शुक्रवार, 30 अक्तूबर 2009

"हम हैं राष्ट्र की ऊर्जा की बुनियाद"


अरसा हुए जब टेलीविजन पर एक विज्ञापन आया करता था, शायद फोर स्क्वायर वालों का विज्ञापन हुआ करता था जिसमें नयन मोंगिया को बॉलिंग करते दिखाया जाता था। और विज्ञापन के आखिर में एक कैचलाइन उभरती थी - YOU NEVER KNOW WHAT YOU CAN BECOME.

हम जो देखते हैं, सुनते हैं, करते हैं और बोलते हैं। उसमें से काफी कुछ ऐसा होता है जो हमारे अवचेतन मस्तिष्क में कही ना कहीं चस्पा होकर रह जाता है। और फिर जब कभी ऐसा कुछ हमारे साथ फिर से होता है तो स्मृतियां एकाएक ताज़ा हो जाती हैं। सर्जनात्मक कार्यों के लिए स्वच्छंद वातारवण के साथ साथ ऐसे लोगों का साथ भी ज़रूरी होता है जो आपको लगातार अपनी सीमाएं तो़ड़ने के लिए प्रेरित करते रहें। निगरानी में रहकर क्रिएटिव काम शायद ही कोई कर पाया हो।

इधर पिछले कुछ महीनों से लघु फिल्मों के निर्माण में ऐसा उलझा कि ना दिन की फिकर रही ना रात की चिंता। प्रेरक मित्र शरद मिश्र से इस दरम्यान नोंक झोंक भी चलती रही है। लेकिन एक सच्चे मित्र के सारे गुण मुझे शरद में दिखते हैं। सातवीं या आठवीं में दोस्ती की व्याख्या करने वाला संस्कृत का एक श्लोक पढ़ा था शायद कुछ कुछ यूं है-

पापान् निवारयति योजयते हिताय।
गुह्यं निगूहति गुणान् प्रकटीकरोति।।

आपद गतं च न जहाति दताति काले।
सन्मित्र लक्षणं इदं प्रवदंति संत:।।

इसका तर्जुमा सुधी लोग तो समझते ही हैं। बस यहां इसे लिखने का आशय ये है कि अगर सच्चा मित्र आपको प्रेरित करे तो कई बार आप अपनी ही खींची लकीर को छोटा कर जाते हैं। प्रिंट से टीवी और वहां से फिल्म तक का सफर तय करने के दौरान अपनी लेखनी की तारीफ तो मुझे अक्सर सुनने को मिली लेकिन किसी ने इस बात के लिए प्रेरित नहीं किया कि मैं निर्देशन और कथा- कहानी के साथ साथ गीत लेखन में भी अपना हुनर दिखा सकता हूं।

भाई शरद मिश्र ने ललकारा और उनकी ललकार कुछ कुछ "का चुप साध रहेउ बलवाना" की तर्ज पर अपना काम कर गई। एक गीत लिखा है। और ये लिखा गया है भारत सरकार की नवरत्न कंपनी कोल इंडिया के लिए। आप भी देखें और अपनी प्रतिक्रिया दें। इस गीत को गायक कैलाश खेर के स्वरों में संगीतकार धनंजय मिश्र ने संगीतबद्ध किया है। गीत का विमोचन एक नवंबर 2009 को कोयला मंत्री श्री श्रीप्रकाश जायसवाल कोलकाता में करने जा रहे हैं। इस गीत की पंचलाइन - हम हैं राष्ट्र की ऊर्जा की बुनियाद - साथी शरद मिश्र की सुझाई हुई है।

बंदगी, बंदगी, बंदगी,
स्याह हीरे की बंदगी।

ज़िंदगी, ज़िंदगी, ज़िंदगी,
बदल रही ज़िंदगी।

रौशनी का राग चले
सीने में आग जले

सुनते हम सबकी फरियाद
हम हैं राष्ट्र की ऊर्जा की बुनियाद।

कोल इंडिया, कोल इंडिया।
कोल इंडिया, कोल इंडिया।

रफ्तार की रेल में
खुशियों के मेल में

मुन्नी की चमक है
अम्मा की गमक है

सुनते हम सबकी फरियाद
हम हैं राष्ट्र की ऊर्जा की बुनियाद।

कोल इंडिया, कोल इंडिया।
कोल इंडिया, कोल इंडिया।

हरियाली की ज़िम्मेदारी
करें भविष्य की पहरेदारी

स्वस्थ समाज संकल्प हमारा
बहे विकास की कल कल धारा

सुनते हम सबकी फरियाद
हम हैं राष्ट्र की ऊर्जा की बुनियाद।

कोल इंडिया, कोल इंडिया।
कोल इंडिया, कोल इंडिया।

(गीत फिल्म राइटर्स एसोसिएशन में लेखक के नाम से पंजीकृत)

रविवार, 11 अक्तूबर 2009

दंश : The Sting


शॉर्ट फिल्म नंबर 3


टीना को दफ्तर ज्वाइन किए हुए अभी हफ्ता भर भी नहीं हुआ था और उसे लगने लगा था कि कंपनी के सीईओ की उस पर कुछ खास ही नज़रे इनायत होने लगी है। टीना देखने में सुंदर थी। आकर्षक कद काठी। जल्दी से जल्दी सबसे आगे निकल जाने का अरमान। इंटरव्यू के दौरान भी सीईओ कुमार साहब ने उससे पूछा था कि अगले पांच साल में तुम खुद को कहां देखना चाहती हो और उसने उस वक्त उसके दिमाग में जो भी आया बोल दिया। उसने कहा था सर मैं खुद को आपकी सीट पर देखना चाहती हूं। एक सेक्रेटरी के लिए ये था तो अजीब जवाब लेकिन कुमार साहब ने ना जाने क्या सोचकर तब बस हल्का सा मुस्कुरा दिया था। दो दिन बाद उसके घर पर फोन आया कि उसका सेलेक्शन हो गया है और आज ही के दिन पिछले शनिवार को वो इस कंपनी में सीईओ की सेक्रेटरी बन गई।

आम तौर पर शनिवार को बाकी स्टाफ समय से पहले ही निकल जाता है, रविवार की छुट्टी की तैयारी करने। लेकिन, कुमार साहब अब भी घर नहीं गए थे। टीना अपना बैग समेट कर घर जाने की तैयारी कर चुकी थी। वो कुमार साहब की इजाज़त लेने के लिए उनके केबिन में घुसी तो कुमार साहब को किसी काम में व्यस्त पाया। उसने जाने की बात कही तो कुमार साहब ने बिना उसकी तरफ देखे ही हां कह दिया लेकिन टीना अभी पलट कर दरवाजे तक पहुंची ही थी कि कुमार साहब को कुछ याद आया। उन्होंने आवाज़ लगाई - टीना!

टीना के कदम जहां थे वहीं रुक गए। कुमार साहब ने तब उसे बताया कि कंपनी ने कल शाम पूरे दफ्तर के लिए सरप्राइज़ पार्टी रखी है, क्योंकि कंपनी ने इस क्वार्टर में मुनाफे का नया रिकॉर्ड बनाया। टीना के चेहरे पर खुशी देखने लायक थी। सीईओ जैसे गरिमामयी पद पर होने के बाद भी ये बताते बताते कुमार साहब के चेहरे पर कामयाबी और अभिमान की मिली जुली छाया तैर आई थी।

टीना ने पलटकर तुरंत कुमार साहब को बधाई दी और बोली कि वो चिंता ना करे। संडे की सरप्राइज़ पार्टी का इंतजाम वो खुद संभाल लेगी। कुमार साहब ने चैन की सांस ली। और उन्होंने टीना के हाथ में पार्टी के लिए बुलाए गए कर्मचारियों और अधिकारियों की पूरी लिस्ट सौंप दी। टीना को पहली बार इतना बड़ा जिम्मा मिला था लिहाजा वो भी काफी चहकती हुई दफ्तर से विदा हुई।

अगले दिन संडे था। देर रात तक पार्टी चलती रही। पार्टी के बाद कुमार साहब लड़खड़ाते हुए बाहर निकले तो टीना भागती हुई उनकी मदद को आ गई। कुमार साहब से गाड़ी की चाभी ही नहीं संभल रही थो भला गाड़ी वो कैसे संभालेंगे। ये सोचकर टीना ने खुद गाड़ी खोली और कुमार साहब को सहारा देकर पीछे की सीट पर लिटाने लगी। जवां बदन की खुशबू और कुमार साहब के अब तक दबे रहे अरमान। कुछ शायद टीना की बेतकल्लुफी ने भी आग में घी का काम किया। कुमार साहब ने अपने दिल की बात कह डाली और टीना भी ना न कर सकी।

रात का वक्त। घुप्प अंधेरा। शायद टीना भी हल्के हल्के नशे में थी। ना जाने क्या हो गया दोनों को। भावों में वो बह गए। टीना को भी लगा वो खुद पर काबू नहीं रख पाएगी। फिर भी उसने रिक्वेस्ट की सर प्रोटेक्शन प्लीज़। प्रोटेक्शन प्लीज़। प्रोटेक्शन प्लीज़। आवाज़ धीरे धीरे मद्धम पड़ती गई। और फिर तेज़ सांसों की आवाज़ों में कहीं खो भी गई। अगले दिन कुमार साहब देर तक परेशान रहे। टीना नौकरी पर फिर नहीं आई।

कुछ हफ्तों बाद।

कुमार साहब के केबिन का फोन बजा। नायर ने फोन पर बताया कि पुरानी सेक्रेट्री टीना मिलने आई है। कुमार साहब को लगा कि उन्हें माफी मांगने का मौका आख़िर भगवान ने दे ही दिया। वो तबसे पश्चाताप में ही जी रहे थे। टीना ने दरवाजे पर दस्तक दी। वो अंदर आई। सलवार सूट में वाकई उस दिन टीना ग़ज़ब की खूबसूरत लग रही थी। पेट ज़रूर कुछ चढ़ा सा दिख रहा था। सामने रखी अपनी फैमिली फोटो से नज़र हटाकर कुमार साहब सीट छोड़कर उठे और तकरीबन हाथ जोड़ते से बोले, टीना मैं तुम्हें कब से तलाश रहा हूं। प्लीज़....

कुमार साहब की बात पूरी भी नहीं हो पाई कि टीना बोल पड़ी। सर मैं मां बनने वाली हूं और कल हम कोर्ट मैरिज करने जा रहे हैं। ये आज ही अपने पैरेंट्स से बात करने वाले हैं। बस आपका आशीर्वाद लेने आ गई। जो हुआ उसे भूल जाइए। उसमें जितनी गलती आप से हुई उतनी ही मुझसे भी। कुमार साहब ने शायद कहना चाहा। लेकिन टीना आई एम एच...।

लेकिन टीना ने इसी बीच पर्स से एक फोटो निकालकर कुमार साहब के हाथ में थमा दिया। "सर देखिए ना हमारी जोड़ी ठीक रहेगी या नहीं।" टीना ने थोड़ा प्यार से और थोड़ा अधिकार से कुमार साहब का हाथ झिंझोड़ा। कुमार साहब की नज़र जैसे ही फोटो पर गई, ऐसा लगा कि जैसे उन्हें लकवा मार गया हो। उनके मुंह से बस इतना ही निकला, "नवीन"। अब चौंकने की बारी टीना की थी। उसने पूछा कि कुमार साहब उसे कैसे जानते हैं। कुमार साहब बस इतना ही कह पाए, "ये मेरा बेटा है।"

(समाप्त)

कुशाग्र क्रिएशंस प्रस्तुति । कहानी और निर्माता- शरद मिश्र । पटकथा- निर्देशक – पंकज शुक्ल।
© & ® with Film Writers Association, Mumbai and IMPAA, Mumbai

गुरुवार, 8 अक्तूबर 2009

अज़ीज़न मस्तानी : Revenge Of A Gorgeous Freedom Fighter



पिछली कहानी बहुरूपिया को मिली प्रशंसा से उत्साहित होकर आज मैं एक और शॉर्ट फिल्म के बारे में लिखने जा रहा हूं। इस कहानी में थोड़ा सच है और थोड़ी कहावतें। 1857 में जब कानपुर में फिरंगियों पर नाना साहब, तात्या टोपे और अज़ीमुल्ला ख़ान ने क़हर बरपाया तो इस गदर के बीच कुछ तवायफें भी थीं जिनमें से किसी के हीरो नाना साहब थे तो किसी के तात्या टोपे। मीरा ने जैसे कृष्ण को चाहा था, वैसे ही एक तवायफ़ तात्या टोपे की बहादुरी की कायल हो चुकी थी। नाम था अज़ीज़न बाई। तो पेश ए ख़िदमत है कहानी अज़ीज़न बाई की।

अज़ीज़न मस्तानी

पुराने पत्थरों वाली दीवारों के साथ की सड़क के किनारे किनारे चुस्त चूड़ीदार के साथ पाजेब पहने एक लड़की सड़क पर चली जा रही है। ये कानपुर का लाठी मोहाल इलाका है। पूरब का मैनचेस्टर कहे जाने वाले कानपुर के लाठी मोहाल इलाके की इन गलियों में ना जाने कितने अंग्रेज शोख चंचल हसीनाओं का रूप रस पीने के लिए आते रहे और खुदा गवाह है कि इनमें से तमाम फिर लौट कर अपनी अपनी छावनियों तक जा नहीं पाए। खूबसूरती के खंजर ने इन सिपाहियों का कलेजा इस कदर चाक किया कि ना तो फिर उनकी कोई निशानियां मिलीं और ना ही महीनों तक ब्रितानिया सरकार ये पता लगा पाई कि आखिर लाठी मोहाल की तरफ रुख करने वाले अंग्रेज सिपाही लापता कहां हो जाते हैं?

अज़ीज़न आज परेशान है। वो परेशान है अपने प्यार की हिफ़ाजत को लेकर। अज़ीज़न मुसलमान नहीं है। लेकिन वो मस्जिद के सामने से गुजरते हुए खुद को रोक नहीं पाती और मस्जिद की चौखट लांघकर अंदर चली आई है। उसके दिल में है तो बस एक ही फरियाद, ‘या अल्लाह मुझे माफ करना। मेरी आज की पहचान कहती है कि मेरा सिर तेरे सजदे में झुकना चाहिए। और मेरा खून कहता है कि मेरा सिर किसी मंदिर की चौखट पर टिकना चाहिए। लेकिन, मेरा मजहब अब कुछ है तो बस वतनपरस्ती। जब तक मैं कानपुर की धरती पर बसे एक एक अंग्रेज का सिर कलम ना कर दूं, मेरा ईमान मुझे चैन से नहीं बैठने देगा। मेरी तुझसे फरियाद है तो बस इतनी कि मुझे इतनी ताक़त दे कि मैं ऐसा कर सकूं।‘

अजीजन बाई की पैदाइश कोठों पर नहीं हुई। और तवायफों की तरह वो भी हालात की मारी थी। कभी वो राजगढ़ के जागीरदार शेर सिंह की हवेली में हिरणी की तरह इधर उधर कुलांचे भरती थी। उसका नाम था अंजशा। उस दिन मेले में अंग्रेज सिपाहियों की टुकड़ी मटरगश्ती करने निकली थी। उनका अफसर हेनरी अपने दल-बल के साथ मेले में आया था। अंजशा को देखते ही वो उसके रूप यौवन पर मोह गया। हेनरी ने अंजशा को देखा तो बस देखते ही रह गया। अफसर की नज़रों के आगे पानी भरने वाले अंग्रेज सिपाहियों ने देखते ही देखते अंजशा को उठा लिया। वो रात अंजशा ने हेनरी की रावटी में गुजारी। अंजशा खूब रोई। देवी देवताओं की दुहाई दी। लेकिन, अंग्रेज अफसर हेनरी के आतंक के आगे किसी के कानों में उसकी गुहार न पड़ी। हवशी हेनरी ने अंजशा को उस रात भर रौंदा और अपनी हवस मिटाने के बाद जूठन फेंक दी कुत्तों की तरह अपने पीछे दुम हिलाने वाले सिपाहियों के आगे।

अंशजा का मन हुआ कि वो आत्महत्या कर ले। लेकिन, एक क्षत्रिय की बेटी ने अपमान का हलाहल गले से नीचे नहीं उतरने दिया। उसने अपने तन का त्याग कर दिया और आत्मा को तैयार किया एक नए तांडव के लिए। वो तांडव जिसकी बानगी अभी अंग्रेजों को देखनी थी। अंग्रेज सिपाहियों ने उसे कानपुर में लाठी मोहाल के कोठे पर ला बेचा।

और, लाठी मोहाल में परवरिश पाती अंजशा बन गई अजीजन। कभी खुली हवा में हर रोज़ एक नई परवाज के लिए अपने पंख तौलने वाली अंजशा पर कटाकर अजीजन बन गई तो लेकिन पिंजड़े की मैना बनना उसे तब भी गवारा ना हुआ। उसने अपने आस पास के हालात को तौला। कोठे पर रहने वाली दूसरी तवायफों को टटोला और फिर उसका मन यही बोला कि अभी उसे कुछ करना है और इसके बाद ही मरना है। और, उसने अपने कोठे को तब्दील कर दिया फिरंगियों की क़त्लगाह में।

कानपुर में अंग्रेज सिपाहियों के गायब होने की बात को शुरू शुरू में अंग्रेज अफसरों ने ज्यादा तवज्जो नहीं दी। पहले तो बीट के सिपाही लापता हुए फिर कैंट इलाके तक ये बीमारी पहुंच गई। कभी कोई दरबान तो कभी कोई संतरी सूरज ढलने के बाद चहलकदमी करने निकलता, लेकिन उगता सूरज फिर उसके नसीब में नहीं होता। मुखबिरों को काम पर लगाया गया, जासूस छोड़े गए। हेनरी खुद इस काम पर लग गया।

उस दिन हेनरी ने सूरज उगते ही गंगा किनारे बैठकर खूब शराब पी और चल दिया लाठी मोहाल के कोठे की तरफ। अजीजन तो मानो हेनरी के इंतज़ार में ही थी। तात्या टोपे के पीछे लगी अंग्रेजी फौज का मकसद जो उसे मालूम करना था। अजीजन ने उस दोपहर हेनरी को अपने रूप रस से खूब भिगोया। नशे में धुत हेनरी जब तात्या के बारे में सब कुछ बोल गया तो अजीजन ने पहले हेनरी पर अपनी नज़रों का वार किया और जब वो घायल हो गया तो उस पर हुआ अजीजन के ज़हर का वार। दो पल पहले हुस्न और शराब के नशे में झूम रहा हेनरी अब लाल रंग के कपड़ों से बंधी पोटलियों का अलग अलग हिस्सा बन चुका था। अगले दिन तात्या टोपे खुद अज़ीज़न से मिलने शहर के पास एक बगिया में पहुंचे।

तात्या टोपे से इस मुलाकात ने अजीजन के दिल में एक नया जोश भर दिया। वो दूनी ताकत से फिरंगियों के खिलाफ़ तैयारियां करने लगी। और यहां तक कि उसने तवायफों की एक टोली तक बना डाली। चार सौ से ऊपर तवायफों की टोली। इस टोली का नाम पड़ा – मस्तानी टोली। अजीजन इस टोली के ज़रिए स्वतंत्रता सेनानियों के लिए पैसा, रसद और गोला बारूद इकट्ठा करने लगी। और, तात्या टोपे की सेना की मदद करने लगी।

(समाप्त)

कुशाग्र क्रिएशंस। निर्माता– शरद मिश्र। पटकथा-निर्देशक- पंकज शुक्ल
FWA No. 164499 । IMPPA. 299/2009

सोमवार, 5 अक्तूबर 2009

बहुरुपिया : The Face Maker


बचपन में तो हमने उसे अक्सर देखा लेकिन अब वो कहीं नज़र नहीं आता। गांवों में भी अब वो कभी कभार ही दिखता है। लोगों ने उसे नाम दिया बहुरुपिया। पुराने मित्र और सहपाठी शरद मिश्र ने एक दिन यूं ही बातों बातों में बहुरुपिया का ज़िक्र छेड़ दिया। बात आगे बढ़ी तो उन्होंने बहुरुपिया पर एक छोटी सी कहानी भी सोच ली। ये कहानी कई दिनों की मेहनत के बाद अब परदे पर उतर चुकी है। इटली, रोम के फ्लोरेंस फिल्म फेस्टिवल तक ये फिल्म पहुंच चुकी है। इस शॉर्ट फिल्म के अलावा तीन और फिल्में भी मैंने और शरद मिश्र ने मिलकर बनाई हैं। इनमें से एक फिल्म सुश्री रंजना सिंह के ब्लॉग पर पोस्ट की गई एक कहानी पर भी है। ब्लॉग की दुनिया में ऐसा पहली बार हुआ है कि किसी ब्लॉगर की कहानी पर किसी ब्लॉगर ने ही फिल्म बनाई हो, उसकी चर्चा बाद में। आज पढ़िए कहानी - बहुरुपिया। कहानी की परिकल्पना शरद मिश्र की है और पटकथा मैंने लिखी है। ये कहानी मुंबई के फिल्म राइटर्स एसोसिएशन और इम्पा में पंजीकृत हो चुकी है। इस पर बनी शॉर्ट फिल्म में मुख्य भूमिकाएं की हैं संजीव सिंह, चंद्रानी बैद्य, डी सी वर्मा और अजय आज़ाद ने। शॉर्ट फिल्म में सिर्फ कहानी के मूल सार को लिया गया है, आगे इसे फीचर फिल्म के तौर पर बनाने की योजना भी है।

कहानी-
वो कौन है, कहां से आता है, स्त्री है या पुरुष? क्या वाकई में वो कलाकार है, इसी इलाके का निवासी या फिर कहीं और से आकर अपना हुनर दिखाता है? पहले तो कई महीनों तक कोई जान ही नहीं पाया। रुस्तमपुर गांव के लोगों के लिए वो बस एक बहुरूपिया था। जो कभी बंदर का स्वांग बनाकर आता, कभी गोपी का तो कभी वो बन जाता अंग्रेजों के ज़माने का जेलर। गांव के सारे बच्चों का प्यारा और बड़ों का दुलारा। किसी ने कभी भी उसे किसी पर गुस्सा होता नहीं देखा। बस वो स्वांग दिखाता, गांव वाले हंसी खुशी उसे जो भी दे देते वो सिर झुकाकर ले लेता। कोई उसे खाने को गुड़ देता तो कोई रोटी। थोड़ा खाना वो वहीं खाकर पानी मांगकर पीता और फिर थोड़ा खाना अपने कमर में बंधी एक छोटी सी पोटली में खिसका देता। अपनी रानी बिटिया के लिए।

उसका ठौर ठिकाना जानने की रुस्तमपुर गांव के लोगों ने कभी कोई कोशिश नहीं की या कहें कि उन्हें कभी कोई ज़रूरत ही महसूस नहीं हुई। बस उसकी किसी से नहीं बनती तो वो था गांव का चौकीदार छंगा। छंगा को वैसे भी हर किसी पर किसी ना किसी बात को लेकर शक़ करने की आदती थी लिहाजा रुस्तमपुर गांव के किसी भी शख्स ने कभी छंगा को मुंह नहीं लगाया। छंगा अक्सर इंतज़ार करता कि वो कब बहुरूपिया दोपहर में खाना समेट कर गांव के बाहर का रास्ता पकड़ेगा और कब वो उसके पीछे लगकर उसके ठिकाने का पता लगा लेगा। लेकिन, ऐसा मौका आज तक छंगा के हाथ आया नहीं। बहुरूपिया की गांव के वैद्य जी से खूब बनती थी। वो बिना वैद्य जी से मिले कभी अपना स्वांग शुरू नहीं करता, सब जानते थे कि वैद्य जी के घर के सामने ही वो सबसे पहले सुबह सुबह प्रकट होता है। गांव के सारे बच्चे स्कूल जाने से पहले वैद्य जी के दरवाजे पर जुटते और बाह टोहते बहुरूपिये के एक नए स्वांग के साथ वहां पहुंचने की। लेकिन, कोई नहीं जानता था कि आखिर बहुरूपिया की रुस्तमपुर गांव के वैद्य जी पर इतनी श्रद्धा क्यों है?

दिन चढ़ते ही बहुरूपिया रुस्तमपुर गांव चला आता और दोपहर होते होते वो पूरे गांव का चक्कर लगा लेता। रुस्तमपुर के लोगों के लिए बहुरूपिया रोज़मर्रा की ज़िंदगी का हिस्सा बन चुका था। गांव में कोई रिश्तेदार आता तो बहुरूपिया के स्वांग को उनके सामने ऐसे बढ़चढ़कर बताया जाता मानो पूरी दुनिया में रुस्तमपुर का बहुरूपिया निराला हो। वो रुस्तमपुर गांव के लोगों को मिली ऐसी नेमत थी, जिसकी कीमत कोई नहीं जानता था। गांव में ब्याह कर आई नई बहू हो या किसी ख़ास चीज़ की ज़िद के लिए रोता बच्चा। सबके दिल को बहलाने की जिम्मेदारी बहुरूपिया पर ही थी। गांव में चौधरी के बेटे की बारात लौटी तो द्वारचार के वक्त तक बहुरिया रोती रही। किसी की समझ में ना आए कि आखिर बहू कैसे चुप होगी? बहुएं तो मायके से बिदाई के बाद गांव की सीमा खत्म होती ही रोना बंद कर देती हैं, लेकिन चौधरी की बहू को शायद अपने मायके से कुछ ज्यादा ही प्रेम रहा होगा, तभी तो बेचारी अब तक टसुए बहा रही थी। तब चौधरी ने ही छंगा को भेजकर बहुरूपिया को बुलवा भेजा था। चौधरी का नाम सुनते ही बहुरूपिया कहीं भी किसी भी हाल में हो, दौड़ा चला आता था। यही तो पूरे रुस्तमपुर गांव का ऐसा घर था, जहां से उसे हर साल नियमित तौर से जाड़े में एक कंबल ज़रूर मिलता था।

बहुरूपिया उस दिन काली माता के रूप में था। आते ही उसने बहू की पालकी का परदा उठाया और अपनी लपलपाती जीभ के साथ अपना चेहरा अंदर डाल दिया। बहू के गले से पहले तो बहुत ज़ोर की चीख निकली और जब माज़रा उसे समझ आया तो वो देर तक हंसती रही। बहुरूपिया ने बहू के पैरों पर माथा टिकाया तो उसने सौ रुपये की एक करारी नोट और एक रुपये का चमकता हुआ सिक्का बहुरूपिया को निछावर में दिया। बहुरूपिया देर तक चौधरी की बहू की बलाएं लेता रहा और चौधरी ने भी खुश होकर उसे अपने गले में पड़ा गमछा उतार कर दे दिया। कुल मिलाकर लब्बोलुआब ये कि बिना बहुरूपिया के रुस्तमपुर के गांव के लोगों को चैन नहीं मिलता था।

किसी दिन वो नहीं आता तो गांव वाले खासकर बच्चे परेशान हो जाते। लोग एक दूसरे से पूछते किसी ने बहुरूपिया को देखा क्या? फिर अगले दिन वो आता तो पूरा गांव हुजूम लगाकर चौपाल में उसके स्वांग देखने लगते। बहुरूपिया बताता कि वो कल बीमार हो गया था तो रुस्तमपुर गांव के वैद्य जी भागकर घर के अंदर जाते और सीतोपलादि चूर्ण की तीन चार पुड़िया बांधकर ले आते। एक पुड़िया तो वो उसे वहीं अपने हाथ से खिलाते। वैद्य जी का दुलारा था बहुरूपिया। अक्सर उसे वैद्य जी के पास बैठकर घंटो बतियाते देखा जाता। कोई कोई तो कहता कि वैद्य जी जो भी नया नुस्खा बनाते थे, बहुरूपिया खुशी खुशी उसका प्रयोग वो नुस्खा खाकर करता था। लेकिन इस बारे में ना तो कभी किसी की वैद्य जी से पूछने की हिम्मत पड़ी और ना ही बहुरूपिया ने किसी को इस बारे में कुछ बताया। कभी किसी घर की कोई ऐसी बात अगर बहुरूपिया के कान में पड़ भी जाए, जिसे जगजाहिर होने से घर की बदनामी हो, तो बहुरूपिया अपनी तौर से ऐसा कुछ ज़रूर कर देता था कि बेचारे घरवाले की इज्जत बन जाए। तो ऐसा था ये बहुरूपिया।

लेकिन, ताज्जुब की बात ये कि इस बहुरूपिए को रुस्तमपुर के लोग बहुरूपिया कहकर ही बरसों से बुलाते रहे। इसका नाम रुस्तमपुर में किसी ने ना जाना, और ना ही किसी को उसने अपनी असली पहचान ही बताई। उसे तो बहुरूपिया का स्वांग धरने के बाद जिस नाम से लोग पुकारते थे, वो उसी को अपना इनाम समझ लेता। एक बार तो जब उसने गोपी का रूप धरा और बच्चों ने उसे बहुरूपिया बहुरूपिया कहकर बुलाना शुरू किया तो उसकी आंखों से आंसू निकल आए। वैद्यजी ने पूछा भी क्या हुआ, लेकिन वो कुछ ना बोला। बस चुपचाप आंसू बहाता रहा। फिर अगले दिन वो फिर से गोपी बनकर आया। लेकिन, इस बार गांव को कोई भी बच्चा उसे पहचान ही नहीं पाया। वो वैद्य जी के घर के सामने से ‘दही ले लो’ की आवाज़ निकालता गुजरा तो वैद्य जी भी दही खरीदने चले आए। बहुरूपिया ने उस दिन पूरे गांव में दही बेचा। और, चौधरी। वो तो ऐसे कि जैसे गोपी पर लट्टू ही हो गए। देर तक अपनी दालान में उसे बिठाए रहे। कभी गुड़ खिलाएं तो कभी छंगा से कहकर उसके लिए ओढ़नी मंगाएं। और, दोपहर बाद जब खुद बहुरूपिया ने बताया कि वो तो बहुरूपिया है तो चौधरी देर तक हंसते रहे। पूरी बात सुनकर चौधराइन में जीवन में पहली बार चौधरी के सामने ठट्ठा मारकर हंसी।

रुस्तमपुर में सब जानते थे कि ये है दुनिया में सबसे निराला बहुरूपिया। लेकिन गांव का कोई भी शख्स नहीं जानता था तो बस ये बात कि वो तो था जाजामऊ का कलुआ। कलुआ जो दोपहर चढ़ते ही जाजामऊ गांव के ठाकुरों के यहां बर्तन धोने पहुंच जाता था। झक सफेद धोती पहने और नंगे बदन, कलुआ के हाथ बर्तनों पर चलते तो पीतल भी सोने की तरह चमक उठता। ठाकुर इसी बात पर इतराते कि जब भी कोई मेहमान उनके यहां कांसे के गिलास में पानी पीता तो ये ज़रूर पूछता कि ठाकुर कांसे का ये गिलास कहां से बनवाया। तब ठाकुर बताते कि अरे ये तो पुश्तैनी मेहमाननवाज़ी के गिलास है और इन पर हाथ चलाकर उनका खासमखास कहार उन्हें बना देता है बिल्कुल नए जैसा। कलुआ के हुनर के जितने कद्रदान रुस्तमपुर थे, उतने जाजामऊ में तो ना थे। लेकिन ठाकुर के घर में उसकी कदर खूब होती थी। ठकुराइन को रसोई के हर पकवान के ठाकुर की थाली में पहुंचने की चिंता हो ना हो, कलुआ को हर पकवान का थोड़ा सा ही सही पर हिस्सा ज़रूर वो उसकी थाली में अपने सामने डलवा देतीं।

जाजामऊ गांव में किसी ने भी कभी ये जानने की कोशिश नहीं कि आखिर कलुआ सबेरा होने के बाद से लेकर दोपहर तक कहां रहता है और क्या करता है। और, कलुआ भी बस ठाकुरों के तीन घरों में सुबह तड़के और दोपहर बाद बर्तन साफ करके अपनी दुनिया में खो जाता। जाजामऊ गांव में उसे कभी किसी से ना तो दुलार मिला और
ना ही उसने इसकी गुजारिश की। लोग उसे ठाकुरों का खास कहार समझ कर कभी कुछ कहते तो नहीं थे, लेकिन ऊंची जाति के मोहल्ले से निकलते समय बेचारी की नज़रे हमेशा झुकी ही रहती थीं। रुस्तमपुर का दुलारा, जाजामऊ का बेचारा था। और बेचारगी इस बात की कि बेचारी की बीवी पहले ही गुजर गई। अकेले ही जवान होती बिटिया की देखरेख करता औऱ उसकी पढ़ाई के लिए पैसे जुटाता रहता।

गांव के बाहर ही तो थी कलुका की छोटी सी झोपड़ी। और, इसी झोपड़ी में उसने पूरे जतन से पाला अपनी बिन मां की बिटिया रानी को। वो सुबह सवेरे रानी को नहालाता धुलाता। साफ कपड़े पहनाता। खुद बैठकर उसकी चोटी पिरोता और काजल भी लगाता। फिर जब रानी तैयार हो जाती तो उसकी बलाएं लेकर उसे स्कूल भेज देता और खुद चल देता अपने रोज़ के सफ़र पर।

रानी गांव के ही जूनियर हाईस्कूल में पांचवी में पढ़ती थी। कलुआ की पहली और आखिरी उम्मीद। तय समय पर स्कूल की फीस देना और रानी को पढ़ाई में किसी तरह की दिक्कत ना आए, इसका पूरा ख्याल रखना, कलुआ की आदत में शुमार हो चुका था। कई कई बार तो वो राशन की दुकान पर लोगों से एक एक कुप्पी मिट्टी का तेल मांग लाता, ताकि रात में रानी बिटिया अपना स्कूल का काम लालटेन की रोशनी में पूरा कर सके। ये लालटेन वो रुस्तमपुर गांव के चौधरी से मांग कर लाया था। और रानी ने भी अपने बापू का नाम रोशन करने में कोई कसर ना छोड़ी। सालाना नतीजे जब बताए जाते तो मैदान के किसी कोने में दूर पेड़ के नीचे बैठे कलुआ को इंतज़ार रहता कि कब रानी का नाम बुलाया जाएगा। गांव के हर ऊंचे घर के बच्चों से पढ़ने में तेज़ थी रानी। रानी हर साल अपनी क्लास में अव्वल रहती। उसका नाम स्कूल के बड़े पंडित जी पूरे जोश के साथ पुकारते। रानी स्टेज पर जाती अपना रिजल्ट लेने और नीचे बच्चों में शुरू हो जाती खुसुर पुसुर। कलुआ को लगता कि जैसे ऊपर स्वर्ग से उसकी बीवी उसे दुआएं दे रही है। मरते मरते बस यही एक चीज़ तो मांगी थी रानी की मां ने कलुआ से, ‘कुछ भी करना पर रानी को दूसरों के घर में बर्तन ना मांजने पड़ें’। कलुआ ने रानी की मां से वादा किया था कि वो ऐसा नहीं होने देगा। लेकिन, रानी को कभी गांव के बच्चों ने अपने साथ खेलने नहीं दिया। पूरे गांव में पंडितो और ठाकुरों के घर थे। पता नहीं कैसे कलुआ का इकलौता घर यहां आ गया। ज़रूर उसके पुरखे किसी ठाकुर की बारात के साथ दहेज में आए होंगे बहूरानी के बर्तन मांजने। और तब से पीढ़ी दर पीढ़ी चलता हुआ ये सिलसिला कलुआ तक आ पहुंचा था।

रुस्तपुर गांव के लिए बहुरूपिया और जाजमऊ गांव का कलुआ। एक ही शख्स के दो अलग अलग चेहरे। और दोनों गांवों के लोग उसकी दूसरी पहचान से बिल्कुल अनजान। रुस्तपुरगांव में ही एक दिन मजनू का स्वांग रचे जब वो चौधरी के अहाते में बैठा था तो उनके लड़कों को नवोदय विद्यालय के बारे में बातें करते सुना। घर लौटकर उसने ठाकुर साहब के बेटे से अपनी बिटिया के लिए नवोदय स्कूल का फॉर्म मंगा देने की गुजारिश की और अब रानी बिटिया आठवीं में है। महीने के हर दूसरे इतवार कलुआ की जाजामऊ में और बहुरूपिया की रुस्तमपुर में छुट्टी सी रहती है। इस दिन वो अपनी बिटिया से मिलने जाता है। नहा धोकर साफ सुथरे कपड़े पहन जब वो नवोदय विद्यालय के गेट पर अपनी बिटिया के इंतज़ार में खड़ा रहता तो किसी को इस बात की भनक भी नहीं लगने पाती कि आखिर इसका पेशा क्या है?
कलुआ और बहुरूपिया दोनों की ज़िंदगी दो अलग अलग गांवों में यूं ही चलती रही। और फिर एक दिन उसे हुआ तेज़ बुखार। इस बार रुस्तमपुर गांव के वैद्य जी की दवा भी बेअसर हो गई। दूसरे इतवार में दो दिन बाकी थे। दो दिन तक बुखार में तपते रहने के बाद वो अपनी बिटिया से मिलने गया। रानी अब बड़ी हो चुकी थी। इंटर के इम्तिहान बस शुरू ही होने वाले थे और कलुआ ने इस बार बिटिया के लिए तमाम तरह की चीज़ें खरीद कर रखी थीं। बिटिया से मिलने के बाद कलुआ सीधे शहर के डॉक्टर के पास गया। ठाकुर साहब की चिट्ठी पढ़कर डॉक्टर साहब ने उसे तुरंत देखा बिना नंबर के। चेकअप के बाद डॉक्टर का गंभीर चेहरा देखकर कलुआ भीतर ही भीतर कहीं सहम सा गया। और, जब डॉक्टर ने उसे उसका मर्ज़ बताना शुरू किया तो कलुआ का तो जैसे सारा खून ही सूख गया। उसके सामने रानी का चेहरा देर तक घूमता रहा। फिर उसे याद आई रानी की मां, जो मरते वक्त रानी को उसकी गोद में डाल गई थी ये कहते हुए कि रानी के बापू आज से तुम ही इसके बाप भी हो और मां भी। तब से कलुआ ने रानी को कभी मां की कमी महसूस नही होने दी। लेकिन, अब क्या होगा?

कलुआ देर रात अपनी झोपड़ी में लौटा। उस दिन पहली बार चौकीदार को कलुआ के घर के आगे जलता दीया नहीं दिखाई दिया। उसने सोचा कि शायद कलुआ कहीं बाहर गया होगा। लेकिन कलुआ झोपड़ी के पीछे खुले में लेटा था, तारों के बीच कहीं अपनी रामदुलारी का चेहरा तलाश करते हुए। उसे लगने लगा कि जल्दी ही वो भी रामदुलारी के साथ कहीं आसमान में तारा बन जाएगा। डॉक्टर ने उसे कैंसर बताया था और कहा था कि अगर इलाज चला तो चार पांच साल और नहीं तो बामुश्किल ढाई तीन साल ही उसकी ज़िंदगी के बचे हैं। लेकिन कलुआ को स्वांग भरने की आदत थी और उसने इसी स्वांग के बूते कभी रानी पर ये ज़ाहिर नहीं होने दिया कि जल्दी ही वो अनाथ होने वाली है। बल्कि अब तो वो हर दूसरे इतवार को और भी ज़्यादा सज धज कर रानी से मिलने जाता, आखिर अब वो कॉलेज में जो थी। रानी को अब वजीफ़ा तो मिलने लगा था लेकिन फिर भी कलुआ अपनी सारी कमाई रानी को दे आता। शहर की पढ़ाई, फिर कोचिंग और ऊपर से दस खर्चे। उसे मालूम था कि अगर वो अपना इलाज कराने लगा तो रानी कभी अफसर नहीं बन पाएगी। कलुआ ने अपनी ज़िंदगी के बाकी बचे साल अपनी बिटिया के नाम कर दिए।

और, फिर एक दिन जाजामऊ और रुस्तमपुर के बीच बने मंसा देवी के मंदिर में सुबह सुबह भीड़ लगनी शुरू हो गई। वहां एक संन्यासी देवी की मूरत के सामने साष्टांग दंडवत किए लेटा मिला। गांव की कितनी ही औरतें देवी पर जल चढ़ाकर लौट गईं लेकिन संन्यासी ना बाईं करवट हुआ और ना दाईं। एक दो ने उसके ऊपर पानी की छीटें भी गिराईं ये देखने के लिए वो ज़िंदा है या मर गया। लेकिन हाथ में कागज़ की एक पर्ची पकड़े ये संन्यासी ना तो हिला और ना ही कुछ बोला। दोनों गांवों में बात धीरे धीरे फैलने लगी और दोपहर होते होते दोनों गांवों के लोग वहां जुटने लगे। रुस्तमपुर के वैद्यजी ने सबसे पहले उसका चेहरा टटोला। वो बोले अरे ये तो अपना बहुरूपिया है और तभी जाजामऊ के ठाकुर साहब के बेटे ने कलुआ को पहचाना। दोनों गांवों के लोगों के लिए उसकी अलग पहचान थी। लेकिन वो जो भी था, अब इस दुनिया में नहीं था। चौधरी साहब ने उसके हाथ से पर्ची निकाली और पढ़ने लगे। पर्ची का मजमून खत्म होते होते मंदिर में मौजूद हर इंसान की आंखें नम थी। और, तभी दूर गाड़ियो का एक काफिला आता दिखाई दिया। नीली बत्ती की कार सबसे पहले मंदिर के पास आकर रुकी। उसमें से उतरी रानी। वो अब अफसर बन चुकी थी और सबसे पहले मंसा देवी के मंदिर आई थी अपने बाबा का कहा पूरा करने। और, तब गांव वालों को कलुआ या कहें कि बहुरूपिया के हाथ में मिली पर्ची का एक एक शब्द समझ में आने लगा। ये गांव के हर दबे कुचले आम आदमी की आवाज़ जो थी। झोपड़ी में पढ़ने वाली ने इलाके का नाम रौशन कर दिया था। और, उसका बाबा चाहता था कि कोई उसे ना बर्तन मांजने वाली की बिटिया कहे और ना ही बहुरूपिया की बेटी। उसे सब जानें तो बस उसकी आज की पहचान से।


कुशाग्र क्रिएशंस प्रस्तुति। निर्माता-लेखक – शरद मिश्र। पटकथा-निर्देशक- पंकज शुक्ल ।
© & ® FWA – 164498 । IMPPA- 152/2009