सोमवार, 3 अगस्त 2009

सहकारिता को सियासत का श्राप - 2


महाराष्ट्र में गन्ना खेती पूरे सूबे में होती हो, ऐसा भी नहीं है। बामुश्किल पांच फीसदी कृषि योग्य भूमि पर होने वाली गन्ने की खेती पूरे राज्य की खेती के लिए मिलने वाली आपूर्ति का 60 फीसदी अकेले डकार जाती है। ये गन्ने की खेती का ही असर है कि इन इलाकों में भूजल का स्तर 15 मीटर से गिरकर 65 मीटर या उससे भी नीचे चला गया है। और, ये सब होता है उस गन्ना लॉबी को फायदा पहुंचाने के लिए जिसकी मुख़ालिफत करने वाला फिलहाल तो महाराष्ट्र में कोई नहीं दिखता। सहकारिता के बूते कैसे नेताओं ने अपनी किस्मत चमकाई, इसके लिए बस एक उदाहरण काफी है।

महाराष्ट्र में सहकारिता आंदोलन की अगुआई करने वालों में से प्रमुख रहे हैं विट्ठल राव विखे पाटिल। देश की पहली सहकारी चीनी मिल विट्ठल राव विखे पाटिल ने अहमदनगर जिले में लगाई थी सन 1950 में। इसे एशिया की भी पहली सहकारी चीनी मिल माना जाता है। इस चीनी मिल से अहमदनगर जिले के किसानों को फायदा हुआ ना हुआ हो, विखे पाटिल परिवार अरबपति ज़रूर हो गया। पहले इस चीनी मिले से निकलने वाली खोई के इस्तेमाल के लिए पेपर मिल लगी। फिर चीनी बनाते समय निकलने वाले शीरे से शराब बनाने के लिए डिस्टलरी लगी। बायोगैस प्लांट और केमिकल प्लांट भी खुल गए। 14 साल बाद ही विखे पाटिल परिवार ने चीनी का पैसा पढ़ाई का धंधा जमाने में लगाना शुरू कर दिया और देखते ही देखते डिग्री कॉलेज से लेकर इंजीनियरिंग कॉलेज और मेडिकल कॉलेज तक खोल डाले। जल्दी ही इस परिवार ने एक भारी भरकम अस्पताल और एक सहकारी बैंक भी खोल लिया। हवा का रुख समझना विखे पाटिल परिवार को खूब आता है। विखे पाटिल परिवार के वारिस बाला साहेब को कांग्रेस हारती दिखी तो वह शिवसेना में चले गए और एनडीए की सरकार में 1999 में राज्य मंत्री और फिर 2002 में कैबिनेट मंत्री हो गए। 2004 में बाला साहेब विखे पाटिल फिर कांग्रेस में लौट आए। एक अंग्रेजी अख़बार ने जब ‘सहकारिता’ के ज़रिए अरबपति बने विखे पाटिल परिवार की संपत्ति की खोजबीन की तो महाराष्ट्र की सियासत में हंगामा मच गया। लेकिन लोगों ने ये भी खोज निकाला कि ये परिवार तो बिजली बेचने का भी काम करता है।

अहमदनगर के करीब दो सौ गांवों को बिजली पहुंचाने का काम भी सहकारिता के नाम पर किया गया। पहले एक सोसाइटी बनाई गई, फिर महाराष्ट्र राज्य बिजली बोर्ड से बिजली खरीदी गई। ये सरकारी बिजली बिकी तो खूब लेकिन सरकार को फूटी कौड़ी भी नहीं मिली। सोसाइटी पर बकाया कोई चार सौ करोड़ का हो चुका है लेकिन, मामले को अब अदालती दांव पेंचों में उलझा दिया गया है।

महाराष्ट्र में सहकारिता के नाम पर करोड़ों बनाने का खेल सूबे की सरकार से नूरा कुश्ती करके खेला जाता है। नेताओं ने नियम ऐसे बनवाए कि अफसर चाहे तो भी कुछ नही कर सकता। कोई भी शख्स दस आदमियों को जोड़कर सहकारी समिति बना सकता है। सहकारी समिति को ऋण मिल सके इसके लिए गारंटी देने की ज़िम्मेदारी राज्य सरकार की है। और, ये गारंटी भी आधी आधी नहीं बल्कि 90 और दस फीसदी के अनुपात में होती है, यानी कर्ज़ ना चुकता हुआ तो इसका 90 फीसदी चुकाने की ज़िम्मेदारी राज्य सरकार की है। बस सारा खेल इसी पेंच के ज़रिए चलता आ रहा है और आगे भी इसे कोई रोक पाएगा, कहा नहीं जा सकता। रिजर्व बैंक और नाबार्ड के नियमों के मुताबिक बिना राज्य सरकार की गारंटी के सहकारी समितियों को कैश क्रेडिट नहीं मिल सकता। बीच में महाराष्ट्र सरकार ने इसके लिए सख्ती भी दिखाई, लेकिन आसन्न विधानसभा चुनावों को देखते हुए कांग्रेस और राकांपा दोनों ने सरकारी खज़ाने को खुला छोड़ देने में ही भलाई समझी।

कर्ज़ में डूबी महाराष्ट्र की सहकारी चीनी मिलों की हालत ये है कि 130 में से शायद ही दो दर्जन भी अपने बूते गन्ना किसानों को न्यूनतम समर्थन मूल्य देने की सूरत में न हों। विश्व बैंक ने महाराष्ट्र सरकार के कामकाज पर अक्सर आंखें तरेरी हैं, लेकिन जब दोषी और जज एक ही पाले में हों तो भला सुनने वाला कौन है? महाराष्ट्र सरकार ने बीच में ये नीति बनाई थी कि वो सहकारी चीनी मिलों को आत्मनिर्भर होने के लिए ज़ोर लगाएगी, ताकि वो सरकारी कर्ज चुकता कर सकें, लेकिन अफसोस ऐसा हो न सका। और, विश्व बैंक को भी ये मानना पड़ा कि महाराष्ट्र में सहकारिता आंदोलन अपने उद्देश्य पूरे नहीं कर सका और वहां जनता की कीमत पर चंद लोग फायदा लूट रहे हैं।

लेकिन, ये सूरते हाल शायद अब बदल सकें क्योंकि केंद्र में सरकार भले अपनी हो, लेकिन घर का खर्च चलाने की जिम्मेदारी तो महाराष्ट्र सरकार को ही उठानी होगी। उत्तर प्रदेश में इसकी शुरुआत हो चुकी है और अगर महाराष्ट्र की सहकारी चीनी मिलों के निजी क्षेत्रों में जाने की बात उठी तो ज़ाहिर है मुंबई से लेकर दिल्ली तक कई कुर्सियां एक साथ हिलने लगेंगी। उधर, धीरे धीरे ही सही लेकिन निजी कंपनियों ने भी खेती की महत्ता समझ ली है। खेती किसानी के लिए हर साल बजट में जो प्रोत्साहन राशियां दी जा रही हैं, उनका फायदा लेने के लिए तमाम कॉरपोरेट कंपनियों ने अपने घोड़े दौड़ाने शुरू कर दिए हैं। ये कंपनियां किसानों की ज़मीन पर अनुबंध खेती करवा रही हैं। किसान एक तयशुदा मानकों के हिसाब से फसल उगाता है और कंपनी उसकी सरकारी दाम से ज़्यादा कीमत देकर खरीद कर लेती है।

गोदरेज, टाटा, रिलायंस और भारती जैसी कंपनियों ने कृषि उत्पादों की खरीद फरोख्त का देशव्यापी काम शुरू कर दिया है। पेप्सिको पंजाब में टमाटर, मिर्च, मूंगफली खरीद रही है, आईटीसी ने सब्जी और फल खरीदने शुरू कर दिए। टाटा ने पंजाब और कर्नाटक समेट महाराष्ट्र में भी फूल और सब्जी की अनुबंध खेती शुरू कर ही दी है, पैंटालून भी महाराष्ट्र में किसानों की सहकारी समितियां बनाकर आम का धंधा शुरू कर चुकी है। सहकारी समितियों में चलने वाली गन्ने की सियासत से उकताए छोटे किसानों ने भी अगर गन्ने की खेती छोड़ इन बड़ी कंपनियों का दामन थाम लिया तो चीनी वाकई कड़वी हो सकती है। ऐसा ना होने देने के लिए महाराष्ट्र की चीनी मिलों को पूरा करना होगा अपना घाटा, जिसका इलाज़ भी निजीकरण की कड़वी दवाई में ही नज़र आता है।

(समाप्त)

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