मंगलवार, 27 दिसंबर 2011

भरत कर मनन भारत का...


पुरुष छह, दिन तीन,
गुणा औ अट्ठारह दिन का,
नहीं रहा कुरुक्षेत्र,
रण ये दिन गिन गिन का।

स्वयं सब पांडव बताते,
कौरव औ होंगे कौन,
के बन शिखंडी कौन,
बनेगा तूण का तिन तिनका।

के फिर शय्या पर पितामह,
औ द्वंद्व है चिंतन का,
रही है दिल्ली कांप,
ये अभिशाप पुर हस्तिन का।

कांचन पुरी का मध्य,
औ मौन ये संजय का,
युवराज का रण राग,
गांधारी के तम गगन का।

खुर तेग है किस ओर,
द्वापर नहीं कलयुग का,
अब व्यास गद्दी छोड़,
भरत कर मनन भारत का।

(पंशु. 27122011)


फोटो : गिरीश श्रीवास्तव

रविवार, 25 दिसंबर 2011

चुनावों से ऐन पहले परदे पर गूंजेगा पवार को पड़ा थप्पड़

अक्षय खन्ना की नई फिल्म ‘गली गली चोर है’ में सिस्टम के गाल पर आम आदमी का थप्पड़ पड़ने वाला है। जाहिर है ये दृश्य आपको दिल्ली में पवार के गाल पर पड़े थप्पड़ की याद भी दिलाएगा। सिस्टम से जूझते भारत कुमार की वापसी आप सब को मुबारक़ हो..

पंकज शुक्ल

केंद्रीय मंत्री और एनसीपी अध्यक्ष शरद पवार के गाल पर पड़े आम आदमी के तमाचे की गूंज जल्द ही आपको बड़े परदे पर सुनाई देने वाली है। दिलचस्प बात ये है कि ‘गली गली चोर है’ नाम की भोपाल में शूट हुई जिस फिल्म में एक आदमी द्वारा एक नेता को थप्पड़ मारे जाने का ये सीन फिल्माया जा चुका है, उसके निर्माताओं में एनपीसी के ही एक बड़े नेता की पत्नी भी शामिल हैं। फिल्म का पहला ट्रेलर सेंसर बोर्ड पास कर चुका है और इसे फिल्म डॉन 2 के प्रिंट्स के साथ जोड़ने की कसरत शुक्रवार को देर शाम तक चलती रही। छोटे परदे पर ये धमाकेदार ट्रेलर एक जनवरी से प्रकट होने वाला है।

पांच राज्यों के चुनाव सिर पर हों, अण्णा हजारे के अनशन की मुंबई में जगह तय हो चुकी हो, चारों तरफ भ्रष्टाचार के खिलाफ माहौल बन रहा हो, तो भला हिंदी सिनेमा पर इसका असर कैसे न पड़े? तो तमाम सुपरहिट कॉमेडी फिल्मों के लेखक रूमी जाफरी बतौर निर्देशक जो तीसरी फिल्म लेकर दर्शकों के सामने विधानसभा चुनावों से ठीक पहले बड़े परदे पर लौट रहे हैं, उसका पूरा का पूरा कलेपर ही इंडिया अगेन्स्ट करप्शन आंदोलन की ब्रांडिंग करता नजर आता है।

अक्षय खन्ना अभिनीत फिल्म के जो अंश मैंने खासतौर से देखने में कामयाबी पाई, उसमें एक जगह एक नेता आम आदमी से कहता है, ये जो शहर शहर में तुम लोगों ने मोमबत्ती गैंग बना रखा है, उससे कुछ नहीं होने वाला। कितना भी तुम लोग मोमबत्तियां जला लो, हमारे भीतर का लोहा नहीं पिघलने वाला।


** महाराष्ट्र के एनसीपी नेता सचिन अहीर की पत्नी ने बनाई फिल्म ‘गली गली चोर है’ * टीम अण्णा के धरना स्थलों पर बजेगा 'गली गली चोर है' का शीर्षक गीत **

टीम अण्णा के 27 दिसंबर से दिल्ली और मुंबई में प्रस्तावित धरना और अनशन कार्यक्रमों में फिल्म का शीर्षक गीत ‘गली गली चोर है’ बज सके इसके लिए फिल्म के निर्देशक रूमी जाफरी की टीम अण्णा के सदस्यों से मुलाकात हो चुकी है। तैयारी फिल्म के कलाकारों को अण्णा के अनशन स्थल पर भी ले जाने की है। फिल्म में एक नेता को भोपाल के एक आम आदमी द्वारा थप्पड़ मारे जाने का दृश्य रखे जाने की वजह पूछे जाने पर निर्देशक रूमी जाफरी का दावा है कि जिस दिन फिल्म की यूनिट भोपाल से शूटिंग निपटाकर लौटी, उसी रात फिल्म में काम कर रहे सतीश कौशिक ने उन्हें फोन कर इस खबर की जानकारी दी। लेकिन, ये पूछे जाने पर कि एनसीपी अध्यक्ष शरद पवार को मारे गए थप्पड़ से प्रेरित दृश्य वाली फिल्म के निर्माताओं में एनसीपी नेता सचिन अहीर की पत्नी संगीता अहीर का होना भी क्या महज संयोग है? रूमी जाफरी ने कोई टिप्पणी करने से इन्कार कर दिया।



एनसीपी नेता सचिन अहीर को एनसीपी में छगन भुजबल का काफी करीबी माना जाता है। लेकिन, अजित पवार के महाराष्ट्र में एनसीपी की कमान थामने के बाद से सुर्खियों में रहने के शौकीन सचिन अहीर पार्टी में हाशिए पर हैं। अपनी पत्नी संगीता अहीर के नाम से फिल्में बनाने वाले और हर साल गोविंदा उत्सव में बड़े बड़े सितारों को बुलाने वाले सचिन अहीर के करीबियों के मुताबिक सियासी थप्पड़कांड को फिल्म में शामिल करने के पीछे सोची समझी रणनीति है और इसीलिए फिल्म के पहले ही ट्रेलर में इसे खासतौर से शामिल किया गया है।

रविवार, 11 दिसंबर 2011

मैं ग़ालिब नहीं, आनंद बक्षी बनना चाहता हूं...

क्या आप जिंदगी को जीने में यकीन करते हैं? तो जाहिर है गाना भी गाते होंगे। सबके सामने न सही, अकेले में ही सही। जरा सोचिए तो कौन सा गाना है जो आपके जेहन में बार बार उभरता रहता है। जाहिर है इस गीत में कोई न कोई कविता जरूर छुपी होगी। पर क्या आपको लगता नहीं कि हिंदी सिनेमा के गीतो से कविता धीरे धीरे गायब हो रही है? तीन अलग अलग धाराओं के गीतकारों जावेद अख्तर, इरशाद कामिल और जलीस शेरवानी से बातचीत में जानने की कोशिश की गई कि क्या है इसकी वजह?

पंकज शुक्ल

जावेद अख्तर जब कहते हैं कि हिंदुस्तान मूल रूप से गाने वालों का देश रहा है और हिंदी सिनेमा के मौजूदा संगीत में गाने की तरफ तवज्जो कम और बाजे की तरफ ज्यादा हो चली है, तो बात को सिरे से पकड़ने की कोशिशें करना हर उस शख्स के लिए लाजिमी हो जाता है जो कभी बाथरूम में, कभी रात के अंधेरे में, कभी स्टीयरिंग हाथ में लिए या कभी बस यूं ही तनहाई में गुनगुनाते रहने का आदी रहा है। लेकिन, हम जो गाने गुनगुनाते हैं, वो कौन से गाने हैं? क्या हम शीला, मुन्नी, जलेबी गाते हैं? या फिर हम अब भी फाया कुन फाया कुन, पी लूं तेरे भीगे भीगे, तेरे मस्त मस्त दो नैन के साथ साथ एक लड़की को देखा तो ऐसा लगा, ही गुनगुनाते हैं। हिंदी सिनेमा के गीतों से कविता गायब होती जा रही है। पर साहिर लुधियानवी, मजरूह सुल्तानपुरी, गोपाल दास नीरज, योगेश, संतोष आनंद का लिखा लोग अब भी गुनगुनाते हैं, गाते हैं और इन गानों के शब्दों के मायने तलाशते हैं, फिर हिंदी सिनेमा के गीतों से कविता गायब क्यूं हो रही है?

जवाब मशहूर गीतकार जलीस शेरवानी देते हैं, आज हम अनपढ़, अनभिज्ञ और अज्ञान लोगों के बीच अपनी रोटी कमाने को मजबूर हैं। जो लोग हमसे काम ले रहे हैं वो कविता को नहीं समझते। वो सिर्फ पैसे को समझते हैं। कुछ ढंग का लिखकर इनके पास ले जाओ तो कहते हैं ये बहुत ओल्ड स्कूल थॉट है, हमें कुछ नया चाहिए। कोई हुकर लाइन लेकर आओ।
हिंदी सिनेमा के गीतों से कविता के लुप्त होने का दर्द जावेद अख्तर ज्यादा शिद्दत से महसूस करते हैं। वह कहते हैं, लेकिन हम कुछ कर नहीं सकते। मेरे पास तो लोग इसीलिए गाने लिखवाने नहीं आते। वे कहते हैं, अरे इसके पास मत जाओ। ये तो पोएट्री लिख देता है। अब बताइए पोएट्री नहीं लिखी जाएगी गीतों में तो फिर क्या लिखा जाएगा। मुझे जो चीज समझ आ रही है वो ये कि हमारे समाज में जो हाल के बरसों मंे तेजी आई है, वो हर जगह अपना असर छोड़ रही है। हम लोगों का चैन जा रहा है। समाज का ठहराव जा रहा है और चीजों को गहराई में जाकर समझने का हमारे पास वक्त नहीं है। ऐसा लोग कहते हैं। तो गीतों में भी ये ठहराव और ये चैन अब नहीं दिखता। कसूर जितना सिनेमा बनाने वालों का है उतना ही देखने और सुनने वालों का। हो सकता है कल को हमारे भीतर कहीं न कहीं ठहराव आना शुरू हो जाए और फिर से हमें गीतों में चैन और सुकून मिलने लगे।

गीतकार इरशाद कामिल इससे भी आगे जाकर दो बातें कहते हैं। वह कहते हैं, सिनेमा और साहित्य का जुड़ाव भले ज्यादा न हो पाया हो लेकिन जब तक अदब की दुनिया में शोहरत पाए लोगों ने सिनेमा की संगत कायम रखी, सिनेमा ज्यादा बिगड़ा नहीं। मैं तो कहता हूं कि हिंदी सिनेमा में लिखे गए गीतों में कविता कायम रखी जा सकती है और ये हिंदी साहित्य का हिस्सा भी हो सकती है। क्यों आखिर अदब और सिनेमा का अलम साथ साथ नहीं चल सकता। इरशाद कामिल ने हाल के तीन चार बरसों की तमाम हिट फिल्मों मसलन जब वी मेट, मेरे ब्रदर की दुल्हन, रॉक स्टार, वन्स अपॉन ए टाइम इन मुंबई के गीत लिखे हैं। वह कहते हैं, मैं धुनकी धुनकी लागे भी लिखता हूं तो लिखता हूं कि तू हवा पानी आग है, तू दगा दानी दाग है, क्या ये कविता नहीं है? हिंदी सिनेमा के गीतों को सिर्फ बाजारू चीज समझने की आदत सिनेमा देखने वालों की है।

जलीस शेरवानी को इरशाद कामिल की इस बात से नाइत्तिफाकी है। वो कहते हैं, अदब की दुनिया खुद ही अपने आप में सिमटी रहती है। वो हिंदी सिनेमा को सही नजरिए से नहीं देखती, ये और बात है कि साहित्य के बड़े बड़े नाम सिनेमा से जुड़ने के लिए पहले भी हाथ पांव मारते रहते थे और आज भी मारते हैं। पर, जल्द ही इन लोगों को भी समझ में आ जाता है कि सिनेमा में दो वक्त की रोटी कमाने के लिए तमाम समझौते करने पड़ते हैं। आनंद बक्षी से बड़ा गीतकार मैं किसी को नहीं मानता, लेकिन कितनी इज्जत दी उनको हिंदी कविता के पैरोकारों या साहित्य के अलमबरदारों ने। किसी के जाने के बाद उसे महान बताना, उसकी याद में मुशायरे करना और बात है, उसके जीते जी उसको अदब में इज्जत न मिले तो क्या फायदा। मैं तो रोटी सिनेमा के गीतों से कमाता हूं और लिखने की कसक मुशायरों के लिए लिखकर अलग से पूरी करता हूं।

इन हालात के लिए जावेद अख्तर हिंदी सिनेमा के मौजूदा गीतों पर हावी होते संगीत को जिम्मेदार मानते हैं। वह कहते हैं, अब तो सिर्फ शोर सुनाई देता है। शब्द सुनाई कहां देते? कोई अच्छी लाइन आती भी है, तो उससे पहले तबले, ड्रम या किसी और वाद्य की ऊंची थाप चलने लगती है। ये संगीत का ऊंचा शोर, थाप, ये तो पश्चिम की निशानी रही है। भारत देश मूल रूप से गवैयों का देश रहा है और हम गाना गाने में यकीन करते हैं, गाना बजाने में नहीं। हिंदी सिनेमा के संगीत में गाने के बोलों की बजाय संगीत से श्रोता को आकर्षित करने की प्रवृत्ति ने ही सिनेमा के गीतों से कविता को नदारद कर दिया है।


इन हालात के लिए जावेद अख्तर हिंदी सिनेमा के मौजूदा गीतों पर हावी होते संगीत को जिम्मेदार मानते हैं। वह कहते हैं, अब तो सिर्फ शोर सुनाई देता है। शब्द सुनाई कहां देते? कोई अच्छी लाइन आती भी है, तो उससे पहले तबले, ड्रम या किसी और वाद्य की ऊंची थाप चलने लगती है। ये संगीत का ऊंचा शोर, थाप, ये तो पश्चिम की निशानी रही है। भारत देश मूल रूप से गवैयों का देश रहा है और हम गाना गाने में यकीन करते हैं, गाना बजाने में नहीं। हिंदी सिनेमा के संगीत में गाने के बोलों की बजाय संगीत से श्रोता को आकर्षित करने की प्रवृत्ति ने ही सिनेमा के गीतों से कविता को नदारद कर दिया है। इरशाद कामिल भी हिंदी सिनेमा के गीतों में कविता को न सिर्फ बनाए रखने के हिमायती हैं बल्कि खुद को हिंदी साहित्य और सिनेमा के बीच का पुल बनाने के लिए भी तैयार हैं। वह कहते हैं, अगर अच्छा लिखा जाएगा तो अच्छा सुना भी जाएगा। मैं तकरीबन रोज ही किसी न किसी फिल्म में गीत लिखने के प्रस्ताव को ना कह देता हूं। जबकि लोग मुझे मुंहमांगी कीमत देने का प्रस्ताव भी देते हैं लेकिन मैं जानता हूं कि अच्छा लिखने के लिए मुझे खुद को लालची बनने से रोकना होगा। मैं कम लिखना चाहता हूं लेकिन बेहतर लिखना चाहता हूं। अभी तक तो इसमें कामयाबी भी मिली है और लोगों ने अच्छे गीतों को सराहा भी है।

पर, इरशाद कामिल बनना और इस बने पर टिके रहने की जिद रखना सबके बूते की बात नहीं दिखती। इरशाद अपनी कामयाबी के लिए जहां अपने पुराने दोस्त और निर्देशक इम्तियाज अली के खुद गालिब और रूमी के करीब होने को भी श्रेय देते हैं, वहीं अरसे से फिल्मों के लिए संवाद लिखते रहे और सलमान खान की तमाम फिल्मों के लिए सुपरहिट गीत लिख चुके जलीस शेरवानी साफ कहते हैं, मुझे गालिब बनकर भूखा नहीं मरना। मैं आनंद बक्षी बनना चाहता हूं।

© पंकज शुक्ल। 2011

सोमवार, 5 दिसंबर 2011

“वो दौर और था, ये दौर और है..”


पंकज शुक्ल

इसी साल आजादी की सालगिरह से ऐन पहले मुलाकात हुई देव आनंद से। मिलने के लिए वक्त मांगने पर फोन का जवाब खुद दिया। फोन वो खुद ही उठाते थे। दूसरी तरफ से आती हैलो की आवाज फोन करने वाले को एक मिनट के लिए ऊपर से नीचे तक रोमांचित कर देने के लिए काफी थी। न कहीं आज के सुपर सितारों सा चारों तरफ पसरा छद्म आवरण और न ही खुद पर किसी तरह का गुमान। अतीत से किसी तरह की मोहब्बत नहीं और सपने उनके जैसे जैसे हकीकत में बदलते जाते, थोड़ा और फैलते जाते, शायद कभी न पूरे होने के लिए।

शिकायत वो लोग करते हैं, जिन्हें दूसरों से उम्मीद होती है। मुझे अब किसी से क्या चाहिए? मैंने जितना चाहा, मुझे उससे सौ गुने से भी ज्यादा मिला। जितनी उम्र लोगों की होती है, उससे ज्यादा वक्त तो मैं फिल्मों में काम कर चुका हूं।


कहते थे, मैं सपनों में जीने का आदी हूं। ये सपने मुझे लगातार काम करते रहने के लिए उकसाते हैं। ये पूरे हो गए तो मैं पूरा हो जाऊंगा। आखिरी सपना देवसाब का था तो बस हरे रामा हरे कृष्णा को फिर से बनाने का। हालांकि बस यही एक बात ऐसी थी जो उनके अपने उसूलों से मेल नहीं खाती थी। कम लोग ही जानते होंगे कि कभी प्रीतिश नंदी और अजय देवगन ने उनकी फिल्म गाइड को फिर से बनाने के लिए देव साब की चौखट न जाने कितनी बार लांघी होगी। सारी बातों मुलाकातों का लब्बोलुआब यही रहा कि गाइड दोबारा नहीं बनेगी। बातों बातों में उस दिन यूं ही मैं भी पूछ बैठा, आप रीमेक के जब इतने खिलाफ हैं, तो हरे रामा हरे कृष्णा फिर क्यूं बनाना चाहते हैं? बोले, पंडित जी आप तो तकदीर को मानते होंगे। मैं आज के युवाओं को बताना चाहता हूं कि उनकी तकदीर उनके हाथों में हैं। नशा, ड्रग्स, जुआं ये सब आज भी वैसा ही है जैसा तब था। सियासत में नए लोगों को आना चाहिए। मेरी बस यही एक कोशिश अपने मुकाम तक नहीं पहुंच सकी।

वो मुलाकात राज कपूर के बारे में उनकी राय जानने को लेकर थी। सब जानते हैं कि देव साब अतीत की यादों में जाने से सख्त नफरत करते रहे। बातचीत की शुरुआत में लगा भी कि शायद देव साब बात करेंगे नहीं। लेकिन, उनकी रंगीन फिल्म हम दोनों की यादों से मैंने बातों का सिरा पकड़ा। वो बताने लगे कि कैसे उन्होंने अपनी तमाम पुरानी हीरोइनों को बुलाया। दिलीप साब को भी बुलाया। शाहरुख खान को भी बुलाया और टीना अंबानी को भी। सब जानते हैं कि इनमें से कोई नहीं आया। हम दोनों के रंगीन संस्करण की रिलीज के प्रीमियर के मौके पर। लेकिन कम लोग ही जानते हैं कि उन्होंने कभी किसी की बात का रंज नहीं माना। बोले, शिकायत वो लोग करते हैं, जिन्हें दूसरों से उम्मीद होती है। मुझे अब किसी से क्या चाहिए? मैंने जितना चाहा, मुझे उससे सौ गुने से भी ज्यादा मिला। जितनी उम्र लोगों की होती है, उससे ज्यादा वक्त तो मैं फिल्मों में काम कर चुका हूं।

लोग अक्सर यही समझते रहे कि देव साब और राज कपूर की पटती नहीं थी। फिल्म इश्क, इश्क, इश्क के प्रीमियर पर राज कपूर द्वारा जीनत अमान को सबके सामने चूमने और देव आनंद की खोज होने के बावजूद जीनत के राज कपूर की तरफ लगातार खिंचते जाने पर भी बातें हुईं। वो बोले, जीनत ने क्या किया, क्यंू किया, क्या सोचकर किया? इन सब बातों में मैं नहीं जाना चाहता। हां, मैं अब भी जीनत को अपनी खोज मानता हूं, पर शायद तब मैंने ही ज्यादती की होगी उस पर अपना अधिकार जताकर। जीनत मुझे अमरजीत (हम दोनों के निर्देशक) की पार्टी में मिली थी। उस शाम ने उसकी तकदीर बदल दी। ऐसा ही कुछ और भी हीरोइनों के साथ हुआ, जिनके लिए मैं मिडास टच बना। टीना मुनीम (अब टीना अंबानी) से मेरी मुलाकात यूं ही एक शूटिंग पर हुई। वो शायद मेरी फिल्म की शूटिंग देखने आई थी। उसने उस दिन मेरा ऑटोग्राफ भी लिया। वहीदा को गुरुदत्त लेकर आए थे हैदराबाद से सीआईडी के लिए, लेकिन गाइड में उन्हें लेने का फैसला मेरा था। हेमा मालिनी को गोल्डी ने जॉनी मेरा नाम में लिया, उन दिनों हेमा हर डायरेक्टर से कहा करती थी, मुझे देव आनंद के साथ काम करना है।

फिर से राज कपूर से अपने रिश्तों के बारे में कुरेदने पर देव साब बोले, राज से मेरा कभी कोई झगड़ा नहीं रहा। दिलीप साब की तो मैं आज भी बहुत इज्जत करता हूं। हम तीनों ने एक साथ बुलंदियों को छुआ, लेकिन आज के दौर की तरह हमने कभी एक दूसरे के खिलाफ कहीं भी कोई उल्टी सीधी बात नहीं की। पंडित जी वो दौर और था, ये दौर और है। मैं तो बस साहिर की लाइनों की तरह अब भी जीता हूं..मैं जिंदगी का साथ निभाता चला गया। हर फिक्र को..? गाने की लाइन यहीं छोड़कर वो मुस्कुराए। बाकी लाइन मुझे गाकर पूरी करनी ही पड़ी। क्या पता था, वो आधी लाइन तामउम्र यादों की तस्वीर बनकर साथ रह जाएगी।

© पंकज शुक्ल। 2011