गुरुवार, 20 अगस्त 2009

माई नेम इज़ खान, तो क्या?


सत्रह साल, पांच दर्जन से ज़्यादा फिल्में, ढेरों पुरस्कार और बहुत सारा प्यार। दिल्ली के एक लड़के का मुंबई जाकर कामबायी की नई इबारत लिखने का ये एक ऐसा सफर है, जिसे किसी फिल्म की कहानी में आसानी से तब्दील किया जा सकता है। एक मुसलमान लड़के की एक हिंदू लड़की से मोहब्बत। और, कामयाबी का आसमान छूने के इस सफर में धर्म कभी रुकावट बनकर नहीं आया। यहां तक कि बच्चों की परवरिश में भी। ये कहानी है शाह रुख खान की। वो शाह रुख जिनके भारतीय उपमहाद्वीप के अलावा विदेशों खासकर पश्चिमी देशों में करोड़ों दीवाने हैं। लेकिन, इस कलाकार की पिछले दो साल में रिलीज़ हुई फिल्मों में उनके किरदारों को ध्यान से देखें तो आपको इसके भीतर एक ऐसी अंतर्धारा नज़र आएगी, जो कम लोगों ने ही महसूस की। फिल्म चक दे इंडिया में वह कबीर खान बने। करियर के 15 साल राजू, राहुल और ना जाने क्या क्या बनते रहे शाह रुख खान दो साल पहले पहली बार स्क्रीन पर कोई ऐसा नाम पसंद किया जिसके आख़ीर में खान जुड़ा था। चेहरे पर हल्की सी दाढ़ी भी। लेकिन, लोगों ने इसे किरदार की मांग सोचकर ख़ास तवज्जो नहीं दी। फिर बिल्लू में वह बने साहिर ख़ान। किरदार एक अभिनेता का और नाम फिर से एक मुसलमान का। और, अब वह बने रिज़वान ख़ान, फिल्म माई नेम इज़ खान में। ये असल ज़िंदगी की पहचान को फंतासी की दुनिया तक फैलानी की सोची समझी रणनीति भी हो सकती है और महज एक संयोग भी। लेकिन, दो साल में तीन फिल्मों में अपने किरदारों के मुस्लिम नाम तलाशना खालिस संयोग है, ऐसा लगता नहीं है। और, अब यही नाम शाह रुख के लिए पहली बार परेशानी बनकर आया। बताते हैं कि शिकागो में भारत की आज़ादी की सालगिरह का जश्न मनाने जाते समय नेवार्क एयरपोर्ट पर शाह रुख को पूछताछ के लिए सामान्य कतार से अलग कर लिया गया और करीब दो घंटे बाद भारतीय विदेश सेवा के अधिकारियों की पहल के बाद छोड़ा गया। जिस एक फोन कॉल की उन्हें पूछताछ के दौरान इजाज़त मिली वो उन्होंने की अपने कांग्रेसी दोस्त राजीव शुक्ला को रात करीब डेढ़ बजे और इसके बाद ही इस सुपर सितारे की पेशानी से पसीने की बूंदे गायब हो सकीं।

शाह रुख खान सुपर स्टार हैं, ऐसा अमेरिका तक के लोग मानते हैं। लेकिन, ये बात एयरपोर्ट पर चौकसी कर रहा एक अफसर भी माने ये ज़रूरी नहीं। जिस दिन शाह रुख खान को नेवार्क एयरपोर्ट पर रोका गया, उसी दिन अमेरिका के एक दूसरे इलाके में दो नौजवान अफसरों ने मटरगश्ती कर रहे बॉब डिलन को अपनी पहचान साबित करने को कहा। बॉब डिलन ने अमेरिका की एक पूरी पीढ़ी के दिलों पर राज किया है। लेकिन, इन दोनों नौजवान अफसरों ने इन्हें नहीं पहचाना। डिलन अपनी पहचान साबित करने के लिए कोई सबूत पेश नहीं कर पाए, तो दोनों अफसर इन्हें वहां ले आए जहां डिलन ठहरे हुए थे, वहां पहुंच कर उन्होंने वो सब कुछ किया जो कानून की सुरक्षा की ड्यूटी में लगे अफसरों ने अपनी संतुष्टि के लिए ज़रूरी समझा। लेकिन ना तो किसी अमेरिकी अख़बार ने और ना ही किसी अमेरिकी न्यूज़ चैनल पर इस पर हाय तौबा मचाई। ये एक ऐसे देश की अपने सुरक्षा इंतजाम चाक चौबंद रखने की कवायद है जिसने चंद साल पहले ही आतंक का सबसे भयानक हादसा झेला है। शाह रुख को नेवार्क एयरपोर्ट पर रोके जाने पर जब हिंदुस्तान में महेश भट्ट समेत तमाम लोग मातम मना रहे थे तो सबसे सटीक टिप्पणी शायद सलमान खान की आई। सलमान खान का कहना था कि शाह रुख का नेवार्क एयरपोर्ट पर रोका जाना ही ये बताता है कि न्यूयॉर्क के वर्ल्ड ट्रेड सेंटर हादसे के बाद वहां ऐसी आतंकी साज़िश दोबारा क्यों नहीं हो सकी। वो एलर्ट हैं, लेकिन क्या हम हैं? अपने यहां तो मुंबई में ताज होटल और छत्रपति शिवाजी टर्मिनस पर हमले के अगले ही दिन ना तो कहीं कोई अलहदा सुरक्षा इंतजाम दिखे और ना अब देखे जाते हैं। मुंबई के स्टेशनों पर चौकसी का ये आलम है कि कहीं भी कोई भी आ जा सकता है। और, देश के दूसरे शहरों में हालात कोई इससे बेहतर नहीं हैं।

शाहरुख के साथ अगर ऐसा सिर्फ मुसलमान होने के नाते किया गया, तो उनका गुस्से में आना लाजिमी है। लेकिन, क्या पश्चिमी देशों में ऐसा किसी मुसलमान के साथ पहली बार किया गया है। वहां के हर एयरपोर्ट पर रोज़ाना हज़ारों मुसलमानों को इस बेइज्जती से दो चार होना पड़ता है, तब क्या शाह रुख खान को इसी तरह गुस्सा आया। तो फिर गुस्सा दिखाने के लिए अपने साथ ऐसा होने देने का इंतज़ार क्यों? शाह रुख ने कोई पांच साल पहले एक फिल्म की थी स्वदेश। इसमें उनका किरदार था एक ऐसे नासा वैज्ञानिक का, जो अपने गांव की खुशहाली के लिए स्वदेश में ही बसने का इरादा कर लेता है। लेकिन, उन फिल्मों का क्या, जिन्होंने हिंदी सिनेमा से देसी नायक ही छीन लिया। शाह रुख की फिल्मों ने ही हिंदी सिनेमा को एनआरआई मोहब्बत का चस्का लगाया। करण जौहर और आदित्य चोपड़ा जैसे दोस्तों के साथ मिलकर जैंटलमैन राजू एनआरआई राहुल बन गया। ना उसे हिंदुस्तान के दर्द से मतलब और ना ही रामपुर और नाशिक जैसी जगहों के जज्बात से। वो तो बस वायलिन लेकर जा पहुंचा न्यूयॉर्क की गलियों में। जिस देश में जाने के लिए शाह रुख अब चार बार सोचने की बात कह रहे हैं, ये वही देश है जहां उनकी हाल की तमाम फिल्मों की शूटिंग लगातार एक के बाद एक होती रही। यहां तक कि उनकी निर्माणाधीन फिल्म माई नेम इज़ खान की कहानी भी अमेरिका की ही पृष्ठभूमि में रची गई है। वैसे तो तुलसीदास ज़माने पहले कह गए कि आवत ही हरषत नहीं, नयनन नहीं सनेह। तुलसी तहां ना जाइए चहै कंचन बरसे मेह। लेकिन अपने शोहदे कहां बुजुर्गों की बात मानते हैं। क्या हिंदुस्तान में फिल्म की शूटिंग के लायक लोकेशन्स खत्म हो गई हैं? क्या भारत की वादियां और हरियाली किसी दूसरे देश से कमतर हैं? फिर क्यों शाह रुख जैसे सितारे शूटिंग और शॉपिंग के लिए अमेरिका भागते हैं? क्या भारत में तिरंगा फहरा कर आज़ादी का जश्न नहीं मनाया जा सकता? आज़ादी की सालगिरह मनाने के लिए शिकागो ही क्यों? क्या इसलिए नहीं कि वहां देशभक्ति दिखाने के लिए भी पैसे मिलते हैं? शाह रुख शिकागो में भारत की आज़ादी का जश्न मनाने जाएं, ये अच्छा है, लेकिन तब जब वो अपने खर्चे पर जाएं और बिना किसी तरह के मेहनताने की उम्मीद के। उम्मीद की जानी चाहिए कि शाह रुख ने ऐसा ही किया होगा।

एक बात और जो ऐसे मौकों पर बार बार होती है कि हम तो अतिथि को देवता मानते हैं और हमारे साथ ही विदेश में ऐसा क्यों होता है। तो किसने मना किया है कि जब बिल क्लिंटन हमारे यहां आए तो आप उनकी तलाशी ना लें और जब लिज हर्ले जोधपुर घूमने आएं तो बजाए उनकी तलाशी लेने के सुरक्षा गार्ड उनके आभा मंडल से प्रभावित होकर हाथ जोड़ कर खड़े हो जाएं। दिक्कत यही है कि हम इतिहास से सबक नहीं लेते। हमारे यहां आतंकी हमले अब रोज़मर्रा की ज़िंदगी का हिस्सा बन चुके हैं, बार बार आतंकी हमले होते हैं, मंत्री से लेकर अफसर तक सब चौकसी बढ़ाने की बात करते हैं, लेकिन दो दिन बाद ही सब कुछ वैसे ही ढर्रे पर। शाह रुख खान प्रकरण पर बजाए त्योरियां चढ़ाने के इससे सबक लेने की ज़रूरत है। अमेरिका में वीआईपी संस्कृति वैसी नहीं, जैसी अपने यहां है। अपने यहां तो सांसद तक बैंक मैनेजर से तवज्जो ना मिलने पर उसे चांटा मार देता है। यहां हर नेता खुद को वीआईपी मानता है और वीआईपी की ये मानसिकता अब नेताओं से निकलकर अभिनेताओं और समाज के दूसरे तबकों तक पहुंचने लगी है। तलाशी को अपने यहां तौहीन माना जाता है, जबकि ये है हमारी और आपकी भलाई के लिए ही। पश्चिमी देशों में वर्तमान और पूर्व राष्ट्राध्यक्षों और कैबिनेट के लोगो को छोड़कर कोई भी वीआईपी नहीं होता। वहां एक सुरक्षा पोस्ट पर तैनात कर्मचारी को इस बात से कोई सरोकार नहीं होता कि मेटल डिटेक्टर से होकर गुजरने वाले की हैसियत क्या है, उसकी प्राथमिकता है तो बस इतनी कि कोई भी संदिग्ध सामान उसके दरवाजे से होकर अंदर ना जाने पाए। और, उसकी ड्यूटी में सहायक होकर ही हम अपने जान माल की सुरक्षा की गारंटी खुद बन सकते हैं। लेकिन, ऐसा होता नहीं है। पूर्व राष्ट्रपति ए पी जे अब्दुल कलाम और रक्षा मंत्री रहने के दौरान जॉर्ज फर्नांडीस की तलाशी पर अलग से बहस हो सकती है, लेकिन शाह रुख खान को नेवार्क हवाई अड्डे पर पूछताछ के लिए रोका जाना राष्ट्रीय ग्लानि की बात बताना शायद अतिवाद को हवा देने के सिवा कुछ नहीं।

यह सही है कि अमेरिका में आतंकी हमले के बाद से पश्चिमी देशों में मुसलमानों को एक अलग नज़रिए से देखा जाने लगा है और जिसे उचित ठहराना या इसका समर्थन करना सरासर गलत है। लेकिन, ये उन देशों की मज़बूरी है। इस्लाम को आतंकवाद से सरसरी तौर पर जोड़ देने की जिस मनोदशा की बात कही जाती है, वो तब भी शायद वैसी ही होती अगर वर्ल्ड ट्रेड सेंटर पर हमला एलटीटीई के किसी दस्ते ने किया होता और उसके बाद हर तमिल को संदिग्ध नज़रों से देखा जाता। अमेरिका और पश्चिमी देशों में प्रतिक्रियाएं फौरी तौर की नही होतीं, वो अगली क्रिया की संभावना को दरकिनार करने के लिए सालों साल कोशिश में लगे रहते हैं। शाह रुख खान से पहले आमिर ख़ान और इमरान ख़ान जैसे अभिनेताओं को भी पश्चिमी देशों मे प्रवेश करते वक्त मुश्किलों से गुजरना पड़ा है, लेकिन क्या हमने इससे कोई सबक़ सीखा। क्यों नहीं हमारे हवाई अड्डों पर भी वैसी ही चौकसी बरती जाती है, जैसी नेवार्क या दूसरे हवाई अड्डों पर होती है। किसने कहा है कि जब एंजेलीना जोली या ब्रैड पिट हिंदुस्तान आएं तो हम हाथ जोड़कर किनारे खड़े हो जाएं। लेकिन, हमारी मानसिकता अब भी गोरी चमड़ी को अपने से श्रेष्ठ मानने की है, दो सौ साल की गुलामी का असर 62 साल में चला गया है, ऐसा लगता नहीं है नहीं तो क्यों चिंदी चिंदी कपड़ों में पहुंचे गोरी चमड़ी के लोगों को पांच सितारा होटलों का स्टाफ एड़ी जोड़कर सलाम करता और क्यों एक धोती पहने भारतीय को महज इसलिए पांच सितारा क्लबों से बाहर का रास्ता दिखा दिया जाता कि उसके पैर में साधारण सी चप्पल है।

बुधवार, 5 अगस्त 2009

शर्म इनको मगर नहीं आती!


हिंदुस्तानी सिनेमा जिसे लोग प्यार से, नफरत से या फिर जैसे भी बॉलीवुड कहते हैं, दरअसल इस देश की विरासत का असली आइना है। ये वो जगह है जहां एक हिंदू डायरेक्टर एक मुस्लिम कैमरामैन पर अपने ज़मीर से ज़्यादा भरोसा करता है। ये वो जगह है जहां एक सिख आर्ट डायरेक्टर एक ईसाई प्रोडक्शन कंट्रोलर के बुलावे पर रात 12 बजे भी सुनसान फिल्म सिटी तक अकेले एक ऑटो लेकर पहुंच जाता है। मुंबई की सूरत बिगाड़ने की कोशिश में कितने ही बम धमाके हो चुके हों, लेकिन फिल्म इंडस्ट्री की गंगा जमुनी तहज़ीब पर किसी ने आंच नहीं आने दी। लेकिन, इमरान हाशमी ने जो किया वो एक ऐसी चिंगारी है, जिसकी तपिश आग से ज़्यादा ख़तरनाक है। मुंबई का पाली हिल इलाका कोई जन्नत तो नहीं कि हर सितारा बस वहीं जाकर बसना चाहे। और जिन दिलीप कुमार के पड़ोस में बसने के ख्वाहिशमंद इमरान हाशमी हैं, वो भी तो आखिर मुसलमान ही हैं और पाली हिल पर बरसों से आशियाना बसाए हैं। खुद इमरान हाशमी बरसों से बांद्रा में ही रह रहे हैं, और कभी उन्होंने ये नहीं कहा कि एक मुसलमान होने के नाते उनके साथ कोई दिक्कत पेश आई हो। तो इसे बस एक खास सोसाइटी में बसने की तमन्ना को लगी ठेस कहें कि या फिर लाइम लाइट में लौटने की छटपटाहट, या फिर मामला इससे भी कहीं ज़्यादा संगीन है। मुंबई में लोग अब खुलकर पूछने लगे हैं कि आखिर भट्ट कैंप के लोगों को अपने मुसलमान होने का इलहाम ठीक उन्हीं दिनों क्यों होता है, जब उनकी कोई फिल्म रिलीज़ होने वाली होती है। अपने रोज़ेदार होने की सिर पर गोल टोपी लगाकर नुमाइश करने वाले महेश भट्ट को एकाएक मुंबई में इस्लाम ख़तरे में तभी क्यों दिखाई देने लगता है, जब उनके प्रोडक्शन हाउस के तार पाकिस्तान से जुड़ते दिखाई देने लगते हैं। दो दिन पहले ख़बर आती है कि भट्ट कैंप एक हिंदू लड़की और एक मुस्लिम लड़के की प्रेम कहानी को लाहौर में फिल्माने जा रहा है और फिर वो कुरेद देते हैं एक ऐसा किस्सा, जिसको इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के टीआरपी रिपोर्टर हाथों हाथ ले उड़ते हैं।
तह तक जाने की किसी को फुर्सत नहीं है और महेश भट्ट जैसा चतुर फिल्मकार इन टीआरपी रिपोर्टर्स को तह तक जाने भी नहीं देता। सब जानते हैं कि भट्ट कैंप को विवाद खड़े करने में महारत हासिल है, लेकिन कोई नहीं जानता कि इसका मक़सद क्या है। कभी व्यस्ततम इलाकों, कभी लोकल ट्रेनों और कभी होटलों पर धमाके करने वालों को जो मकसद सैकड़ों लोगों की जाने लेकर भी हासिल नहीं हुआ, वो ऐसी बातें फैलाने वाले चंद चैनलों पर अपने चेहरे दिखाकर हासिल कर लेते हैं। फिर क्या फर्क है सरहद पार फिरकापरस्ती की साज़िश रचने वालों और सरहद के इस पार बैठकर लोगों को सपने बेचने वालों में। इमरान हाशमी आए तो उनकी हरकतें जैसी भी रहीं, हिंदी फिल्मों के दर्शकों ने उन्हें हाथोंहाथ लिया। किसी ने ये नहीं सोचा कि अरे ये तो मुसलमान हीरो है। सिनेमा कोई भी दर्शक कलाकार का धर्म और उसकी जाति देखकर देखने जाता भी नहीं है। ऐसा होता तो भला दिलीप कुमार कैसे दादा साहब फाल्के पुरस्कार जीतने लायक कलाकार बन पाते और क्यों हिंदी सिनेमा के आज के टॉप तीन सितारे शाहरुख, आमिर और सलमान मुसलमान ही होते। महेश भट्ट की जाती तौर पर हर पत्रकार इज्जत करता है तो इसलिए कि उन्होंने कभी सारांश, अर्थ और डैडी जैसी फिल्में बनाईं। इसलिए नहीं कि इसी शख्स ने हिंदी सिनेमा में सेक्स और चुंबन को मर्डर, कसूर, राज़ और जिस्म जैसी फिल्मों से सामूहिक स्वीकृति दिलाने की भी कोशिश की।
महेश भट्ट ने इमरान हाशमी के हो हल्ले में शामिल होकर अपना ही नाम ख़राब किया, इमरान हाशमी की बेअकली को देखते हुए एक बारगी उन्हें ऐसा सोचने के लिए माफ किया जा सकता है कि उन्हें कोई सोसायटी इसलिए घर नहीं दे रही कि वो मुसलमान हैं। लेकिन, महेश भट्ट! उनका ऐसा सोचना माफी के काबिल नहीं हो सकता। हो सकता है ऐसा उन्होंने अपने भांजे इमरान हाशमी को लाइम लाइट में लाने के लिए किया हो, लेकिन इससे इमरान के प्रशंसक नाराज़ ही होंगे। इमरान हाशमी की आखिरी रिलीज़ फिल्म है जन्नत। फिल्म ने भट्ट कैंप के गोरिल्ला प्रचार के चलते अपनी कमाई भले निकाल ली हो, लेकिन एक सधी हुई फिल्म इसे किसी ने नहीं माना। इस फिल्म में भट्ट कैंप ने एक सट्टेबाज़ को हीरो बनाने की कोशिश की। यही सट्टेबाज अब एक टीवी जर्नलिस्ट के रोल में परदे पर लौटने को बेकरार है फिल्म रफ्तार में। लेकिन इमरान की मार्केट वैल्यू कम देख इसके प्रोड्यूसर्स ने फिल्म की रिलीज़ टाल दी है और इमरान को लगा कि मज़हब का इस्तेमाल करके ही सही कम से कम वो लाइम लाइट में तो आ सकते हैं।
महेश भट्ट के जुहू दफ्तर में इससे पहले भी प्रचार की साजिशें बनती रही हैं और आगे भी बनती रहेंगी, लेकिन अब वक्त है कि मीडिया कौए के पीछे दौड़ने से पहले कान को टटोल कर देख ले। मीडिया को इस्तेमाल करने का हुनर महेश भट्ट सरीखे लोगों से इमरान हाशमी जैसे सीख रहे हैं और ये एक ऐसी विरासत की पीढ़ी हस्तांतरण है, जो देश के ताने बाने के लिए ख़तरनाक ही नहीं बल्कि गंभीर भी है। खुद को चर्चा में बनाए रखने के लिए मीडिया को इस्तेमाल करने का हुनर नेताओं से अभिनेताओं से सीखा है। अब वो फिल्मों की कहानियों में विवाद ढूंढते हैं। कभी कटी हुई दाढ़ी वाले सिख का रोल करके तो कभी विवादास्पद विषयों पर फिल्म बनाकर। वो हर हाल में चर्चा में बने रहना चाहते हैं। कभी दर्शकों को अभिनेताओं की निज़ी ज़िंदगी में तांकझांक करने वाले किस्से कहानियां रोमांचित करते थे, लेकिन इलेक्ट्रानिक मीडिया के बढ़ते मायाजाल और अंतरजाल की तरक्की ने पीत पत्रकारिता को किसी एक या दो पत्रिकाओं तक सीमित नहीं रहने दिया है। तमाम टीवी न्यूज़ चैनलों ने पीत पत्रकारिता के हर स्तर को पाताल तक पहुंचा दिया है, अब दर्शक निजी जानकारी की बजाय कौतूहल से रोमांचित होता है और ये कौतूहल खोजने के लिए बाकायदा एजेंसियां काम कर रही है। मुंबई की ये एजेंसियां फिल्म निर्माताओं और अभिनेताओं को वो विचार पैसे लेकर मुहैया कराती हैं, जिनसे कि वो चर्चा में बने रह सकें। और तो और अब तो फिल्म निर्माता और अभिनेता खुद अपने करीबी पत्रकारों से ये जानना चाहते हैं कि वो क्या करें कि हंगामा हो जाए। नहीं तो और क्या वजह हो सकती है कि महेश भट्ट जैसे शख्स को अब कामयाबी के लिए जिस्म, पाप, रोग, वो लम्हे, गैंगस्टर और धोखा जैसी कहानियां लिखनी पड़ती हैं।
अपनी मां को अपने पिता की दूसरी बीवी (और कई बार गैरकानूनी भी) बताकर सुर्खियां बटोरने वाले महेश भट्ट ने ज़ख्म को अपनी मां की असली कहानी बताई थी। लेकिन, उनके इस शिगूफे की उन्हीं के घर वालों ने बाकायदा ट्रेड पत्रिकाओं में इश्तेहार देकर हवा निकाल दी थी और दुनिया को ये बताया था कि महेश भट्ट के पिता ने दो शादियां उस दौर में की थीं, जब हिंदू मैरिज एक्ट अमल में नहीं आया था और उनकी दोनों बीवियों को बराबर का कानूनी दर्ज़ा हासिल था। हां, ये और बात है कि महेश भट्ट की अपनी पहली बीवी की हालत इन दिनों ठीक नहीं है और वो महेश भट्ट की बजाय अपनी बेटी पूजा भट्ट के साथ रहती हैं। लेकिन, क्या महेश भट्ट ने कभी इस बारे में मीडिया से बात की? क्यों वो ये नहीं बताते कि आखिर डी कंपनी के धुर विरोधी पुजारी गैंग का हमला हर बार उन्हीं के दफ्तर पर क्यों होता है?
नायकों के विलुप्ति के इस दौर में चर्चा भलमनसाहत की कम और बुराई की ज़्यादा होती है। नकारात्मक चीज़ें अब लोगों को ज़्यादा लुभाती है। सलमान खान की शरारतों का ज़िक्र हर तरफ होता है लेकिन उनके एनजीओ पर शायद ही किसी ने तफसील से रिपोर्ट बनाई हो। सुलभ पत्रकारिता का अगर किसी ने सबसे ज़्यादा फायदा उठाया है तो उन लोगों ने, जिनकी जुमले बनाने में दिलचस्पी सबसे ज़्यादा है। महेश भट्ट जैसे लोगों ने मुसलमानों का खैरख्वाह होने का धोखा खड़ा करके सबसे ज़्यादा नुकसान भी इसी कौम का किया है। इमरान हाशमी जैसे रिश्तेदारों को छोड़ दें तो क्या वो बता सकते हैं कि आखिर नए कलाकारों को मौका देने वाले उनके हौसले ने कितने मुस्लिम लड़कों या लड़कियों को हीरो या हीरोइन बनाया है। और, जिन मुसलमानों को वो पटकथा लेखन या संगीतकार का काम देते भी हैं, उन्हें कितना पैसा दिया जाता है। भट्ट साहब अक्सर अपने करीबी दोस्त पत्रकारों को किसी खास वजह को लेकर शोर मचाने की गुजारिश करता एसएमएस भेजते हैं। इसकी वजह क्या हो सकती है भला? इमरान हाशमी को एक खास सोसाइटी में फ्लैट ना दिए जाने पर भी भट्ट कैंप ने ही बासी कढ़ी में उबाल लाने की कोशिश की। लेकिन, इस बार मामला उलटा पड़ता दिख रहा है। खुद फिल्म इंडस्ट्री के लोग ही उनकी मुख़ालिफ़त में खड़े होते नज़र आ रहे हैं। दिल्ली में अपने खास लोगों से वो एसएमएस भेजकर अब मदद की गुजारिश कर रहे हैं। खुद उन्हें लगने लगा है कि मामला इस बार उल्टा पड़ सकता है। इमरान हाशमी और महेश भट्ट दोनों के खिलाफ सांप्रदायिक वैमनस्यता फैलाने की आपराधिक शिकायत की जा चुकी है और महेश भट्ट का पैतरा शायद पहली बार उल्टा उन्हीं के गले पड़ता नज़र आ रहा है।

यह आलेख 5 अगस्त 2009 के 'नई दुनिया' के संपादकीय पृष्ठ पर प्रकाशित हुआ। लिंक है -

http://www.naidunia.com/Details.aspx?id=79286&boxid=29708720

सोमवार, 3 अगस्त 2009

सहकारिता को सियासत का श्राप - 2


महाराष्ट्र में गन्ना खेती पूरे सूबे में होती हो, ऐसा भी नहीं है। बामुश्किल पांच फीसदी कृषि योग्य भूमि पर होने वाली गन्ने की खेती पूरे राज्य की खेती के लिए मिलने वाली आपूर्ति का 60 फीसदी अकेले डकार जाती है। ये गन्ने की खेती का ही असर है कि इन इलाकों में भूजल का स्तर 15 मीटर से गिरकर 65 मीटर या उससे भी नीचे चला गया है। और, ये सब होता है उस गन्ना लॉबी को फायदा पहुंचाने के लिए जिसकी मुख़ालिफत करने वाला फिलहाल तो महाराष्ट्र में कोई नहीं दिखता। सहकारिता के बूते कैसे नेताओं ने अपनी किस्मत चमकाई, इसके लिए बस एक उदाहरण काफी है।

महाराष्ट्र में सहकारिता आंदोलन की अगुआई करने वालों में से प्रमुख रहे हैं विट्ठल राव विखे पाटिल। देश की पहली सहकारी चीनी मिल विट्ठल राव विखे पाटिल ने अहमदनगर जिले में लगाई थी सन 1950 में। इसे एशिया की भी पहली सहकारी चीनी मिल माना जाता है। इस चीनी मिल से अहमदनगर जिले के किसानों को फायदा हुआ ना हुआ हो, विखे पाटिल परिवार अरबपति ज़रूर हो गया। पहले इस चीनी मिले से निकलने वाली खोई के इस्तेमाल के लिए पेपर मिल लगी। फिर चीनी बनाते समय निकलने वाले शीरे से शराब बनाने के लिए डिस्टलरी लगी। बायोगैस प्लांट और केमिकल प्लांट भी खुल गए। 14 साल बाद ही विखे पाटिल परिवार ने चीनी का पैसा पढ़ाई का धंधा जमाने में लगाना शुरू कर दिया और देखते ही देखते डिग्री कॉलेज से लेकर इंजीनियरिंग कॉलेज और मेडिकल कॉलेज तक खोल डाले। जल्दी ही इस परिवार ने एक भारी भरकम अस्पताल और एक सहकारी बैंक भी खोल लिया। हवा का रुख समझना विखे पाटिल परिवार को खूब आता है। विखे पाटिल परिवार के वारिस बाला साहेब को कांग्रेस हारती दिखी तो वह शिवसेना में चले गए और एनडीए की सरकार में 1999 में राज्य मंत्री और फिर 2002 में कैबिनेट मंत्री हो गए। 2004 में बाला साहेब विखे पाटिल फिर कांग्रेस में लौट आए। एक अंग्रेजी अख़बार ने जब ‘सहकारिता’ के ज़रिए अरबपति बने विखे पाटिल परिवार की संपत्ति की खोजबीन की तो महाराष्ट्र की सियासत में हंगामा मच गया। लेकिन लोगों ने ये भी खोज निकाला कि ये परिवार तो बिजली बेचने का भी काम करता है।

अहमदनगर के करीब दो सौ गांवों को बिजली पहुंचाने का काम भी सहकारिता के नाम पर किया गया। पहले एक सोसाइटी बनाई गई, फिर महाराष्ट्र राज्य बिजली बोर्ड से बिजली खरीदी गई। ये सरकारी बिजली बिकी तो खूब लेकिन सरकार को फूटी कौड़ी भी नहीं मिली। सोसाइटी पर बकाया कोई चार सौ करोड़ का हो चुका है लेकिन, मामले को अब अदालती दांव पेंचों में उलझा दिया गया है।

महाराष्ट्र में सहकारिता के नाम पर करोड़ों बनाने का खेल सूबे की सरकार से नूरा कुश्ती करके खेला जाता है। नेताओं ने नियम ऐसे बनवाए कि अफसर चाहे तो भी कुछ नही कर सकता। कोई भी शख्स दस आदमियों को जोड़कर सहकारी समिति बना सकता है। सहकारी समिति को ऋण मिल सके इसके लिए गारंटी देने की ज़िम्मेदारी राज्य सरकार की है। और, ये गारंटी भी आधी आधी नहीं बल्कि 90 और दस फीसदी के अनुपात में होती है, यानी कर्ज़ ना चुकता हुआ तो इसका 90 फीसदी चुकाने की ज़िम्मेदारी राज्य सरकार की है। बस सारा खेल इसी पेंच के ज़रिए चलता आ रहा है और आगे भी इसे कोई रोक पाएगा, कहा नहीं जा सकता। रिजर्व बैंक और नाबार्ड के नियमों के मुताबिक बिना राज्य सरकार की गारंटी के सहकारी समितियों को कैश क्रेडिट नहीं मिल सकता। बीच में महाराष्ट्र सरकार ने इसके लिए सख्ती भी दिखाई, लेकिन आसन्न विधानसभा चुनावों को देखते हुए कांग्रेस और राकांपा दोनों ने सरकारी खज़ाने को खुला छोड़ देने में ही भलाई समझी।

कर्ज़ में डूबी महाराष्ट्र की सहकारी चीनी मिलों की हालत ये है कि 130 में से शायद ही दो दर्जन भी अपने बूते गन्ना किसानों को न्यूनतम समर्थन मूल्य देने की सूरत में न हों। विश्व बैंक ने महाराष्ट्र सरकार के कामकाज पर अक्सर आंखें तरेरी हैं, लेकिन जब दोषी और जज एक ही पाले में हों तो भला सुनने वाला कौन है? महाराष्ट्र सरकार ने बीच में ये नीति बनाई थी कि वो सहकारी चीनी मिलों को आत्मनिर्भर होने के लिए ज़ोर लगाएगी, ताकि वो सरकारी कर्ज चुकता कर सकें, लेकिन अफसोस ऐसा हो न सका। और, विश्व बैंक को भी ये मानना पड़ा कि महाराष्ट्र में सहकारिता आंदोलन अपने उद्देश्य पूरे नहीं कर सका और वहां जनता की कीमत पर चंद लोग फायदा लूट रहे हैं।

लेकिन, ये सूरते हाल शायद अब बदल सकें क्योंकि केंद्र में सरकार भले अपनी हो, लेकिन घर का खर्च चलाने की जिम्मेदारी तो महाराष्ट्र सरकार को ही उठानी होगी। उत्तर प्रदेश में इसकी शुरुआत हो चुकी है और अगर महाराष्ट्र की सहकारी चीनी मिलों के निजी क्षेत्रों में जाने की बात उठी तो ज़ाहिर है मुंबई से लेकर दिल्ली तक कई कुर्सियां एक साथ हिलने लगेंगी। उधर, धीरे धीरे ही सही लेकिन निजी कंपनियों ने भी खेती की महत्ता समझ ली है। खेती किसानी के लिए हर साल बजट में जो प्रोत्साहन राशियां दी जा रही हैं, उनका फायदा लेने के लिए तमाम कॉरपोरेट कंपनियों ने अपने घोड़े दौड़ाने शुरू कर दिए हैं। ये कंपनियां किसानों की ज़मीन पर अनुबंध खेती करवा रही हैं। किसान एक तयशुदा मानकों के हिसाब से फसल उगाता है और कंपनी उसकी सरकारी दाम से ज़्यादा कीमत देकर खरीद कर लेती है।

गोदरेज, टाटा, रिलायंस और भारती जैसी कंपनियों ने कृषि उत्पादों की खरीद फरोख्त का देशव्यापी काम शुरू कर दिया है। पेप्सिको पंजाब में टमाटर, मिर्च, मूंगफली खरीद रही है, आईटीसी ने सब्जी और फल खरीदने शुरू कर दिए। टाटा ने पंजाब और कर्नाटक समेट महाराष्ट्र में भी फूल और सब्जी की अनुबंध खेती शुरू कर ही दी है, पैंटालून भी महाराष्ट्र में किसानों की सहकारी समितियां बनाकर आम का धंधा शुरू कर चुकी है। सहकारी समितियों में चलने वाली गन्ने की सियासत से उकताए छोटे किसानों ने भी अगर गन्ने की खेती छोड़ इन बड़ी कंपनियों का दामन थाम लिया तो चीनी वाकई कड़वी हो सकती है। ऐसा ना होने देने के लिए महाराष्ट्र की चीनी मिलों को पूरा करना होगा अपना घाटा, जिसका इलाज़ भी निजीकरण की कड़वी दवाई में ही नज़र आता है।

(समाप्त)