसके रहन सहन को देखकर इमारत में रहने वाले भौंचक्के रहते हैं। थोड़ा और आगे चलने पर वो इमारत आती है, जिसमें कोएना मित्रा रहती हैं। कोएना मित्रा को झारखंड की ब्रांड अंबेसडर बनवाने की अंतर्कथा में ना भी जाएं तो इसी इमारत के करीब रहती हैं वो मोहतरमा जिनकी फिल्म जगत में बोहनी अक्षय कुमार की एक फिल्म से हुई। इनसे सप्ताहांत में मिलना हो तो कहते हैं दो महीने पहले बुकिंग करानी होती है। थोड़ा आगे ओशिवारा का नाला पार करते ही बाईं तरफ का रास्ता एक ऐसी बस्ती की तरफ जाता है, जहां फिल्म और टीवी में काम करने के लिए संघर्षरत निम्नमध्यमवर्गीय युवक युवतियां रहते हैं। यहीं पर अड्डा है कुछ ऐसे कोऑर्डिनेटर्स का जो लड़कियों को निर्माता निर्देशकों से मिलवाने का ठेका लेते हैं। इसके बदले में फीस कभी नकद के तौर पर तो कभी देह के तौर पर वसूली जाती है। अपना घर बार छोड़ अभिनेत्री बनने की जिद पर मुंबई चली आईं लड़कियों के सामने इसके सामने दूसरा चारा होता भी नहीं है। जो मजबूर हैं वो इसमें भी अपने लिए जीने का जरिया ढूंढ लेती हैं और जो शातिर हैं वो बन जाती हैं सिमरन सूद। सिमरन सूद के अपराधी बनने की कहानी किसी फिल्म की कहानी से कम नहीं है।

ओशिवारा का नाला पार करते ही बाईं तरफ का रास्ता एक ऐसी बस्ती की तरफ जाता है, जहां फिल्म और टीवी में काम करने के लिए संघर्षरत निम्नमध्यमवर्गीय युवक युवतियां रहते हैं। यहीं पर अड्डा है कुछ ऐसे कोऑर्डिनेटर्स का जो लड़कियों को निर्माता निर्देशकों से मिलवाने का ठेका लेते हैं। इसके बदले में फीस कभी नकद के तौर पर तो कभी देह के तौर पर वसूली जाती है। अपना घर बार छोड़ अभिनेत्री बनने की जिद पर मुंबई चली आईं लड़कियों के सामने इसके सामने दूसरा चारा होता भी नहीं है।

सिमरन सूद को मुंबई पुलिस ने अरुण टिक्कू की हत्या के आरोप में गिरफ्तार विजय पलांडे से रिश्तों के चलते पूछताछ के लिए बुलाया था। लेकिन, सिमरन सूद के गिरफ्त में आने के बाद जो खुलासे होने शुरू हुए उनसे एक के बाद एक कई गुनाहों की कड़ियां खुलती चली गईं। सिमरन सूद तो वो मछली है जो पकड़ में आई है लेकिन मनोरंजन जगत के तालाब को गंदा करने वाली ऐसी तमाम मछलियां मायानगरी के समंदर में बेखौफ तैर रही हैं। ये लड़कियां अपराध के दलदल में क्यूं उतरती है? इनका शोषण होता है या फिर मौज मस्ती करते करते कब ये इस कीचड़ के दाग अपने दामन पर लगा लेती हैं? इसे समझने के लिए हमने एक फिल्म निर्माता मित्र की मदद ली। फिल्म निर्माता ने हमें कुछ ऐसी लड़कियों से मुलाकात कराने का वायदा किया, जो फिल्मों में काम पाने के लिए कुछ भी कर गुजरने को तैयार रहती हैं। इस निर्माता ने अपने मैनेजर से अपनी एक अनाम फिल्म के ऑडीशन रखने को कहा। मैनेजर ने ऑडीशन कोऑर्डिनेटर को इसकी इत्तला दी। और तय समय और दिन पर हम लोग ओशिवारा के एक ऑडीशन हाल में सुबह सुबह जा बैठे। ऑडीशन सुबह 10 बजे से 2 बजे तक होने थे और इसके लिए लड़कियों को 10-10 मिनट के अंतराल पर बुलाया गया। लेकिन, 10 बजने से पहले ही हॉल के सामने कोई दो दर्जन लड़कियां पहुंच चुकी थीं। कुछ तो अपनी खुद की गाड़ियों से आई थीं। निर्माता ने अपने एक सहायक को हैंडी कैम देकर तैयार कर रखा था। ऑडीशन के लिए पहुंचने वाली हर लड़की को चार पांच लाइनों का एक संवाद पहले से दिया जा चुका था।

शुरू की दो तीन लड़कियां तो आकर अपना नाम, मोबाइल नंबर बोलने के बाद दिए गए संवाद पर अदायगी करके चलती बनीं। इनमें से भी दो ने जाते जाते निर्माता से गले मिलने का उपक्रम किया और मिलने के लिए किसी भी वक्त बुला लेने की इत्तला भी दी। लेकिन चौथे नंबर पर आई लड़की की चाल में लड़खड़ाहट थी। उसने जैसे तैसे अपना नाम और मोबाइल नंबर बोला। संवाद के लिए इशारा मिलते मिलते वो पास में पड़ी कुर्सी पर ढेर हो गई। मे आई स्मोक? पूछने के बाद जवाब मिलने से पहले ही वो अपनी पर्स से सिगरेट निकालकर सुलगा चुकी थी। धुएं की महक से पता चला कि सिगरेट में सिर्फ तंबाकू ही नहीं था। निर्माता ने अपने सहायक से मोहतरमा को बाहर छोड़ आने के लिए कहा तो वो रो पड़ीं। आई नीड दिस रोल..आई कैन मैक यू हैपी इन व्हिजएवर वे यू लाइक..(मुझे ये रोल चाहिए..मैं आप जिस भी तरह चाहें मैं आपको खुश कर सकती हूं..)। निर्माता के इशारे पर सहायक ने उन्हें बाहर चलने को कहा। लड़की इस बार हिंदी बोलने लगी, सर, प्लीज मुझे पांच हजार रुपये दे दीजिए। मैं अगले महीने वापस कर दूंगी। निर्माता खुद इसके बाद उसे बाहर करके आया। लौटकर इस निर्माता मित्र ने ये भी बताया कि ऑडीशन हॉल के भीतर भीख मांग रही पर अच्छे घर की दिख रही ये लड़की हॉन्डा सिटी कार से आई थी और वो भी अपने ड्राइवर के साथ। कोई भी ये सोचने पर मजबूर हो सकता है कि आखिर चालक के साथ कार से आने वाली कोई लड़की भला निर्माता से पैसे मांगने के लिए क्यूं रोएगी?
हमने ये भी समझने की कोशिश की, इस बारे में पढ़िए अगली कड़ी में..

संपर्क : pankajshuklaa@gmail.com

(Disclaimer - हिंदी सिनेमा के लिए बॉलीवुड शब्द के इस्तेमाल का मैं भी समर्थन नहीं करता। लेकिन, इस आलेख में इसी शब्द की असलियत दिखाई गई है।)

रविवार, 27 मई 2012

कॉपीराइट कानून में बदलाव: बेबसी के दिन बीते रे भैया..

किसी भी रचना का सृजन होते ही उसका कॉपीराइट उसके रचयिता के पास हो जाता है। इसके लिए अलग से किसी तरह के पंजीकरण की जरूरत नहीं है। बस कानूनी विवाद उठने पर रचयिता को ये साबित करने की जरूरत होती है कि फलां रचना उसने अमुक समय पर तैयार कर ली थी। अपनी ही रचना अपने पास रजिस्टर्ड लिफाफे से भेज उसे यूं ही सीलबंद रहने देने या फिर उसे अपनी ही ई मेल आईडी पर मेल करके उसे बिना खोले पड़े रहने देने के तरीके इसके लिए कामयाब तरीके माने जाते रहे हैं। पर, क्या हो जब आपके लिखे या गढ़े की चोरी हो जाए? या कोई और ही इसका कारोबारी इस्तेमाल करने लगे? संसद के दोनों सदनों से पारित हुए कॉपीराइट कानून संशोधन अधिनियम 2011 का मसौदा पढ़ने के बाद ऐसी ही कुछ और नुक्ता-चीनियों के बारे में विस्तार से ख़ास आपके लिए ये ख़ास जानकारी।

© पंकज शुक्ल

ज्यादा दिन नहीं हुए हैं। युवाओं के बीच छोटे और बड़े परदे पर कोका कोला का एक विज्ञापन खूब चर्चा में रहा। इस विज्ञापन में इमरान खान और कल्कि कोएचलिन एक पुराने गाने के रीमिक्स वर्जन पर हंसते, मुस्कुराते और शरारतें करते नजर आते हैं। पृष्ठभूमि में बजने वाला ये गाना था, तुम जो मिल गए हो तो ये लगता है, के जहां मिल गया..। हिंदी सिने संगीत के स्वर्णिम युग कहे जाने वाले साठ और सत्तर के दशक के ऐसे तमाम गाने हैं जो गाहे बेगाहे विज्ञापनों और अब फिल्मों में भी अपने रीमिक्स अवतार के साथ सुनाई देने लगे हैं। गीतकार को लाख एतराज हो, गायक लाख ना नुकुर करे और संगीतकार अपनी बनाई धुन के साथ बलात्कार ना होने देने के लाख चीखे चिल्लाए, कुछ दिनों पहले तक इसका कोई असर होता नहीं था। पर, अब ये सब शायद नहीं होगा। या कम से कम इन तीनों की मर्जी के बगैर नहीं होगा। वजह? संसद के बजट सत्र में पास हुए कॉपीराइट कानून संशोधन अधिनियम 2011 पर राष्ट्रपति की मुहर लगते ही ये सब करना गैर कानूनी हो जाएगा।
क्या हैं ये नए संशोधन? और इसके कानून बनने से सिनेमा के कायदों में क्या असर आने वाला है? इसे समझने के लिए अब भी हिंदी सिनेमा के ज्यादातर लेखक और गीतकार हाथ-पांव मार रहे हैं। कलर्स के लिए मशहूर सीरियल बालिका वधु के संवाद लिखने वाले राजेश दुबे इंतजार कर रहे हैं कि जावेद अख्तर मनोरंजन जगत के लेखकों की बैठक बुलाएं और इस बारे में तफ्सील से खुलासे करें। इसी महीने के पहले इतवार को मुंबई में लेखकों की सबसे बड़ी संस्था फिल्म राइटर्स एसोसिएशन के चुनाव हुए। फिल्म जगत के तमाम बड़े लेखकों के प्रोग्रेसिव राइटर्स ग्रुप ने अपने ज्यादातर उम्मीदवार इसमें जिता लिए। गॉडमदर जैसी फिल्म बनाने वाले विनय शुक्ला अब इस एसोसिएशन के अध्यक्ष हैं। लेकिन, जावेद अख्तर को अपना अगुआ मानने वाला ये प्रोग्रेसिव राइटर्स ग्रुप शायद अब तक समझ ना पाया हो कि जावेद अख्तर ने अपनी बिरादरी के लिए नए कानून में क्या बटोरा है? और विनय शुक्ला जैसे हुनरमंदों के लिए क्या खो दिया है? आइए थोड़ा और विस्तार से समझने की कोशिश करते हैं।

इन नए संशोधनों में एक और खास बात जो शामिल है वो ये कि अब किसी भी साहित्य, नाटक या संगीत से जुड़े सृजन को कोई भी इसके रचे जाने के पांच साल तक किसी भी सूरत में रीमिक्स या इसकी नकल के तौर पर बाजार में नहीं ला सकेगा।

रीमेक और रीमिक्स के पेंच
जिस गाने का लेख के शुरू शुरू में जिक्र किया गया वो है 1973 में रिलीज हुई फिल्म हंसते जख्म का गाना। थोड़ा दिमाग पर जोर डालें तो आपको याद आ जाएंगे गरजते बादलों के बीच अपने सफर से गुजरते नवीन निश्चल और प्रिया राजवंश और साथ ही याद आ जाएगा वो खूबसूरत गाना, तुम जो मिल गए हो..। अब जरा गौर कीजिए इस गाने के गीतकार और संगीतकार पर। गाना लिखा है कैफी आजमी यानी जावेद अख्तर साब के ससुर ने और इसे संगीत से संवारा कालजयी संगीतकार मदन मोहन ने। कैफी साहब अगर जिंदा होते तो क्या वो अपने सामने इस गाने का कोक वर्जन सुनना चाहते? जाहिर है आपका जवाब भी होगा, हरगिज नहीं। लेकिन अगर वो होते भी तो शायद इसका कोक वर्जन बनने से रोक नहीं पाते क्योंकि पहले के कानून के मुताबिक फिल्म में शामिल हो चुके किसी भी गाने को फिर से बेचने या उससे किसी तरह की दूसरी कमाई करने का अधिकार फिल्म के निर्माता का ही होता है और अमूमन ये अधिकार फिल्म निर्माता किसी न किसी संगीत कंपनी को बिना इसकी असली कीमत जाने बेच चुका होता। पर, अब कैफी साब की रूह चैन की सांस ले सकती है। उनकी किसी भी गजल या नज्म की ऐसी दुर्गति दोबारा नहीं होगी। कॉपी राइट कानून के नए संशोधनों के मुताबिक अब किसी भी गाने के फिल्म के अलावा किसी दूसरे इस्तेमाल के लिए उसके गीतकार, संगीतकार और गायक की भी इजाजत लेनी जरूरी होगी और निर्माता कैसा भी करार फिल्म बनाते वक्त साइन क्यूं न करा ले, ये अधिकार हमेशा रचयिता के पास सुरक्षित रहेंगे। इन नए संशोधनों में एक और खास बात जो शामिल है वो ये कि अब किसी भी साहित्य, नाटक या संगीत से जुड़े सृजन को कोई भी इसके रचे जाने के पांच साल तक किसी भी सूरत में रीमिक्स या इसकी नकल के तौर पर बाजार में नहीं ला सकेगा।
राज्यसभा सदस्य जावेद अख्तर ने जो लंबी लड़ाई लड़ी, उसके लिए उनका नाम लेखकों की बिरादरी में हमेशा हमेशा के लिए अमर रहेगा, क्योंकि अब किसी फिल्म का रीमेक बनने पर मूल फिल्म के लेखक की रजामंदी भी जरूरी होगी, और इसका सबसे पहला फायदा जावेद अख्तर को ही मिलने वाला है जिन्होंने बिना अपनी इजाजत सुपरहिट फिल्म जंजीर का रीमेक न बनने देने का मोर्चा संभाल रखा है। अमिताभ बच्चन की सुपरहिट फिल्म जंजीर निर्माता निर्देशक प्रकाश मेहरा ने बनाई थी और अपने पिता के अधिकार को विरासत में मिला समझ उनके बेटे इसकी रीमेक बनाने का कानूनी अधिकार भी अपने ही पास समझ रहे थे। ये सही है कि नए कानून में कोई लेखक अपने अधिकार अपने वारिसों या फिर किसी कॉपीराइट सोसाइटी को ही रॉयल्टी पाने के लिए स्थानांतरित कर सकेगा, लेकिन इससे उसके अपने इस लिखे रचे का संबंधित फिल्म के अलावा कहीं और इस्तेमाल होने पर इसकी कीमत वसूलने के अधिकार पर रोक नहीं लग सकेगी।


कॉपीराइट कानून के दांव
कॉपीराइट कानून संशोधन विधेयक पहली बार नवंबर 2010 में राज्यसभा में पेश किया गया था, लेकिन इसके कुछ प्रावधानों पर आपत्ति के बाद इसे संसद की स्थायी समिति के पास विचार के लिए भेजा गया। समिति ने इसमें कई सुझाव दिए और इसके बाद संबंधित संशोधनों के साथ संशोधित विधेयक 2011 तैयार किया गया। कॉपीराइट कानून में संशोधनों के बाद के नए कानून को समझने के लिए ये भी जरूरी है कि इसकी जरूरत क्यों आई, इसे भी समझा जाए। दरअसल, देश में अभी तक लागू रहे कॉपीराइट एक्ट 1952 के सेक्शन 2 (डी) के मुताबिक देश में बनी किसी भी सिनेमैटोग्राफ फिल्म या साउंड रिकॉर्डिंग के मामले में इसका निर्माता ही इसका रचयिता होता है। अगर कानून के सेक्शन 17 को भी इसके साथ पढ़ा जाए तो पता चलता है कि ऐसे किसी भी सृजन का एक मात्र कॉपीराइट निर्माता के पास ही होता है और ये सेक्शन ये भी स्पष्ट करता है कि इसके किसी भी तरह के अधिकार किसी को देने या स्थानांतरित करने का एकमात्र अधिकार निर्माता के पास ही था। ऐसा होने की सूरत में फिल्म के निर्देशक से लेकर इसके गीतकार, संगीतकार, लेखक या किसी दूसरे कलाकार के पास इसका कोई अधिकार नहीं था। इसके मुताबिक भले फिल्म निर्देशक का दिमाग ही फिल्म बनाने के लिए लगता रहा हो, पर नैतिक अधिकारों को छोड़ उसका फिल्म के ऊपर कोई कानूनी अधिकार नहीं होता। चूंकि फिल्म का निर्देशक कानून के सेक्शन 2 (जीजी) के तहत भी कलाकार नहीं है, लिहाजा वह कानून के सेक्शन 38 के तहत किसी तरह के अधिकार पर दावा नहीं कर सकता। यही नहीं, अभी तक के कानून के सेक्शन 38 (ए) के मुताबिक एक बार अगर कोई कलाकार किसी सिनेमैटोग्राफ फिल्म में काम करने की मंजूरी दे देता है तो कॉपीराइट कानून के सेक्शन 38 के तहत वह किसी भी अधिकार का मालिक नहीं रह जाता।

नए कानून से सहूलियतें
राज्यसभा और लोकसभा से पारित होने के बाद कॉपीराइट एक्ट अमेंडमेंट बिल, 2011 के कानून बनने को लेकर अब दिल्ली ज्यादा दूर नहीं है। पर, कानून में जिस संशोधन को लेकर मुंबई की लेखक बिरादरी जावेद अख्तर को सिर आंखों पर बिठाने के लिए बिछी बिछी सी नजर आ रही है, उन नए संशोधनों के बाद अगर जावेद अख्तर से सबसे ज्यादा नाराज कोई बिरादरी हो सकती है तो वो है फिल्म निर्देशकों की बिरादरी, जिनसे मुताल्लिक संशोधन संसद की स्थायी समिति ने खारिज कर दिया और कुल मिलाकर अब किसी फिल्म के अधिकारों में हिस्सेदारी या तो निर्माता की है या फिर लेखक और गीतकारों की। लेखक भी तब जब वो उसका मूल सृजक हो। किसी और के लिखे को फिल्म की पटकथा में तब्दील करने वाला पटकथा लेखक इस अधिकार से भी गया। दरअसल, कॉपीराइट कानूनों में ये संशोधन लंबे समय से लंबित थे। विश्व बौद्धिक संपदा संगठन (डब्ल्यूआईपीओ) के साथ हुई कॉपीराइट संधि और डब्ल्यूआईपीओ परफॉरमेंस एंड फोनोग्राम ट्रीटी पर हस्ताक्षर करने के साथ ही भारत के लिए 1957 से चले आ रहे कॉपीराइट कानून में संशोधन जरूरी था।

नए संशोधनों की सबसे अहम बात है कलाकारों को दिया गया नैतिक अधिकार यानी मोरल राइट्स। मतलब कि अब अगर किसी फिल्म का रीमेक या किसी गाने का रीमिक्स बने तो इसके असली अभिनेता या गायक इस बिना पर हर्जाना मांग सकते हैं कि नई फिल्म या नए गाने ने उनकी मूल प्रस्तुति को बिगाड़ दिया है।

किसका नफा, किसका नुकसान?
जो नए संशोधन संसद के दोनों सदनों से पारित हो चुके हैं, उनके तहत एक खास प्रस्ताव कानून के सेक्शन 18 में भी जोड़ा जाएगा। ये प्रस्ताव खासतौर से गीतकारों और संगीतकारों के लिए बाध्यकारी है। इसके कानून बनने के बाद ये बिरादरी अपनी बौद्धिक संपदा के एवज में रॉयल्टी वसूलने या इन्हें आगे वितरित करने के लिए अपने कानूनी वारिसों या किसी कॉपीराइट सोसाइटी के अलावा किसी और की तैनाती नहीं कर सकती। इसके अलावा सेक्शन 19 में एक सब सेक्शन 9 भी जुड़ा है जिसका मतलब है कि किसी भी गीतकार या लेखक द्वारा किसी सिनेमैटोग्राफ फिल्म या साउंड रिकॉर्डिंग के लिए अपने कॉपीराइट देने का मतलब ये भी नहीं है कि अगर फिल्म निर्माता इनकी लिखी या रची चीजों का इस्तेमाल फिल्म के अलावा किसी और तौर पर करे तो उसमें इनकी हिस्सेदारी नहीं होगी। मतलब कि अब अगर फिल्म शैतान में हवा हवाई गाने का रीमिक्स हुआ तो इसके एवज में संगीत कंपनी ने जो रकम वसूली है, वो इसके गीतकार जावेद अख्तर और संगीतकार जोड़ी लक्ष्मीकांत प्यारेलाल के प्यारेलाल और लक्ष्मीकांत के वारिसों के पास भी जानी चाहिए। यही नहीं मौजूदा कॉपीराइट कानून के सेक्शन 38 (3) और 38 (4) की जगह नए संशोधनों में सेक्शन 38 ए और 38 बी जोड़े गए हैं।
इन नए संशोधनों के मुताबिक किसी फिल्म के लिए एक बार अपनी प्रस्तुति के लिए रजामंदी दे देने के बाद किसी कलाकार का उस पेशकश को लेकर कानूनी प्रस्तुति अधिकार नहीं रह जाता, लेकिन ये प्रस्तुति देने वाले कलाकार को उस रकम का हिस्सा जरूर मिलेगा जो फिल्म के लिए की गई उसकी पेशकश का व्यापारिक इस्तेमाल फिल्म के अलावा किसी और तरीके से फिल्म के निर्माता द्वारा किए जाने पर मिलता है। मतलब कि अब अगर सोनू निगम का गाया ये दिल दीवाना किसी म्यूजिक रियल्टी शो में बजता है और म्यूजिक कंपनी इसके लिए पैसे वसूलती है तो इसमें से कुछ हिस्सा सोनू निगम के पास भी जाएगा। ये तो हुई पैसे की बात। नए संशोधनों की सबसे अहम बात है कलाकारों को दिया गया नैतिक अधिकार यानी मोरल राइट्स। मतलब कि अब अगर किसी फिल्म का रीमेक या किसी गाने का रीमिक्स बने तो इसके असली अभिनेता या गायक इस बिना पर हर्जाना मांग सकते हैं कि नई फिल्म या नए गाने ने उनकी मूल प्रस्तुति को बिगाड़ दिया है। यानी कि फिल्म डिपार्टमेंट में इस्तेमाल हुए गाने थोड़ी सी जो पी ली है..को लेकर चाहें तो बप्पी लाहिरी फिल्म निर्माता कंपनी वॉयकॉम 18 और ओबेराय लाइन प्रोडक्शंस पर दावा दाखिल कर सकते हैं।

संपर्क - pankajshuklaa@gmail.com

सोमवार, 21 मई 2012

लीक पर चलने का आदी नहीं रहा : शाहिद कपूर

लीक लीक चले होते तो शाहिद कपूर की भी इन दिनों साल में चार पांच फिल्में रिलीज हो रही होतीं, इनमें से एकाध हिट भी हो जाती। लेकिन, शाहिद को वो करने में आनंद आता है, जिसकी उनसे उम्मीद नहीं की जाती। मशहूर फिल्म निर्देशक ख्वाजा अहमद अब्बास के नवासे शाहिद खुद को ऋतिक रोशन का फैन मानते हैं और ये भी कहते हैं कि जिंदगी के कुछ लम्हे ऐसे होते हैं जिनकी यादें हमेशा साथ रह जाती है। शाहिद से एक खास बातचीत।

© पंकज शुक्ल

अक्सर देखा ये गया है कि आपके भीतर का अभिनेता आपके ऊपर हावी नचैये के सामने कहीं खो जाता है। लोग आपका अभिनय देखना चाहते हैं और आपके निर्देशक ना जाने क्यों आपकी डांसिंग बॉय इमेज को छोड़ना नहीं चाहते?
-आप शायद सही कह रहे हैं। लेकिन, क्या हुआ कि जब मैं फिल्मों में बतौर हीरो काम करने आया तो लोगों को पता नहीं था कि मेरे ऊपर क्या जमेगा। केन घोष के साथ म्यूजिक वीडियो कर चुका था तो उन्हें लगा कि म्यूजिक के आसपास ही कुछ बात रखनी चाहिए। मुझे भी उस वक्त ज्यादा कुछ पता नहीं था। बस ये लगता था कि किसी तरह लोगों को फिल्म देखने आना चाहिए। तो ये भी कर लो, वो भी कर लो। इसे भी मत छोड़ो। ऋतिक रोशन मुझसे पहले फिल्मों में आ चुके थे और मैं परदे पर उनका नाच देखा भी करता था। ये सच है कि मैं उनका बहुत बड़ा फैन हूं और करियर की शुरुआत के वक्त ये लगा भी करता था कि मैं उनकी तरह अपना सौ फीसदी परदे पर दे पाऊंगा कि नहीं। ऋतिक की तरह ही मैंने भी शियामक डावर की क्लासेस ली थीं और शायद वहीं से ये डांसिंग बॉय इमेज साथ चली आ रही है।

लेकिन, आपके करियर की दो सबसे ज्यादा हिट फिल्में जब वी मेट और विवाह आपके डांस की बजाय आपकी अदाकारी और लोगों से आपके कनेक्ट की वजह से कामयाब हुईं। इस बारे में आप क्या कहेंगे?
मैं अपने करियर में लगातार इस कोशिश में रहा हूं कि मैं अलग अलग तरह के रोल करूं। इसके लिए मुझे अक्सर डांट भी खानी पड़ती है कि जिसमें मैं हिट हो रहा हूं मैं वही क्यों नहीं करता? लेकिन, क्या है कि मेरे भीतर का कलाकार मानता नहीं है। शायद कुछ खून का असर हो (शाहिद की मां नीलिमा के पिता मशहूर ऊर्दू पत्रकार अनवर अजीम मार्क्स की विचारधारा से प्रभावित रहे, वे मशहूर फिल्म निर्देशक ख्वाजा अहमद अब्बास के वारिस थे) लेकिन मैं लीक पर चलने का आदी कभी नहीं रहा। बचपन में भी इसे लेकर लोगों के निशाने पर रहा। रिटायरमेंट के बाद चाहूंगा कि इस पर एक किताब लिखूं, लेकिन फिलवक्त ये कह सकता हूं कि अगर अपने 10 साल के करियर में मुझे कोई पहचान मिली है तो इन्हीं किरदारों की वजह से ही मिली है। मैं मानता हूं कि प्रयोग करने में गलतियां भी होती हैं, लेकिन लोगों की तारीफ भी मिलती है। एक कलाकार के लिए उसके प्रशसंकों की तारीफ ही उसका सबसे बड़ा धन है।

"आम दर्शक समझदार लोगों से ज्यादा समझदार होता है। उसकी समझ से ही हमारा लेना देना है। अगर फिल्म का कनेक्ट उसके साथ बन गया तो बाकी लोग फिल्म के बारे में क्या सोचते हैं, इससे ज्यादा फर्क नहीं पड़ता।"

विवाह की बात चली तो मुझे याद है कि इसकी रिलीज के दिन निर्देशक महेश भट्ट ने इसके बारे में मुझसे पूछा और मेरे ये कहने पर कि फिल्म सुपरहिट होगी, वो चौंक गए थे। आपको क्या लगता है कि हिंदी सिनेमा में दर्शकों की नब्ज पकड़ना कितना आसान और कितना मुश्किल है?
-विवाह राजश्री की फिल्म थी और उनकी फिल्में दो तीन साल में ही आती है। फिल्म के निर्देशक सूरज बड़जात्या की पिछली फिल्म ज्यादा चली भी नहीं थी। इसके अलावा विवाह के सफल होने की सबसे बड़ी वजह ये थी कि इसमें आम लोगों से जुड़े एक बहुत ही भावनात्मक और संवेदनशील मुद्दे को उठाया गया था। ये बातें कुछ लोगों को कम समझ में आती हैं। लेकिन, आम दर्शक समझदार लोगों से ज्यादा समझदार होता है। उसकी समझ से ही हमारा लेना देना है। अगर फिल्म का कनेक्ट उसके साथ बन गया तो बाकी लोग फिल्म के बारे में क्या सोचते हैं, इससे ज्यादा फर्क नहीं पड़ता। सूरज को दर्शकों की नब्ज पकड़ना आता है। बतौर कलाकार मेरा काम ये है कि एक बार फिल्म हाथ में लेने के बाद अपने निर्देशक पर पूरा भरोसा करना।

लेकिन, इस भरोसे ने आपको अपने करियर में नुकसान भी पहुंचाया है? शायद इसीलिए आप अब निर्देशकों को रिपीट करने में यकीन नहीं करते?
-नहीं मैं इसको इस तरह से नहीं लेता। केन घोष के साथ मैंने अपने करियर की पहली फिल्म की। इस फिल्म ने मुझे काफी फायदा भी पहुंचाया। फिर मैंने कुछ अलग करने के लिए फिदा की। ये फिल्म ज्यादा नहीं चली। फिल्म को करना न करना मेरा अपना फैसला होता है और इसके लिए हम किसी दूसरे को जिम्मेदार ठहरा भी नहीं सकते। लेकिन, जिन निर्देशकों से मेरी दोस्ती है, मैं उनके साथ ही लगातार काम करूं, ये जरूरी भी नहीं। अक्सर हम लोग अलग अलग विषयों पर बातें करते रहते हैं। इस दौरान जरूरी नहीं कि हर वो विषय जो मेरा दोस्त निर्देशक मुझे सुनाए, हम दोनों की सहमति उस पर एक जैसी हो। मैं खुल कर काम करने में यकीन करता हूं। रिश्तों में बंधकर काम करना हमेशा फायदेमंद नहीं होता। मेरा मानना है कि दोस्ती और काम दो अलग अलग चीजें हैं और इन दोनों का घालमेल जितना कम होगा, उतना ही बेहतर होगा।

"मैं चाहता हूं कि किसी भी हीरोइन के साथ मेरा कंफर्ट जोन जरूर बना रहे पर हम बार बार एक दूसरे के साथ रिपीट न हों। क्या होता है कि एक ही कलाकार के साथ बार बार काम करने से आपके अभिनय की नवीनता खत्म होने लगती है।"

ये फॉर्मूला सिर्फ निर्देशकों पर ही लागू होता है या फिर साथी कलाकारों पर भी?
-मैं समझ रहा हूं जो आप पूछना चाह रहे हैं। मैं इसका जवाब दूसरी तरह से देना चाहूंगा। सचिन और सहवाग दोनों बेहतरीन खिलाड़ी हैं। दोनों की ओपनिंग जोड़ी ने कमाल किए हैं। दोनों के चलने से देश को फायदा होता है। लेकिन, दोनों में से एक का भी आउट ऑफ फॉर्म होना देश के लिए परेशानी बन जाता है। बस मैं भी यही चाहता हूं। मैं चाहता हूं कि किसी भी हीरोइन के साथ मेरा कंफर्ट जोन जरूर बना रहे पर हम बार बार एक दूसरे के साथ रिपीट न हों। क्या होता है कि एक ही कलाकार के साथ बार बार काम करने से आपके अभिनय की नवीनता खत्म होने लगती है। आपको पता है कि सामने वाला कलाकार किसी दी गई सिचुएशन में कैसे रिएक्ट करेगा? तो ऐसे में आपकी प्रतिक्रिया भी पहले से तय जैसी होने लगती है। लेकिन, ऐसा नहीं कि मैं साथ काम नहीं कर रहा हूं तो मेरी कोई अदावत किसी से है। मैं स्वस्थ रिश्ते बनाए रखने में यकीन करता हूं।

यानी कि, बीती ताहि बिसारि दे आगे की ..?
-नहीं नहीं, मैं ऐसा नहीं कह रहा हूं। मेरे जीवन में मेरे करीबियों के साथ जो भी लम्हे गुजरे हैं, वे मेरी अनमोल यादों का हिस्सा आज भी हैं। मुझे लगता है जीवन में आप जैसे जैसे ऊपर उठते जाते हैं, आपको सादगी उतनी ही ज्यादा भाने लगती है। ये जीवन आपको सिखाता है कि मोह कैसा भी हो, लंबे समय तक नहीं रहता। फिर भी, हम यादों को अपने से सटाए रखना चाहते हैं। मैं भी ऐसा चाहता हूं और मैं भी अपनी यादों को अपनी पकड़ से फिसलना नहीं देना चाहता।

संपर्क: pankajshuklaa@gmail.com

रविवार, 6 मई 2012

मैं सबसे बड़ी नौटंकी वाली हूं: परिणिति

कम ही होता है ऐसा कि कोई लड़की बस एक फिल्म करे और बाजार में लोग उसे उसके किरदार के नाम से बुलाने लग जाएं। लेडीज वर्सेस रिकी बहल की डिंपल चड्ढा के साथ यही हुआ। मशहूर अदाकारा प्रियंका चोपड़ा की चचेरी बहन परिणिति अपनी दूसरी फिल्म में एक ऐसी मुसलमान लड़की का किरदार कर रही हैं, जो गालियां देती हैं, लड़कों को दौड़ाती है और जरूरत पड़ने पर गोली भी चला देती है। असल जिंदगी में नॉन स्टॉप मेल का तमगा पा चुकी परिणिति से एक खास मुलाकात यशराज फिल्म्स के दफ्तर में।

© पंकज शुक्ल

तो खुश तो बहुत होगी आज? और, ये नॉन स्टॉप मेल का क्या चक्कर है?
-ये नाम शायद मेरे यार दोस्तों ने दिया होगा। मैं बोलती हूं तो मुझे रोकना मुश्किल हो जाता है। लोग देखते रह जाते हैं और मैं बोलती चली जाती हूं। शायद मैं बहुत कुछ कहना चाहती हूं। ये आदत मुझे मेरी मां से मिली। वो अब भी ऐसे ही बोलती हैं, घर वाले कहते हैं मैं मां पर गई हूं। रही बात खुश होने की तो मुझसे ज्यादा मेरी मां खुश हैं। रोज टेलीविजन पर मेरे प्रोमो देखती हैं, अखबारों में मेरे बारे में पढ़ती हैं। पापा खुश हैं। दोनों छोटे भाई खुश हैं और मैं इसलिए खुश हूं कि अब तक जो कुछ भी दिखाया या छापा जा रहा है, सब अच्छा अच्छा ही है।

लेकिन गनीमत रही कि लंदन में सब कुछ अच्छा अच्छा नहीं हुआ, नहीं तो शायद हिंदी सिनेमा को एक काबिल अदाकारा से हाथ धोना पड़ता?
-सही कह रहे हैं शायद आप। अभिनेत्री बनने की बात मैंने मुंबई आने से पहले सोची तक नहीं थी। अंबाला में पढ़ाई पूरी की और वहां से सीधे इंग्लैंड। मैं इन्वेस्टमेंट बैंकर बनना चाहती थी। तो मैनचेस्टर में जाकर एडमीशन ले लिया। ट्रिपल ऑनर्स किया। मैं तेज थी पढ़ाई में। मैं शुरू से यही सोचती थी कि पढ़ाई के बाद नौकरी मिलना मुश्किल नहीं होगा। लेकिन इधर मेरी पढ़ाई पूरी हुई, उधर मंदी का दौर आ गया। जहां भी मैं इंग्लैंड में इंटरव्यू के लिए जाती, लोग कहते कि तुम यहां की नहीं हो इसलिए तुम्हें नौकरी नहीं दे सकते। इंग्लैंड तो क्या उन दिनों तो हर तरफ रिसेशन चल रहा था सो छह आठ महीने के लिए मैं मुंबई आ गई। अंबाला जाकर वहां करती भी क्या? मुझे मुंबई में ही कहीं नौकरी या इंटर्नशिप करनी थी।

फिर यशराज फिल्म्स में नौकरी कैसे मिली?
मैं मुंबई आई तो उन दिनों दीदी (प्रियंका चोपड़ा) यहां यशराज फिल्म्स के स्टूडियो में प्यार इंपॉसिबल के लिए शूटिंग कर रही थी। मुझे लगा कि ये तो बहुत कमाल जगह है। मैंने पूछा कि क्या यहां कोई दफ्तर वफ्तर भी है जहां मैं काम कर सकती हूं। यहां मेरी मुलाकात रफीक से हुई जिन्होंने कहा कि मुझे नौकरी सिर्फ प्रियंका की कजिन होने की वजह से नहीं मिल सकती तो छह महीने मैंने यहां खुद को साबित किया। कॉफी बनाने से लेकर मैंने सब काम किया। छह महीने बाद मैंने इंटरव्यू दिया। और, तब जाकर नौकरी मिली। लेकिन, काम के छह महीने बाद ही मुझे लगने लगा कि ये 10 से 5 वाला काम मुझसे होगा नहीं। इस बीच मुझे एक्टिंग को करीब से जानने का मौका भी मिल रहा था। इसी दौरान मुझे ऐक्टिंग से प्यार हो गया। आमतौर पर लोग समझते हैं कि ऐक्टर बस यूं ही होते है, बस मेकअप कराकर आए, एक दो डॉयलॉग बोले और मोटी रकम लेकर चल दिए। लेकिन अब पता चला कि ये आसान काम नहीं है। स्कूल में खूब नाटक किए हैं मैंने। घर पर भी नौटंकी करती ही रही हूं। सच पूछा जाए तो मैं सबसे बड़ी नौटंकी वाली हूं।

तो यशराज में नौकरी करते करते यशराज फिल्म्स की हीरोइन बन गईं?
नहीं, इसकी भी एक कहानी है। मेरे साथ जो हुआ वो किसी के साथ दोबारा भी होगा, पता नहीं। मेरी कहानी ऐसी है कि मैं अपने ऊपर खुद फिल्म बनाना चाहती हूं। मैं एक पंजाबी लड़की, हट्टी कट्टी मोटी, मैनचेस्टर रिटर्न, यहां मनीष शर्मा की मैनेजर बन गई। नवंबर में मेरी उससे बात हुई ऐक्टिंग को लेकर। दिसंबर में बैंड बाजा बारात आने वाली थी। वो हंसने लगा। फिर कोई महीने भर बाद एक दिन वो बोला कि शानू शर्मा से मिल लो। शानू यशराज की कास्टिंग डायरेक्टर है। शानू ने मुझे कैमरे पर शूट किया। उसी रात आदि (आदित्य चोपड़ा) को दिखाया कि ये लड़की मार्केटिंग की नहीं है। इसके अंदर ऐक्टिंग का कीड़ा है। ये सब इधर मुझे बिना बताए चलता रहा और एक महीने बाद मैंने नौकरी से इसलिए इस्तीफा दे दिया कि मुझे ऐक्टिंग स्कूल ज्वाइन करना है। अगले दिन मनीष ने फोन करके बुलाया। शायद संडे था। उसने कहा कि तुम यशराज फिल्म्स के साथ तीन फिल्मों की डील साइन कर रही हो। मुझे तो समझ ही नहीं आया कि क्या हुआ? यूं लगा कि पांचवीं में पढ़ाई की कोशिश कर रही लड़की को एकदम से पीएचडी दे दी गई हो।

तो यूं एकाएक प्रमोशन पाने वाली परिणिति का डिंपल से जोया तक का प्रमोशन कैसा रहा?
हां, इश्कजादे मेरी पहली सोलो फिल्म है और जोया का किरदार डिंपल चड्ढा से बिल्कुल अलग है। फिल्म की कहानी एक काल्पनिक छोटे शहर की है। दो लौंडा लौंडिया हैं जिन्हें बचपन से सिर्फ एक ही नुस्खा सिखाया गया है, नफरत करना। एक दूसरे को देखो तो बस गोली से उड़ा दो। लड़की होते हुए भी मैं गोली चला देती हूं। गाली गलौज भी करती हूं। लेकिन फिर कुछ होता कि दोनों का नजरिया बदल जाता है। लड़की को लगता है कि ये लड़का है तो जानवर लेकिन है कुछ मेरे जैसा ही है। लड़के को लगता है कि ये लड़की है तो पटाखड़ी पर इसमें कोई बात है। मेरी ही जात की है।

और इशकजादे के बाद की क्या प्लानिंग है?
मेरा सिनेमा को लेकर अप्रोच बिल्कुल रीयल है। मुझे इसके ग्लैमर से कोई प्यार नहीं है। कल को मैं फ्लॉप हो गई तो वापस जाकर बैंक की नौकरी कर सकती हूं। अगर मैं एक्टर बन सकती हूं तो कोई भी लड़की एक्टर बन सकती है। एक छोटे से शहर की लड़की, जिसे बैंकर बनना था, 12 वीं में मैंने टॉप किया। अपनी बहन के ग्लैमर से जो प्रभावित नहीं होती थी वो अगर एक्टर बन सकती है तो कोई भी एक्टर बन सकता है। मेरा तो यही कहना है कि कुछ बनना है तो बस मेहनत करो। तुम कहां से हो? क्या किया है? इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। अगर दिल में है तो वो हो सकता है। रही बात प्लानिंग की तो मैं जिंदगी में कुछ भी प्लान करने में यकीन नहीं करती क्योंकि एक ही प्लानिंग अब तक की थी बैंकर बनने की वो बन नहीं पाई। मैं बहुत नॉर्मल लड़की है, मुझे सब कुछ पसंद है। मुझे जब जो जिस सिचुएशन में सही लगेगा, वो मैं करने को तैयार हूं।

इन बातों से कुछ कुछ बगावत की बू भी आती है?
-बगावत? नहीं, नहीं। ऐसा कुछ मत लिख दीजिएगा। मैं बहुत ही शरीफ लड़की हूं (ठहाका लगाकर हंसती रहती हैं)। अरे, सर। मुंबई में हैं तो क्या हुआ? हीरोइन भी बन गए तो क्या हुआ? अपना अलग घर लेकर भी मुझे यहां अपनी बहन को रिपोर्ट करना होता है। रोज वहां अंबाला में अपनी मां को रिपोर्ट करना पड़ता है। यारी रोड पर अपना घर ले लिया। लेकिन, वहां भी छापा पड़ता रहता है। अभी चार दिन पहले दीदी का एकाएक फोन आया कि कि मैं आ रही हूं। सिर्फ आधा घंटा पहले बताया। चाहो भी तो कुछ बदल नहीं सकते। बस छापा पड़ा। घर चेक हुआ। लेकिन, फिर भी मैं अपनी दीदी को बहुत प्यार करती हूं। अपने घरवालों को बहुत प्यार करती हूं। ये इन लोगों का प्यार, हिम्मत और हौसला ही है, जो मुझे यहां तक ले आया है। आगे अब मेरे चाहने वालों की दुआएं काम आएंगी।

मंगलवार, 1 मई 2012

नया चलन नहीं हैं महिला प्रधान फिल्में: करिश्मा कपूर

कपूर खानदान की पहली बागी और हिंदी सिनेमा में अल्हड़पन की नई परिभाषा लिखने वाली करिश्मा कपूर की पिछली फिल्म बाज रिलीज हुए नौ साल का लंबा अरसा हो चुका है। लेकिन, अपनी नई फिल्म डैंजरस इश्क को वह अपनी कमबैक फिल्म मानने से इंकार करती हैं। बीच के इस वक्फे को छुट्टियां मानने वाली करिश्मा कपूर मानती हैं कि उनके दादा राज कपूर का उनके लिए खास स्नेह था और इसके चलते कपूर खानदान के बच्चे उनसे ईर्ष्या भी करते रहे हैं।

© पंकज शुक्ल

तो आप ये नहीं मानतीं कि आपकी हिंदी सिनेमा में वापसी हो रही है?
-इसमें मानने न मानने की बात ही कहां है। वापसी उसकी होती है जिसने कभी कहा कि वो सिनेमा छोड़कर जा रहा है। मैं तो यही थी। सबके बीच। बड़े परदे पर न सही पर तो छोटे परदे पर भी लोग मुझे देखते ही रहे हैं। और, हम सिर्फ फिल्म करने के लिए फिल्म नहीं कर सकते। हर कलाकार के जीवन में एक ऐसा वक्त आता है, जब उसे अपनी शख्सियत के हिसाब से किरदार करने के बारे में सोचना पड़ता है। मुझे जब लगा कि डैंजरस इश्क में संजना का किरदार मेरे हिसाब से ठीक रहेगा, तभी मैंने इसके लिए हां की। किरदार के अलावा मुझे कहानी को लेकर भी थोड़ा सचेत रहना ही होगा। अब मैं टीन एजर्स लड़कियों वाले रोल तो कर नहीं सकती तो जाहिर है नाच गाने के साथ साथ मुझे ऐसे किरदार करने होंगे, जो मेरे प्रशंसकों को मुझसे जोड़ सकें।

छोटे परदे पर करिश्मा-ए मिरैकल ऑफ डेस्टिनी और नच बलिए 4 जैसे कार्यक्रमों को करने के पीछे कोई तो मकसद रहा होगा? आपको क्या लगता है छोटे परदे के पहले से तय रीयल्टी शो बेहतर हैं, या फिर जिंदगी का वो कैनवस जो सिर्फ बड़े परदे पर ही मुमकिन है?
-सिनेमा में हम वो सब कुछ कर सकते हैं, जो छोटे परदे पर मुमकिन नहीं है। छोटे परदे की अपनी बंदिशें हैं और हमें उस तय दायरे में ही रहकर काम करना होता है। मैं ये तो नहीं कह सकती है कि टेलीविजन रीयल्टी शोज में परदे के पीछे क्या क्या गुणा भाग चलता है, लेकिन कहानी को दर्शकों तक पहुंचाने के लिए सिनेमा ही सबसे बढ़िया माध्यम है, इसे मानने में मुझे कोई हिचक नहीं होती। अब जैसे लोगों के पिछले जन्म में जाने का और वहां की बातों को खुद देखने के शौक को ही ले लें। मैं ऐसे तमाम लोगों को जानती हूं जो इन बातों को मानते हैं और ऐसा करते भी हैं। पहले सिर्फ हाथ की लकीरें और कुंडली देखकर भविष्य बताया जाता है।
अब लोग भविष्य से ज्यादा अपने अतीत को जानने के इच्छुक रहते हैं। अतीत से मेरा मतलब यहां पिछले जन्म से है। जहां तक मेरी अपनी बात है, तो मैं निजी जिंदगी के भूतकाल में कतई दिलचस्पी नहीं रखती। मैं नहीं जानना चाहती कि मैं पिछले जन्म में क्या थी और कैसे मरी? लेकिन इसका मतलब ये नहीं कि मुझे इन सब बातों में यकीन नहीं है। मेरी ऐसे कई लोगों से बात हुई है जिन्होंने ये करके देखा है और उनकी तमाम बातों में दम भी दिखता है। पिछले जन्म में जाने की ये विध्ाा यानी प्रतिगमन (रिग्रेशन) के दौरान क्या क्या होता है, ये आप डैंजरस इश्क में देख पाएंगे। ये फिल्म हिंदी फिल्मों की लीक को तोड़ने की कोशिश करती है, और मुझे लगता है कि बेहतर कथानक को पसंद करने का जो नया दौर इन दिनों दिख रहा है, उससे इस फिल्म को भी फायदा होगा।


आपका इशारा पान सिंह तोमर, कहानी या डर्टी पिक्चर की तरफ है? या फिर आप कहना चाह रही हैं कि कहानी और डर्टी पिक्चर जैसी फिल्मों से महिला प्रधान फिल्मों का दौर हिंदी सिनेमा में लौट आया है?
-हां, मेरे नजरिये से ये एक अच्छा संकेत है सिनेमा के लिए भी और कलाकारों के लिए भी। अब लेखक फिर से अभिनेत्रियों को ध्यान में रखकर फिल्में लिखने लगे हैं। लेकिन, ऐसा नहीं कि ये सब अब हो रहा है। अगर आप ध्यान दें तो ऐसी फिल्में मैं तो बरसों पहले कर चुकी हूं। फिजा, जुबैदा, शक्ति और बीवी नंबर वन, वे फिल्में हैं जिन्होंने महिला किरदारों को हिंदी सिनेमा में मजबूती दी और एक नई पहचान दी। मुझे महिला प्रधान फिल्में अच्छी लगती हैं और ये काफी रोचक भी होता है। लेकिन ये कोई नया ट्रेंड है, इसे मैं नहीं मानती। मेरा ये मानना है कि एक अच्छी कहानी और एक अच्छी पटकथा का कोई तोड़ नहीं है। दोनों एक साथ हों तो दर्शक सिनेमाघरों तक आते ही हैं। ये किसी दौर की बातें नहीं हैं। ऐसा हर दौर में होता है। अगर आप में अदाकारी का दम है तभी आपके पास अच्छी कहानियां आएंगी। खुशी बस इस बात की होनी चाहिए कि ये चलन लगातार बना रहे।

मतलब कि आप सिनेमा के करीब रहें या सिनेमा से दूर, सिनेमा से इश्क आपका बना ही रहता है। दर्शकों या कि कहें अपने प्रशंसकों से इस दौरान आपने रिश्ता कैसे बनाए रखा?
-ये थोड़ा कठिन सवाल लगता है मुझे, पर मैं इसका जवाब भी पूरी ईमानदारी से देने की कोशिश करूंगी। हां, ये सही है कि अगर आप लगातार परदे पर नजर नहीं आते हैं तो दर्शकों की आपसे दूरी बनने लगती है, पर मैं शुक्रगुजार हूं अपने उन प्रशंसकों की, जिन्होंने मुझे कभी ये महसूस नहीं होने दिया कि मैं छुट्टी पर हूं या फिर मैं लगातार फिल्में नहीं कर रही हूं। ऐसे तमाम प्रशंसक हैं जिनके कार्ड्स, शुभकामना संदेश और बधाई संदेश लगातार आते रहते हैं। सिनेमा में कैमरे के सामने मैंने लंबा अरसा गुजारा है। मैंने भले कभी अपने प्रशंसकों या दर्शकों के बीच बैठकर उनकी प्रतिक्रिया ना जानी हो, पर मुझे पता है कि अपने चाहनेवालों व प्रशंसकों के संपर्क में रहना कितना सुखकर होता है। एक कलाकार को और क्या चाहिए, वो तो तालियों का ही भूखा होता है ना?

अब जबकि आपकी बच्ची बड़ी हो गई है, वह स्कूल भी जाने लगी है तो आपने अपनी छुट्टियां खत्म होने का ऐलान कर दिया है। वे दिन भी याद आते होंगे, जब आपकी स्कूल की छुट्टियां खत्म होती होंगी और आप स्कूल ना जाने की जिद करती होंगी?
-नहीं ऐसा तो कोई खास वाकया याद नहीं आता। हमारे यहां किसी पर कभी कोई दबाव नहीं रहा। कपूर खानदान में सबको अपने फैसले लेने की छूट रही है। बस हमें जीवन में अपनी प्राथमिकताएं तय करना आना चाहिए। अगर आपकी प्राथमिकता देर तक सोना है तो जाहिर है आप सुबह की मुस्कुराहट मिस करेंगे ही करेंगे। रही बात बचपन की तो मुझे याद है कि मैं पूरे खानदान की सबसे लाडली बिटिया रही हूं और मेरी हर बात सब मानते थे। राज जी भी मुझे बहुत चाहते थे और बाद में जब करीना, रणबीर और ऋद्धिमा का जन्म हुआ तो ये तीनों मुझसे चिढ़ते भी थे क्योंकि बाबा की मैं सबसे दुलारी पोती थी।

सोमवार, 30 अप्रैल 2012

लाइट, कैमरा, रन..

फूहड़ता के सबसे निचले स्तर तक पहुंचने के बाद हिंदी सिनेमा में सफाई और साफगोई के अंकुर फिर से निकल रहे हैं। दर्शकों की मनोरंजन में भी सच्चाई की ललक बढ़ रही है और इसका सबसे सही जवाब फिल्मकारों ने तलाशा है उन नायकों को रुपहले परदे पर फिर से नई जान देने का, जिनके किस्से कहानियां बस किताबों या अखबारों की कतरनों में ही सिमट कर रह जाते रहे हैं। जिद और जीवट की चंद सार्थक कहानियों को क्रिकेट की पूजा करने वाले देश में क्रिकेट से इतर खेलों के नायकों के बहाने भी रुपहले परदे पर पेश करने की कोशिशें वाकई सुखद संकेत देने वाली हैं।

© पंकज शुक्ल

इरफान की फिल्म पान सिंह तोमर की कामयाबी ने हिंदी सिनेमा में एक तरह की नई क्रांति का बीज रोपा है। पर ध्यान देने वाली बात ये है कि ये क्रांति सिर्फ सामाजिक जिम्मेदारी वाले सिनेमा के फिर से रुपहले परदे पर लौटने भर की बात नहीं है, ना ही इस पर हो रही बहस महज जमीन से जुड़े और वास्तविकता के करीब रहने वाले सिनेमा के मुख्यधारा में फिर से जगह पाने की वापसी तक ही सीमित है। दरअसल ये दिनों दिन समझदार होते और मनोरंजन से आगे जाकर भी कुछ पाने को तैयार हो रही हिंदी सिनेमा के दर्शकों की नई पीढ़ी को फूहड़ सिनेमा के काले बादलों के पार दिखी वो चमकीली लकीर है, जिसकी बुनियाद पर हिंदी सिनेमा में खेल पर आधारित फिल्मों का एक नया चलन शुरू हो सकता है। ऐसी फिल्में जिनमें कथानक किसी खास खेल के आसपास बुना जाता है और इसे खेलने वाले किरदार को फिल्म के नायक के तौर पर पेश किया जाता है। यही नहीं, इसने राकेश ओमप्रकाश मेहरा जैस निर्देशक को मिल्खा सिंह के जीवन पर फिल्म बनाने का हौसला भी दिया है। इसने फरहान अख्तर जैसे गैरपारंपरिक अभिनेता को अपने बाल बढ़ाकर एक सरदार के गेटअप में घुसने का जज्बा भी दिया है। और, इस बदलाव की बयार का ही असर है कि हॉकी के एक असल कोच की जिंदगी की आधारित फिल्म चक दे इंडिया कर चुके शाहरूख खान अब हॉकी के जादूगर मेजर ध्यानचंद की जीवनी पर फिल्म करना चाहते हैं। ऐसी ही कुछ कुछ मंशा इन दिनों इरफान खान भी जता रहे हैं।

जैसाकि हम सब जानते हैं भारत देश में क्रिकेट और सिनेमा के सितारों के बीच लोकप्रियता का ट्वेंटी ट्वेंटी हमेशा चलता रहता है और दोनों का कॉकटेल सेलेब्रिटी क्रिकेट लीग (सीसीएल) भी इसी सोच से जन्मा है, लेकिन सच ये भी है सम सामयिक क्रिकेट को लेकर हिंदी में बनी इकबाल को छोड़कर दूसरी एक भी फिल्म बॉक्स ऑफिस पर कामयाब नहीं हो सकी है। निर्देशक आशुतोष गोवारिकर की जिस क्रिकेट आधारित फिल्म लगान ने देश विदेश में कामयाबी का झंडा गाड़ा, उसमें क्रिकेट का वह दौर दिखाया गया जब आम भारतीय गेंद और बल्ले के इस खेल का अक्षर ज्ञान भी नहीं कर पाया था। लेकिन, इस बार बात हम क्रिकेट की फिल्मों की करेंगे ही नहीं। भले लगान को टाइम पत्रिका ने दुनिया की 25 सर्वश्रेष्ठ खेल आधारित फिल्मों की कालजयी सूची में शामिल किया हो, लेकिन फिल्म की कहानी को करीब से समझा जाए तो दिखाई देता है कि लगान की कामयाबी क्रिकेट की कामयाबी कम बल्कि चंद गंवार लोगों की इस खेल को सीखने की जिद और इस खेल में महारात हासिल कर चुके चंद गोरों को हराने के जीवट की कहानी ज्यादा है।

ये जिद और ये जीवट ही पान सिंह तोमर की भी कहानी कहते हैं। इसी जिद और जीवट ने चक दे इंडिया में कबीर के सपनों को राह दिखाई और बरसों पहले ऐसी ही जिद और जीवट रखने वाले चंद बच्चों को लेकर संदीप नाम का एक कोच भिड़ गया था फुटबॉल के उन सूरमाओं से जिन्हें हराने की बात करना भी उस शहर में शायद गुनाह समझा जाता था। लोगों ने तब पूरे उत्साह से आवाज लगाई थी, हिप हिप हुर्रे। इन दिनों सियासत, सत्ता और सामाजिक अपराधों के ताने बाने में खो चुके निर्देशक प्रकाश झा की ये पहली फीचर फिल्म थी और मेरे लिहाज से भारतीय सिनेमा में गैर क्रिकेट खेलों पर बनी स्पोर्ट्स फिल्मों के किसी भी पैमाने पर तीन बेहतरीन फिल्मों में शुमार होती है। हिप हिप हुर्रे शायद समय से पहले की फिल्म थी, कुछ कुछ वैसे ही जैसे राजकपूर की मेरा नाम जोकर, राज कपूर की तीसरी कसम और अमिताभ बच्चन की मैं आजाद हूं को समय से पहले की फिल्में माना जाता है। लेकिन, बलिहारी है यूटीवी मोशन पिक्चर्स की जिसने कोई दो साल तक पान सिंह तोमर को डिब्बाबंद रखा और ऐसा ही समय से पहले की फिल्म का ठप्पा उस पर नहीं लगने दिया। ये फिल्म अगर दो साल पहले रिलीज हुई होती तो शायद चुलबुल पांडे के दौर में कहीं गुम हो गई होती, भला हो इस देरी का कि दर्शकों को फूहड़ फिल्मों की ओवरडोज झेलनी पड़ी और इसके हैंगओवर से निकलने के लिए पान सिंह तोमर हिंदी सिने दर्शकों का नया नींबू पानी बन गई।

जैसा कि हर कारोबार में होता है हिंदी सिनेमा में भी ज्यादातर फैसले मुनाफे को ध्यान में ही रखकर किए जाते हैं। पर, स्पोर्ट्स फिल्मों के मामले में कम से कम क्रिकेट आधारित फिल्में बनानकर हिंदी सिनेमा ने कई बार गच्चे खाए हैं। और, ये गच्चा खाने वालों में फिल्म अव्वल नंबर में सदाबहार अभिनेता और निर्देशक देव आनंद से लेकर फिल्म पटियाला हाउस में निर्देशक निखिल आडवाणी तक शामिल हैं। तो फिर क्रिकेट से इतर हिंदी स्पोर्ट्स फिल्मों पर हमारा ध्यान ही नहीं जाता है या फिर क्रिकेट की चकाचौंध ने हमको इतना विस्मित कर दिया है कि हम उसके दाएं बाएं देख ही नहीं पाते। अस्सी के दशक में जब नक्सलबाड़ी आंदोलन के चंगुल से छूट भागा एक काला कलूटा सा लड़का हिंदी सिनेमा में अपने कूल्हे मटकाकर अमिताभ बच्चन के सुपरस्टारडम की गिनती पूरे होने का नृत्य कर रहा था, तो निर्देशक राज एन सिप्पी ने इस लड़के की सेहत देखी। इसकी आंखों में कुछ कर गुजरने का जज्बा देखा और देखी वही जिद और जीवट जो दुनिया बदल देने का माद्दा रखती है। राज एन सिप्पी ने इस लड़के को लेकर बनाई फिल्म बॉक्सर। गुरबत में दिन बिताने वाले एक लड़के के रिंग का चैंपियन बनने की ये कहानी 1984 में फरवरी की गुलाबी सर्दियों के उस दौर में परदे पर उतरी, जब साल भर पहले ही एक इतवार को भारतीय क्रिकेट टीम ने इतिहास का सबसे बड़ा उलटफेर करते हुए विश्वविजेता का खिताब जीत लिया था और साल की शुरूआत के पहले ही दिन यानी 1 जनवरी 1984 को रिलीज हुई हिप हिप हुर्रे ने स्कूली क्रिकेट की दीवाने हो चुके देश में भी अपने लिए सिनेमा हॉल मे तालियां बजाने वाले चंद हाथ ढूंढ लिए थे।


बॉक्सर की मिली जुली कामयाबी के बाद मिथुन चक्रवर्ती ने एक स्पोर्ट्स फिल्म और की- कराटे। ये फिल्म हालांकि भारत के पारंपरिक खेलों से इतर खेल पर बनी फिल्म थी, लेकिन ब्रूस ली के दौर में मिथुन चक्रवर्ती ने तमाम भारतीय युवाओं के हाथ में पकड़ा दिया एक ऐसा खिलौना, जिसका सही वार हो तो सामने वाले पल भर में ही धूल चाटने लगता था। ये खिलौना था- नान चाकू और फिल्म की लोकप्रियता का आलम ये था कि देश में गली गली कराटे क्लब खुल गए। लोगों को येलो बेल्ट, ग्रीन बेल्ट, रेड बेल्ट और ब्लैक बेल्ट के मायने समझ आने लगे और दारा सिंह के देश के लोगों को ये भी पता चला कि दांव सिर्फ हाथों से ही नहीं बल्कि अब पैरों से भी चले जाते हैं और वार भी मुक्के का कम बल्कि फ्लाइंग किक का ज्यादा जोर का होता है। किसी भी चलन या किसी भी सितारे की कामयाबी इसी में है कि वह परदे से निकलकर निजी जिंदगी में शामिल हो जाए। तो अगर पान सिंह तोमर देखकर निकलने वाले बुंदेलखंडी में बात करने कोशिश करते नजर आते हैं तो बरसों पहले लोगों ने अगर मिथुन को देख नान चाकू घरों में टांग लिए थे, तो बात ही क्या? क्रिकेट से इतर स्पोर्ट्स फिल्मों में मिथुन से पहले दारा सिंह भी बॉक्सर नाम की एक फिल्म कर चुके थे और उनकी पहलवानी के करिश्मे लोग कुछ दूसरी फिल्मों में भी देख चुके थे, लेकिन देश में फिटनेस को लेकर युवाओं के सजग होने का पहला दौर मिथुन चक्रवर्ती की फिल्म बॉक्सर से ही माना जा सकता है। सलमान की साइकिलिंग वाली फिल्म मैंने प्यार किया और ऋतिक रोशन की कहो ना प्यार है की फिटनेस तो बहुत बाद की बातें हैं।

लेकिन, सवाल इस बार सिर्फ फिटनेस या किसी सितारे की शोहरत का नहीं है। सवाल इस बार एक ऐसे चलन का है, जिसने अगर कामयाबी के दो चार पाठ और पढ़ लिए तो खिलाड़ियों की जीवनियों पर बनने वाली फिल्मों की एक परंपरा हिंदी सिनेमा में भी नई ताकत पा सकती है। हिंदी सिनेमा में स्पोर्ट्स पर बनने वाली अन्य फिल्मों का जिक्र करने से पहले ये समझना जरूरी है कि आखिर हिंदी सिनेमा क्रिकेट के अलावा दूसरे खेलों को लेकर इतना सीरियस क्यूं नहीं होता? इसकी गहराई में जाने से पहले समझना ये भी जरूरी है कि विदेश में जो स्पोर्ट्स फिल्में बनती हैं, उनका आधार क्या होता है? ये सही है कि विदेश में स्पोर्ट्स फिल्मों की एक अलग श्रेणी सिनेमा में पूरी तौर पर विकसित हो चुकी है पर सच ये भी है कि ये फिल्में मुख्यतया किसी न किसी खिलाड़ी की निजी जिंदगी की किसी बड़ी जीत से प्रेरणा पाती हैं। इस तरह की फिल्में बनाने के लिए वहां पहले से लिखा साहित्य बहुतायत में उपलब्ध है। अगर बॉक्सर जेक ला मोटा के जीवन पर मशहूर निर्देशक मार्टिन स्कॉरसेसे ने रेजिंग बुल बनाने में कामयाबी पाई तो इसकी एक बड़ी वजह ये थी कि मार्टिन के पास इस खिलाड़ी के बारे में जानने के तमाम साधन थे। विदेशी सिनेमा में खिलाड़ियों की जीवनियों पर बनने वाली फिल्मों की लंबी लिस्ट है और हिंदी सिनेमा में पान सिंह तोमर महज एक अदना सा अगला कदम है। मीर रंजन नेगी जैसे हॉकी खिलाड़ी के जीवन पर बनी चक दे इंडिया को भले इसके लेखक जयदीप साहनी ने तब असल जिंदगी पर बनी फिल्म मानने से इंकार कर दिया हो, लेकिन तब शायद ये बाजार की मजबूरी रही हो। जयदीप साहनी ने वाकई एक काल्पनिक कहानी लिखी या फिर 2002 के कॉमनवेल्थ खेलों में भारतीय महिला हॉकी टीम की जीत की सच्ची पटकथा परदे पर उतारी, इसे लेकर बहस हो सकती है, पर सच यही है कि जयदीप को ये फिल्म लिखने में अखबारों में छपे उन तमाम लेखों, आलेखों ने भरपूर मदद की, जिन्होंने इस जीत की नायिकाओं के बारे में विस्तार से खोजबीन की। यानी कि एक सच्ची जिद और मजबूत जीवट की कहानी को परदे पर उतारने की पहली शर्त है इस बारे में शोध के लिए तमाम सामग्री का मौजूद होना। पर, जीवट अगर तिगमांशु धूलिया जैसा हो तो यह अनिवार्यता भी धरी की धरी ही रह जाती है।

हालांकि, मेहरा को भाग मिल्खा भाग के लिए तिगमांशु की तरह अपनी कहानी के लिए सालों बीहड़ में नहीं भटकना पड़ा है। भाग मिल्खा भाग की शूटिंग इन दिनों पूरी रफ्तार में हैं। मेहरा कहते हैं, मिल्खा सिंह के बुलंदियों पर पहुंचने से पहले का रास्ता बहुत ही मार्मिक और संघर्षों से भरा हुआ है। एक अनाथ के तौर पर पले बढ़े मिल्खा में हौसला शुरू से था। बिना मां-बाप के बच्चों को जैसी मेहनत बचपन में करनी होती है, मिल्खा ने उससे ज्यादा परिश्रम किया। मिल्खा के मां-बाप बंटवारे के दौरान की हिंसा में मारे गए थे। उस दौर में अपने लिए खेल में इतना ऊंचा मुकाम बनाना किसी जीवट वाले इंसान के ही बस में हो सकता है। मिल्खा के बारे में जितना मैंने जाना उस हिसाब से मैं कह सकता हूं कि हम सब कुछ करने के लिए अपने आस पास प्रेरणाएं तलाशते रहते हैं, लेकिन मिल्खा अपनी प्रेरणा खुद थे। और, उनके जीवन का बस यही पहलू मैं परदे पर उतारना चाहता हूं। पान सिंह तोमर के बाद मिल्खा सिंह यानी एक और एथलीट। लेकिन, ऐसे नायक हमारे समाज में हर तरफ फैले हुए हैं। एथलेटिक्स में पी टी ऊषा, टेनिस में विजय अमृतराज व सानिया मिर्जा, बैंडमिंटन में प्रकाश पादुकोण, पी गोपीचंद और सायना नेहवाल, फुटबॉल में वाइचुंग भूटिया जैसे तमाम नायक नायिकाएं हैं, जिन पर अगर संवेदनशील तरीकें से फिल्में बनें तो लोग पसंद कर सकते हैं। इनके अलावा भी तमाम ऐसे नायक हैं, जिनके बारे में लोग ज्यादा नहीं जानते।

फिल्म कारोबार विशेषज्ञ व ट्रेड मैगजीन सुपर सिनेमा के संपादक विकास मोहन कहते हैं, हिंदी के निर्माता व निर्देशक आमतौर पर आलसी किस्म के होते हैं। उनका ज्यादातर काम सहायकों के भरोसे चलता है। लेकिन, अगर आप किसी की जीवनी पर फिल्म बना रहे हैं तो जाहिर है इस बारे में आपको शोध खुद करनी होगी। आपके सहायक की एक छोटी सी गलती आपका पूरा करियर दांव पर लगा सकती है। इसीलिए, हिंदी सिनेमा के फिल्मकार अक्सर अंडरवर्ल्ड पर पहले से बनी फिल्मों को बतौर रिसर्च इस्तेमाल करते हैं और उनका कैमरा उसी पर घूमता फिरता रहता है। पान सिंह तोमर या भाग मिल्खा भाग जैसी फिल्में जिद और जीवट दोनों मांगती हैं, और इसकी कमी हमारे यहां हमेशा से रही है।

संपर्क - pankajshuklaa@gmail.com

(नेशनल दुनिया समाचार पत्र की 29 अप्रैल 2012 की संडे मैगजीन की यह कवर स्टोरी है)

बुधवार, 18 अप्रैल 2012

100 साल सिनेमा के: तरक्की के या गिरावट के?

हम हिंदुस्तानी परंपराओं से जश्न मनाने के शौकीन लोग हैं। हमें सिर्फ खुश होने का बहाना चाहिए। ढोल, ताशे और नगाड़े तो बस तैयार रहते हैं बजने के लिए। इस बार जश्न सिनेमा का हो रहा है। सौ साल के हिंदुस्तानी सिनेमा का। इस जश्न के बरअक्स तमाम बातें ऐसी हैं जिन पर बातें की जा सकती हैं, बहसें हो सकती हैं और गंभीर परिचर्चाएं आयोजित की जा सकती हैं। लेकिन, सिनेमा की सुध ही किसे है? न सरकार को और न सरोकार को। सिनेमा वहीं फिर से पहुंचता दिख रहा है, जहां से ये चला था।

© पंकज शुक्ल

कहते हैं कि सौ साल में हर वो संस्था अपनी पूर्णगति को प्राप्त हो लेती है जिसका जरा सा भी ताल्लुक आम लोगों से रहता है। जिस सिनेमा को बाहरगांव में गरीबी, रजवाड़ों, झोपड़पट्टियों और मदारियों के खेल तमाशों से शोहरत मिली, वो हिंदुस्तानी सिनेमा अब रा वन, रोबोट और कोचादईयान की वजह से विदेश में जाना जा रहा है। पाथेर पांचाली, मेघे ढाका तारा, सुजाता, देवदास, मुगल ए आजम, मदर इंडिया का जमाना अब गया, अब सिनेमा दबंग, वांटेड, सिंघम और सिंह इज किंग हो गया है। और, ये चलन केवल हिंदी सिनेमा का ही नहीं है बल्कि हिंदी सिनेमा में ये चलन दक्षिण की उन फिल्मों से आया है, जिन्हें बनाने वालों को सिनेमा का सिर्फ एक ही मतलब समझ आता है और वो है पैसा।

पैसा एंटरटेनमेंट से आता है और सिल्क स्मिता बनीं विद्या बालन ने अभी पिछले साल ही तो समझाया था कि एंटरटेनमेंट होता क्या है? एंटरटेनमेंट का ये नया मतलब फिल्म मेकर्स ने खुद निकाला है। नहीं तो ऐसा एंटरटेनमेंट तो पहले भी बड़े परदे पर होता रहा है। दक्षिण में श्रीदेवी और कमल हासन की शुरूआती फिल्में अगर आप देख लें तो शायद कांतिलाल शाह भी शरमा जाएं। बताने वाले बताते रहे हैं कि कैसे हिंदी सिनेमा में सुपर स्टार बनने के बाद श्रीदेवी ने अपनी तमाम बी और सी ग्रेड वाली फिल्मों के राइट्स खरीद कर उनके प्रिंट अपने कब्जे में कर लिए थे। ये बात कोई बीस-पचीस साल पहले की है, लेकिन उससे थोड़ा और पीछे जाएं तो सिनेमा में सेक्स का तड़का लगाने के लिए राज कपूर ने पहले पहल मेरा नाम जोकर में सिमी ग्रेवाल के सहारे, फिर सत्यम् शिवम् सुंदरम् में जीनत अमान के सहारे और राम तेरी गंगा मैली में मंदाकिनी के सहारे खुलेआम कोशिशें कीं। नारी सौंदर्य के बहाने हुई इन कोशिशों को कलात्मकता की सफेद लेकिन भीगी साड़ी में ढकने की वो कोशिशें अब तक जारी हैं और साथ ही जारी है सिनेमा और मनोरंजन का वो संघर्ष जो दादा साहेब फाल्के की बनाई पहली हिंदुस्तानी फिल्म राजा हरिश्चंद्र के साथ ही शुरू हो गया था। जाहिर है दूसरे कारोबारों की तरह सिनेमा भी सिर्फ एक कला शुरू से नहीं रहा। इसे कारोबार के लिए ही रचा गया और अब तक कारोबार ही इसे रच रहा है।

सिनेमा और कारोबार के बीच एक बहुत महीन फासला रहा है। कुछ कुछ वैसा ही जैसे कि नग्नता और अश्लीलता में होता है। हिंदी समेत तमाम दूसरी भाषाओं में सिनेमा ने कुछ बेहतरीन पड़ाव पचास और साठ के दशक में पार किए। तब भी भारत का सिनेमा विदेश जाता था। सराहा जाता था और पुरस्कार भी पाता था। पर तब तक सिनेमा पथभ्रष्ट नहीं हुआ था। और तब तक सेंसर बोर्ड में ऐसे लोग भी नहीं आए थे जो कैसे इसकी ले लूं मैं, जैसे विज्ञापन तो सार्वजनिक प्रदर्शन के लिए पास कर देते रहे हों लेकिन फिल्म में तिब्बत के झंडे को लेकर उनका सामाजिक बोध एकदम से जाग जाता रहा हो। देखा जाए तो भारत में सिनेमा के सौ साल एक ऐसी बेतरतीब उगी फसल है, जिसे काटने वाले और अपना बताने वाले बहुत हैं, लेकिन इसका रकबा बढ़ाने की और बाकी की बंजर जमीन पर हल चलाने की कोशिश करने वाले गिनती के भी नहीं बचे हैं। अपने आसपास से कहानियां बटोरने वाला भारतीय सिनेमा कब धीरे धीरे डीवीडी सिनेमा में बदल गया, लोगों को पता तक नहीं चला।

असल कहानियों का टोटा
ब्लैक फ्राइडे, पांच, देव डी और गुलाल जैसी फिल्मों से मशहूर हुए निर्देशक अनुराग कश्यप कहते हैं, भारतीय सिनेमा की कोई एक पहचान नहीं है। हॉलीवुड फिल्मों की बात चलते ही हम कह देते हैं कि वहां सिनेमा तकनीक से चलता है। हमारे यहां तकनीक अभी उतनी सुलभ नहीं है। हर निर्माता सिर्फ तकनीक को सोचकर सिनेमा नहीं बना सकता। भारतीय सिनेमा की एक पहचान जो पिछले सौ साल में बनी है, उसमें मुझे एक बात ही समझ आती है और वो है इसकी सच्चाई। सिनेमा और सच्चाई का नाता भारतीय सिनेमा में शुरू से रहा है। बस बदलते दौर के साथ ये सच्चाई भी बदलती रही है और बदलते दौर के सिनेकार जब इस सच्चाई को परदे पर लाने की सच्ची कोशिश करते हैं, तो बवाल शुरू हो जाता है। अनुराग की फिल्मों के सहारे भारतीय सिनेमा के पिछले बीस पचीस साल के विकास को भी समझा जा सकता है। अनुराग कश्यप भले अपने संघर्ष के दिनों को पीछे छोड़ आए हों और अपनी तरह के सिनेमा की पहचान भी बना चुके हों, लेकिन उनका सिनेमा पारिवारिक मनोरंजन के उस दायरे से बाहर का सिनेमा है, जिसे देखने के लिए कभी हफ्तों पहले से तैयारियां हुआ करती थीं। एडवांस बुकिंग कराई जाती थीं और सिनेमा देखना किसी जश्न से कम नहीं होता था। अब सिनेमा किसी मॉल में शॉपिंग सरीखा हो चला है। विंडो शॉपिंग करते करते कब ग्राहक शोरूम के भीतर पहुंचकर भुगतान करने लग जाता है, खुद वो नहीं समझ पाता। जाहिर है सिनेमा बस एक और उत्पाद भर बन जाएगा तो दिक्कत होगी ही।
किसी भी देश के मनोरंजन में उसकी मिट्टी की खुशबू न हो तो बात लोगों के दिलों तक असर कर नहीं पाती है। भले दिबाकर बनर्जी जैसे लोगों को लगता हो कि हिंदुस्तान का साहित्य अब ऐसा बचा ही नहीं जिस पर सिनेमा बन सके, पर असल दिक्कत सिनेमा के साथ तकनीशियनों के आराम की भी है। काशीनाथ सिंह के मशहूर उपन्यास काशी का अस्सी पर सनी देओल जैसे सितारे के साथ फिल्म बना रहे डॉ. चंद्र प्रकाश द्विवेदी कहते हैं, सिनेमा खुद को बनाता है। हमें बस एक ऐसा कथ्य तलाशना होता है, जिसके जरिए हम दर्शकों के दिल को टटोल सकें। भारतीय सिनेमा के उत्थान और पतन जैसी ऐतिहासिक बातों में न पड़ा जाए तो भी ये तो कहा ही जा सकता है कि भारत में सिनेमा दो खांचों में बंटा दिखता है। इसमें एक सिनेमा वो है जिसमें सिर्फ टिकट खिड़की का मनोविज्ञान काम कर रहा होता है। ये सिनेमा सिर्फ टिकट खिड़की पर भीड़ जुटाने में यकीन रखता है। दूसरी तरह का सिनेमा भी टिकट खिड़की पर भीड़ तो देखना चाहता है, लेकिन उसे बनाने वाला ये भी चाहता है कि तीन घंटे सिनेमाघर में बिताने के बाद दर्शक खुद पर खीझता हुआ बाहर न निकले। मनोरंजन हो, लेकिन स्वस्थ हो, बस दूसरी तरह का सिनेमा यही चाहता है। लेकिन, इसके लिए रास्ता बहुत कठिन है और इस पर आपको अपनी सोच का हमसफर मिलेगा भी, ये आखिर तक ठीक नहीं होता। द्विवेदी की बातों में दम नजर आता है। रीमेक पर रीमेक बना रहे सिनेमा में वाकई असल कहानियां खोजने वाले गिनती के हैं।

कहां गए वो लोग?
कहानियों के बाद सिनेमा के सौ साला जश्न के दौरान अगली बात निकलती है निर्देशन की। ऐसा क्यूं कर है कि अजीज मिर्जा, श्याम बेनेगल, रमन कुमार, बी आर इशारा और सागर सरहदी जैसे फिल्म निर्देशकों को इन दिनों पहले फिल्में बनाने के लिए और फिर बन जाने पर उन्हें बेचने के लिए सौ जगह सिर पटकने पड़ रहे हैं। सागर सरहदी की फिल्म चौसर लिखने वाले राम जनम पाठक कहते हैं, सिनेमा अब मूल्यों और सामाजिक जिम्मेदारियों को टटोलने का माध्यम नहीं रह गया है। ये माध्यम अब सिद्दीक जैसे लोगों का है जो एक ही फिल्म को अलग अलग तड़का लगाकर अलग अलग भाषाओं में बनाते रहते हैं। पाठक मानते हैं कि सिनेमा की सामाजिक सोच अकाल मृत्यु का शिकार हो चुकी है और अब यहां सिर्फ वही तीर मार सकता है जिसकी जेब में पैसा हो और जिसके निशाने पर भी बस पैसा ही हो। पैसे का बोलबाला सिनेमा में हमेशा से रहा है पर सिनेमा में भी नकारात्मक प्रवृत्तियों का प्रतिकार ही किया है। मशहूर निर्देशक जहानु बरूआ के साथ लंबे समय तक जुड़े रहे पटकथा लेखक निलय उपाध्याय कहते हैं, सिनेमा के सौ साल का सबक यही है कि यहां हुनर के बजाय तिजोरी का सम्मान होने लगा है। भारतीय सिनेमा खासकर हिंदी सिनेमा एक ऐसी अंधी सड़क पर रफ्तार लगा चुका है, जिसके मोड़ों और मंजिल के बारे में उसे खुद नहीं पता। सिनेमा अब सिनेमा रहा ही नहीं, वह खालिस मनोरंजन का बाजार बन चुका है। एक ऐसा बाजार जहां एक रुपये लगाकर सौ रुपये कमाने का जुआ खेला जा रहा है और जिसकी फड़ पर फेंके जा रहे पत्तों में हर बार तीन इक्के निकलने ही निकलने जरूरी हैं। ऐसे में ये तीनों इक्के किसके पास निकलेंगे जाहिर है ये पहले से तय होता है। भारतीय सिनेमा की अब विदेशी फिल्म समारोहों में बात होती है तो या तो किसी वाद विवाद के चलते या फिर देह के दर्शन के चलते। अब न लोगों को गुरुदत्त याद रहे, ना के आसिफ। यहां तक कि मनमोहन देसाई, प्रकाश मेहरा और रमेश सिप्पी तक लोगों को बीते जमाने की बातें लगने लगे हैं।

शो जस्ट गोज ऑन
सौ साल के सिनेमा के सफर में अगर दक्षिण के नामचीन कलाकारों में एन टी रामाराव, राजकुमार, जय ललिता जैसे दर्जनों सितारों के नाम लगातार आते हैं तो पश्चिम और पूरब के सितारों में ये गिनती कलाकारों की कम और सितारों की ज्यादा होती है। इस मामले में सिनेमा के साथ चारों दिशाओं में एक हादसा एक सा हुआ और वह है नए कलाकारों का सिनेमा में प्रवेश करीब करीब बंद हो जाना। सिनेमा अब करोड़ों का हो चला है और पिछले बीस साल में एक भी निर्माता ने करोड़ों का दांव किसी ऐसे लड़के पर नहीं खेला है जिससे उसका दूर दूर का कोई नाता तक न हो। हिंदी सिनेमा का आखिरी सुपर स्टार रणवीर कपूर जिस खानदान से है वो तो सबको पता ही है, उनसे पहले जो सुपर सितारा 2001 में बड़े परदे पर नमूदार हुआ वो ऋतिक रोशन भी फिल्मी परिवार का ही है। सिनेमा को नजदीक से जानने वालों को भी अब समझ में आता है कि अब सिनेमा नहीं बस प्रोजेक्ट बनते हैं। हर निर्देशक किसी न किसी सितारे को पकड़ने की जुगाड़ में कई कई साल गुजार देता है। अशोक कुमार, पृथ्वीराज कपूर आदि के जमाने के बाद भले पहले राज कपूर, देव आनंद, दिलीप कुमार, फिर अमिताभ बच्चन, राजेश खन्नाा, ध्ार्मेंद्र, विनोद खन्नाा, राजेंद्र कुमार और मिथुन चक्रवर्ती तक आते आते सिनेमा में अपने बूते कुछ बन दिखाने या कर सुनाने वालों की गिनती कम होती रही हो, पर तय ये भी रहा कि सिनेमा ने नए का स्वागत करना बंद नहीं किया। लेकिन, तीसेक साल पहले मिथुन चक्रवर्ती के सुपर स्टार बनने के बाद से फुटपाथ पर फाकाकशी करने वाले किसी आम इंसान ने रुपहले परदे पर शोहरत का सबसे ऊंचा शिखर नहीं पाया। और, हिंदुस्तानी सिनेमा की पतन गाथा की शुरूआत भी बस वहीं से शुरू होती है।

तकनीक का उनवान
राजेंद्र कुमार की गोरा और काला, दिलीप कुमार की राम और श्याम, हेमा मालिनी की सीता और गीता से लेकर शाहरूख खान की ओम शांति ओम तक आते आते डबल रोल को ही सिनेमा की बेहतरीन तकनीक समझने वालों के नजरिए में भी कुछ ऐसा बदलाव आया है कि अब रा वन में अर्जुन रामपाल को एक ही फ्रेम में दस दस अवतारों में देखकर भी लोगों को अचंभा नहीं होता। दशावतारम व रोबोट के बाद अगली बारी विश्वरूपम् और कोचादईयान की है लेकिन मशहूर सिनेमैटोग्राफर विजय अरोरा कहते हैं कि हिंदुस्तानी सिनेमा में भावनाएं हमेशा तकनीक पर बाजी मारती रहेंगी। देश का आम दर्शक तीन घंटे के लिए जब सिनेमाघर में घुसता है तो कहीं न कहीं उसकी पीठ पर पसीने की कुछ बूंदें टिकी रह ही जाती हैं। परदेस में सिनेमा देखने आने वाले ज्यादातर लोग महंगी कारों से आते हैं, अपने यहां अब भी मल्टीप्लेक्स में सिनेमा देखने वाले ज्यादातर लोग ऑटो रिक्शा से आते हैं। बस सिनेमा का असल फर्क यहीं है। सिर्फ महंगे हॉलों में सिनेमा देखने भर से सिनेमा की परंपरा नहीं बदलती। सिनेमा की परंपरा इसे देखने वालों के जीवन में होने वाले बदलावों से बदलती है।

सूख रही संगीत सरिता
भारतीय सिनेमा की विदेश में एक बड़ी पहचान इसके संगीत की वजह से ही रही है। दुनिया में सबसे ज्यादा फिल्में बनाने वाले देश भारत में तकरीबन हर फिल्म में संगीत को तवज्जो दी जाती है और गाने इसकी पहचान रहते हैं। पर, अब ये संगीत सरिता अपने गोमुख में ही सूख रही है। मशहूर संगीतकार जोड़ी लक्ष्मीकांत-प्यारेलाल के प्यारे लाल कहते हैं, भारतीय सिनेमा ने पिछले बीस तीस साल में सबसे ज्यादा पतन अगर किसी विभाग में देखा है तो वो संगीत ही है। नए संगीतकारों में इन दिनों बस कुछ ऐसा कर देने की होड़ लगी है जो उनके गाने के मुखड़े को लोगों की जुबान पर चढ़ा दे या फिर जिसकी बीट्स पर कम कपड़ों वाली लड़कियां डिस्कोथेक में ठुमके लगा दें। धिक्कार है ऐसी तुकबंदियों पर जिसे लोग संगीत के नाम पर बेच रहे हैं। मैं मानता हूं कि संगीत को सबसे ज्यादा नुकसान पायरेसी ने पहुंचाया है, लेकिन ये भी संगीत कंपनियों का बस एक बहाना है। जितना पैसा पहले संगीत कंपनियां सीडी या कैसेट बेचकर नहीं कमा पाती थीं, उससे कहीं ज्यादा पैसा वो कॉलर ट्यून्स बेचकर कमा रही हैं, बस नीयत बदल गई है। सिने संगीत के स्वर्णिम काल की याद दिलाने पर प्यारे लाल कहते हैं, वो जमाना ही कुछ और था। सौ लोगों का आर्केस्ट्रा अगर किसी स्टूडियो में नहीं आ पाता था तो हम लोग रात में किसी पार्क में जाकर रिकॉर्डिंग कर लिया करते थे। पर अब ना वो हरियाली बची है, ना रातों का सन्नााटा और ना लोगों में संगीत का वो जुनून। हर कोई जल्दी में हैं। हर किसी को शॉर्टकट पता हो गए हैं। लेकिन सिनेमा का तिलिस्म शॉर्ट कट से नहीं उपजता, इसके लिए लंबी और थका देने वाली मेहनत करनी ही होती है।

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(यह आलेख नेशनल दुनिया के 15 अप्रैल 2012 के अंक में प्रकाशित हो चुका है)