शुक्रवार, 23 सितंबर 2011

सलाम ए सितमगर..










लो आ गया वो फिर से उसी शहर उन्हीं गलियों में,
नसीब उसका, रिवायत वही राह ए गुजर बनने की।

ना कर वादे, वादों पे नहीं अब और ऐतबार उसे,
मर चुकी ख्वाहिश भी हमराह ए सफर बनने की।

अपने शागिर्द की उस्तादी का भरम वो तोड़ चला,
हो के रुसवा बढ़ी चाहत यूं रूह ए इतर बनने की।

उसका एहतराम वो संगदिल भी थोड़ा सनकी भी,
हो के बेगैरत पड़ी आदत ज़िक्र ए फिक़र बनने की।

उसने परखा परखने में कोई अपना नहीं निकला,
मुए की आदत थी मुई लख़्त ए जिगर बनने की।

© पंकज शुक्ल। 2011।

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