मंगलवार, 29 नवंबर 2011

वो उनवान ए उस्ताद, ये नाशुक्री नस्ल

उस्ताद सुल्तान खान के लिए लिखी गई सिनेमांजलि को आप लोगों ने पढ़ा, समझा और सराहा, इसके लिए तहे दिल से शुक्रिया। लोगों ने उस्ताद साब के बारे में और जानने की उत्सुकता दिखाई और इंदौर के घराने में उनके शामिल होने के बारे में भी जानना चाहा। पेश है उस्ताद पर लिखी सिनेमांजलि की ये दूसरी और अंतिम कड़ी।

सिनेमांजलि/ पंकज शुक्ल

उस्ताद सुल्तान खान भले सोमवार को जोधपुर के कब्रिस्तान में अपने वालिद की बगल में हमेशा हमेशा के लिए सो गए, पर वो हिंदुस्तानी संगीत पर जो एहसान कर गए हैं, उसे चुकता कर पाना आने वाली नस्लों के भी बस की बात नहीं होगी। उस्ताद तो खैर वो बाद में बने, लेकिन उस्तादी के अपने फन का पहला मुजाहिरा उन्होंने तभी कर दिया था जब अपने पहले उस्ताद और वालिद गुलाब खान के लाख समझाने पर भी उन्होंने गायिकी की बजाय सारंगी बजाने को ही अपना पहला इश्क़ बनाया। ये वो दौर था जब उस्ताद अब्दुल करीम खान और उस्ताद बड़े गुलाम अली खान की देखादेखी उस्ताद अमीर खां तक सारंगी छोड़ गायिकी का पहलू थाम बैठे थे।


लता मंगेशकर ने उन्हें अपने घर लगातार तीन महीने रखा। और जब खय्याम जैसे संगीतकार के साथ गालिब को गाने की बारी आई तो लता ने भी उस्ताद सुल्तान खान की सारंगी का ही सहारा लिया। खय्याम और उस्ताद सुल्तान खान का साथ फिल्म उमराव जान तक बदस्तूर जारी रहा और आशा भोसले भी इस फिल्म की तमाम गजलों में बजाई गई उस्ताद की सारंगी की कायल हुए बिना न रह सकीं।


जी हां, कम लोगों की मालूम होगा कि ये तीनों उस्ताद दरअसल पहले सारंगी के ही शागिर्द थे। लेकिन, संगतों में हारमोनियम की बढ़ती धमक और सारंगी बजाने में आने वाले मुश्किलात को देखते हुए गुलाब अली चाहते थे कि बेटा भी इन उस्तादों की तरह सारंगी छोड़ गायिकी में अपना रसूख बनाए। सोचिए, अगर तब सुल्तान खान ने वालिद का कहा मान लिया होता तो सारंगी का आज कौन नाम लेवा होता। सुल्तान खान सारंगी के उस्ताद तो बने लेकिन इंसानियत के शागिर्द वो ताउम्र बने रहे। कम शागिर्द ही होंगे ऐसे जिन्होंने अपना पुश्तैनी घराना छोड़ अपने उस्ताद का घराना अपना लिया। उस्ताद अमीर खां ने ही सुल्तान खान को पहले पहल बंबई में अपनाया और इस मोहब्बत ने दोनों के बीच ऐसा मेल कराया कि सीकर घराने का पानी इंदौर घराने के दूध में मिलकर उसके जैसा ही हो गया।

ये वो वक्त था जब लता मंगेशकर ने उन्हें अपने घर लगातार तीन महीने रखा। और जब खय्याम जैसे संगीतकार के साथ गालिब को गाने की बारी आई तो लता ने भी उस्ताद सुल्तान खान की सारंगी का ही सहारा लिया। खय्याम और उस्ताद सुल्तान खान का साथ फिल्म उमराव जान तक बदस्तूर जारी रहा और आशा भोसले भी इस फिल्म की तमाम गजलों में बजाई गई उस्ताद की सारंगी की कायल हुए बिना न रह सकीं। बेगम अख्तर जैसी बेहतरीन गजलदां से लेकर फिल्मी फन के माहिर मोहम्मद रफी तक सब उनकी सारंगी के मुरीद रहे। बीच में मीना कुमारी ने जब अपनी लिखी शायरी को खुद आवाज़ देने की कोशिश की तो उन्हें भी सहारे के लिए बस एक ही नाम याद आया-उस्ताद सुल्तान खान।

फन के रईस और शोहरत के गरीब उस्ताद सुल्तान खान अक्सर मिलने पर कहा करते, तुम लोग मीडिया वाले, जिसको चाहो स्टार बना दो। पर क्या तुम लोग वाकई हुनर को पहचानते हो या बस दावतों के दौर चलने पर ही अच्छा अच्छा लिखते हो। हिंदी सिनेमा ने उनसे क्या क्या नहीं पाया। लेकिन, सुपर्दे खाक होने के वक्त तक साथ रहे तो बस दो नए संगीतकार सलीम-सुलेमान। उन्हें अक्सर इस बात पर रंज होता कि जिस फन के लिए उन्होंने अपनी जिंदगी गुजार दी, उसकी बजाय नई पीढ़ी ने उन्हें जाना तो उनकी गायिकी के चलते। और, इस्माइल दरबार अगर फिल्म हम दिल दे चुके सनम का अलबेला सजन गाना बनाते वक्त भी उस्ताद से गाने की जिद न करते, तो न शायद पिया बसंती होता और न ही हम जैसे संगीत के नाशुक्रों को पता चलता कि क्या था इस उस्ताद का उनवान..अल्ला हाफिज़, सुल्तान साब। जहां भी रहिए, बस सुर सजाते रहिए।

सोमवार, 28 नवंबर 2011

अब नहीं सताएगा पिया बसंती

उस्ताद सुल्तान खान नहीं रहे। संगीत के करोड़ों कद्रदानों को ये खबर इतवार के दिन मायूस कर गई। किसी ने कहा एक और हीरा चला गया। किसी ने 71 साल की उम्र में भी उनकी जिंदादिली को याद किया तो किसी ने बताया कि कैसे उनके गुर्दों ने हाल ही में काम करना बंद कर दिया था। साल 2011 को पता नहीं हुनरमंदों से क्या दुश्मनी है। अभी भूपेन हजारिका को ऊपर पहुंचे देर ही कितनी हुई है।


सिनेमांजलि/ पंकज शुक्ल

साजिंदों और हुनरमंदों की ऊपरवाले के यहां दिनोंदिन मजबूत होती महफिल में जब उस्ताद सुल्तान खान की रूह गाएगी, तो शायद ऊपरवाला भी दिल मसोस कर ही रह जाएगा। वह कहते थे, मेरा रियाज़ नहीं गाता, मेरी रूह गाती है। बड़ा कलाकार होने के साथ साथ वो बड़े दिलवाले भी थे। 11 साल पहले की बात है। उन दिनों उनका अलबम पिया बसंती रिलीज हुआ था और दिल्ली के एक पंचसितारा होटल में तय हुई कोई दस मिनट की मुलाकात कैसे एक घंटे से ऊपर निकल गई, ना मुझे पता चला और न उन्हें। मुंह में गुटखा दबाए वो बोलते रहे। पर ये भी कहते रहे, मैं बोलता कम हूं। तुम लिखना चाहो तो लिखो। या ऐसे ही बात करते हैं।



मैं मस्तमौला इंसान हूं। जहां उस्ताद दिखे, भीतर का शागिर्द जाग गया। बड़े गुलाम अली खान हो या ओंकारनाथ ठाकुर, फय्याज़ खान या फिर सिद्धेश्वरी देवी सब मेरे उस्ताद हैं।


फिर बातें होती रहीं। उनके बचपन की कि कैसे कुश्ती और फुटबॉल से अलग कर एक दिन वालिद उस्ताद गुलाब खान ने उनके हाथ में सारंगी थमा दी। जैसे उनके वालिद और उनके पहली की उनकी सात पुश्तों को सारंगी से इश्क़ था, सुल्तान खान को भी हुआ। अपने वालिद की तरह गायिकी भी उनकी बेजोड़ रही। पर शोहरत अपने वतन से ज्यादा परदेस में मिली। वह कहते, यहां किसी के साथ बजाते तो बस साजिंदे ही कहलाते। वहां ऐसा नहीं है। वहां संगत करने वाले को भी मुख्य फनकार जितनी ही इज्जत मिलती है। प्रिंस चार्ल्स की 50वीं सालगिरह के लिए मिले न्यौते के बारे में भी वो अक्सर बताते।

फुटकर फुटकर मुलाकातें उनसे कई दौर की हुईं। ऐसी ही एक मुलाक़ात में मैं पूछ बैठा, आपको इंदौर घराने का बजैया माना जाता है, पर आपके हुनर में तो अलहदा चीजें भी बताई जाती हैं। उस्ताद ने उस दिन खुलकर बताया, मैं मस्तमौला इंसान हूं। जहां उस्ताद दिखे, भीतर का शागिर्द जाग गया। बड़े गुलाम अली खान हो या ओंकारनाथ ठाकुर, फय्याज़ खान या फिर सिद्धेश्वरी देवी सब मेरे उस्ताद हैं। शायद यही वजह रही कि बाद में उन्होंने एक खास अलबम भी इसीलिए निकाला और इस अलबम में उन्होंने तीन अलग अलग राग, तीन अलग अलग घरानों आगरा घराना (फय्याज़ खान), पटियाला घराना (बड़े गुलाम अली खान) और इंदौर घराना (उस्ताद आमिर खान) के हिसाब से गाए। लेकिन फिर भी इंदौर घराने के वो ताउम्र सबसे करीब रहे। कहते थे, उस्ताद आमिर खान साहब मेरे सबसे बड़े आदर्श रहे। उनकी तान और सरगम का मैं बहुत बड़ा मुरीद हूं।

पद्म भूषण, साहित्य अकादमी पुरस्कार के अलावा देश विदेश में तमाम पुरस्कार उस्ताद सुल्तान खान के नाम के साथ जुड़कर सम्मानित होते रहे। और, वो वक्त के साथ आगे बढ़ते रहे। फिल्म हम दिल दे चुके सनम में अलबेला सजन आयो रे गाने के चंद दिनों बाद मिलने पर उस्ताद ने यूं ही बात चलने पर कहा था, संगीत सब जगह एक सा है। संगीत मेरे लिए ईश्वर है। उसके रूप अलग अलग हो सकते हैं। तो फिल्म हो या पश्चिमी संगीत, मेरे लिए सुरों की इबादत हर जगह एक जैसी है।

शनिवार, 26 नवंबर 2011

मैं बच्चा बनके फिर से रोना चाहता हूं..


के अपनी बदगुमानियों से उकता गया हूं,
मैं बच्चा बनके फिर से रोना चाहता हूं।

न हमराह न हमराज़ इन गलियों में लेकिन,
मैं इस शहर में अपना एक कोना चाहता हूं।

सुकूं आराम की मोहलत के कैसी ये क़ज़ा* है,
मैं अपनी मां के आंचल सा बिछौना चाहता हूं।

के यूं ख्वाहिश जगी दाग़ औ कीचड़ के फाहों की,
मैं बच्चा बनके राह गलियारों में सोना चाहता हूं।

सिसकना सब्र से ईमां का अब होता नहीं रक़ीब*,
ना बन दस्त ए गिरह रफ़ीक*, मैं खोना चाहता हूं।

मुसल्लम ए ईमां हूं क़ाफिर की सज़ा पाई है,
अब बोसा* ए संग ए असवद* भी धोना चाहता हूं.. (पंशु.)



क़ज़ा- मौत। रक़ीब - दुश्मन। रफ़ीक - दोस्त।
बोसा - चुंबन। संग ए असवद - मक्का का पवित्र पत्थर।

रविवार, 13 नवंबर 2011

बदगुमानियों का बिग बॉस

पहले लोग कहते थे कि बद अच्छा बदनाम बुरा। अब जमाना बदल गया है। बद अच्छा हो न हो पर बदनाम जरूर अच्छा हो गया है। छोटे परदे पर बदगुमानियों का नया बाजार सज चुका है। लोग इस बाजार में अपनी दुकान सजाने के लिए खुद ही कीचड़ में कूदने को तैयार हैं। और, टीवी चैनल बाहें पसारे और तिजोरियां खोले ऐसे लोगों का स्वागत भी करने को बेताब हैं।


पंकज शुक्ल

दामन के दाग अच्छे बताने के दौर में हर किसी को अपनी कमीज दूसरे से सफेद बताने का जमाना अब चला गया। अब वक्त है विवादों से सुर्खियां बटोरने का। और, विवाद जब लगे कि करियर आगे बढ़ाने और लाइम लाइट में बने रहने का एक जरिया बन जाएं तो साथ मिलता है बिग बॉस का। पांच साल से लगातार चलते आ रहे छोटे परदे के सबसे बड़े विवादों को जन्म देने वाले रिएल्टी शो बिग बॉस में इस बार स्वामी अग्निवेश की एंट्री ने लोगों को चौंका दिया। कहां बिग बॉस की इस गंगा में बंटी चोर, सीमा परिहार, मोनिका बेदी, वीना मलिक और कमाल राशिद खान जैसे लोग अपने हाथ धोते रहे और कहां स्वामी अग्निवेश? लेकिन जैसा कि हालिया रिलीज फिल्म रॉक स्टार में जनार्दन जाखड़ का साथी खटाना उसे समझाता है कि एवरीथिंग इज इमेज, कुछ कुछ वैसे ही बिग बॉस भी लोगों की बिगड़ी इमेज सुधारने का शॉर्ट कट बन गया है। पहले लोग बिग बॉस का मेहमान बनने के लिए अपनी साख पर जानबूझकर बट्टा लगवाते हैं और फिर कभी रो कर कभी दूसरों को धो कर अपनी इसी इमेज को सुपर रिन की चमकार सरीखा चमकाने की कोशिश करते हैं।

पिछले साल बिग बॉस का चौथा सीजन शुरू होने की सरगर्मी शुरू होते ही बीते जमाने की एक मशहूर अदाकारा और म्यूजिक अलबमों की चर्चित कलाकार ने अपना पीआर देखने वाले को फोन किया। चाहत ये थी कि किसी तरह ये बंदा अपने संबंधों का इस्तेमाल करके उसका नाम किसी बड़े विवाद में घसीटने का इंतजाम कर दे। इस अदाकारा ने अपने हिस्से भी जितने जुगाड़ थे, सब लगाकार बिग बॉस बनाने वाले प्रोडक्शन हाउस पर खूब डोरे डाले। लेकिन, मामला जम न सका। आप भी अगर गौर करें तो पाएंगे कि पिछले पांच साल से हर बार जब भी बिग बॉस शुरू होने को होता है, कोई न कोई छुटभैया कलाकार अपने जीवन का कुछ ऐसा सत्य लोगों के सामने लाने को तड़पने लगता है जिसे सुनकर लोगों के पैरों के नीचे की जमीन खिसके न खिसके, सिर के ऊपर का आसमान जरूर एकाध इंच इधर का उधर हो जाए। इसी साल बिग बॉस शुरू होने से ऐन पहले एवरग्रीन अभिनेता और निर्देशक देव आनंद की खोज कही जाने वाली एक अदाकारा ने खुद के लेस्बियन होने का सरेआम ऐलान कर दिया। चाहत वही कि आग लगे न लगे लेकिन इतना धुंआ तो उठ ही जाए कि बिग बॉस बनाने वाले उसके करियर बचाने के इस आपातकालीन सिगनल को समझ जाएं।

आप भी अगर गौर करें तो पाएंगे कि पिछले पांच साल से हर बार जब भी बिग बॉस शुरू होने को होता है, कोई न कोई छुटभैया कलाकार अपने जीवन का कुछ ऐसा सत्य लोगों के सामने लाने को तड़पने लगता है जिसे सुनकर लोगों के पैरों के नीचे की जमीन खिसके न खिसके, सिर के ऊपर का आसमान जरूर एकाध इंच इधर का उधर हो जाए। इसी साल बिग बॉस शुरू होने से ऐन पहले एवरग्रीन अभिनेता और निर्देशक देव आनंद की खोज कही जाने वाली एक अदाकारा ने खुद के लेस्बियन होने का सरेआम ऐलान कर दिया।

वैसे बिग बॉस बनाने वाले इस मामले में इतने उदार रहे हैं कि पुरुषों और महिलाओं को एक नजरिए से देखते हैं। झगड़ा चाहे श्वेता तिवारी के घर में हो या मनोज तिवारी के। उनकी नजर सब पर समान रूप से पड़ती है। यही नहीं पहले सीजन से ही वो पुरुष और महिलाओं का ये भेद मिटाने वाले कुछ कलाकारों पर भी मेहरबान रहे हैं। बॉबी डार्लिंग, रोहित वर्मा, नवाजिश अली से लेकर लक्ष्मी तक ये सिलसिला बदस्तूर जारी है। मामला शेरलिन चोपड़ा, राहुल महाजन, कमाल राशिद खान, खली और राखी सावंत जैसे लोगों से जुड़ा हो तो बिग बॉस को अपनी थैलियां खाली करने में भी कोई एतराज नहीं होता। छोटे परदे पर बदनामी को बेचने का ये फॉर्मूला बिग बॉस ने ही ईजाद किया और इसके बदले खूब कमाई भी की। वैसे बिग बॉस की इस गणित के पीछे एक बड़ा मनोविज्ञान भी काम करता है। मशहूर मनोचिकित्सक पवन सोनार कहते हैं कि हर इंसान के भीतर अच्छे और बुरे की पहचान करने की काबिलियत तो होती है लेकिन कई बार किसी किसी को अपनी बदगुमानियों में भी मजा आने लगता है। नकारात्मक किरदारों की कहानियों को बढ़ा चढ़ाकर पेश करने की मीडिया की परंपराओं से ये लोग अपनी खुराक पाते हैं और सुर्खियों में बने रहने के लिए कुछ न कुछ उल्टा सीधा करते रहते हैं।

राखी सावंत को इस मामले में सबसे आगे की चीज माना जाता है। इतना आगे कि वह छोटे परदे पर अपना स्वयंवर फिर से करने को तैयार हैं। वैसे तो इस सीजन के लिए संबंधित चैनल द्वारा पाकिस्तानी अदाकारा वीना मलिक का नाम फाइनल करने की बात करीब करीब पक्की हो चुकी है, लेकिन राखी भी दौड़ में शामिल रहना चाहती हैं। राखी सावंत जैसों ने ही छोटे परदे को बदनामी का बाजार बनाया और अब तक इसके जरिए खूब कमाई करती रही हैं। इन रिएल्टी शोज की अपनी शोहरत शुरू के दिनों में ऐसी रही कि देश के हर न्यूज चैनल ने इन कार्यक्रमों की क्लिपिंग घंटों घंटों चलाकर टीआरपी बटोरी और सरकार को भी होश तब आया जब राखी सावंत की एक टिप्पणी से कथित रूप से दुखी होकर झांसी के एक व्यक्ति ने आत्महत्या तक कर ली। ऐसे शो बनाने वालों की सूचना और प्रसारण मंत्रालय में लंबी पहुंच बताई जाती है और दिल्ली तक ही नहीं कुछ लोगों की पहुंच तो पड़ोसी मुल्कों के उन लोगों तक बताई जाती है जो ऐसे कार्यक्रमों के जरिए अपने पैसों पर लगे दाम भी इस गंगा में धोना चाहते हैं। इस बारे में मुंबई पुलिस को जानकारियां भी मिली। बीते साल इसे लेकर जांच भी शुरू हुई पर नतीजा वही ढाक के तीन पात।

बिना किसी तार्किक विवेचन के छोटे परदे पर इन दिनों हर तरह के कार्यक्रम बन रहे हैं। खाली दिमाग में रचे जाने वाले इन घरों में जो आबादी बसती जा रही है, उसका एक निशाना और भी है और वह है लोगों के दिमाग से सही और गलत की पहचान मिटा देना। समाज में कभी तिरस्कृत माने जाने वालों लोगों को ये कार्यक्रम अपने लिए सहानुभूति जुटाने का एक मंच देते हैं और बदले में पाते हैं दूसरों की दुखती रग में मजा लेने वालों से मिलने वाली टीआरपी। टीआरपी का ये खेल भारत के लिए भले नया हो पर टेलीविजन पर बहुत पुराना हो चुका है। यहां सब कुछ पहले से तय होता है। कलाकारों के बीच होने वाली मारपीट और जजों के बीच होने वाला झगड़ा भी। कभी अनु मलिक का करियर बर्बाद कर देने की कसमें खाने वाली अलीशा चिनॉय अब उन्हीं की बराबर की कुर्सी पर बैठकर म्यूजिक रिएल्टी शो जज करती हैं और ऐसे ही एक म्यूजिक रिएल्टी शो की प्रतियोगी की जिंदगी बर्बाद कर देने वाला एक संगीतकार किसी दूसरे शो में युवाओं की प्रतिभा को तराशने का काम भी पा जाता है। कुल मिलाकर, मामला ये कि अगर आप में बदनाम होने की दम है तो टेलीविजन आपको हाथों हाथ अपना सकता है। जानबूझकर पैदा किए गए इन विवादों की परिणति कभी कभी राजा चौधरी जैसे लोगों में भी होती है, जिन्हें मुंबई शहर से ही तड़ीपार कर दिया जाता है।