गुरुवार, 20 अगस्त 2009

माई नेम इज़ खान, तो क्या?


सत्रह साल, पांच दर्जन से ज़्यादा फिल्में, ढेरों पुरस्कार और बहुत सारा प्यार। दिल्ली के एक लड़के का मुंबई जाकर कामबायी की नई इबारत लिखने का ये एक ऐसा सफर है, जिसे किसी फिल्म की कहानी में आसानी से तब्दील किया जा सकता है। एक मुसलमान लड़के की एक हिंदू लड़की से मोहब्बत। और, कामयाबी का आसमान छूने के इस सफर में धर्म कभी रुकावट बनकर नहीं आया। यहां तक कि बच्चों की परवरिश में भी। ये कहानी है शाह रुख खान की। वो शाह रुख जिनके भारतीय उपमहाद्वीप के अलावा विदेशों खासकर पश्चिमी देशों में करोड़ों दीवाने हैं। लेकिन, इस कलाकार की पिछले दो साल में रिलीज़ हुई फिल्मों में उनके किरदारों को ध्यान से देखें तो आपको इसके भीतर एक ऐसी अंतर्धारा नज़र आएगी, जो कम लोगों ने ही महसूस की। फिल्म चक दे इंडिया में वह कबीर खान बने। करियर के 15 साल राजू, राहुल और ना जाने क्या क्या बनते रहे शाह रुख खान दो साल पहले पहली बार स्क्रीन पर कोई ऐसा नाम पसंद किया जिसके आख़ीर में खान जुड़ा था। चेहरे पर हल्की सी दाढ़ी भी। लेकिन, लोगों ने इसे किरदार की मांग सोचकर ख़ास तवज्जो नहीं दी। फिर बिल्लू में वह बने साहिर ख़ान। किरदार एक अभिनेता का और नाम फिर से एक मुसलमान का। और, अब वह बने रिज़वान ख़ान, फिल्म माई नेम इज़ खान में। ये असल ज़िंदगी की पहचान को फंतासी की दुनिया तक फैलानी की सोची समझी रणनीति भी हो सकती है और महज एक संयोग भी। लेकिन, दो साल में तीन फिल्मों में अपने किरदारों के मुस्लिम नाम तलाशना खालिस संयोग है, ऐसा लगता नहीं है। और, अब यही नाम शाह रुख के लिए पहली बार परेशानी बनकर आया। बताते हैं कि शिकागो में भारत की आज़ादी की सालगिरह का जश्न मनाने जाते समय नेवार्क एयरपोर्ट पर शाह रुख को पूछताछ के लिए सामान्य कतार से अलग कर लिया गया और करीब दो घंटे बाद भारतीय विदेश सेवा के अधिकारियों की पहल के बाद छोड़ा गया। जिस एक फोन कॉल की उन्हें पूछताछ के दौरान इजाज़त मिली वो उन्होंने की अपने कांग्रेसी दोस्त राजीव शुक्ला को रात करीब डेढ़ बजे और इसके बाद ही इस सुपर सितारे की पेशानी से पसीने की बूंदे गायब हो सकीं।

शाह रुख खान सुपर स्टार हैं, ऐसा अमेरिका तक के लोग मानते हैं। लेकिन, ये बात एयरपोर्ट पर चौकसी कर रहा एक अफसर भी माने ये ज़रूरी नहीं। जिस दिन शाह रुख खान को नेवार्क एयरपोर्ट पर रोका गया, उसी दिन अमेरिका के एक दूसरे इलाके में दो नौजवान अफसरों ने मटरगश्ती कर रहे बॉब डिलन को अपनी पहचान साबित करने को कहा। बॉब डिलन ने अमेरिका की एक पूरी पीढ़ी के दिलों पर राज किया है। लेकिन, इन दोनों नौजवान अफसरों ने इन्हें नहीं पहचाना। डिलन अपनी पहचान साबित करने के लिए कोई सबूत पेश नहीं कर पाए, तो दोनों अफसर इन्हें वहां ले आए जहां डिलन ठहरे हुए थे, वहां पहुंच कर उन्होंने वो सब कुछ किया जो कानून की सुरक्षा की ड्यूटी में लगे अफसरों ने अपनी संतुष्टि के लिए ज़रूरी समझा। लेकिन ना तो किसी अमेरिकी अख़बार ने और ना ही किसी अमेरिकी न्यूज़ चैनल पर इस पर हाय तौबा मचाई। ये एक ऐसे देश की अपने सुरक्षा इंतजाम चाक चौबंद रखने की कवायद है जिसने चंद साल पहले ही आतंक का सबसे भयानक हादसा झेला है। शाह रुख को नेवार्क एयरपोर्ट पर रोके जाने पर जब हिंदुस्तान में महेश भट्ट समेत तमाम लोग मातम मना रहे थे तो सबसे सटीक टिप्पणी शायद सलमान खान की आई। सलमान खान का कहना था कि शाह रुख का नेवार्क एयरपोर्ट पर रोका जाना ही ये बताता है कि न्यूयॉर्क के वर्ल्ड ट्रेड सेंटर हादसे के बाद वहां ऐसी आतंकी साज़िश दोबारा क्यों नहीं हो सकी। वो एलर्ट हैं, लेकिन क्या हम हैं? अपने यहां तो मुंबई में ताज होटल और छत्रपति शिवाजी टर्मिनस पर हमले के अगले ही दिन ना तो कहीं कोई अलहदा सुरक्षा इंतजाम दिखे और ना अब देखे जाते हैं। मुंबई के स्टेशनों पर चौकसी का ये आलम है कि कहीं भी कोई भी आ जा सकता है। और, देश के दूसरे शहरों में हालात कोई इससे बेहतर नहीं हैं।

शाहरुख के साथ अगर ऐसा सिर्फ मुसलमान होने के नाते किया गया, तो उनका गुस्से में आना लाजिमी है। लेकिन, क्या पश्चिमी देशों में ऐसा किसी मुसलमान के साथ पहली बार किया गया है। वहां के हर एयरपोर्ट पर रोज़ाना हज़ारों मुसलमानों को इस बेइज्जती से दो चार होना पड़ता है, तब क्या शाह रुख खान को इसी तरह गुस्सा आया। तो फिर गुस्सा दिखाने के लिए अपने साथ ऐसा होने देने का इंतज़ार क्यों? शाह रुख ने कोई पांच साल पहले एक फिल्म की थी स्वदेश। इसमें उनका किरदार था एक ऐसे नासा वैज्ञानिक का, जो अपने गांव की खुशहाली के लिए स्वदेश में ही बसने का इरादा कर लेता है। लेकिन, उन फिल्मों का क्या, जिन्होंने हिंदी सिनेमा से देसी नायक ही छीन लिया। शाह रुख की फिल्मों ने ही हिंदी सिनेमा को एनआरआई मोहब्बत का चस्का लगाया। करण जौहर और आदित्य चोपड़ा जैसे दोस्तों के साथ मिलकर जैंटलमैन राजू एनआरआई राहुल बन गया। ना उसे हिंदुस्तान के दर्द से मतलब और ना ही रामपुर और नाशिक जैसी जगहों के जज्बात से। वो तो बस वायलिन लेकर जा पहुंचा न्यूयॉर्क की गलियों में। जिस देश में जाने के लिए शाह रुख अब चार बार सोचने की बात कह रहे हैं, ये वही देश है जहां उनकी हाल की तमाम फिल्मों की शूटिंग लगातार एक के बाद एक होती रही। यहां तक कि उनकी निर्माणाधीन फिल्म माई नेम इज़ खान की कहानी भी अमेरिका की ही पृष्ठभूमि में रची गई है। वैसे तो तुलसीदास ज़माने पहले कह गए कि आवत ही हरषत नहीं, नयनन नहीं सनेह। तुलसी तहां ना जाइए चहै कंचन बरसे मेह। लेकिन अपने शोहदे कहां बुजुर्गों की बात मानते हैं। क्या हिंदुस्तान में फिल्म की शूटिंग के लायक लोकेशन्स खत्म हो गई हैं? क्या भारत की वादियां और हरियाली किसी दूसरे देश से कमतर हैं? फिर क्यों शाह रुख जैसे सितारे शूटिंग और शॉपिंग के लिए अमेरिका भागते हैं? क्या भारत में तिरंगा फहरा कर आज़ादी का जश्न नहीं मनाया जा सकता? आज़ादी की सालगिरह मनाने के लिए शिकागो ही क्यों? क्या इसलिए नहीं कि वहां देशभक्ति दिखाने के लिए भी पैसे मिलते हैं? शाह रुख शिकागो में भारत की आज़ादी का जश्न मनाने जाएं, ये अच्छा है, लेकिन तब जब वो अपने खर्चे पर जाएं और बिना किसी तरह के मेहनताने की उम्मीद के। उम्मीद की जानी चाहिए कि शाह रुख ने ऐसा ही किया होगा।

एक बात और जो ऐसे मौकों पर बार बार होती है कि हम तो अतिथि को देवता मानते हैं और हमारे साथ ही विदेश में ऐसा क्यों होता है। तो किसने मना किया है कि जब बिल क्लिंटन हमारे यहां आए तो आप उनकी तलाशी ना लें और जब लिज हर्ले जोधपुर घूमने आएं तो बजाए उनकी तलाशी लेने के सुरक्षा गार्ड उनके आभा मंडल से प्रभावित होकर हाथ जोड़ कर खड़े हो जाएं। दिक्कत यही है कि हम इतिहास से सबक नहीं लेते। हमारे यहां आतंकी हमले अब रोज़मर्रा की ज़िंदगी का हिस्सा बन चुके हैं, बार बार आतंकी हमले होते हैं, मंत्री से लेकर अफसर तक सब चौकसी बढ़ाने की बात करते हैं, लेकिन दो दिन बाद ही सब कुछ वैसे ही ढर्रे पर। शाह रुख खान प्रकरण पर बजाए त्योरियां चढ़ाने के इससे सबक लेने की ज़रूरत है। अमेरिका में वीआईपी संस्कृति वैसी नहीं, जैसी अपने यहां है। अपने यहां तो सांसद तक बैंक मैनेजर से तवज्जो ना मिलने पर उसे चांटा मार देता है। यहां हर नेता खुद को वीआईपी मानता है और वीआईपी की ये मानसिकता अब नेताओं से निकलकर अभिनेताओं और समाज के दूसरे तबकों तक पहुंचने लगी है। तलाशी को अपने यहां तौहीन माना जाता है, जबकि ये है हमारी और आपकी भलाई के लिए ही। पश्चिमी देशों में वर्तमान और पूर्व राष्ट्राध्यक्षों और कैबिनेट के लोगो को छोड़कर कोई भी वीआईपी नहीं होता। वहां एक सुरक्षा पोस्ट पर तैनात कर्मचारी को इस बात से कोई सरोकार नहीं होता कि मेटल डिटेक्टर से होकर गुजरने वाले की हैसियत क्या है, उसकी प्राथमिकता है तो बस इतनी कि कोई भी संदिग्ध सामान उसके दरवाजे से होकर अंदर ना जाने पाए। और, उसकी ड्यूटी में सहायक होकर ही हम अपने जान माल की सुरक्षा की गारंटी खुद बन सकते हैं। लेकिन, ऐसा होता नहीं है। पूर्व राष्ट्रपति ए पी जे अब्दुल कलाम और रक्षा मंत्री रहने के दौरान जॉर्ज फर्नांडीस की तलाशी पर अलग से बहस हो सकती है, लेकिन शाह रुख खान को नेवार्क हवाई अड्डे पर पूछताछ के लिए रोका जाना राष्ट्रीय ग्लानि की बात बताना शायद अतिवाद को हवा देने के सिवा कुछ नहीं।

यह सही है कि अमेरिका में आतंकी हमले के बाद से पश्चिमी देशों में मुसलमानों को एक अलग नज़रिए से देखा जाने लगा है और जिसे उचित ठहराना या इसका समर्थन करना सरासर गलत है। लेकिन, ये उन देशों की मज़बूरी है। इस्लाम को आतंकवाद से सरसरी तौर पर जोड़ देने की जिस मनोदशा की बात कही जाती है, वो तब भी शायद वैसी ही होती अगर वर्ल्ड ट्रेड सेंटर पर हमला एलटीटीई के किसी दस्ते ने किया होता और उसके बाद हर तमिल को संदिग्ध नज़रों से देखा जाता। अमेरिका और पश्चिमी देशों में प्रतिक्रियाएं फौरी तौर की नही होतीं, वो अगली क्रिया की संभावना को दरकिनार करने के लिए सालों साल कोशिश में लगे रहते हैं। शाह रुख खान से पहले आमिर ख़ान और इमरान ख़ान जैसे अभिनेताओं को भी पश्चिमी देशों मे प्रवेश करते वक्त मुश्किलों से गुजरना पड़ा है, लेकिन क्या हमने इससे कोई सबक़ सीखा। क्यों नहीं हमारे हवाई अड्डों पर भी वैसी ही चौकसी बरती जाती है, जैसी नेवार्क या दूसरे हवाई अड्डों पर होती है। किसने कहा है कि जब एंजेलीना जोली या ब्रैड पिट हिंदुस्तान आएं तो हम हाथ जोड़कर किनारे खड़े हो जाएं। लेकिन, हमारी मानसिकता अब भी गोरी चमड़ी को अपने से श्रेष्ठ मानने की है, दो सौ साल की गुलामी का असर 62 साल में चला गया है, ऐसा लगता नहीं है नहीं तो क्यों चिंदी चिंदी कपड़ों में पहुंचे गोरी चमड़ी के लोगों को पांच सितारा होटलों का स्टाफ एड़ी जोड़कर सलाम करता और क्यों एक धोती पहने भारतीय को महज इसलिए पांच सितारा क्लबों से बाहर का रास्ता दिखा दिया जाता कि उसके पैर में साधारण सी चप्पल है।

9 टिप्‍पणियां:

  1. पंकज जी आपकी प्रत्‍येक बात से सहमत हूँ लेकिन फिर भी मन में दर्द है। कभी आप अमेरिका जाएं तब आपको लगेगा कि आप कितना अपमानित होते हैं? यहाँ प्रश्‍न धर्म का नहीं है, ना ही राजनेता और अभिनेता या आम आदमी का। यहाँ प्रश्‍न है कि क्‍या इमिग्रेशन के नाम पर एक विकसित देश 24घण्‍टे की यात्रा कर आये हुए यात्री को थोड़ी सी सुविधा नहीं दे सकती? क्‍या उसे शीघ्रता से नहीं निपटाया जा सकता? वहाँ आम व्‍यक्ति को भी दो घण्‍टे से अधिक समय लगता है बाहर आने में। और उसका हर पल दिल धड़कता रहता है कि कहीं ऐसा कुछ न हो जाए कि उसे वापसी की टिकट कटा दी जाए। इतना डर शायद ठीक नहीं है। यही दर्द कई बार बोल दिया जाता है और हमेशा आम लोग उसे एक प्रक्रिया मानकर चुप बैठ जाते हैं।

    जवाब देंहटाएं
  2. आप द्वारा लिखा उक्त लेख...देर से आया। लेकिन एक शानदार लेख के रूप में आया। लेख पढ़कर बहुत अच्छा लगा। इसके अलावा उसके भीतर एक डिलन का किस्सा भी शानदार जुड़ाव था। वहां शाहरुख से पहले भी बहुत से लोगों के साथ ऐसा हुआ है। वहां की चौकसी..वहां के निवासियों के लिए खुशी की बात है..हमारे वीआईपीओं के लिए भले ही बुरी हो। कुछ दिन पहले मैंने भास्कर में पढ़ा था कि एक पाकिस्तान लेखक को भी इस तरह रोक लिया गया था, लेकिन जब जांच अधिकारियों को पता चला कि Why do people hate America उनके द्वारा लिखी हुई है तो उन्होंने कहा कि अगर इतना ही बताते देते तो हम आपकी जांच ही न करते।

    जवाब देंहटाएं
  3. @ अर्शिया - वाकई चिंतनीय अर्शिया जी।
    @ डॉ. श्रीमती अजित गुप्ता - हर हादसे से सबक़ लेना ही समझदार की निशानी है।
    @ कुलवंत हैप्पी - कुलवंत भाई, ये लेख लिखा तो हादसे के दिन ही गया था लेकिन चूंकि इसे कुछ अखबारों को भी भेजा था सो लिहाजा इंतज़ार रहा कि पहले वहां छप जाए फिर यहां डाला जाए।
    शुक्रिया आप सभी लोगों का, टिप्पणियों के लिए..आते रहिएगा।

    जवाब देंहटाएं
  4. हिम्मत से सच कहो तों बुरा मानते है लोग ..........पर ज़रूरी है /जय हो

    जवाब देंहटाएं
  5. पंकज भाई पहले एक शिकायत, 5 अगस्त के बाद 15 अगस्त को अगली पोस्ट, बहुत नाइंसाफी है ये. रही बात अतिथि देवो भव की तो हम तो बुश के भारत आने पर विदेशी कुत्तो तक को राजघाट पर इधर-उधर मुँह मारने की इजाज़त तक दे देते हैं. हे राम...

    जवाब देंहटाएं
  6. काश अमेरिका को गरियाने की जगह उससे कुछ सबक ले पाता हमारा देश....

    जवाब देंहटाएं
  7. Jeene dijiye inhe khayalo ke bhuchal me;
    kyu nahak apni lekhni ko taklif dete hai.....

    regards
    punit

    जवाब देंहटाएं
  8. आप इस अद्भुत विषय के लिए बहुत बहुत धन्यवाद कि

    जवाब देंहटाएं