सोमवार, 26 सितंबर 2011

तेरी लाडो मुन्नी मेरी...


दर ओ दीवार कभी बनते हैं घरों से सजते हैं,
रहा करे सुपुर्द ए खाक़ मेरी बसुली, कन्नी मेरी।

दरिया ए दौलत में उसे सूकूं के पानी की तलाश,
तर बतर करती बूंद ए ओस सी चवन्नी मेरी।

तू सही है गलत मैं भी नहीं ना कोई झगड़ा है,
वो आसमां उक़ूबत का ये घर की धन्नी मेरी।

मेरी गुलाटियों औ मसखरी को मजबूरी न समझ,
उछाल रुपये सा न मार ग़म की अठन्नी मेरी।

रगों में इसकी खून मेरा तो हो दूध तेरा भी,
सर ए दुनिया रहे चमके तेरी लाडो मुन्नी मेरी।

© पंकज शुक्ल। 2011।

रविवार, 25 सितंबर 2011

मुट्ठी में सिनेमा!

पंकज शुक्ल

सिनेमा हाल के दिनों तक करोड़ों का खेल माना जाता रहा है। खेल करोड़ों का अब भी है बस दाहिनी तरफ के जीरो अब एकाएक कम होने लगे हैं। अब पांच करोड़ रुपये का बजट नए सितारों को लेकर बनने वाली फिल्मों के लिए पर्याप्त माना जाने लगा है। और, हौसला रामगोपाल वर्मा और अनुराग कश्यप जैसा हो तो नॉट ए लव स्टोरी और दैट गर्ल इन येलो बूट्स जैसी फिल्में एक करोड़ के अरते परते भी बन सकती हैं।

सलमान खान की फिल्म बॉडीगार्ड की अब तक हो चुकी करीब 150 करोड़ रुपये की कमाई और उससे पहले अजय देवगन की फिल्म सिंघम द्वारा सिनेमा बाजार से बटोरे गए 100 करोड़ रुपये हिंदी सिनेमा के मंदी के दौर से पूरी तरह उबर आने के शुभ संकेत समझे जा रहे हैं। ये फिल्में बनी भी काफी बड़े खर्च के साथ हैं। लेकिन, हिंदी सिनेमा का एक और शगुन इस बीच हो चुका है और वो है फिल्म निर्माताओं और निर्देशकों की फिल्मों के बजट घटाने के लिए फिल्ममेकिंग को लेकर बदलती सोच। अनुराग कश्यप की देश विदेश में सराही जा रही फिल्म दैट गर्ल इन येलो बूट्स, राम गोपाल वर्मा की चर्चित फिल्म नॉट ए लव स्टोरी और उससे पहले रिलीज हुई निर्देशक अमोल गुप्ते की फिल्म स्टैनली का डिब्बा तीनों की लागत निकालने में इसके निर्माता न सिर्फ कामयाब रहे बल्कि बिना किसी बड़े सितारे की मौजूदगी के भी इन फिल्मों ने मुनाफा भी कमा लिया है। हिंदी सिनेमा में कामयाबी का नया मंत्र है- कम लागत में फिल्म बनाओ, फिल्म के प्रचार प्रसार पर खूब लुटाओ और दर्शकों को सिनेमाघरों तक लाओ। जी हां, पूरे साल में सुपर डुपर हिट होने वाली गिनती की पांच छह फिल्मों से हिंदी सिनेमा अब आगे निकलने की तैयारी में है और ये बदलाव आया है सिनेमा बनाने की नई डिजिटल तकनीक से।
ये तकनीक क्या है? और कैसे इससे बचता है फिल्म निर्माण का खर्चा? इसकी जानकारी से पहले संक्षेप में जानना ये जरूरी है कि फिल्म की शूटिंग के बाद फिल्म के परदे तक पहुंचने के बीच में क्या क्या होता है? फिल्मों की शूटिंग परंपरागत तरीके में उन कैमरों से की जाती रही है, जिनमें रील डाली जाती है। आम तौर पर एक रील पर करीब चार मिनट की फिल्म शूट होती है और इस चार मिनट की रील की कीमत होती है 10 से 12 हजार रुपये के बीच। छोटे निर्देशकों की कोशिश होती है कि फिल्म की अंतिम लंबाई से औसतन चार गुणा से ज्यादा वो रीलें खर्च न करें, वहीं बड़े निर्देशक इनकी गिनती करने की परवाह नहीं करते और निर्माता बस फिल्म की शूटिंग के दौरान डिब्बे ही गिनता रह जाता है। शूटिंग होने के बाद ये रीलें फिल्म लैब भेजी जाती हैं। वहां इनको टेप पर ट्रांसफर किया जाता है जिसे कहते हैं टेली सिने। टेप पर आई फिल्मों को संपादन के बाद एक रफ कट तैयार होता है और इस रफ कट पर अंकित नंबरों के हिसाब से फिल्मों को डिजिटाइज किया जाता है। फिल्म का डिजिटल संस्करण तैयार होने के बाद इनका अंतिम संपादन होता है और उसके बाद स्पेशल इफेक्ट्स, डबिंग, बैकग्राउंड म्यूजिक डालकर इसे वो शक्ल देने की कोशिश की जाती है, जो हम सिनेमा के परदे पर देखते हैं।
डिजिटल सिनेमा ने फिल्म की शूटिंग से रील के डिब्बों को पूरी तरह हटा दिया है और बाजार में नए आए कैमरों ने फिल्म को डिजिटल फॉर्म में ही शूट करना शुरू कर दिया। स्टार की बजाय कहानियों पर ध्यान देने वाले निर्माता निर्देशकों की बांछें यहीं से खिलनी शुरू हुईं। शुरुआत हुई रेड कंपनी के बनाए डिजिटल कैमरे से। प्रतिदिन 10 से 12 हजार रुपये के किराए पर मिलने वाले इस कैमरे ने फिल्म निर्माण की लागत काफी हद तक घटाई, पर नए सिनेकार अब इसके आगे निकल गए हैं। और, ये मुमकिन हुआ है बाजार में आए उन कैमरों की मदद से जो बने तो स्टिल फोटोग्राफी के लिए थे, लेकिन जिनमें वीडियो शूट करने की भी सहूलियत है। कैमरों की बारीकी समझने के लिए हमें सिनेमैटोग्राफी के थोड़ा और विस्तार में जाना होगा।
दरअसल, किसी भी तस्वीर या फिल्म की गुणवत्ता इस बात पर निर्भर करती है कि वह रंगों के कितने बिंदुओं को जोड़कर बनी है। और इसके लिए एक शब्द इस्तेमाल होता है पिक्सेल। पारंपरिक तौर से इसे दो संख्याओं के जरिए व्यक्त किया जाता है जैसे कि अगर कहा जाए कि अमुक पिक्चर या फिल्म का रिजॉल्यूशन 640 गुणा 480 है तो इसका मतलब ये हुआ कि इस फिल्म या पिक्चर की 640 पिक्सेल कॉलम चौड़ाई में रंगों के 480 पिक्सेल कॉलम हैं। टेलीविजन पर दिखने वाली तस्वीरें आम तौर पर 720 गुणा 480 रिजॉल्यूशन की होती है और डीवीडी पर भी यही क्वालिटी होती है। कुछ चैनलों ने अब हाई डिफिनिशन (एचडी) प्रसारण शुरू किया है, जिनकी पिक्चर क्वालिटी 1280 गुणा 720 की होती है यानी कि टेलीविजन कितना ही बड़ा हो पिक्चर बिल्कुल साफ दिखेगी। दरअसल पर्दे के बड़े होते जाने की जरूरत के साथ ही किसी भी चीज को कैमरे पर उतारने के लिए इसकी गुणवत्ता का ध्यान रखना जरूरी हो जाता है। टीवी के लिए शूट किए गए किसी कार्यक्रम को अगर हम सिनेमा के बड़े परदे पर देखना चाहें तो उसमें हमें तस्वीरें फैली फैली सी दिखाई देंगी। इसीलिए, फिल्मों को इससे भी ज्यादा रिजॉल्यूशन यानी 2048 गुणा 1080 रिजॉल्यूशन पर शूट करना होता है। इससे बेहतर कोई भी क्वालिटी सिनेमा में अच्छी मानी जाती है, पर इससे कम नहीं। सिनेमा की शूटिंग के लिए इस्तेमाल होते रहे पारंपरिक कैमरों में लगने वाली 35 मिमी की रील इसी गुणवत्ता पर फिल्में शूट करती है।

पिक्चर क्वालिटी की बस इतनी सी समझ किसी भी फिल्म के बजट में आश्चर्यजनक तरीके से कटौती कर देती है। दैट गर्ल इन यैलो बूट्स को हिंदी सिनेमा में डिजिटल तकनीक से शूट हुई पहली फिल्म इस लिहाज से माना जाता है कि अनुराग कश्यप ने इसे बजाय किसी फिल्म कैमरे के स्टिल फोटोग्राफी के लिए बने कैमरे कैनॉन 5 डी पर शूट किया। कैनॉन ने अपने इस कैमरे में वीडियो मोड की शूटिंग के लिए जो तकनीकी विकास किए, वो किसी भी घटना को 1920 गुणा 1080 रिजॉल्यूशन में शूट करते हैं। सिनेमा की भाषा में इस टू के (2 के) गुणवत्ता कहते हैं। सिर्फ डेढ़ लाख की कीमत के इस कैमरे ने इन दिनों मायानगरी में हंगामा मचा रखा है। कोई भी निर्देशक बस अपने साथ एक सिनेमैटोग्राफर और सीन में काम करने वाले कलाकारों को लेकर फिल्म शूट करने निकल लेता है। फिल्म के सेट पर लगने वाले 100 से 150 लोगों की यूनिट का मेला भी अब ऐसी फिल्मों की लोकशन पर नहीं दिखता। अनुराग कश्यप कहते हैं फिल्म के कारोबार में बने रहने के लिए नए लोगों को सबसे पहले अपनी फिल्म के बजट को नियंत्रित करना होगा। फिल्म की शूटिंग को पिकनिक मानने की मानसिकता से बाहर निकलना होगा और पूरा ध्यान अपनी कहानियों पर लगाना होगा। अंतर्राष्ट्रीय मॉडल नताशा सिक्का के साथ बियॉन्ड नाम की एक प्रयोगात्मक फिल्म बना रहे निर्देशक शिराज हैनरी कहते हैं कि अक्सर नए निर्देशकों की फिल्मों पर पैसा लगाने के लिए निर्माता तैयार नहीं होते, पर डिजिटल तकनीक ने ये संघर्ष भी कम कर दिया है। अब अगर आपके पास दमदार कहानी हो तो पचास लाख से लेकर एक करोड़ रुपये तक में भी अच्छी फिल्म बनाई जा सकती है। अगर ऐसी किसी फिल्म को एक दो अंतर्राष्ट्रीय पुरस्कार मिल जाते हैं तो फिल्म को बेचने में भी फिर ज्यादा झंझट नहीं उठाना पड़ता।

रामगोपाल वर्मा की फिल्म नॉट ए लव स्टोरी की लोकेशन पर बामुश्किल डेढ़ दर्जन लोग इकट्ठा होते थे। वर्मा ने ये पूरी फिल्म एक करोड़ रुपये से भी कम बजट में बना डाली। फिल्म के प्रचार प्रसार पर एक करोड़ रुपये और खर्च किए और फिल्म की लागत व प्रचार प्रसार की कुल लागत से दो गुने से भी ज्यादा की कमाई पहले ही हफ्ते में कर डाली। हिंदी सिनेमा में कभी कथ्य के फिल्मांकन का नया दौर शुरू करने वाले रामगोपाल वर्मा ने फिल्म मेकिंग के इन नए प्रयोगों को आगे भी जारी रखने का संकल्प जताया है। वह भी मानते हैं कि हिंदी सिनेमा अब दो समानांतर धाराओं पर जल्दी ही चलता नजर आएगा जिसकी एक धारा में होंगे बड़े सितारे और बड़े बजट की फिल्में, जबकि दूसरी धारा होगी ऐसे सिनेकारों की, जो कहानियां सुनाएंगे और फिल्में बनाएंगे बहुत ही कम बजट में।
डिजिटल सिनेमा के इस नए अपारंपरिक रूप के कद्रदान मायानगरी में तेजी से बढ़ रहे हैं। निर्देशक अमोल गुप्ते की फिल्म स्टैनली का डिब्बा इन प्रयोगों से भी दो कदम आगे की फिल्म रही है। गुप्ते ने ये फिल्म स्कूली बच्चों के साथ बिना इन बच्चों की स्कूली पढ़ाई का एक दिन भी नुकसान कराए बनाई है। पूरे एक साल अमोल गुप्ते अपने कैनॉन 5 डी कैमरे के साथ हर शनिवार हाफ डे के बाद इन बच्चों के साथ काम करते रहे। अक्सर बच्चों को बताया जाता कि उन्हें एक नाटक की रिहर्सल करनी है और बिना किसी फिल्मी तामझाम के उनका कैमरा बिना इन बच्चों की जानकारी के शूटिंग करता रहता। इस फिल्म को जिन लोगों ने भी देखा है वो बच्चों के स्वाभाविक अभिनय की तारीफ किए बिना नहीं रहता। बस ये दर्शक नहीं जानते हैं, तो इतना कि ये फिल्म कैसे बनी है? डिजिटल सिनेमा के इस दौर को अपनाकर तमाम और सिनेकार भी सिनेमा की इस नई धारा का हिस्सा बन चुके हैं और जो नहीं बने हैं वो बनने की तैयारी कर रहे हैं।

ज़िक्र इक शाम का...


ज़िक्र इक शाम का यूं कर आया,
सरे राह ख्वाबों का सफर उग आया,
वो नहीं ना उनकी बेचैनी सा आलम है,
मेरी आंखों में ये आब है किसका साया।

वो गुमज़ुबां सी बोली, उसने आंखों से सुना,
थिरकते पांव की खुरचन को सिरहाने पे बुना,
खिंची थी मेड़ सी, अब मिलने का मातम है,
तेरी हंसी तेरी मुस्कान से क्यूं फिर शरमाया
मेरी आंखों में ये आब है किसका साया,
ज़िक्र इक शाम का यूं कर आया,
सरे राह ख्वाबों का सफर उग आया।

कभी थी ताप अब छांव रुई के फाहे सी,
कसम दी कोसों की अब दिल में चाहे सी
कहीं ना दूर गया वो, उसी का आदम है,
ख़री बात पे टिक के वो कब का भर पाया,
मेरी आंखों में ये आब है किसका साया,
ज़िक्र इक शाम का यूं कर आया,
सरे राह ख्वाबों का सफर उग आया।

© पंकज शुक्ल। 2011।

Pic Courtesy: Nokia । Vfx: Sound N Clips।

शनिवार, 24 सितंबर 2011

इरशाद कामिल : शैदाई तुझे कर गया ओए...

बिरले ही होते हैं ऐसे जो मायानगरी में अपना नाम बनाने का ख्वाब लेकर आएं और किस्मत की दस्तक उनके दरवाजे पर उम्मीद से पहले सुनाई दे जाए। पंजाब के मलेरकोटला से मुंबई आए इरशाद कामिल का नाम भी ऐसे ही बिरलों में शामिल हैं। इन दिनों मेरे ब्रदर की दुल्हन और मौसम फिल्मों के लिए लिखे उनके गानों की हर तरफ धूम है, और गुरुवार को हुए जीमा अवार्ड्स में उन्हें पी लूं..गाने के लिए मिला सर्वश्रेष्ठ गीतकार का एक और पुरस्कार। इरशाद ने अपने करियर के कुछ राज खोले हैं पंकज शुक्ल के सामने।


पहली बगावत
पिताजी चूंकि मलेरकोटला में के सरकारी स्कूल में केमिस्ट्री पढ़ाते थे लिहाजा हमारे बारे में भी ये तय सा हो गया था कि या तो मुझे डॉक्टर बनना है या फिर इंजीनियर। लेकिन, हमने भी साइंस के साथ ऐसी ऐसी रुसवाइयां की कि उसे भी हमेशा याद रहेंगी। बाकायदा साइंस में फेल होकर दिखाया और घर वालों ने भी साइंस की सोहबत से हमें आजाद कर दिया। लिहाजा बीए में हिंदी और भूगोल ले ली। हिंदी थोड़ी आसान दिखती थी और चूंकि कुदरत से मोहब्बत शुरू से रही तो भूगोल के पहाड़, नदियां पसंद आने लगीं। 1990 में पंजाब यूनीवर्सिटी आ गया। वहां एमए किया, पीएचडी की। ट्रिब्यून और जनसत्ता जैसे अखबारों में नौकरी की और छोड़ भी दी। मुंबई आने की योजना पहले से थी पर मैं मुंबई उस तरह से नहीं आना चाहता था जैसे बाकी लोग आ जाते हैं। जान पहचान वाले एक दोस्त को मनाया। वो दिल्ली में था। उसने मुंबई साथ चलने का वादा किया तो मैं अप्रैल 2000 मैं अपनी बचत के पांच हजार रुपये लेकर दिल्ली आ गया। बस स्टैंड के सामने वहां टूरिस्ट कैंप है तिब्बती शरणार्थियों का। उस टाइम 200 रुपये का कमरा था। दोस्त बहाने मारते रहा और मेरे हजार रुपये चार पांच दिन में खर्च हो गए। आखिरकार, हिम्मत करके मैं एक दिन अकेले ही मुंबई के लिए निकल पड़ा।
पहला ब्रेक
पहली बार मुंबई आया तो दस-पंद्रह दिन घूम फिर कर मैं वापस चला गया। अगली बार फरवरी 2001 में यहां रुकने की तैयारी के साथ आया। पर इससे पहले मुझे चंडीगढ़ में ही एक सीरियल लिखने का काम मिल गया। ये बतौर लेखक मेरा पहला सीरियल था, कहां से कहां तक जी टीवी के लिए। फिर दो चार पांच सीरियल और लिखे। इसी दौरान फिल्म सोचा ना था के निर्देशक इम्तियाज अली से मुलाकात हो गई। संदेश शांडिल्य संगीत निर्देशक थे उस फिल्म में और तय ये हुआ कि गाने लिखने के लिए कोई नया लड़का चाहिए। वजह ये बताई गई कि यहां के जो नामी गीतकार हैं वो नए निर्देशक अपने अरदब में लेने की फिराक में रहते हैं। संदेश से मैं कुछ दिन पहले ही मिला था। इम्तियाज से दो मिनट में ही ट्यूनिंग हो गई। सोचा ना था कई सारे लोगों की पहली पिक्चर थी। अभय और आयशा की पहली फिल्म थी। उस दिन मैं मारे खुशी के रात सो भी नहीं पाया। ये बात 2002 की है, हालांकि सोचा न था तीन साल बाद रिलीज हुई और उसके पहले लोगों ने मेरे गाने चमेली में सुन लिए। इस लिहाज से मेरी रिलीज हुई पहली फिल्म चमेली रही।
पहला जश्न
चमेली पिक्चर में प्रोड्यूसर की मेहरबानी कहिए या मोहब्बत। कि मेरा नाम ओपनिंग क्रेडिट्स में नहीं है। एंड क्रेडिट्स में मेरा नाम है, सीडी और अलबम पर भी नाम है। लेकिन फिल्म की शुरुआत होते वक्त परदे पर नाम देखने की खुशी अलग ही होती है। तो वहां नाम नहीं देखकर बहुत ज्यादा मायूसी हुई। हालांकि अब मालूम हो चुका है कि यहां आपके हुनर से ना तो यहां निर्माताओं को मोहब्बत होती है और ना ही लगाव। क्रिएटिविटी उनके लिए माल है जिसे बाजार में बिकना होता है। खैर, मेरे नाम के साथ पहला होर्डिंग लगा फन रिपब्लिक में सोचा ना था फिल्म का। इम्तियाज उन दिनों पास में ही रहते थे, उन्होंने वहां फिल्म की होर्डिंग देखी तो रात 11.30 बजे मुझे फोन किया। मैं रात 12 बजे वहां होर्डिंग देखने गया। हम दोनों बड़े खुश हुए। पोस्टर पर नाम पहली बार लिखा देखा था। बस वहीं सेलीब्रेशन हो गई। हालात जैसे भी थे हौसले बहुत बड़े थे। हम दोनों ने तब एक एक सिगरेट पी कर जश्न मनाया।
पहला फिल्मफेयर
आपको ये जानकर शायद अचरज हो कि मुझे लव आजकल के गाने आज दिन चढ्या के लिए जब पहला फिल्मफेयर पुरस्कार मिला तो उससे पहले मेरा कभी नॉमीनेशन भी नहीं हुआ। जब वी मेट के लिए मेरा नॉमीनेशन नहीं हुआ। चमेली के लिए कोई नॉमीनेशन नहीं हुआ। लेकिन अब मुझे लगता है कि अवार्ड किसी एक खास गाने के लिए यहां नहीं दिया जाता। अवार्ड यहां शायद किसी कलाकार के हाल फिलहाल के पूरे काम को देखकर दिया जाता है। पहला अवार्ड जब मिला तब मैं आठवी कतार मंे बैठा था। गुलजार, प्रसून जोशी, जावेद अख्तर के साथ मेरा नॉमीनेशन हुआ तो मैं तो इतने से ही खुश था। मैं खुद को समझाकर गया था कि पुरस्कार नहीं मिलेगा बस अवार्ड फंक्शन देखकर लौट आना है। फिर स्टेज से नाम एनाउंस हुआ तो 15-20 सेकेंड के लिए मैं पूरी तरह से ब्लैंक हो गया। मुझे यकीन नहीं हुआ कि मुझे मिला है अवार्ड। थोड़ी देर बाद अपने आप में आया और अपनी कुर्सी से मंच तक जाने के लिए जो 25 कदम मैंने बढ़ाए उनमें अपनी बीती 10 साल की पूरी जिंदगी दोबारा देख ली। गुलजार साब के शब्दों में कहें तो जिस चीज की आपको तमन्नाा रही हो और वो मिल जाए तो जमीन तो पैरों के तले से खिसकती ही है, कई बार सिर से आसमान भी खिसक जाता है। लेकिन ये चाहत भी बस पहले पुरस्कारों तक ही रहती है। अब तक सब रीटेक जैसा मालूम होता है। मैं बस अच्छा काम करना चाहता हूं और चाहता हूं कि मेरे नाम के साथ जो उम्मीदें हिंदी सिनेमा के गीतों को पसंद करने वालों की बंध्ा गई हैं, उन पर खरा उतरता रहूं।

शुक्रवार, 23 सितंबर 2011

सलाम ए सितमगर..










लो आ गया वो फिर से उसी शहर उन्हीं गलियों में,
नसीब उसका, रिवायत वही राह ए गुजर बनने की।

ना कर वादे, वादों पे नहीं अब और ऐतबार उसे,
मर चुकी ख्वाहिश भी हमराह ए सफर बनने की।

अपने शागिर्द की उस्तादी का भरम वो तोड़ चला,
हो के रुसवा बढ़ी चाहत यूं रूह ए इतर बनने की।

उसका एहतराम वो संगदिल भी थोड़ा सनकी भी,
हो के बेगैरत पड़ी आदत ज़िक्र ए फिक़र बनने की।

उसने परखा परखने में कोई अपना नहीं निकला,
मुए की आदत थी मुई लख़्त ए जिगर बनने की।

© पंकज शुक्ल। 2011।

picture used for reference only. no commercial use intended.

शुक्रवार, 16 सितंबर 2011

ये वक़्त ए इद्दत है..

सितमगर को मालूम, है खा़क़ ए मंज़िल मकां,
ये मेला कब्र का, यूं साज ओ सामां क्यूं है।

अज़ल का ख़ौफ़, है पैबस्त ए पेशानी शिक़न,
सफर ये सब्र का, यूं ज़ुल्म ओ दामां क्यूं है।



ज़फ़ा की जुस्तजू, शिद्दत से पुर ओ इमां से,
यही तरीक़ अजल से, यूं ग़म ए गिरेबां क्यूं है।

नहीं मैं दूर, ना तुझसे ना इस ज़माने से,
ये वक्त ए इद्दत है, यूं शाम ए परेशां क्यूं है।

ये तेरा दामन, रंगेगा और अभी छीटों से,
तू है शैदाई, यूं सहर ए तमाशा क्यूं है।



अज़ल-मौत। पैबस्त-समाया। पेशानी-माथा। अजल- क़यामत का पहला दिन। इद्दत- तलाक़ के बाद पुनर्विवाह से पहले की न्यूनतम मियाद। सहर- सुबह।


© पंकज शुक्ल। 2011।

चित्र सौजन्य- फिल्म 'प्यासा'

बुधवार, 14 सितंबर 2011

लिपि के बचने से बचेगी भाषा

अमिताभ बच्चन
हिंदी को लेकर छोटे शहरों में अब भी चेतना है। मेट्रो शहरों में भले अब हिंदी पर ज्यादा काम न हो रहा हो, पर शहरी कोलाहल से जो भी दूर है वह हिंदी से जुड़ा हुआ है। हिंदी को लेकर मेरी चिंता पूछी जाए तो वह इसकी लिपि को लेकर है। देवनागरी बहुत ही सरल और आत्मीय लिपि है, पर लोग इसे भूलते जा रहे हैं। इसे बाजार का दबाव कह कर भुला देना ठीक नहीं होगा क्योंकि किसी भी भाषा की पहचान उसकी लिपि से ही होती है। हिंदी को रोमन में लिखे जाने की प्रवृत्ति न सिर्फ गलत है बल्कि इसके विकास और प्रचार प्रसार में बाधक भी बनती जा रही है। इसके लिए जिम्मेदारी किसकी बनती है, इस पर बात करने की बजाय बहस इस बात पर हो सकती है कि इससे निजात कैसे पाई जाए।
"मैं बाबूजी की लिखी सारी रचनाओं को एक जगह एकत्र करने और उनसे जुड़ी स्मृतियों को उनके प्रशंसकों को समर्पित करने के लिए एक योजना पर काम कर रहा हूं। मेरी मनोकामना है कि मैं इलाहाबाद में बाबू जी के नाम पर एक स्मृति भवन बनवाऊं पर ये काम कब पूरा होगा मैं कह नहीं सकता।"

जाहिर है कि पहल उन लोगों को ही करनी चाहिए जिनके लिए हिंदी रोमन में लिखी जाती है। कंप्यूटर के आने के बाद हम लोग वैसे ही लिखना भूलते जा रहे हैं। अब तो हस्ताक्षर करते वक्त तक दिक्कत महसूस होती है। ऐसे में किसी भाषा की लिपि के संवर्धन में तकनीक का भी प्रयोग हो सकता है। मैं खुद भी अपने ब्लॉग या टि्वटर पर यदा कदा हिंदी को देवनागरी में ही लिखने की कोशिश करता हूं। मेरा मानना है कि अभ्यास करने से ये काम भी मुश्किल नहीं है।
भारत में पैदा हुए या भारत से संबंध रखने वाले विदेश में बसे लोगों में हिंदी को लेकर अब भी अकुलाहट देखी जाती है। वह हिंदी को अपने देश से जोड़े रखने का सेतु मानते हैं। अपने बाबूजी (डॉ. हरिवंश राय बच्चन) की कविताओं का पाठ करने जब मैं पिछले साल विदेश दौरे पर गया था, तो मेरे मन में यही आशंका थी कि हिंदी के प्रति लोगों का रुझान होगा भी कि नहीं। लेकिन श्रोताओं में भारतीयों के अलावा बड़ी संख्या वे विदेशी भी आए जिन्हें भारतीय परंपराओं और संस्कृति के बारे में जानने की ललक रहती है। हिंदी जोड़ने वाली भाषा है और इसको समृद्ध बनाने की जिम्मेदारी हम सबकी है। मैं अपनी तरफ से बस इतना प्रयास करता हूं कि हिंदी में जो कुछ मेरे सामने आए वो देवनागरी में ही लिखा हो। रोमन में लिखी गई हिंदी मुझे कतई पसंद नहीं है, जिस भाषा की जो लिपि है, उसे उसी में पढ़ना रुचिकर होता है। बाजार भी धीरे धीरे ही सही पर इसे समझ रहा है।
"पहल उन लोगों को ही करनी चाहिए जिनके लिए हिंदी रोमन में लिखी जाती है। कंप्यूटर के आने के बाद हम लोग वैसे ही लिखना भूलते जा रहे हैं। अब तो हस्ताक्षर करते वक्त तक दिक्कत महसूस होती है। ऐसे में किसी भाषा की लिपि के संवर्धन में तकनीक का भी प्रयोग हो सकता है। मैं खुद भी अपने ब्लॉग या टि्वटर पर यदा कदा हिंदी को देवनागरी में ही लिखने की कोशिश करता हूं।"

हिंदी के विकास इसमें लिखे गए साहित्य को सर्वसुलभ बनाने से ही होगा। मैं बाबूजी की लिखी सारी रचनाओं को एक जगह एकत्र करने और उनसे जुड़ी स्मृतियों को उनके प्रशंसकों को समर्पित करने के लिए एक योजना पर काम कर रहा हूं। मेरी मनोकामना है कि मैं इलाहाबाद में बाबू जी के नाम पर एक स्मृति भवन बनवाऊं पर ये काम कब पूरा होगा मैं कह नहीं सकता। इसके लिए हमें स्थानीय प्रशासन का सहयोग चाहिए होगा और इसके लिए प्रशासन में भी ऐसे प्रयासों के प्रति समर्पण की प्रथम आवश्यकता होती है।

प्रस्तुति-पंकज शुक्ल

मंगलवार, 13 सितंबर 2011

दाग अच्छे हैं...

सिल्क स्मिता अब इस दुनिया में नहीं हैं। सिनेमा ने उनको जीते जी कभी वो इज्जत नहीं बख्शी जो अब एकता कपूर जैसी निर्माता उन पर पूरी एक हिंदी फिल्म बनाकर उन्हें देने जा रही हैं। कौन थी सिल्क स्मिता? कैसे वो बनी सिल्क स्मिता? और क्या होता था सिल्क स्मिता होने का मतलब? आइए, करते हैं कोशिश सिल्क स्मिता के इस तिलिस्म को सुलझाने की।


पंकज शुक्ल
दाग अच्छे हैं। एक मशहूर उत्पाद के विज्ञापन की ये लाइन हिंदी सिनेमा के लिए इन दिनों बिल्कुल मुफीद साबित हो रही है। सिंघम और बॉडीगार्ड जैसी फिल्मों में भले आदर्श नायक की बड़े परदे पर वापसी ने आम सिनेमा दर्शकों की भीड़ सिनेमाघरों तक पहुंचा दी हो, लेकिन समाज की बंदिशों के परदों में छुपे और अब तक अतीत के पन्नों में कैद रहे किरदार भी अपनी कमजोरियों के साथ रुपहले परदे पर मौजूदगी दर्ज कराने को बेताब हो चले हैं। छोटे परदे पर परंपराओं और रिश्तों के ताने बाने बुनती रहीं निर्माता एकता कपूर बड़े परदे पर इस मौजूदा प्रयोगात्मक चलन की मशाल लेकर सबसे आगे हैं और इस बार उनकी टीम ने सिनेमा के कैनवास पर उकेरा है एक ऐसा किरदार, जिसे लेकर जितने मुंह उतनी बातें होती रही हैं।

अस्सी के दशक के दक्षिण भारतीय सिनेमा में मादकता के नए बिंबों के सहारे दुनिया भर में मशहूर हुई अदाकारा सिल्क स्मिता को जीते जी कभी वो इज्जत नसीब नहीं हुई जो हिंदी सिनेमा उन पर एक पूरी फीचर फिल्म बनाकर उसे देने जा रहा है। सिल्क स्मिता की शोहरत का ये आलम था कि हिंदी सिनेमा भी उसे उस वक्त अपनाने के मोह से खुद को बचा नहीं पाया। सिल्क स्मिता कौन थी? कहां से आई? और क्यों हिंदी सिनेमा के पांच बड़े प्रोडक्शन घरानों में शुमार बालाजी टेलीफिल्म्स को क्यों इस फिल्म को बनाने की सूझी? इस पर बात करने से ज्यादा ये जानना जरूरी है कि आंध्र प्रदेश में राजमुंदरी के एल्लुरू 2 दिसंबर 1960 को जन्मी विजयालक्ष्मी कैसे पहले स्मिता बनी और फिर सिल्क स्मिता। ये वो नाम है जिसने एक समय दक्षिण भारतीय सिनेमा को अपने यौवन के जादू से हिलाकर रख दिया था और उस दौर की कोई भी फिल्म वितरक तभी खरीदते थे जब उसमें कम से कम सिल्क स्मिता का एक गाना जरूर हो।

अपने दस साल के छोटे से करियर में करीब पांच सौ फिल्मों में काम करने वाली सिल्क स्मिता का परिवार इतना गरीब था कि घर वाले उसे सरकारी स्कूल में भेजने तक का खर्च उठाने में नाकाम रहे। चौथी क्लास में पढ़ाई छूटी और पहला काम उसे मिला फिल्मों में मेकअप असिस्टेंट का। वो शूटिंग के दौरान हीरोइन के चेहरे पर शॉट्स के बीच टचअप का काम किया करती। और, यहीं से उसकी आंखों में पलने शुरू हुए ग्लैमर के आसमान पर चांद की तरह चमकने के सपने। जिस हीरोइन का वो टचअप किया करती थी, उसी के खैरख्वाह फिल्मेकर से उसने दोस्ती की पींगें बढ़ाईं और 1979 में मलयालम फिल्म इनाये थेडी में पहली बार लोगों ने परदे पर देखी एक ऐसी लड़की जो गोरी नहीं थी, छरहरी नहीं थी, जिसकी अदाओं में शराफत नहीं थी और जिसकी आंखें आम लड़कियों की तरह शर्म से झुकती नहीं थी।

स्मिता को करियर का बड़ा ब्रेक मिला 1980 में रिलीज हुई फिल्म वांडी चक्रम में। उसमें उन्होंने अपने किरदार को खुद डिजाइन किया और मद्रासी चोली को फैशन स्टेटमेंट बना दिया। इस फिल्म तक उनका नाम सिर्फ स्मिता ही था, लेकिन फिल्म में अपने किरदार सिल्क को मिली शोहरत को उन्होंने अपने साथ जोड़ते हुए अपना नाम सिल्क स्मिता कर लिया। उन्होंने सिल्क, सिल्क, सिल्क नाम की एक फिल्म में लीड रोल भी किया। 1980 से 1983 का दौर सिल्क स्मिता के करियर वो दौर था जिसमें उन्होंने करीब 200 फिल्में की। एक दिन में तीन तीन शिफ्टों में काम किया और एक एक गाने की कीमत 50 हजार रुपये तक वसूली। यही वो दौर था जब पूरी फिल्म बना लेने के बाद भी निर्माता सिर्फ उनके एक गाने के लिए अपनी फिल्मों की रिलीज महीनों तक रोके रहते थे। सिल्क स्मिता की शोहरत का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि शिवाजी गणेशन से लेकर रजनीकांत, कमल हासन और चिरंजीवी तक की फिल्मों में उनका कम से कम एक गाना उस वक्त की जरूरत बन चुका था। मसाला फिल्मों के निर्देशकों पर चल चुके इस जादू ने लीक से हटकर फिल्में बनाने वाले निर्देशकों बालू महेंद्रा और भारती राजा को भी अपनी चपेट में लिया। बालू महेंद्रा ने सिल्क स्मिता को अपनी फिल्म मूरनम पिराई में खास रोल दिया और इसे जब उन्होंने हिंदी में सदमा के नाम से बनाया तो सिल्क स्मिता को उसमें भी रिपीट किया।

जितेंद्र-श्रीदेवी और जितेंद्र-जया प्रदा की हिंदी फिल्मों के इसी दौर में सिल्क स्मिता ने हिंदी सिनेमा में प्रवेश किया। सदमा रिलीज होने के ठीक महीने भर पहले वो जीत हमारी नाम की फिल्म के जरिए मायानगरी के निर्माताओं को अपने हुा का जलवा दिखा चुकी थीं। और इसके बाद तो ताकतवाला, पाताल भैरवी, तूफान रानी, कनवरलाल, इज्जत आबरू, द्रोही और विजय पथ तक सिल्क स्मिता हिंदी सिनेमा के दर्शकों को अपनी शोहरत की वजह का एहसास कराती रहीं। लेकिन, शोहरत के दौर में अपने निजी जीवन को संतुलित न रख पाने की कीमत उन्हें करियर के ढलान पर आते ही चुकानी पड़ी। सिल्क स्मिता के एक करीबी मित्र ने उन्ंहें फिल्म निर्माता बनने का लालच दिखाया और सिर्फ दो फिल्मों के निर्माण में ही उन्हें दो करोड़ रुपये का घाटा हो गया। तीसरी फिल्म शुरू तो हुई पर कभी पूरी नहीं हो सकी। बैंक में घटती रकम और एक स्टार की जीवनशैली कायम रखने के दबाव ने सिल्क स्मिता को मनोवैज्ञानिक रूप से कमजोर कर दिया और 23 सितंबर 1996 को उनकी लाश उनके ही घर में पंखे से झूलती पाई गई। पुलिस ने इसे आत्महत्या का मामला मानते हुए ये केस बंद कर दिया, हालांकि ऐसे भी लोगों की कमी नहीं है जो इसे हत्या का मामला मानते हैं और इसके पीछे एक बड़ी साजिश की आशंका जताते रहे हैं।

कहानी थोड़ा फिल्मी है
सिल्क स्मिता के निर्देशक मिलन लूथरिया की फिल्म डर्टी पिक्चर की पहली झलक सामने आने के साथ ही आई है ये खबर कि अब निर्देशक श्याम बेनेगल भी बिपाशा बसु को लेकर इसी से मिलती जुलती कहानी पर एक फिल्म बनाने जा रहे हैं। एक हीरोइन के शीर्ष पर पहुंचने और फिर वहां से लुढकने की कहानी ही निर्देशक मधुर भंडारकर की फिल्म हीरोइन की भी कहानी है। परवीन बाबी के अमिताभ बच्चन और कबीर बेदी से रिश्तों पर महेश भट्ट पहले ही निर्देशक मोहित सूरी के साथ वो लम्हे बना चुके हैं। परवीन बाबी से खुद अपने रिश्तों को लेकर उन्होंने फिर तेरी कहानी याद आई और अर्थ जैसी फिल्में बनाईं। इसी तरह गायक किशोर कुमार के व्यावसायिक और निजी जीवन को लेकर एक फिल्म की चर्चा अरसे से हिंदी फिल्म जगत में होती रही।
दूर से चमकीले दिखने वाले फिल्म जगत के ग्लैमर की कड़वी सच्चाइयों को सत्य घटनाओं पर आधारित इन फिल्मों के अलावा काल्पनिक कहानियों के जरिए भी परदे पर उतारा जा चुका है, जिनमें रामगोपाल वर्मा की रंगीला, मस्त और नाच जैसी फिल्में शामिल हैं। वर्मा की फिल्म मस्त खुद उनके श्रीदेवी को लेकर दीवानेपन की कहानी है। हाल के दिनों में निर्देशक तनुजा चंद्रा ने इसी तरह फिल्म स्टार बनाई। रोहित जुगराज ने सुपरस्टार, केन घोष ने चांस में डांस, राजकुमार संतोषी ने हल्ला बोल, जोया अख्तर ने लक बाइ चांस में ग्लैमर की दुनिया में परदे के पीछे के सच को सामने लाने की कोशिश की।


देसी सौंदर्य की प्रतिमूर्ति थी सिल्क स्मिता
अनामिका

सिल्क स्मिता ने बीस साल पहले जो किया, उसे समझने के लिए हमें आज के दौर में नहीं बल्कि बीस साल पीछे जाना होगा। ये वो दौर था जब परदे पर श्रीदेवी का जादू चला करता था। लेकिन हर भारतीय स्त्री तो श्रीदेवी जैसी सुंदर नहीं हो सकती। सिल्क स्मिता ने चाहे बिकनी पहनी, साड़ी पहनी हो, या फिर हॉट पैंट्स और बुनाई वाले ब्लाउज पहने हो, उनके हर पहनावे में आम भारतीय नारी को अपनी कल्पनाएं नजर आईं। शायद कम ही लोग जानते होंगे लेकिन सिल्क स्मिता के दीवाने जितने पुरुष थे, उससे कहीं ज्यादा बड़ा प्रशंसक वर्ग उस दौर में उनका महिलाओं में था। और, ऐसा इसलिए क्योंकि सिल्क स्मिता ने उस दौर में समाज की वर्जनाएं तोड़ भारतीय महिलाओं की बरसों से दबी कुचली दैहिक संतुष्टि की इच्छाओं को प्रकट करने का रूपक दिया था। सिल्क ने उन भावनाओं को परदे पर जिया जिनकी झलक हमें खजुराहो के मूर्ति शिल्प में ही मिलती रही।
ऐसा नहीं है कि इन इच्छाओं को किसी और नायिका या खलनायिका ने हिंदी सिनेमा में उनसे पहले करने की कोशिश ही नहीं की, लेकिन सिल्क स्मिता का आम नायिका से विपरीत आम महिला के ज्यादा करीब होना उनके हक़ में गया। भारतीय फैशन की जहां तक बात की जाए तो सिल्क स्मिता ने ही दक्षिण भारतीय नायिकाओं को लो वेस्ट साड़ी पहनने की प्रेरणा दी। रही बात आज के दौर की तो मौजूदा दौर में सिल्क स्मिता का देशी यौवन परदे पर प्रदर्शित करने के लिए एक हीरोइन को पहले तो प्लास्टिक सर्जन की जरूरत होगी क्योंकि जीरो फीगर के इस दौर में उनके जैसी मादकता दिखाने वाली कोई हीरोइन नहीं है। इस किरदार के सबसे करीब मेरी नजर से विद्या बालन ही हैं। हालांकि वो निजी जीवन में थोड़ा संकोची और शर्मीली हैं, लेकिन सिल्क स्मिता को समझने के लिए उनके बदन को देखने से ज्यादा उनकी मनोदशा को पढ़ना जरूरी है।

(अनामिका छावल मशहूर फैशन ब्रांड क्रॉसओवर बॉलीवुड की प्रबंध निदेशक हैं)


औरत होने का सबसे करीबी एहसास मिला- विद्या बालन
सिल्क स्मिता के किरदार पर परदे को उतारने के लिए हिंदी सिनेमा की मौजूदा दौर की नायिकाओं में से एकता कपूर ने विद्या बालन को चुना। सिनेमा और फैशन के जानकार भी मानते हैं कि इस किरदार के लिए विद्या बालन से बेहतर पसंद दूसरी नहीं हो सकती थी। पेश है विद्या से बातचीत के कुछ अंश
फिल्म डर्टी पिक्चर में काम करने का अनुभव कैसा रहा?
मेरे हिसाब से मुझे एक औरत होने के इतनी करीबी एहसास को महसूस करने का मौका पहले कभी नहीं मिला, जितना कि इस फिल्म की शूटिंग के दौरान हुआ। ये फिल्म औरत के इंद्रध्ानुषी रंगों को जीने का जश्न है। इसमें जीवन के तमाम रंग हैं, लेकिन एक ाी के जीवन में जितने विविध्ा रंग होते हैं, उनको पेश करने का ये सबसे करीबी मौका रहा।

लेकिन, एक साथ तीन तीन नायक?
ये तो सोने पर सुहागा जैसा रहा। वो कहते हैं ना कि एक से मेरा क्या होगा? लेकिन मजाक ना भी करूं तो भी ये बहुत ही रोचक और दिलचस्प रहा। नसीर साब के साथ तो मैं पहले ही काम कर चुकी हूं तो वो हर पल मेरा हौसला बढ़ाते रहे। इमरान के साथ काम करने को लेकर मैं थोड़ा संकोच में थी, पर उनके साथ भी मजा आया। और तुषार के साथ तो हैदराबाद में शूटिंग करते वक्त मैंने बहुत अच्छा वक्त गुजारा। सबसे बड़ी बात ये थी कि मैं एक ऐसे निर्देशक के इशारों पर काम कर रही थी जिसे ऐसे विषयों को संभालने में महारत हासिल है।

तो फिल्म के बाद आप भी सिल्क कहलाने के लिए तैयार हैं?
मैंने इस फिल्म में एक किरदार किया है। इस दौरान मैंने इस किरदार को न सिर्फ पूरी ईमानदारी से जीने की कोशिश की बल्कि ये भी ख्याल रखा कि इस खास किरदार के प्रशंसकों को मैं उतनी ही संतुष्टि दे पाऊं जितनी कि उन्हें इस कलाकार को देखते वक्त होती थी। मेरा काम यहीं खत्म हो जाता है और मुझे नहीं लगता कि फिल्म रिलीज होने के बाद मुझे लोग सिल्क के नाम से पुकारना चाहेंगे।

सोमवार, 12 सितंबर 2011

चटख़ चोला, फीक़े रंग..



मौसम के रंग देखकर रंगीं वो यूं हुए,
रंगों ने रातें ओढ़ लीं मौसम बदल दिए।

बदली घिरी बूंदों तले मेघों को हुआ रश्क़,
षडयंत्र सावनों के देख बादल बदल दिए।

भादों के भाव भोर तक गिनता रहा रफ़ीक,
घिरती घटा के छांव यूं घनघोर हो गए।

किलकी किरन बादलों के काले कोह चीर के,
छपकी छपक छलांगकर उस छोर हो गए।

रंगरेज़ बेईमान है, चोला है मुख़्तसर,
नीयत पे दाग़ इस कदर चेहरे बदल दिए

© पंकज शुक्ल। सितंबर 2011।


(image used here is only for referential purpose)